रविवार, 3 दिसंबर 2017

झर जाने दो


 अब प्रेम गीत सज जाने दो ।
  लब अब जरा मुस्कुराने दो ।
  दर्द छलके हैं आंखों से बहुत,
  कुछ खुशियाँ भी झर जाने दो ।
  ....."निश्चल" विवेक ..

शरण राम की


 कहते जिंदगी एक इम्तेहां है ।
 सरल बहुत जिंदगी फिर भी,
 शरण राम की "निश्चल"रहकर,
 करत नही जो अभिमान है।

  .... "निश्चल" विवेक ...

इस्तेक़वाल 50 का

 आज ताज़ा फिर जवानी के ख्याल करते हैं ।
 गुजरे मोहब्बत भरे दिन फिर याद करते हैं ।
 भूलाकर अदावतें अपनी अपनी सारी ,
 आज सारा मन  मैल साफ करते हैं ।

 गुजर गई बहुत थोड़ी ही रही बाँकी अब ,
 ख़ुशी ख़ुशी पचास इस्तेक़वाल करते हैं ।

 दिखने लगीं हैं सलवटें रुख़्सरों पे अब ।
 आज आईने का फिर दीदार करते हैं ।

 यह सलवटें कोई निशानी नही उम्र की ,
 उम्र तजुरवों का सलवट से सिंगार करते हैं । 
 साफ़ हुई कालिख़ सिर से बालों की अब,
 मन से भी मैल अब हम साफ़ करते हैं ।
   .... विवेक दुबे"निश्चल" @...

किस किस को याद रखोगे


किस किस को याद रखोगे।
 किस किस को भूल पाओगे ।
 कदम तले कामयाबियों के,
 नाकामयाबियों को पाओगे ।

 माना कि धरता है हर क़दम तू ,
अपनी पूरी हुनरदारी के साथ ।
 नुक़्स निकलेगा कोई न कोई,
 ज़माने को कहाँ छोड़ पाओगे ।

 जीते हैं सब अपने ही तरीक़े से,
 अपना तरीक़ा तुम कहाँ पाओगे ।
 चला चल बस ख़ामोश रहो तुम ,
 मंज़िल तो एक दिन पा ही जाओगे ।
 किस किस को याद .....
 किस किस को .....
   .... "निश्चल" *विवेक* ...©


संग्राम जीवन का


 भाव लिए अखण्ड डूबा कंठ कंठ ।
 लिखे गीत प्रीत के बिखरे खंड खंड। 
 नीर बहा श्याम सा नैनन अभिराम सा, 
 हर गीत की प्रीत के पूर्ण विराम सा ।
  जागा भाव कलम के विश्राम का ।
 अंत यही जीवन के हर संग्राम का ।
 जीवन के हर संग्राम का .....!!
  ... "निश्चल" *विवेक* ....©

अर्थ


 आई है उम्र लौटकर फिर एक बार ।
 कशिश बचपन की बुढ़ापे के द्वार ।
 अर्थ नही निकला का ज़वानी कोई ,
 लौट आए फिर बचपन के द्वार ।
  ....
बे-अर्थ रही ज़वानी सारी ।
 डूबी रही अर्थ के सागर में ।
 अर्थ समझ जब आया तो,
 छोड़ गई बीच भंवर में ।

 .... "निश्चल" *विवेक*..

लेखन सूत्र



 लेखन के सूत्र बड़े दुष्कर थे ।
  साहित्य शब्द बड़े प्रखर थे ।
   कर सतत अथक प्रयास ,
   चमके साहित्य में नक्षत्र थे ।

    कुछ लेखन के सूत्र आधार गढ़े थे ।
     ऋचाओं श्लोकों के जो मूल बने थे ।
     रचे दोहा छंद सोरठा स्त्रोत चौपाई ,
     ऋषि मुनि तपस्वी सब संपूर्ण बने थे।

  ज्यों ज्यों युग बदले भाषाएँ बदलीं ।
  त्यों त्यों विधाएँ लेखन की बदलीं ।
  बदली जब तब शैली कला लेखन की ,
  लेखन सूत्र वही मात्राएँ न बदलीं ।
      
    आज लेखन सूत्र का आधार वही है।
    गीता , रामायण का उपकार यही है ।
    तुलसी,मीरा,कोटिल्य,विदुर,पढ़ें महान,
     लेखन कला का बस आधार यही है ।

  हर प्रमेय गणित का ज्यों सही है ।
  व्यकरण मनीषियों का त्यों सही है ।
  पा जाए इसके कुछ लेखन सूत्र,
  सच्ची लेखन कला तो बस यही है ।
  
     सच्ची लेखन कला तो बस यही है ।

     ...... "निश्चल" विवेक दुबे©.....

      
    

  

कलम चलती है शब्द जागते हैं।

सम्मान पत्र

  मान मिला सम्मान मिला।  अपनो में स्थान मिला ।  खिली कलम कमल सी,  शब्दों को स्वाभिमान मिला। मेरी यूँ आदतें आदत बनती गई ।  शब्द जागते...