स्वप्न सलोने कुछ जागे कुछ सोए से ,
यादों के बदल में खोए खोए से ।
मोती लुढ़के आँखों के पलकों से ,
कुछ हँसते से कुछ रोए रोए से ।
जीत लिया सब जिसकी खातिर ,
उसकी ख़ातिर हार पिरोए से ।
सँग सबेरे फिर उठ चलना होगा ,
रात अंधेरी आँखे भर जो रोए रोए से ।
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हर रिश्ते की एक अजब कहानी है।
हर रिश्ते की एक प्रेम कहानी है ।
छुपा हुआ जहां स्वार्थ भाव सभी में,
निःस्वार्थ बस *बहन भाई* कहानी है ।
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विरोधाभास ही तो शेष है ।
अब बचा नही कुछ विशेष है।
अच्छे दिन की आस में ,
तड़फता सारा आज देश है ।
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वो यूँ बरसात कर गए।
रंग नही बेरंग कर गए ।
धरे थे जो सहज कर ,
सारे के सारे झड़ गए ।
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ज्यो का त्यों क्यो नही रखते लोग इतिहास।
क्यो बदल लिखते हैं लोग इतिहास खास ।
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लकीरें मुक्कदर की बदलती नहीं।
फिर भी लोग तक़दीर गड़ा करते हैं ।
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सिमट रही अब कला काव्य की ,विषय नही व्यापक कोई ।
डूबे सब अपने आप में, देश समाज सुध नही पावत कोई ।
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जिंदगी को तरसते सब
वफ़ा को तड़फते सब
चहरे छिपाए सब अपने
नक़ाब में घूमते आज सब
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निश्चल एक आस है ।
आस ही प्रभात है ।
चलते रहें यूँ ही हम,
जीवन एक प्रयास है ।
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उसकी वेदना बड़ी भारी थी ।
जिसकी भूख एक लाचारी थी ।
बीनता था जूठन वो बचपन ,
और निगाहें उसकी आभारी थीं ।
आये थे जहाँ साँझ को,
है वहाँ से अब लौटना ।
सफ़र न था उम्र भर का ,
तू न जरा यह सोचना ।
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जो हिस्सा है इतिहास का ।
नही था वो कल आज सा ।
साधना थी वो शब्दों की,
नही था वो प्रयास आज सा ।
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अर्चन बंदन वो गठबंधन शब्दों में।
प्रणय मिलन वो शब्दों का शब्दों में ।
भावों के धूंघट में नव दुल्हन से ,
हर काव्य रचा एक नव चिंतन में ।
शब्द बिके अब सत्ता के गलियारों से ।
कैसे ढूँढे अब सूरज को उजियारों में ।
कलम दरवान बनी दरवारों की ,
चलती है सिक्कों की टंकारों में ,
हिस्से हैं जो जगते इतिहासों के ,
मिलें नही अब सोती साँसों में ।
सिद्ध साधना वो आवाज़ों की ,
सुफल नही अब प्रयासों में ।
शब्द बिके अब सत्ता के गलियारों में ।
कैसे ढूँढे अब सूरज को उजियारों में ।
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.......निश्चल" विवेक दुबे.....©