गुरुवार, 26 अप्रैल 2018

भरता अपने अंगारो से ही

 भरता अपने अंगारों से ही आंचल है ।
जलता अपनी चिंगारी से ही आंगन है ।

  घुट रही धरती जलता सावन है ।
  अम्बर रोता थकते भी बादल हैं ।

  जलज जलधि को भी  ,
   नवल नीर की चाहत है ।

   लुप्त हुई वो तटिनी भी  , (सरिता)
   सागर को जिसकी आदत है ।

  अब रीत रहे  मन भी ,
  मन से मन ही आहत है ।

  स्तब्ध हुआ यह "निश्चल" भी ,
  चलना ही जिसकी आदत है ।

  .... विवेक दूबे"निश्चल"@..

  

न कर नादानी

और न कर तू नादानी ।
 ज़ीवन की मोड़ कहानी ।
 लिख जा हर्फ़ सुनहरे से ,
  तू स्याह न छोड़ निशानी ।
.... 
हम रोशनियों के मारे हैं ।
हम चिराग़ तले उजाले हैं ।
जले चिराग़ साथ हमे लेकर,
 इल्ज़ाम नाम हमारे उतारे हैं ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@...
डायरी 4

बुधवार, 25 अप्रैल 2018

छोड़ चला मांझी कश्ती


  छोड़ चला मांझी कश्ती ,
 लाकर सख्त किनारों पे ।

 खेल रही कश्ती उसकी ,
 लहरों के अहसासों पे ।

  संग चलीं है कुछ यादे  ,
 जीवन की इन राहों पे ।

 सीख रहा अब धीरे धीरे ,
 चलना सख्त किनारों पे ।
  
 शूल चुभे पग घायल से ,
 टीस सजी पग चापों पे ।

  दर्द बजे घुंघरू पायल से ,
  जीवन की झंकारों पे ।
  
  "निश्चल" चलता फिर भी  ,
   अपने सख़्त किनारों पे ।

 .... विवेक दुबे"निश्चल"@..



सोमवार, 23 अप्रैल 2018

ऐसा क्यों होता है

ऐसा क्यों होता है ।
 हरदम धोका सा होता है ।

 पा जाने की खातिर ,
 जीवन जीवन को खोता है । 

  हँसता है वो रोता है ,
 स्वप्न सलोना धोका है ।

  भोर सुबह की चिंता में ,
   वो रातों को न सोता है ।

  हार नही एक हार से ,
   जीवन तो मौका ही मौका है ।

 सहज संजोता चल जीवन को , 
   जीवन ने खुद को तुझमे देखा है ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@.

मिलता है वो बड़े ख़ुशस से

निगाहों को        निगाहों से अदावत है ।
 धड़कनो को      धड़कनो से चाहत है ।

 मिलाता है आज भी बड़े ख़ुशस से मुझसे ,
 आज भी शायद उसकी मुझसे अदावत है ।

 थाम कर ज़िगर गुजरा उसके शहर से ,
 शहर की निगाहों में आज भी शरारत है ।

  मैं पूछता हूँ सवाल खुद ही खुद से ,
 क्या निगाहों से भी आती क़यामत है ।

 "निश्चल" न कर कोई सवाल किसी से  ,
  यहाँ जवाब देने में हर एक को महारत है ।
  
.      .. विवेक दुबे"निश्चल"@..

मुक्तक धागे अनुभव के

धागे अनुभव के जोड़ रहा हूँ ।
 दिखती गाँठो को गोड़ रहा हूँ ।
 चलकर जीवन की राहों पर में ,
 जीवन को जीवन मे मोड़ रहा हूँ ।
 ... विवेक दुबे"निश्चल"@...


.

मुक्तक अंजान

टूटकर अपनी ही डाल से ।
 मुक्त हुआ वृक्ष विशाल से ।
 कर बैठा वो नादानी कैसी ,
 अंजान था अपने अंजाम से ।
... विवेक दुबे"निश्चल"@...

पिता

रोता है अक्सर खामोशी से कोई ।
 पीता है हर दर्द हँस कर कोई ।
 छुपाता है आँसू निगाहें चुराकर ,
 कालेज पिता सा पाता नही कोई ।
.... 

चाहतें रातों से भी उसकी कुछ ।
हसरतें उजालों से भी उसकी कुछ ।
 रह गया खामोश ही हर दम जो ,
 दुनियाँ में एक पिता ही तो है वो ।

  पाता है कुछ जो खोकर बहुत ,
 खाता ठोकर तेरी ख़ातिर बहुत ।
  घुटता है वो दुनियाँ की भीड़ में ,
  गिनते है हम जिसे गंभीर में ।
  
 "निश्चल" रहे हर दम जो ,
  पर चलता रहे हर पल जो ।
  तोड़कर तारे फ़लक से ,
 सदा दामन में भरता जो ।

दुनियाँ में एक पिता ही है वो ।

    .... विवेक दुबे"निश्चल"@..

मुक्तक उसे रंज न मलाल


उसे रंज था न मलाल था ।
 उसे ज़िंदगी का ख्याल था ।
 हार के वो अपनी खुशियाँ ,
 जीत के वो अपनी पास था ।
..... ...
जीवन को अपने वो लिखता कैसे ।
 कलम तले शब्दों में टिकता कैसे ।
 हार गया हो जो , खुद से खुद ,
 दुनियाँ को फिर वो जीतता कैसे ।
  .....

जीवन को अपने वो लिखे कैसे ।
 कलम तले शब्दों में टिके कैसे ।
 हार गया जो खुद से ही खुद ,
  दुनियाँ को फिर वो जीते कैसे ।
  ..... ...

 और न कर तू नादानी ।
 ज़ीवन की मोड़ कहानी ।
 लिख जा हर्फ़ सुनहरे से ,
  तू स्याह न छोड़ निशानी ।

 .... विवेक दुबे"निश्चल"@..


रविवार, 22 अप्रैल 2018

पाँव थके चलते चलते

हारा चलते चलते , 
 राह गुमी मंजिल से मिल के ।
 बीत रहा जीवन , 
 जीवन को छलते छलते । 

  पाँव तले जमीं न थी तब ,
  पाँव जमीं से थे न मिलते ।

  खोज रहा है आज जमीं वो ,
  पाँव थके हैं अब चलते चलते ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@...

माँ की दुआओं के यूँ असर होते हैं ।

माँ की दुआओं के, यूँ असर होते हैं ।
ठाँव खुद चलकर ,पास नजर होते हैं ।

 तपती धूप जब , जीवन राहों की ,
 आँचल माँ का बन, बादल होते हैं ।

 हो जाता शीतल , चाँद सा सूरज भी ,
 जो दखल माँ के , आशीषों के होते हैं ।

  ललायित है,    स्वयं विधाता भी ,
  अवतरित माँ के ,आँचल जो होते है ।

 ..... विवेक दुबे"निश्चल"@......

मुझे वो लिखने देते

काश मुझे वो लिखने देता ।
 सपनो को मेरे बिकने देता ।
 संजो रहा जिन सपनो को ,
 उन सपनों को टिकने देता । 

काश मुझे वो लिखने देता ।

  आती जाती इन सांसो के ,
   वो हार मुझे पिरोने देता । 
   जीता सपनो की ख़ातिर ,
    कलम तले सपना होता ।

 लिखता सपने पल पल के,
 हर सपना मेरा अपना होता ।
   लेते अक्षर रूप सुहाना ,
  मेरा स्वप्न खिलौना होता ।
   
  काश मुझे वो लिखने देता ।
  
  हार कहीं है जीत कहीं  ,
  शब्दों में सहज रहा होता ।
   सीकर शब्दों से शब्दों को,
    भाव सुखद सलोना होता ।

  काश मुझे वो लिखने देता ।

  ..... विवेक दुबे"निश्चल"@....


   
  

दोहा


नयन समाये हैं साजन, मन बन आस चकोर ।
 दूर देश प्रियवर है,मन तड़फत बिन तोर ।

 सजनी साधे बड़ी आस,अंतर मन भरी प्यास ।
 डोले मन पिया मिलन, राह तके भरे नयन ।

 आओ प्रियवर देर भई, साँझ भई भोर गई।
 रजनी सँग चँदा आया, तूने मोहे बिसराया ।
   ..... विवेक दुबे "निश्चल".

रिन्द चला

  रिंद चला मय की ख़ातिर ,
  साक़ी के मयखाने में । 

  हार चला वो ज़ीवन को ,
  ज़ीवन पा जाने में ।

   रूठे है तारे क्यों ,
   चँदा के छा जाने में।

   भोर तले शबनम जलती,
   सूरज के आ जाने में ।

   उम्र थकी चलते चलते ,
   यौवन के ढल जाने में । 

    उम्र निशां मिलते ,
  चेहरों के खिल जाने में ।

 जीव चला ज़ीवन की खातिर,
  ज़ीवन को पा जाने में ।

   रिंद चला मय की ख़ातिर ।

..... विवेक दुबे"निश्चल"@....


  

कल नही होता आज सा

न रहा वो जलवा चराग़ का ।
न रहा वो  हुस्न शराब सा ।

 था सिकन्दर कभी कोई ,
 हुआ अब वो क़िताब का ।

 डूब कर चाँद मगरिब में ,
 न रहा अब आफ़ताब सा ।

 दमका था सूरज आसमाँ पर,
 साँझ हुआ अँधेरों के साथ सा ।

  हरता है क्यों "निश्चल" तू ,
 कल नही होता आज सा ।

 ..... विवेक दुबे"निश्चल"@....

यूँ तो कहने को


  यूँ तो कहने को दुनियाँ में, रहा नही बाँकी ।
फिर भी क्यों प्यासा है रिंद,छूट रही साक़ी ।

 जज़्बातों की कच्ची पक्की राहों में,
  हालातों के हाथों में हालात ही बाँकी ।

 चलता जाता है ज़ीवन, ज़ीवन पथ पर ,
 साँसों में जब तक, साँस रही बाँकी ।

 रीत रहे हैं मन , रिश्ते नातों के अब , 
 रिश्तों की डोरें , रिश्तों ने ही काटी ।

तपती धरती ,जलता अम्बर सूखी नदियाँ ,
 सावन को सावन की बदली ही भरमाती ।

 यूँ तो कहने को दुनियाँ में ....
  
   ... विवेक दुबे"निश्चल"@..
  

चाह में रोशनी की

तपिश निग़ाह से पिघल उठे ।
निग़ाह चाँद से सितारे जल उठे ।

 चाह में रोशनी की खातिर ,
 साथ परछाइयों के चल उठे ।

 टूटकर उजाले पहलू में रात के ,
 शबनम से जमीं पे बिखर पड़े ।

 हो गया वो रुख़सत मासूमियत से,
  निग़ाह तले ले उसे हम चल पड़े ।

 थे क़तरे निग़ाह में आबरू की खातिर ।
 बे-आबरू हो क़तरे निग़ाह निकल पड़े ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@

तुझमें मेरा दखल रहा

 ज़िंदगी तुझमे भी मेरा दख़ल होता ।
 हाथों में मेरे भी मेरा कल होता ।

  न हारता हालात से कभी ,
  बदलता हर हालत होता ।

  अँधेरे न समाते उजालों में कभी ,
 अँधेरों से भरा न कोई कल होता ।

  महकता गुलशन हर घड़ी ,
 उजड़ा न कोई चमन होता ।

  रूठता न अपने भी कभी ,
  अपना न कोई गैर होता ।

 ज़िंदगी तुझमे भी...
  
... विवेक दुबे"निश्चल"@.

पशुता

मन पशुता पलती रहेगी ।
यह वेदना खलती रहेगी ।
 गली चौराहे सड़क पर,
 निर्भया मिलती रहेगी ।
  
  जीत लिया ईमान शैतान ने ।
  अभय वर दिया बे-ईमान ने ।
   शस्त्र लिए जो पाखण्डों के ,
    पूजा आज उसे इंसान ने ।
  
  मासूम नही जो न भोला है ।
 पहना छद्म का बस चोला है ।
 करता छल धर्म की आड़ में ,
  दुराचारी मन भीतर डोला है ।
  
   .... विवेक दुबे"निश्चल"@...

आदमियत

आदमी को आज क्या हो रहा ।
 आदमियत को आदमी खो रहा ।

 क़त्ल कर आदमियत का ,
 खून आदमियत का पी रहा ।

  काटते  रिश्ते क़िस्त क़िस्त ,
  रिश्ता तार तार बेज़ार हो रहा ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@....

मुक्क्त

रोती नही तन्हाई भी अब तो ।
 रुस्वा हुई रुसवाई भी अब तो ।
  टूटकर संग उस मासूम चोट से ,
  हुआ बेज़ार ज़ार ज़ार अब तो ।
... 

इन बेचैनियों को चेन आए जरा ।
 उस निग़ाह से कोई आए जरा । 
 तल्खियाँ आज बहुत है दिल में ,
 अब लफ्ज़ खुशबू बिखराएँ जरा ।
.... 
.... विवेक दुबे"निश्चल"@..

तू सोच

न सोच यह के तू क्या है ।
तू हिन्दू है के मुसलमां है ।
 तू खड़ा है जिस ज़मीं पर ,
वो तेरी भी माँ है मेरी भी माँ है ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@..

लड़ ज़िगर से

तू लड़ ज़िगर से ।
 तू चल फ़िकर से ।

 धर कदम उस डगर पे ,
 जहां न हों कोई निशां ,
 किसी और के कदम के ।

 अपने रास्ते खुद बना ,
 अपनी मंज़िलों को सजा ।

 धर कदम सम्हल के ,
 छोड़ता जा निशां ,
 तू हर कदम के ।

 कल कह सके दुनियाँ ,
 कोई गुजरा है इधर से ।

.... विवेक दुबे."निश्चल"@...

मूल्य नही अब

मूल्य नही अब भावों के ,
 हृदय शून्य विचारो से ।

 होते मतलब तब तक,
 तब तक मिलते यारों से ।

 हित साधन शेष रहे ,
 रिश्ते नाते दारों से ।

 क्या मित्र क्या आँख के तारे,
 स्वार्थ भरे सब उजियारे ।

 रिश्ते बिकते बाज़ारो में ,
 फिरते मारे मारे गलियारों में।

... विवके दुबे"निश्चल"@..

वो बेटियाँ बचाते हैं

वो बेटियाँ बचाकर ,
 बेटीयाँ पढ़ाते हैं ।
 लाडले उनके ही  ,
  उन बेटियों की ,
 बोटियाँ चवाते हैं ।
  करते है जो बातें ,
 मासूम बचपन की ,
  वो उस बचपन को  ,
  यौवन बनाते हैं ।
.... विवेक दुबे "निश्चल"@....

वेदना उसकी


   वेदना उसकी बड़ी भारी थी ।
    भूख जिसकी एक लाचारी थी ।
   देखती आभार निष्छल भाव से  ,
   और निगाहें उसकी आभारी थीं ।

खोज रही आँखें उसमे उसको ।
 कोख धरा था जिसने उसको ।
  यह कोख़ जना नही है कोई ,
  सोच सोच ममता मूरत रोई ।
 ....

अपने ईस्वर को मना लें जरा ।
 भूंखे को एक निवाला दें जरा ।
 आस्था के थाल में अपने भी,
 जल जाएं दिये सेवा के जरा ।

..... *विवेक दुबे"निश्चल"*  @....

जीत ले आज को

    पलट उस पृष्ठ को ।
   बदल जरा वक़्त को ।
   मिटा उन अल्फाज़ को ।
    लिखे लफ्ज़ सख़्त जो । 

        छोड़कर शाख को,
        गिरा पत्ता  वो जो ।
       उड़ न सका हवा में ,
        रौंद गए कदम वो । 

          बैठा है फ़िक्र में,
           क्यों आज की ।
           तू ही लाया था ,
            कल आज को । 

      गुनगुनाता है वक़्त ,
      आहटें अंजाम की ।
      डरता है फिर क्यों ,
       तू नए आगाज़ को । 
   
       छोड़ फ़िक्र कल की ,
      जीत ले बस आज को ।

..... विवेक दुबे"निश्चल"@..

कुछ वादों की खातिर

  कुछ यादों को ठंडा कर ,
 कुछ वादों को गरमाना था ।

  कुछ वादों की ख़ातिर ,
  कुछ यादों को बिसराना था । 

  साथ चले पग जिसके ,
  साथ उसके चलते जाना था ।

   थामा जिन हाथों को ,
  उन हाथों का साथ निभाना था ।

  संग चले बस उजियारो में ,
  सांझ तले घर आना था ।

  दुनियाँ इन गलियों में ,
  कहाँ कोई ठोर ठिकाना था ।

  जीवन है सुख की ख़ातिर ,
  दुःख को तो बिसराना था । 

  डगर कठिन दुनिया की ,
   राह सुगम एक बहाना था ।

  भूल चलें ठोकर राहों की ,
  मंजिल पर बढ़ते जाना था ।

  कुछ वादों की खातिर ,
  कुछ यादों को बिसराना था ।

 ..... विवेक दुबे"निश्चल"@...

ख़्याल तुरप रहा हूँ

उधड़ रहे कुछ ख्याल ,
 तुरप रहा हूँ ।

 यादों को मैं अपनी ,
 खुरच रहा हूँ ।

 सिलता हूँ दामन को,
 अपने बार बार ।

 वक़्त की मार से जो ,
 होता तार तार । 

 एक आस की खातिर ,
 अहसास हैं हजार ।

 न जीत की खुशी ,
 न हार में कोई हार ।

 चलता ही रहा हूँ ,
   न कोई प्रतिकार ।

  जीवन चला है ,
   जीवन के पार ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@...

कलम चलती है शब्द जागते हैं।

सम्मान पत्र

  मान मिला सम्मान मिला।  अपनो में स्थान मिला ।  खिली कलम कमल सी,  शब्दों को स्वाभिमान मिला। मेरी यूँ आदतें आदत बनती गई ।  शब्द जागते...