शनिवार, 30 दिसंबर 2023

उम्र

 


1
चेन नही तो आराम कहाँ ।
सुबह नही तो शाम कहाँ ।
उम्र गुजारी लिखते लिखते ,
हम बिके नही सो नाम कहाँ ।
  .....
स्वयं का शिल्पी स्वयं रहा ।
है कुछ अधूरा ये वहम रहा ।
गढ़ता रहा स्वयं को उम्र सारी,
फिर भी कहीं कुछ कम रहा ।
....
2
याद रखो बचपन को ।
  तुम न देखो दर्पण को ।
  यह झुर्रियाँ उम्र की नही ।
  दे गया है वक़्त जाते जाते ।
.....
3
उम्र ज्यों पकती है,तन तपिश घटती है।
  हाँ इस पड़ाव पर, ठंड तो लगती है ।
   उम्र पकती रही रौनकें घटती रहीं।
   तजुर्बा-ऐ-ताव में हयात तपती रही।
        
हयात (जीवन ज़िंदगी)
...4
  उम्र के इस पड़ाव पर।
  इश्क़ के अलाव पर।
      सिकतीं यादें प्यार की,
      अहसास के कड़ाव पर ।
....5
उम्र जुड़ रही तारीखों में ।
निशां छोड़ रही रुख़सारों पे ।
दर्ज हुए हिसाब निगाहों में ।
छूटे कुछ गुजरी जीवन रहो में ।
...6
उम्र-ऐ-रौनक रुकने नही देती ।
बकाया कोई रखने नही देतीं ।
कर चल हर हिसाब तरीके से ,
गुजरे यह ज़िंदगी सलीके से ।
....7
ज़िंदगी कटती रही अरमां हँसते रहे ।
  उम्र गुजरती रही आराम घटते रहे ।
  हालात बयां क्या करें अब आज के ।
अपने आगाज की सज़ा भुगतते रहे ।
...8
न कुछ ठीक रहा ,सब बिगड़ सा चला ।
हारने भी लगे ,कल जो जीतते ही रहे ।
जहां आए थे सुबह , साँझ लौटना पड़ा ।
सफ़र नही उम्र भर का यह सोचते ही रहे ।
.....9
आई है उम्र लौटकर फिर एक बार ।
कशिश योवन की ज़रा के द्वार ।
अर्थ नही निकला योवन का कोई ,
लौट आए फिर बालपन के द्वार ।
  .... 10
दवा उम्र की दुआ हो जाती है ।
बोतल खाली फ़ना हो जाती है ।
(फ़ना- नष्ट/  लीन होना)
...11
यादों में बिखर जाते हैं ।
  रिश्ते यूँ निखर जाते हैं ।
         कटती उम्र ख़यालों सँग ,
          जो आगोश भर जाते हैं ।
....12
      आये थे जहाँ सुबह ,
       साँझ वहाँ से लौटना ।
       सफ़र न था उम्र भर का ,
       तू न यह जरा सोचना ।
  ...13
उम्र घटती गई और,
कुछ तजुर्बे बढ़ते गए ।
तलाश-ऐ-जिंदगी में ,
जिंदगी से गुजरते गए ।
.... 14
एक उम्र दराज , नजर रखता हूँ ।
दिल जोड़ने का , हुनर रखता हूँ ।
मैं न हाकिम हूँ , न हक़ीम कोई  ,
दिल से दिल का,असर रखता हूँ ।
...15
ता-उम्र का मुझे यूँ ईनाम मिला ।
निगाहों में उसकी बदनाम मिला ।
.....16
ता-उम्र का यूँ ईनाम मिला ।
निगाहों में बदनाम मिला ।
सींचकर अश्क़ शबनम से ,
  कदमों तले मुक़ाम मिला ।
...17
    गुजरते रहे हम हर हालात से ।
    लड़ते रहे वक़्त के मिज़ाज से ।
   दौर-ऐ-उम्र किस को बयां करें ,
   जीत न सके हम अपने आज से ।
     .... विवेक दुबे"निश्चल"@.....
....18
हसरतों के बाजारों में ।
उलफ़्तों के चौराहों में ।
लुटती रही अना ,(गर्व)
उम्र के दोराहों में ।
..19
इश्क़ का कुछ यूँ मसौदा है ।
के यह ताउम्र का सौदा है ।
उसे पा जाने की चाहत में ,
खुद ने खुद को खोजा है ।
...(सूफ़ियाना अंदाज)
...20
यह रूह बिखर जाने दो ।
ये ज़िस्म सँवर जाने दो ।
इन हसरतों की चाहत में ,
एक उम्र गुजर जाने दो ।
...21
देह का आयाम है झुर्रियां ।
उम्र का विश्राम है झुर्रियां ।
गुजरता कारवां है जिंदगी ,
बस एक मुक़ाम है झुर्रियां ।
....22
उलझे सवालों का सुलझा जवाब मांगता है ।
ये वक़्त अक़्सर मुझसे हिसाब मांगता है ।
बहकर आया जो दरिया जिंदगी का दूर से ,
मिल उम्र के समंदर से वो रुआब मांगता है ।
...23
एक उम्र की तलाश सी ।
एक अधूरी सी आस सी ।
गुजरता रहा उम्र कारवां,
साथ लिए हसरत प्यास सी
.....24
यह रूह बिखर जाने दो ।
ये ज़िस्म सँवर जाने दो ।
इन हसरतों की चाहत में ,
एक उम्र गुजर जाने दो ।
..25
एक उम्र तराश तलाशती रही ।
जिंदगी कुछ यूँ ख़ास सी रही ।
कटता रहा सफ़र सहर के वास्ते ,
सँग जुगनुओं के स्याह रात सी रही ।
...26
कुछ यक़ी के परिंदे ।
कुछ ख़ौफ़ के दरिंदे ।
उम्र चली  तन्हा सी ,
ले हालात के चरिंदे ।
..27
वो चराग़ उगलते रहे उजाले  ।
आप को कर अंधेरों के हवाले ।
होती रहीं नाफ़रमानीयाँ उम्र की ,
नुक़्स जिंदगी से न गये निकाले ।
......28
कुछ यूँ सूरत-ऐ-हाल से रहे ।
कुछ उम्र के ही ख़्याल से रहे।
ख़ामोश न थे किनारे दर्या के ,
मगर नज़्र के मलाल से रहे।
......29
एक उम्र ठहर सी रही है ।
ज़िन्दगी निखर सी रही है ।
छुड़ाकर दामन हसरतों का ,
अब चाहतों से डर सी रही है ।
........30
वक़्त सिमटता रहा, हालात फैलते रहे ।
रिश्तों के आँचल में, जज़्बात खेलते रहे ।
करते रहे सफ़र , दूरियों से दूरियों तक ,
नजदीकियाँ उम्र की,निगाहों से ठेलते रहे ।
     ...31
ये जिंदगी कब गुज़र जाती है ।
एक उम्र क्यों समझ नही पाती है ।
टूटते हैं अक़्स काँच के आइनों में,
क़तरा शक़्ल तन्हा नजर आती है ।
....32
ज़िंदगी के कुछ समझौते ।
कुछ समझौतों की ज़िंदगी ।
न पाया ब-ख़ुदा ख़ुदा उसमें ,
मैं करता रहा ताउम्र बंदगी ।
...33
उम्र ज्यों ज्यों मुक़ाम से गुजरती गई ।
तेरे इश्क़ की दीवानगी बढ़ती गई ।
बहता रहा दरिया किनारे छोड़ कर,
चाह आगोश समंदर को भरती गई ।
...34
मुस्कुराते रहे वो एक झूँठ के सहारे ।
और उम्र के मुक़ाम पे न मिले सहारे ।
कर गई गिला जिंदगी ही जिंदगी से ,
चलती रही जिंदगी इस तरह बे-सहारे ।
...36
वो अल्फाज की सियासत ।
ये अहसास की सदाक़त ।(सच्चाई)
चलते रहे साथ उम्र सारी ,
न रही कहीं कोई अदावत ।
...."निश्चल"@...
...37
हर्फ़ हर्फ़ कहानी लिखता गया ।
जिंदगी तुझे दीवानी लिखता गया।
कर न सका इजहार प्यार का तुझसे ,
बस तुझे उम्र निशानी लिखता गया ।
.....38
जिंदगी में सब ख़्वाब-ओ-ख्याल का खेल है
खुशी को मिटाने के लिए मलाल का खेल है ।
कट जाती है जिंदगी अहसास के सहारे से ,
अहसासों की तपिश उम्र जमाल का खेल है ।
..39
ये उम्र जब पलटने लगती है ।
निगाहों से झलकने लगती है ।
होते है तजुर्बों के आईने सामने,
चश्म इरादे चमकने लगती है ।
.....40
साँझ के दामन में एक चाँदनी खिली सी ।
स्याह के सफ़र को यूँ रोशनी मिली सी ।
कटती रही उम्र खामोश मुसलसल यूँ ही ,
रात के किनारों पे फ़र्ज़ जिंदगी ढली सी ।
....41
तलाश को तलाश की तलाश रह गई ।
ज़िंदगी यूँ हसरतों से हताश रह गई ।
सींचता चला मैं अश्को से बागवां ,
गुलशन को फिर भी प्यास रह गई ।
ठहरी न वो मौजे अपने किनारो पे ,
साहिल को मिलने की आस रह गई ।
कट गई उम्र चाहतों की चाह में ,
चाहत-ए-जिंदगी यूँ खास रह गई ।
  बांट कर अपने दामन की खुशियाँ
  ख़ुशी खुद ही उदास रह गई ।
   ...42
हराकर उम्र शौक पाले थे, बड़े शौक से ।
बुझे चिराग़ लड़ न सके,अंधेरों के दौर से।
..43
वो ये जानते है कि हम नादान से है ।
उनकी साजिशों से हम अंजान से है ।
रिवाज़ नही बेहूदगी का मेरी दुनियाँ में,
उस्ताद साजिशों के हम भी ईमान से है।
लगते साजिशों में वो बड़े मुकम्मिल,
इरादे उनके नजर आते शैतान से है ।
करते है बातें वो दिलो में फाँसले की,
न जाने किस बात के उन्हें गुमान से है।
कायम है वो ज़ख्म तीर जुवान के ,
ये लफ़्ज़ लफ़्ज़ दिल में निशान से है ।
आये है तेरे घर में एक उम्र के वास्ते,
अब नही हम यहाँ तेरे मेहमान से है ।
...44
उम्र के मुकाम पर ।
चाह के पयाम पर ।
तय किये है रास्ते ,
मंजिलों के दाम पर ।
तिलिस्म जिस्म में भरा ,
रूह के इकराम पर ।
ढल रही है शाम  ,
भोर के नाम पर ।
ले चली है हसरतें ,
ख़्वाब के खय्याम पर ।
...
इकराम--दान
खय्याम ---तम्बू
..45
दूर कितना रहा , ज़माने में ।
कर सफ़र मैं तन्हा,वीराने में ।
छूटता सा चला कहीं मैं ही ,
यूँ नया सा शहर ,बसाने में ।
ढूँढ़ती है नज़र निशां कोई ,
क्यूँ मुक़ा तक ,चलके आने में ।
खोजता ही रहा कमी गोई ,
नुक़्स मिलता नही ,फ़साने में ।
रोकता चाह राह के वास्ते ,
चाँद भी हिज़्र तले,ढल जाने में ।
जूझती है युं रूह उम्र सारी ,
जिंदगी के रिश्ते निभाने में ।
राज़ है वक़्त में छुपा कोई   आज"निश्चल"मुझे,बनाने में ।
....46
वो अंजान सा बचपन ।
वो नादान सा बचपन ।
उम्र के कच्चे मकां में ,
वो मेहमान सा बचपन ।
इस ज़िंदगी के सफ़र में ,
एक पहचान सा बचपन ।
खोजता ख़ुद को ख़यालों में ,
  रहा अहसान सा बचपन ।
...47
मेरे होने की , कहानी लिख दूँ ।
फिर कोई अपनी, निशानी लिख दूँ ।
  खो गए हालात ,  जिन हाथों से ,
उन हाथों की, जख्म सुहानी लिख दूँ ।
न हो चैन मयस्सर, जिस जिस्म रूह को ,
कशिश उस रूह की,  रूहानी लिख दूँ ।
गुजरता गया दिन , शोहरतों में ,
रात की फिर , वीरानी लिख दूँ ।
बदलती रही रंग , मौसम की तरह ,
ये जिंदगी , फिर भी दीवानी लिख दूँ।
  सिमेटकर कुछ , हंसी खयालों को  ,
उनवान नया ,नज़्म पुरानी लिख दूँ ।
ले आया यहां, सफर उम्र का चलते चलते ,
"निश्चल"पड़ाव पे, उम्र की नादानी लिख दूँ ।
...48
ये फूल गुलाब से ।
नर्म सुर्ख रुआब से ।
नादानियाँ निग़ाहों की ,
नजर आतीं नक़ाब से ।
कशमकश एक उम्र की ,
उम्र पे पड़े पड़ाव से ।
गुजरते रहे वाबस्ता ,
राहों के दोहराव से ।
थमता दर्या हसरत का ,
"निश्चल" बहता ठहराब से ।
..49
122×4
मिरी याद में जो रवानी मिलेगी।
  उसी आह को वो कहानी मिलेगी ।
मिली रूह जो ख़ाक के उन बुतों से ,
जिंदगी जिस्मों को दिवानी मिलेगी ।
मुझे भी मिला है जिक्र का सिला यूँ ,
नज़्मों में मिरि भी कहानी मिलेगी ।
  जहाँ राह राही मुसलसल चलेगा ,
  जमीं पे कही तो निशानी मिलेगी ।
  बहेगा तु हालात के दर्या में ही ,
   नही मौज सारी सुहानी मिलेगी ।
  सजाता रहा मैं जिसे ख़्वाब में ही ,
   उम्र वो किताबे पुरानी मिलेगी ।
   कहेगा जिसे तू निगाहे जुबानी,
  "निश्चल" वो नज़्र भी सयानी मिलेगी ।
...50
जिंदगी तलाश सी रह गई ।
उम्र यूँ हताश सी रह गई ।
न हो सके तर लब  तमन्नाओं से,
एक अधूरी प्यास सी रह गई ।
खोजता चला दर-ब-दर ,
ठोकर ही पास सी रह गई ।
सींचता चला गुलशन-ए-जिंदगी ,
खुशबू-ए-चमन आश सी राह गई ।
लपेट कर चंद अरमान की चादर ,
चाहत-ए-हयात ख़ास सी रह गई ।
...51
सँभाले से सँभलते नहीं हैं हालात कुछ ।
बदलते से रहे रात हसीं ख़्यालात कुछ ।
होता गया बयां ,हाल सूरत-ऐ-हाल से ,
होते रहे उज़ागर, उम्र के असरात कुछ ।
बह गया दर्या ,  वक़्त का ही वक़्त से ,
करते रहे किनारे, ज़ज्ब मुलाक़ात कुछ ।
थम गया दरियाब भी, चलते चलते ,
ज़ज्ब कर , उम्र के मसलात कुछ ।
"निश्चल" रह गये ख़ामोश, जो किनारे ,
झरते रहे निग़ाहों से ,  मलालात कुछ ।
.... 52
वो दिन भी कितने खुदी के थे ।
जब थोड़े से हम खुद ही के थे ।

होती मुलाक़त अक़्सर खुद से ,
लम्हे लम्हे ज़ज्बात ख़ुशी के थे ।

मुस्कुरातीं थी वो तनहाइयाँ भी ,
जो थोड़े से हम हुए दुखी से थे ।

खोये थे आप ही आप में हम ,
तब रंज नही कहीं रजंगी के थे ।

परवाह नही थी कल की कोई ,
बे- फिक्र हम जो जिंदगी से थे ।

उठते थे हाथ चाहत बगैर के ,
कुछ यूँ आलम बन्दगी के थे ।

अरमां न कोई पहचान के वास्ते
फाकें भी वो उम्र सादगी के थे ।

  थी नही शान अहसान की कोई
"निश्चल"दिन नही तब तजंगी के थे ।
...53
गढ़ता रहा क़सीदे अपनी ही शान में ।
एक मेहमान जो रहा इस जहान में ।
एक तआरुफ़ वो हिसाब से देता रहा ,
चैन खोया रहा अपनी ही पहचान में ।
एक गुजरता कारवां मैं, उम्र सा रहा ,
वक़्त सा सिमटता रहा अरमान में ।
एक टूटती सी हसरत जोड़ता रहा ,
हालात से निपटता रहा अहसान में ।
एक हाल-ए-ज़ज्ब ज़ज्बात सा रहा ,
ज़िस्म रूह से लिपटता रहा इंसान में ।
एक सवाल कुछ मेरे उसूलों का रहा ।
यूँ क़ायम रहा मैं "निश्चल" ईमान में ।
.... 54
जिंदगी जिंदा निशानों सी ।
रही उम्र की पहचानों सी ।
गुजरती रही हर हाल में ,
कायम रहे अरमानों सी ।
खोजती निग़ाह नज्र को ,
कुछ अपने ही गुमानों सी ।
चली मुख़्तसर सफर पर ,
यक़ी खोजती इमानों सी ।
मिली फ़िक़्र के वास्ते यूँ ,
ज़िस्म मकां मेहमानों सी ।
जूझती हरदम हालात से ,
रही जंग के मैदानों सी ।
अल्फ़ाज़ लिखे मुसलसल ,
"निश्चल" कलम दीवानों सी ।
.... मुख़्तसर/ संक्षिप्त /अल्प
..55
एक उम्र गुजरती है ,
पलकों की पोर से ।

ज़ज्बात पिरोती है ,
अश्कों की डोर से ।

साँझ तले टूटते ख़्वाब है,
साथ चले थे जो भोर से ।

तिलिस्म सा ही रहा है ,
खींचता कोई छोर से ।

नाकाफी रहा साज-ए-नज़्म,
"निश्चल" चला दूर शोर से ।
..56
बहुत कुछ कहा ,कुछ कह गया ।
हर्फ़ हर्फ़ किताबों से, बह गया ।

पलटता रहा सफ़े जिंदगी के ,
हर हुनर निग़ाहों में रह गया ।

देखता रहा मासूमियत चेहरा ,
और उनवान उम्र ढह गया ।(भूमिका)

लाया ना कोई सच जुबां पर ,
हर ज़ुल्म इंसाफ़ सह गया ।

   कर ना सकी बयां जुबां जिसे ,
"निश्चल" वो जज्बात हर्फ़ कह गया ।
.... 57
सराहते हम रहे ।
                   बिसारते हम रहे ।

खींच कर निग़ाहों से ,
          अक़्स से उभारते हम रहे ।

ये होंसलें तजुर्बों के ,
             उम्र से संवारते हम रहे ।

टूटते सितारे फ़लक से,
              जमीं को बुहारते हम रहे ।

ख़ाक होते रहे हवा में ,
              नज्र से निहारते हम रहे ।
..58
उम्र के निशां छोड़ती ज़िंदगी।
खूँ में मिठास घोलती ज़िंदगी।

    गुजर कर एक कारवां से ,
    कारवां नया खोजती ज़िंदगी ।

मैं चलता रहा साथ हालात के ,
वक़्त के राज बोलती ज़िंदगी ।

      मैं चल न सका मुताविक सबके ,
      कदम कदम मुझे तोलती ज़िंदगी ।

बिखरे क़तरे बे-वफ़ा शबनम के ,
निगाहें मेरी वफ़ा खोजती ज़िंदगी ।

       "निश्चल" बिखरा ख़ाक के मानिन्द
        मेरे वुजूद में अना खोजती ज़िंदगी।
... ...* अना- मैं अहम
..59
332
कुछ तकाजे उम्र के ।
   कुछ इरादे उम्र के ।
        कुछ वादे ता-उम्र के ।
        कुछ वे-वादे न-उम्र के ।
कुछ सफ़े अधूरे  ,
किताब-ऐ-ज़िल्द के ।
      जुड़े कुछ शेर गलत ,
     काफ़िया-ऐ-ग़जल के ।
न हो रास्ता बदल ,
चला चल साथ चल ।
         मुसाफ़िर हम सभी ,
            एक ही मंज़िल के ।
.... 60
330
डरता हूँ कभी कभी डर जाता हूँ मैं ,
दर्पण में अपने बिंबित प्रतिबिंब से ।

चकित होता हूँ हाँ चकित होता मैं ,
बढ़ती उम्र के उभरते हर चिन्ह से ।

सोचता फिर अगले ही पल मैं ,
परिवर्तन ही प्रकृति का नियम ,
लागू होता है यह मुझ पर भी ।

लड़ न सका कोई प्रकृति से ।

समेट लेती वापस धीरे धीरे ,
गर्भ में अपने अपनी गति से ।

उदय और अस्त दिन और रात ,
यह भी तो चलते इसी गति से ।

अस्त हो उदय होना मुझे भी ,
नियति की इस सतत गति से ।

प्रकृति भी चलती प्रकृति से ।

हटा दर्पण सामने से  ,
चल पड़ता वर्तमान में ,
   मैं अपनी गति से ।
.... 61
  रिंद चला मय की ख़ातिर ,
  साक़ी के मयखाने में ।

  हार चला वो ज़ीवन को ,
  ज़ीवन पा जाने में ।

   रूठे है तारे क्यों ,
   चँदा के छा जाने में।

   भोर तले शबनम जलती,
   सूरज के आ जाने में ।

   उम्र थकी चलते चलते ,
   यौवन के ढल जाने में ।

    उम्र निशां मिलते ,
  चेहरों के खिल जाने में ।

जीव चला ज़ीवन की खातिर,
  ज़ीवन को पा जाने में ।

   रिंद चला मय की ख़ातिर ।
....62
देता रहा जो छाँव उम्र  सारी ।
सहता रहा जो धूप खुद सारी ।

वो अपनी साँझ के झुरमुट में सुस्ता रहा है ।
वो देखो फिर भी कितना मुस्कुरा रहा है ।

बांटकर जीवन जीवन थमता जा रहा है ।
नियति के आँचल में प्यासा ही जा रहा है ।

पीकर दर्द के आँसू पिता मुस्कुरा रहा है ।
आज फिर समय समय को दोहरा रहा है ।
... 63
   --पढ़ना लिखना छोड़ा मैंने---
___________________________
हाँ पढ़ना लिखना छोड़ दिया मैंने
पढ़ें लिखों को पीछे छोड़ दिया मैंने
बहुत पढ़ा था मेरा भाई,
बहना ने भी की खूब पढ़ाई ।
बाबा ने सारी पूंजी लुटाई
धूल खा रही डिग्रियां सारी,
न पाया कोई पद सरकारी  ।
मजदूरी करे कैसे,
डिग्रियां आड़े आये रोड़े जेसे ।
बहना भी भटकी इधर उधर ,
नही मिला कोई पद पर ।
बेटी की उम्र हो रही ,
माँ बीमार पड़ी सोच सोच कर ।
सो बिन सोचे समझे ब्याह रचाया,
बहना के चौका चूल्हा हिस्से आया ।
तब ठाना मैंने मुझे कुछ कर जाना है अपना घर परिवार बचाना है ।
सीख लिए तब मैंने दाव राजनीति के ।
  पढ़े लिखों को एक झटके में पीछे छोड़ा ।
बाबा भाई बहन को सिक्कों से तौला मैंने ।
  बस एक प्रण लिया है मैंने
बच्चों को भी तैयार करूँगा ,
राजनीति का हरफ़नमौला ।
         ..64
उम्र चली अब थकने ,
                नब्ज़ लगी अब बिकने।
नजरों ने हाट लगाई ,
                 राह लगी अब तकने ।
   
  मंजिल से पहले ,
            साँझ नजर आई ।
    कदम लगे अब ,
             चलते चलते रुकने ।

    सोचूँ अब क्या सोचूँ ,
              क्या खोया क्या पाया ।
     स्वप्न नही आते अब ,
              नींद तले बिकने ।

    उठ जाग मुसाफ़िर देर भई,
     भोर तले अब पल हैं कितने।

       उम्र चली है अब ...
.. 65

भाग्य

 



जिसने भी जो बोया बस वो ही काटा है ।

भाग्य कहाँ कब किसने किससे बाँटा है ।

..."निश्चल"@...

भाग्य भाग्य से ही हारा है ।

मिलता नही कहीं सहारा है ।

घुटतीं है अब अभिलाषाएं  ,

आशाओं का नही किनारा है ।

..."निश्चल"@...


भाग्य से आगे चल सकते नही ।

किस्मत को बदल सकते नही ।

लिख दिया रेखाओं में जो उसने ,

उससे कभी निकल सकते नही ।

.....विवेक दुबे"निश्चल"@....


आस की प्यास भी जरूरी है ।

इतना अहसास भी जरूरी है ।

आकांक्षाओं का घट भरने को ,

भाग्य का पास भी जरूरी है ।

.....विवेक दुबे"निश्चल"@..


एक यही भाग्य का टोटा है ।

शब्दों ने शब्दों को रोका है ।

लिखता मन हर धड़कन को ।

अश्कों को पलकों ने सोखा है ।

.....विवेक दुबे"निश्चल"@....


 सब है पर क्यों कुछ नही  ।

 भाग्य पर क्यों बस नही ।

 चलता रोशनी की छाँव में

 पर साँझ ढले मुकाम नही  ।

...."निश्चल"@..


चलते रहो शायद यही भाग्य होता है ।

  मन में बस एक विश्वास होता है ।

 करती फैसले कुदरत अपने तरीके से ,

 और कुछ नहीं हमारे हाथ होता है ।

   ......"निश्चल"@..


चलते रहो शायद यही भाग्य हो ।

  मन में एक यही विश्वास हो।

 फैसला करे कुदरत अपने तरीके से ,

  तब सब कुछ हमारे हाथ हो।

..."निश्चल"@..


 बस कर्म ही हमारा साथ है ।

 भाग्य तो विधाता के हाथ है ।

खोया सुख चैन और कि चाह में  ,

जो प्राप्त है वो भी अपर्याप्त है ।

..."निश्चल"@..


आज मन विकल ,

 व्याकुल हर पल ।


 नही रहेगा कल ,

 हो जायेगा सहज सरल ।


 खो जायेंगे सब,

 अपने कामों में ।


 वक़्त कहा किस पर ,

 उलझे भूली बिसरी बातों में ।


  सोचेंगे न सकुचायेंगे ।

  नाम भाग्य का देकर ।


  जीवन की हर ,

    पहेली सुलझाएंगे ।

   ....विवेक दुबे"निश्चल"@....


सच क्या ? 

 जो सामने आये ।

झूठ क्या ?

 जो पकड़ा जाये ।

 डर क्या ? 

 जो भाग जाये ।

 निडर क्या ? 

 जो टकरा जाये ।

 भाग्य क्या ?

 जो बदल न पाये ।

 दुर्भाग्य क्या ? 

 जो बदल जाये ।

....विवेक दुबे"निश्चल"@......

Blog post 28/12/23














 

कुछ तस्वीरे

       
              
























      











      







       

































































































































 

कलम चलती है शब्द जागते हैं।

सम्मान पत्र

  मान मिला सम्मान मिला।  अपनो में स्थान मिला ।  खिली कलम कमल सी,  शब्दों को स्वाभिमान मिला। मेरी यूँ आदतें आदत बनती गई ।  शब्द जागते...