1046
*आस*
खो गए निग़ाह में अहसास हो कर ।
रात के साथ दिन की आस हो कर ।
मैं खोजता रहा क़तरा क़तरा वो ,
जो ग़ुम हुआ आँख से खो कर ।
न मिल सका समंदर से वो दरिया ,
आया था बड़ी दूर से सफ़र जो कर।
जो चलता था उजालों के साये में ,
खा बैठा रोशनियों से वो ठो कर ।
हँसता ही रहा हर हाल पर जो,
हँसता है वो आज भी रो कर ।
"निश्चल" न चल राह पर और आंगे ,
मंजिल मिले नही राह को खो कर ।
... विवेक दुबे"निश्चल"@.
डायरी 7
ब्लॉग पोस्ट 19/9/22