शनिवार, 23 जून 2018

बदलते रहे

वक़्त बदलते रहे अहसास के ।
ज़िस्म चलते रहे संग सांस के ।

थमती रहीं निगाहें  बार बार ,
 कोरों में अपनी अश्क़ लाद के ।

 रूठे रहे किनारे भी अक्सर,
 दरिया भी जिनके साथ के ।

 वो क़तरा न था शबनम का ,
 वो थे अश्क़ किसी आँख के ।

 लो खो रही सुबह फिर ,
 साथ अपनी साँझ के ।

 "निश्चल" संग सा था वो तो ,
 बरसे अश्क़ क्युं जज़्बात के ।

 .... विवेक दुबे"निश्चल"@...

हार नही मानूँगा

जीवन संग्रामों से हार नही मानूँगा ।
दुर्गम राहों पर विश्राम नही मागूँगा ।

चलता हूँ अथक निरन्तर पथ पर ,
 ज़ीवन पथ से मुक़ाम नही मागूँगा ।

 हार रहीं है प्रति पल अभिलाषाएं ,
 आशाओं से प्रमाण नही मागूँगा ।

   मैं ज़ीवन को जीने की खातिर ,
 ज़ीवन को अभिमान नही मानूँगा ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@.

निगाहें हमे झुकानी है


निगाहें हमे अब झुकानी है ।
हया इस जहां की निशानी है ।

 करते थे जो बातें हालात की ।
 निग़ाहें अब उनकी पुरानी है  ।

  हसरत न रही अब कुछ भी ,
 शराफत-ऐ-सियासत निशानी है ।

 जहाँ कत्ल हुआ ईमान भी ,
 यहाँ मौत भी अब सयानी है ।

  उसे याद ही नही कुछ भी ,
  उसे याद फिर दिलानी है ।

  डूबता दरिया अपने ही आप से ,
 समंदर ही जिसकी निशानी है । 

  .... विवेक दुबे"निश्चल"@...

एक आशा

 एक आशा जीवन की ।
 अभिलाषा इस मन की ।
 तलाश रही डगर डगर ,
 राह कठिन जीवन की ।
...  
  वो प्यास प्यास ही रही ।
  एक अधूरी आस ही रही ।
  साहिल न था दरिया का ,
 लहरों को तलाश ही रही ।
....
डूबता रहा साँझ के मंजर सा ।
सफ़र जिंदगी रहा समंदर सा । 
.... विवेक दुबे@"निश्चल"..

चाहत


एक इतनी सी दिल की चाहत है ।
निगाहों को निगाहों की आहट है ।

 होंसले टूटते नही समंदर के ,
साहिल को भिंगोने की आदत है ।

तर होती जमीं शबनम से ,
चाँद की कैसी शरारत है ।

हो मंजिल निग़ाह में सामने ,
 रास्ते नही फिर रुकावट है ।

करता सज़दा फ़र्ज़ जान कर ,
मंजूरियत ख़ुदा की चाहत है ।

है नियत बस इतनी सी ,
के नही कोई बदनीयत है ।

नही कोई और दौलत मेरी ,
मेरी बस एक यही दौलत है ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@

एकाकी चलता

वो आता उषा के संग ,
 किरण आसरा पाता ।
 संध्या के संग हर दिन ,
 दिनकर क्यों छुप जाता ।

 तजकर पहर पहर सबको ,
 वो एकाकी चलता जाता ।
 हर प्रभात का दिनकर ,
 संध्या दामन ढल जाता ।
 .... विवेक दुबे"निश्चल"@...

बुधवार, 20 जून 2018

मुक्तक आदमी 436



स्वयं को सँवारता आदमी ।
अन्य को बिसारता आदमी ।
 थोथले दम्भ के बल पर ,
 स्वयं को उभारता आदमी ।

 आदमी को यूँ मारता आदमी ।
 आदमी से यूँ कट रहा आदमी ।
 आज आदमियत की राह से ,
 आदमी से यूँ भटक रहा आदमी ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@..

सोमवार, 18 जून 2018

मुक्तक 435/437

434
 उलझने उलझती गई ।
 हसरते सुलझती गई ।
 जिंदगी रह गई ख़्वाब सी ,
 और ज़िंदगी गुजरती गई ।
.... 
435

:क्या लिखूँ क्या छोड़ दूँ मैं ।
जिंदगी को कहाँ मोड़ दूँ मैं ।
 गुजर जाता है हर मुक़ाम ,
 जज़्बों को जो  होड़ दूँ मैं।
.... 


437
आज फिर मैं कोई ग़जल कह दूँ ।
आज फिर दिल-ऐ-दखल कह दूँ ।
 निग़ाह अश्क़ गिरते क़तरे को ,
 आज फिर पूरा समंदर कह दूँ ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@...

झड़ता रहा पत्तों सा

झड़ता रहा पत्तो सा ।
चलता रहा रस्तों सा ।

 मिला नही कोई ठिकाना ,
  अंजाम रहा किस्तों सा ।

 वो टपका बून्द की मांनिद ,
 अंजाम हुआ अश्कों सा ।

  सहकर तंज दुनियाँ के ,
  रह गया   दरख्तों सा  ।

  जीतकर जंग दुनियाँ की ,
  उलझता गया  रिश्तों सा ।

 आजमाइशों की जकड़ से,
 कसता रहा मुश्कों सा ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@...

रविवार, 17 जून 2018

पिता

देता रहा जो छाँव उम्र  सारी ।
सहता रहा जो धूप खुद सारी ।

वो अपनी साँझ के झुरमुट में सुस्ता रहा है ।
फिर भी वो देखो कितना मुस्कुरा रहा है ।

बांटकर जीवन जीवन थमता जा रहा है ।
नियति के आँचल में प्यासा ही जा रहा है ।

पीकर दर्द के आँसू पिता मुस्कुरा रहा है ।
आज फिर समय समय को दोहरा रहा है ।
... विवेक दुबे"निश्चल"@...
Blog post 17/6/18

कलम चलती है शब्द जागते हैं।

सम्मान पत्र

  मान मिला सम्मान मिला।  अपनो में स्थान मिला ।  खिली कलम कमल सी,  शब्दों को स्वाभिमान मिला। मेरी यूँ आदतें आदत बनती गई ।  शब्द जागते...