शनिवार, 10 फ़रवरी 2018

क्यों क्यों बनाया

बेठे बेठे यह ख्याल आया ।
 भाषा बनाई जिसने ,
 उसने यह 'क्यों' क्यों बनाया ।
 सीधी बात पूछो तो ,
 जवाब क्यों आया ।
जो पूछा उल्टा ,
 तो भी क्यों ,
 सामने आया ।
  कुछ न कर पाया तो ,
 क्यों न कर पाया ।
 कुछ कर पाया तो ,
 क्यों कर पाया ।
 अब सोचूं यह मैं ,
  ' क्यों' पर विचार क्यों आया ।
    ....."निश्चल" विवेक दुबे©....

रिश्तों की जुवां



  रिश्तों की गर कोई जुवान होती ।
 रिश्तों की कुछ और पहचान होती ।
 न होते फिर दिल से दिल के रिश्ते ।
 बाज़ारो में रिश्तों की दुकान होतीं ।
    ....विवेक दुबे "निश्चल"©....

ओढ़ कर निकलता हूँ

ओढ़ कर निकलता हूँ घर से ,
 जिम्मेवारियों का कफ़न।
 यूं तो हमें भी खूब आता है ,
  यह शायरी का फ़न ।
 मज़बूर हूँ घर देखूँ ,
 या मुशायरे करूँ।

 हमने अक़्सर शायरो को ,
 फ़ांके करते देखा है ।
  पैर में टूटी चप्पल,
  कांधे पर थैला है।
 शायर कल भी अकेला था।
 वो तो आज भी अकेला है।
 पढ़ते है तब उसे बड़ी शान से,
 जब दुनियां सेअलविदा होता है।
        ....."निश्चल" विवेक दुबे....®

एक साध निशाना ऐसा

मंजिल से पहले घबराना कैसा ।
 बीच राह तेरा थक जाना कैसा ।
 भेद सका न हो अब तक कोई,
 एक साध निशाना तू बस ऐसा । 
 .... विवेक दुबे "निश्चल"°©..

शुक्रवार, 9 फ़रवरी 2018

लिखता में इस आशा से

लिखता मैं इस आशा से ।
 कोई समझे अर्थ पिपासा से ।
 उतरे सागर गहरे तल में ,
 खोजे सच्चे मोती तल से ।
 ..... विवेक दुबे "निश्चल"©...

अल्फ़ाज़ की ख़ातिर

   हर दर्द कागज़ समेटते रहे ।
   बस हम लकीरें खैचते रहे ।
   कुछ अल्फाज़ की ख़ातिर,
   मेरे जज़्बात से खेलते रहे । 

  सो गई रंगीनियाँ महफ़िल की ,
  ता-रात चराग़ हम जलते रहे ।
   दूर न थीं रौशनियाँ फ़जर की,
    साथ ईशा के हम चलते रहे ।

    कुछ क़िस्से    लिखते रहे ।
    कुछ दास्तां बयां करते रहे ।
     हम ख़ातिर एक ग़ुनाह की ,
     बार बार ग़ुनाह करते रहे ।

      ...विवेक दुबे"निश्चल"©....

गुरुवार, 8 फ़रवरी 2018

दायित्व हमारे


यूँ मूक बने बेठे रहने से हम ,
फिर परतंत्र न हो जाये यारों ।
      हम भी दायित्व निभाएँ यारों ,
      मातृभूमि का क़र्ज़ चुकाएँ यारों ।
सीमा पे न लड़ सकें कोई बात नही ,
 खुद को कुछ तो फ़ौलाद बनाएं यारों ।
        खा रहे है रोटी भारत माँ की ,
        भेद रहे गोदी भारत माँ की ।
  आते ही आस पास नज़र कहीं ,
  मिलकर इनके सारे भेद उठाएं ।
       समाज में छुपे हुए इन गद्दारों को ,
       मिलकर हम सबक सिखाएँ यारों ।
 इन जयचंदों को धूल चटाएं यारों ,
आओ अपना दायित्व निभाएँ यारों ।
    मातृभूमि से बड़ा कोई दायित्व नही ,
    कार्य बड़ा कड़ा है पर कठिन नही ।
     चलकर अपने दायित्व मार्ग पर ,
  राष्ट्र भक्त स्वच्छ समाज बनाएं यारों ।
 हम कुछ अपना दायित्व निभाएँ यारों ।
 मातृभूमि का कुछ क़र्ज़ चुकाएँ यारों ।
  
         .... विवेक दुबे  *"निश्चल"* 

  

महिला शक्ति

 वो एक अकेली नारी थी ।
 पड़ती सौ सौ पर भारी थी ।
 कूट नीति की चालों में ,
 नही कोई उस सी सानी थी ।
       स्वतंत्रा के संग्राम की,
       वो बानर सैनानी थी ।
 सो गए शास्त्री अचानक,
 राष्ट्र बिपत्ति बड़ी भारी थी ।
  राष्ट्र भार ले  कांधो पर ,
 चलने की नारी ने ठानी थी ।
        आँख दिखाई दुश्मन ने ,
       उसने अबला मानी थी ।
 धर लिया रूप धरा पर ,
 इंद्रा ने तब चंडी का ।
 अब उस की बारी थी ,
  प्रतिकार किया शत्रु का ।
          उसने तो बस शत्रु के ,
         टुकड़े करने की ठानी थी ।
  करा समर्पण शत्रु का,
  बिश्व इतिहास रचा ।
  शत्रु सेना घुटनो चलवाई थी ।
  तोड़ दिया नापाक पाक को,
  मुजीब को बंगला दिलवाई थी ।
     आँक रहा था बिश्व कमजोर हमे,
     रातों रात तब उस नारी ने ,
     पोखरण परमाणु गूँज सुनाई थी । 
     उसके अदम्य साहस बल ने,
     सम्पूर्ण जगत धाक जमाई थी । 
 कर प्राण निछावर राष्ट्र हित मे,
 सीने आपनो की गोली खाई थी ।
 छा गई बिश्व पटल पर शक्ति बन,
 अबला नारी देवी इंद्रा कहलाई थी ।
 ..... विवेक दुबे © "निश्चल"...

बुधवार, 7 फ़रवरी 2018

नानी की कहानी

 परियों की एक रानी थी ।
  और बूढ़ी एक नानी थी ।
  साँझ ढले दादी माँ  ,
  सुनातीं एक कहानी थीं । 
       पीलू जंगल का राजा ।
       धूर्त सियार वो मंगलू ।
       चंपा चालक लोमड़ी ,
       एक जादू की टोकरी ।
  कालीन भी उड़ जाता ।
  चाँद ज़मीं उतर आता ।
  गर्मी का मारा बेचारा ,
  सुरज भी पीता पानी ।
        भले बुरे का भेद सिखाती ।
        झूँठ फ़रेब से दूर हटाती ।
         सत्य मार्ग पर चलना कैसे,
         हर कहानी यह पाठ पढ़ाती ।
   कितना सुगम था वो बचपन ।
   मस्ती का था वो अल्लड़पन ।
   आया यौवन बीता बचपन ,
   दादी नानी से अब अनबन ।
       दादी नानी बृद्धाश्रमो तले ।
       सूना है अब यह बचपन ।
       जाए किस से सुनने वो ,
       खत्म हुए अब तो आँगन ।
 खत्म हुए अब तो ...
   .... विवेक दुबे "निश्चल"©....

     Blog post 7/2/18
  

सोमवार, 5 फ़रवरी 2018

कर्म

आंत हीन इन अंतो से ।
 लगते खुलते फन्दों से।
 फँसते पंक्षी उड़ते पंक्षी ,
 अपने अपने कर्मो से ।
.... विवेक दुबे "निश्चल"...

"निश्चल" निडर बाल मन

 निश्चल निडर बाल मन 
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माँ मुझको भी संगीन लान दे ,
 मैं भी सीमा पर लड़ने जाऊँ ।

 वीरो के सँग ताल मिलाकर ।
 दुश्मन को ख़ाक मिलाऊँ ।
 ले ले तू खिलौने सारे मेरे ।
 इनसे अब मन भरता मेरा ।
 बस एक बंदूक लान दे तू ,
 मार शत्रु को मन बहलाऊँ ।
      माँ मुझको भी  .....

 बरसेंगी गोली मेरे हाथों से भी,
 बेटा तेरा तनिक नही घबराऊँ ।
 उठा तिरँगा अपने हाथों में ,
 दुश्मन के द्वार लगा आऊँ ।
 करता जो वार बार बार हम पर,
 मैं उसकी आँख से आँख लड़ाऊँ
     माँ मुझको भी  ....

  बारूद दागूंगा मैं भी भर कर ,
  दुश्मन का नाम मिटा आऊँ ।
  शीश काट कर माँ मैं शत्रु का ,
  तेरे कदमों की ठोकर लाऊँ ।
  अपनी भारत माता की खातिर,
  मैं भी सीमा पर लड़ने जाऊँ ।
      माँ मुझको भी ...

 तू ही तो कहती है माँ मुझसे ,
 राष्ट्र धर्म से बड़ा नही कोई ।
 द्वार खड़ा है दुश्मन अपने,
 मैं भी राष्ट्र धर्म निभा आऊँ ।
 माँ तेरा ही तो बेटा हूँ  मैं ,
 "निश्चल" निडर रहा हूँ मैं ।
  घुसकर दुश्मन के घर में,
 दुश्मन को धूल मिला आऊँ।

 माँ मुझको भी संगीन लान दे,
 मैं भी सीमा पर लड़ने जाऊँ ।
       .... विवेक दुबे "निश्चल"©...
            5/2/18







कलम चलती है शब्द जागते हैं।

सम्मान पत्र

  मान मिला सम्मान मिला।  अपनो में स्थान मिला ।  खिली कलम कमल सी,  शब्दों को स्वाभिमान मिला। मेरी यूँ आदतें आदत बनती गई ।  शब्द जागते...