भरता अपने अंगारों से ही आंचल है ।
जलता अपनी चिंगारी से ही आंगन है ।
घुट रही धरती जलता सावन है ।
अम्बर रोता थकते भी बादल हैं ।
जलज जलधि को भी ,
नवल नीर की चाहत है ।
लुप्त हुई वो तटिनी भी , (सरिता)
सागर को जिसकी आदत है ।
अब रीत रहे मन भी ,
मन से मन ही आहत है ।
स्तब्ध हुआ यह "निश्चल" भी ,
चलना ही जिसकी आदत है ।
.... विवेक दूबे"निश्चल"@..
जलता अपनी चिंगारी से ही आंगन है ।
घुट रही धरती जलता सावन है ।
अम्बर रोता थकते भी बादल हैं ।
जलज जलधि को भी ,
नवल नीर की चाहत है ।
लुप्त हुई वो तटिनी भी , (सरिता)
सागर को जिसकी आदत है ।
अब रीत रहे मन भी ,
मन से मन ही आहत है ।
स्तब्ध हुआ यह "निश्चल" भी ,
चलना ही जिसकी आदत है ।
.... विवेक दूबे"निश्चल"@..