रविवार, 21 जून 2015

नेहदूत पिता


मनचाहा बरदान मांग लो ।
अनचाहा अभय दान माँग लो ।।
उसके होंठो की मुस्कान माँग लो ।
जीवन का संग्राम माँग लो ।।
सारा पौरुष श्रृंगार माँग लो ।
साँसों से प्राण माँग लो ।।
बस हँसते हँसते हाँ ।
कभी न निकले ना ।।
कुछ ऐसा होता है पिता ,
क्या हम हो सकेंगे कभी कहि ,
अपने इस ईस्वर के आस पास ,,
तब शायद पिता को समझ सकें कुछ हम भी ,,,
...विवेक.....

कलम चलती है शब्द जागते हैं।

सम्मान पत्र

  मान मिला सम्मान मिला।  अपनो में स्थान मिला ।  खिली कलम कमल सी,  शब्दों को स्वाभिमान मिला। मेरी यूँ आदतें आदत बनती गई ।  शब्द जागते...