शनिवार, 11 नवंबर 2017

संकलन 4


स्वप्न सलोने कुछ जागे कुछ सोए से ,
 यादों के बदल में खोए खोए से ।
 मोती लुढ़के आँखों के पलकों से ,
 कुछ हँसते से कुछ रोए रोए से ।
 जीत लिया सब जिसकी खातिर ,
 उसकी ख़ातिर हार पिरोए से ।
  सँग सबेरे फिर उठ चलना होगा ,
 रात अंधेरी आँखे भर जो रोए रोए से ।
 ....
 हर रिश्ते की एक अजब कहानी है।
 हर रिश्ते की एक प्रेम कहानी है ।
 छुपा हुआ जहां स्वार्थ भाव सभी में,
 निःस्वार्थ बस *बहन भाई* कहानी है ।
   .....
    विरोधाभास ही तो शेष है ।
   अब बचा नही कुछ विशेष है।
 अच्छे दिन की आस में ,
 तड़फता सारा आज देश है ।
  ....
 वो यूँ बरसात कर गए।
रंग नही बेरंग कर गए ।
 धरे थे जो सहज कर ,
 सारे के सारे झड़ गए ।
  ..
  ज्यो का त्यों क्यो नही रखते लोग इतिहास।
 क्यो बदल लिखते हैं लोग इतिहास खास ।
 ...
 लकीरें मुक्कदर की बदलती नहीं।
फिर भी लोग तक़दीर गड़ा करते हैं ।
 ....
सिमट रही अब कला काव्य की ,विषय नही व्यापक कोई । 
डूबे सब अपने आप में, देश समाज सुध नही पावत कोई ।
 ..
 जिंदगी को तरसते सब
 वफ़ा को तड़फते सब 
  चहरे छिपाए सब अपने 
  नक़ाब में घूमते आज सब
 ...
  निश्चल एक आस है ।
   आस ही प्रभात है ।
           चलते रहें यूँ ही हम,
            जीवन एक प्रयास है ।
 ... 
  उसकी वेदना बड़ी भारी थी ।
   जिसकी भूख एक लाचारी थी ।
   बीनता था जूठन वो बचपन , 
   और निगाहें उसकी आभारी थीं ।

 आये थे जहाँ साँझ को,
 है वहाँ से अब लौटना ।
 सफ़र न था उम्र भर का ,
   तू न जरा यह सोचना ।
  ....
 जो हिस्सा है इतिहास का । 
नही था वो कल आज सा ।
 साधना थी वो शब्दों की,
 नही था वो प्रयास आज सा । 

.....
अर्चन बंदन वो गठबंधन शब्दों में।
 प्रणय मिलन वो शब्दों का शब्दों में ।

 भावों के धूंघट में  नव दुल्हन से ,
  हर काव्य रचा एक नव चिंतन में ।

शब्द बिके अब सत्ता के गलियारों से ।
 कैसे ढूँढे अब सूरज को उजियारों में ।

कलम दरवान बनी दरवारों की ,
 चलती है सिक्कों की टंकारों में ,


 हिस्से हैं जो जगते इतिहासों के ,
  मिलें नही अब सोती साँसों में ।

  सिद्ध साधना वो आवाज़ों की ,
  सुफल नही अब प्रयासों में ।

    शब्द बिके अब सत्ता के गलियारों में ।
    कैसे ढूँढे अब सूरज को उजियारों में ।
   -----       ----     ----


 .......निश्चल" विवेक दुबे.....©

संकलन 3


भूख की पीड़ा

1-
   वेदना उसकी बड़ी भारी थी ।
   भूख जिसकी एक लाचारी थी ।
   बीनता था जूठन वो बचपन , 
   और निगाहें उसकी आभारी थीं ।

2-
 भूख दौलत की बढ़ती गई,भूख रोटी की घटती गई ।
 रोटी की फ़िक्र में जो ,कमाने निकला था कभी ।।
3
भूख रहे अधरन पे ,प्यास रहे मन मे ।
 कलम कहे सब कुछ,बहुत कम शब्दन में ।।
  

 कलम चली है बस कुछ ही शब्दों पर ,
लेखन को शब्दों में न बाँध सके कोई ।
 कलम पीड़ा भूखी सदा शब्दों है की ,
  शब्दों से पार पा सके न कभी कोई ।

5
भूख नही तो जग न होता ।
 तब कोई रिश्ता न होता ।
 हर रिश्ता जन्मा पीड़ा से,
 पीड़ा से मन भूखा होता ।

 6
 भूख नही तो पीड़ा कैसी ।
  हर रिश्ता हर दौलत कैसी ।
   जगती है भूख जब मन मे,
  तब रुकने की चाहत कैसी ।

7
 चलता है तू *निश्चल* भाव से,
 फिर मन यह पीड़ा है कैसे।
  भूख जो न होती शब्दों की ,
 फिर यह कलम उठती कैसे ।
  
   खोया अपने आप में 
 उलझा कुछ हालात में 
 मिज़ाज़ कुछ नरम गरम
 खोजता मर्ज-ऐ-इलाज़ मैं 
  .

 ठीक नही अब कुछ
 बिगड़ चला अब कुछ 
 जीता था लड़कर जो
 थक हार चला अब कुछ 
  ...

 लिखता था जो हालात को ।
 कहता था जो ज़ज्बात को।
 बदलता गया समय सँग सब ,
 बदल उसने भी अपने आप को ।
 .....

 मन विश्वास हो स्नेहिल *आस* हो ।
 तपती रेत भी शीतल आभास हो ।
 जीत लें कदम दुनियाँ को तब,
 हृदय मन्दिर प्रभु कृपा प्रसाद हो  ।
 ....

कोई किसी से नही कमतर है ।
  हर शाख पे एक कबूतर है । 
 खोया अपने मस्त ख़यालों में,
  बन्द आँखे करता गुटर गुटर है ।
  .....

 साहिल को ही सागर हाँसिल है ।
 जो सहता सागर की हलचल है ।
.... 

 जिंदगी मिली जरा जरा ।
 जी  लें हम जरा जरा ।
 बाँट लें ग़म जरा जरा।
 बाँट दें ख़ुशी जरा जरा ।

 .... "निश्चल" विवेक दुबे....©

संकलन 2



  सिकतीं यादें प्यार की,
  अहसास के कड़ाव पर ।
  .... 
तू ही निर्मल ,
                    तू ही पवन ,
  तू ही गंगाजल ,
                 ऐसा माता तेरा आँचल।
 तेरे वक्षों से जो अमृत बहे,
            दुनियाँ उसको सौगन्ध कहे ।
 तेरे पावन स्नेह स्पर्श से,
                  त्रिदेव भी अभिभूत भए ।
 मेरी अँखियाँ तेरी अँखियाँ,
                 मेरी निंदिया तेरी निंदिया ।
  सुध-बुध खोती मेरी खातिर,
                        मेरे कष्टों से न दूर रहे ।
  जगत विधाता भी बस ,
                      माँ को ही सम्पूर्ण कहें ।
     .....
आशा के सागर से दो बूंद चुरा लाओ ।
 आओ तुम भी साहिल पर आ जाओ ।
  ...
इस धनतेरस कुछ खास करें।
बुद्धि अन्तर्मन बर्तन साफ़ करें ।

 ज्ञान रूप धन भर कर,
 लक्ष्मी का आह्वान करें ।

 भुला राग, द्वेष ,बैर, सभी ,
 प्रेम, शान्ति का श्रृंगार करें ।

 हृदय चैतन्य दीप जलाकर,
 सम्पूर्ण विश्व दिव्य ज्योत बनें ।
    ...... 
  *मंगलम सुमङ्गल धनाध्यक्ष कुबेरं ।*
  *आगमन स्वागतं धनाध्यक्ष कुबेरं ।।*
            .... 
 कुछ बातें बंद लिफाफों सी।
 कुछ अनसुलझे वादों सी।
  उलट पलट कर देखा पर ,
 तारों सँग अंधियारी रातों सी ।
 ..... 
 अंधेरों ने अंधेरों को यूँ लुभाया है ।
 उजालों को भी अंधेरा भाया है। 
 जल कर दीपक ने रात भर , 
नीचे अपने अँधेरा छुपाया है ।
  ....
 भाव खो गए भाबों में।
 वादे भूले सब यादों में ।
 हर रिश्ता तो     अब ,
 बिकता है बाज़ारों में। 

     चकाचोंध की इस दुनियाँ में ।
 होता है सब कुछ अँधियारों में ।
  सूरज भी अब तो अक़्सर, 
  सोता है तमस के गलियारों में ।
 ...
 जबसे मैं मशहूर हुआ ।
 अपनो से मैं दूर हुआ ।
  पीकर प्याला शोहरत का,
   मैं बहुत मायूस हुआ ।
  ...
 *मंगलम सु-मंगलम* 

 *अंधकार निवारणं दीप प्रकाशकम ।*
 *वंदे श्रीहरि श्रीनिधि फल प्रदायनम ।।*

अबकी दीवाली कुछ ऐसे दीप सजाऊंगा ।
 यादों की बाती रख यादो के दीप जलाऊंगा । 
 होंगे उजियारे मध्यम मध्यम तिमिर संग ,
 हो प्रकशित मन तिमिर दूर भगाऊंगा ।




 तेल भरूंगा नव सम्भावनाओं का मैं ।
मन उज्वल नवल प्रकाश जगाऊंगा ।
  खोजूंगा फिर गहन अनन्त आकाश मैं ।
 अबकी दीवाली कुछ ऐसे दीप जलाऊंगा ।
  .... 
 कुछ शुभ कामनाएँ मेरी हों ।
कुछ शुभ कामनाएँ तेरी हों ।
 जगमग हों राहें जीवन पथ की,
 फिर रात भले ही अँधेरी हो।
   .....
 दूर कर प्रकाश से अंधकार को ।
 जीत साहस से अत्याचार को । 
 न हार कभी अपने विश्वास को ।
 जीत ले फिर समूचे आकाश को ।
  ....
कुछ ऐसे नए दीप जलाएँ।
आशाओ के उजियारे आएँ ।
दीप भले ही कल बुझ जाएँ।
आशायें जगमग होती जाएँ ।
 रंगोली कुछ यूँ सज जाएँ।
सदभाव के रंग भर जाएँ ।

....  सु-मङ्गलम् दीपावली ....

 दीवाली की रात निराली ।
 उजियारों से निशा हारी ।
          उजियारों की खातिर ,
         दिये सँग जलती बाती ।
     ..... 
 जलता रहा मैं औरों की ख़ातिर ।
 में अपने नीचे अँधेरा समेटे हुए ।
  
बुझाकर चराग दिल के मैंने।
 जलाए ज़ख्म दिल के मैंने।
   
जलता रहा मैं औरों की ख़ातिर ।
 में अपने नीचे अँधेरा समेटे हुए ।
  
मिटकर खुद तिमिर हरे अंधेरों का ।
 सूरज वही है नव प्रभात सबरों का ।
   ...."निश्चल" विवेक दुबे....

संकलन 1


   *ॐ* हृदय रखिए ,
 *ॐ* करे शुभ काज ।
 *ॐ* श्रीगणेश है,
 *ॐ* शिव सरकार ।
  .....

 नैतिकता पढ़ी कभी किताबों में ।
  नैतिकता मिलती नही बाज़ारों में ।
  सुनते आए किस्से बड़े सयानों से,
  यह मिलती घर आँगन चौवरो में ।
  ...... 
 बून्द चली मिलने सागर तन से ।
 बरस उठी बदली बन गगन से ।
 क्षितरी बार बार बिन साजन के ।
 बहती चली फिर नदिया बन के ।
 एक दिन *बून्द प्यार की* जा पहुँची ,
 मिलने साजन सागर के तन से ।
....... 
 तन्हा वक़्त छीन रहा बहुत कुछ ।
 हँसी लेकर वक़्त दे रहा सब कुछ ।

  .....
 वो लालसा बड़ी न्यारी जागी थी ।
 सौंपी अपने घर की चाबी थी ।
 लालच में आकर हमने जिसको ।
 उसने ही की चोरों की सरदारी थी ।
  ....
जीवन रेखा रेल भी हारी है ।
 यह जाने कैसी लाचारी है ।
 हो रही बे-पटरी बेचारी है ।
 राजशाही व्यवस्था पर भारी है । 

...... *जीवन संगनी*  ....

   रागनी तू अनुगामनी तू।
   राग तू अनुरागनी तू ।
               चारणी तू सहचारणी तू।
               शुभ तू शुभगामनी तू।
  नैया तू पतवार तू ।
  सागर तू किनार तू ।
                    प्रणय प्रेम फुहार तू ।
                    प्रकृति सा आधार तू ।              
 प्रीत का प्रसाद तू ।
 सुखद सा प्रकाश तू ।     
               खुशियों का आकाश तू।
              *"विवेक"* का विश्वास तू ।
  
 एक आस है उस चाँद की तलाश है ।
 एक प्यास है यह चाँद ही अहसास है ।
        ....
 वो इठलाता है आसमां पे ।
 एक चाँद है जो आसमां पे ।
 उतरता नहीं कभी जमीं पे ।
  शर्माता है क्यों सुबह से ।
  ..
आया चंद्र पूर्व के छोर से ।
  देखूँ मैं साजन की ओट से ।
   बाँध अँखियन के पोर से ।
   मन हृदय विश्वास डोर से ।

चौथ चंद्र खिला है ,
 निखरा निखरा है ।
 एक चंद्र गगन में ,
 एक मन आँगन में।
  जीती है जिसको वो,
  पल पल प्रतिपल में।
   श्रृंगारित तन मन से,
   प्रण प्राण प्रियतम के । 
     देखत रूप पिया का,
    चंद्र गगन अँखियन से।

 .....
 सफ़र ज़रा मुश्किल था ।
 वो पत्थर नही मंज़िल था ।
 निशां न थे कहीं क़दमों के ,
 हौंसला फिर भी हाँसिल था ।
 ....
 सहना नियति मानस की, सहती सब अत्याचार ।
 शेष न इच्छा प्रतिकार की, बैठी बस चुप चाप ।
 .... 
वादों के शूलों से ज़ख्म क़ुदरते हैं ।
 वो कुछ यूँ मेरे जख्म उकेरते हैं।
 ....
 सहना नियति मानस की, सहती अत्याचार ।
 इच्छा न प्रतिकार की, बैठी बस चुप चाप ।।
 .....
 हाँ समय बदलते देखा है ।
सूरज को ढ़लते देखा है ।
 चन्दा को घटते देखा है ।
 तारों को गिरते देखा है ।
 हाँ समय बदलते देखा है ।
 हिमगिरि पिघलते देखा है ।
 सावन को जलते देखा है ।
 सागर को जमते देखा है ।
 नदियां को थमते देखा है ।
 हाँ समय बदलते देखा है ।
 खुशियों को छिनते देखा है ।
 खुदगर्जी का मंजर देखा है ।
 अपनों को बदलते देखा है ।
 हाँ समय बदलते देखा है ।
 नही कोई दस्तूर जहां , 
  ऐसा दिल भी देखा है । 
 नजरों का वो मंजर देखा है ।
 उतरता पीठ में खंजर देखा है ।
 हाँ समय बदलते देखा है ।
    ....
 उड़ना चाहो आप जो, पँख दियो फैलाए ।
पँख नही हों उधार के, पँख अपने लगाए । 
 ....
 जीत है कभी हार है ।
 जिंदगी एक श्रृंगार है ।
 बंधी प्रीत की डोर से,
 यह नही प्रतिकार है ।
   ..... 
 ज़िंदगी जब भी तेरा ख्याल आता है ।
 यूँ अहसास बनकर तू पास आता है।
 जीता हूँ यूँ कुछ पल जिंदगी के मैं ,
  जिंदगी कभी तुझे मेरा ख्याल आता है ।
 .... 
शिकायतें
कोई खरीदता ही नहीं 
 सोचा मुफ्त में दे दूँ इन्हें
 मुफ़्त में लेता नहीं कोई 
 सहेजता हूँ अब खुद ही इन्हें।
   .... 
 मिलता नहीं हमें हम सा कोई ,
 यह बेदर्द दुनियाँ ज़ालिम बड़ी है।
 ....
शाश्वत सत्य यही,
विधि विधान यही ।
 मिलता मान सम्मान,
 होता अपमान यहीं।
  इस काव्य विधा के मधुवन में,
 असल नक़ल की पहचान नही।
 ...
 संत चले अब सत्ता पथ पर।
ऊँट बैठे जाने किस करवट।।
  ...
 विषय है शोध का,स्वर खो रहा विरोध  का।
 पुतला था ठोस सा,हो रहा क्यों मोम सा ।
.....
 इतिहास लिखें न हम कल का।
 इतिहास लिखें हम कल का।
 राह बदल दें हम सरिता की,
  सत्य लिखें हम पल पल का।
  ...
 सत्य की सुगंध हो, होंसले बुलंद हों।
 जीत लें असत्य सभी,इतना सा द्वंद हो ।
 ....
 सीखता है वो अपनी हर भूल से।
 खिलता फूल मिट्टी की धूल से।

  .... "निश्चल" विवेक दुबे ....©

कलम चलती है शब्द जागते हैं।

सम्मान पत्र

  मान मिला सम्मान मिला।  अपनो में स्थान मिला ।  खिली कलम कमल सी,  शब्दों को स्वाभिमान मिला। मेरी यूँ आदतें आदत बनती गई ।  शब्द जागते...