शनिवार, 2 जून 2018

रक्कासा सी नाची है

.... *जिंदगी*....

आशाओं संग अभिलाषाओं से हारी है ।
नित् नए स्वप्न सजा दुल्हन सी साजी है ।

हो रहे पग घायल , पग घुंघरू बाँधे बाँधे , 
घुँघरू की थिरकन पर घुँघरू सी बाजी है ।

नित नव श्रृंगार सजाकर यह ज़िंदगी ,
आशाओं संग रक्कासा सी नाची है।
....
लुटती है घुटती है यह हर थिरकन पर ,
अपनी थिरकन से फिर भी न हारी है ।

 रूप रंग भर नव चेतन का तन मन में ,
 प्रणय निवेदन सी पल पल जागी है ।

 टूट रहीं छूट रही है डोरे सांसों की ,
 फिर भी चाहों में जीवन बाँकी है ।
... विवेक दुबे"निश्चल"@...

प्रीत की रीत

प्रीत की रीत सजाई नैनन ने ।
 कुछ बूंदे छलकाई नैनन ने ।
 मुस्कान भरी फिर अधरन ने ।
 फिर राह तकी फिर नैनन ने ।

 तपती काया जलता मन ,
  दूर देश बसे साजन  ।
 चटक चांदनी खिली गगन ,
 नम आँखे व्यकुल मन ।

 सूनी रातें सूना दिन ।
 कटते नही तुम बिन ।
 शोर करें आती जाती सांसे ,
 आओ साजन आओ साजन ।
... विवेक दुबे..

लिख गया मैं

   लिख गया मैं हर बात को ।
  जीतकर हार के हालात को ।

  चलती परछाइयां संग मेरे ,
  छोड़ अपने ही प्रकाश को ।

  जीत नहीं कसा मैं कभी  ,
  परछाइयों के आभास को ।

 थक चला दिन अब तो ,
 लिया संग अब रात को ।

  पाएगा चैन कुछ पल को ,
  दे आकाश अपने चाँद को ।

 .... विवेक दुबे"निश्चल"@..

मुक्तक 387/391

387
जिंदगी उन्हें कभी हराती कैसे ।
साथ दुआएँ जो माँ की लेते ।
कदमों में उनके आकाश झुके ।
 जिनके सर माँ के आशीष रुके ।
..... 
388
 ख़ुदा से माँगा नहीं कुछ मैंने ।
बस अपनी बंदगी पेश की है ।
सज़दे में गुनाह कबूल कर ,
रहम के लिए फैलाए हाथ हैं ।
        ....
389
लहरें चलतीं कल कल है ।
लहरों का तो चँचल दिल है ।
 सहता लहरों की हलचल को ,
 साहिल को क्या हाँसिल है ।
.... 
390
स्थितियाँ बदलतीं है 
 परिस्थितियाँ बदलतीं है ।
 चित्र वही रहते है ।
 भित्तियाँ बदलतीं है ।
.... 
391
   डूबता रहा उभरता रहा ।
  दरिया का इतना असर रहा । 
  रात थी सितारों से सजी ,
  नाम चाँद के हर सफऱ रहा ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@...


मंगलवार, 29 मई 2018

मुक्तक

छू जातीं लहरें अहसास जगाती है ।
 मुड़ जातीं है मुड़कर आ जाती है ।
 यह ठहरी नही कभी किनारों पर ,
 यह लहरें तो बस आती जाती है ।
... विवेक दुबे"निश्चल"@ ...

तुम बिन प्रणय बिन श्रृंगार लिखो ।
मत जीत लिखो मत हार लिखो ।
प्रतिकार मिले हर मनमानी का ,
शब्दों में कुछ ऐसे अंगार लिखो ।

 ... विवेक दुबे"निश्चल"@....


   समंदर भी किताब हुए ।
   अहसास तले हालात हुए ।
   तैरते अल्फ़ाज़ निगाहों में ,
   ख़्याल उफ़्क के पार हुए ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@..

उफ़्क (क्षितिज)

शब्द तरल मन उतरे है ।
सागर से मन बिखरे है ।
बहते है दूर क्षितिज तक ,
अर्थ गूढ़ घनेरे उभरे है ।
====
 कुछ अंदाज़ अंजाने से ।
 कुछ जाने पहचाने से ।
  कशिश अल्फ़ाज़ की ,
   लफ्ज़ क्युं बेगाने से ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@....

 कुछ अंदाज़ अंजाने से ।
 कुछ जाने पहचाने से ।
  कशिश अल्फ़ाज़ की ,
   लफ्ज़ क्युं बेगाने से ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@....


आहटें सितारे सुनते रहे ।
 भोर के ख्याल बुनते रहे ।
 हम लौटकर क्षितिज से ,
 क्षितिज को गुनते रहे ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@...


    गुजरते रहे हम हर हालात से ।
    लड़ते रहे वक़्त के मिज़ाज से ।
   दौर-ऐ-उम्र किस को बयां करें ,
    जीत न सके अपने आप से ।
     .... विवेक दुबे"निश्चल"@...

मैं भटका अपने हालात से ।
 हार कर आज को आज से ।
 चलता ही रहा फिर भी मैं  ,
 जीतकर काल के आघात से ।

  .... विवेक दुबे"निश्चल"@..

 ता - उम्र का मुझे यूँ ईनाम मिला ।
 निगाहों में उसकी बदनाम मिला ।
..... विवेक दुबे"निश्चल".....

ता-उम्र का यूँ ईनाम मिला ।
 निगाहों में बदनाम मिला ।
 सींचकर अश्क़ शबनम से ,
  कदमों तले मुक़ाम मिला ।

..... विवेक दुबे"निश्चल"....




यादों के बादल

          यादों के बादल से ।
          नीर बहे सागर से ।
          कुछ गहरे गहरे से ।
          कुछ राज उज़ागर से ।
     ..
   उतरे आँचल में ,
   नयनों के आँगन से ।
   प्रीत भरे रस के ,
    बरसे बादल से ।
                    .. विवेक दुबे@...
   डायरी 4
    

सोमवार, 28 मई 2018

कुछ तुम कहो अपनी

कुछ तुम कहो अपनी ।
 कुछ हम कहे अपनी ।

 न यह आसमां अपना ।
 न यह जमीं अपनी ।

 टूटता सितारा आसमां से ,
  खोजता जमीं अपनी ।

  छोड़ दामन अंबर का ,
  बून्द सागर को मचली ।

 ज़ज्ब होती हसरत दिल मे ,
 हालात की फ़ितरत बदली ।

 खोज ख्वाबों से लाया जिसको ,
 भोर ख्बाबों से बिखरी बिखरी ।

...विवेक दुबे"निश्चल"@..

ज़ज्ब हुआ

ज़ज्ब हुआ अल्फ़ाज़ किताबों सा ।
 कुछ जिंदगी के अधूरे सवालों सा ।
 खोजता हर राह पे जिंदगी मैं तुझे ,
 खोजतीं निगाहों से निगाहों सा ।
... 
एक सवाल है सवालों सा ।
 कुछ उलझे से ख़यालों सा ।
 आसमान में खामोशी से ,
  टूटकर गिरते सितारों सा ।
..... विवेक दुबे"निश्चल"@...

फिर आज एक ग़जल कही उसने

फिर आज एक ग़जल कही उससे ।
 कुछ अपनी कुछ मेरी कही उससे ।

 अल्फ़ाज़ थे ज़ज्बात से भरे भरे ,
 फिर निग़ाह से बात कही उससे ।

  न था चाँद उस रात आसमाँ पे ,
 साँझ ढ़ले चाँद की बात कही उससे ।

 न उतरी शबनम सितारों से जमीं पे,
 भोर शबनमीं मुलाक़ात कही उससे ।

 वादा मुकम्मिल शेर का था "निश्चल" ,
 बात हर शेर अधूरी मैंने कही उससे ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@..

झुकी निग़ाह रखें ,

 झुकी निग़ाह रखें ,बस सुने सब की ।
लब ख़ामोश रखे ,न कहे खुद की ।

  उठा निग़ाह गर  , तू कहे ख़ुद की ।
  यह दुनियाँ फिक्र , न रखे उस की ।
..
 न रख सटीक सवाल ,सामने जमाने के ।
 बहाने ढूँढती दुनियाँ , तुझे मिटाने के ।

  न सुनेगा सच ,कोई झूँठ की दुनियाँ में ,
  भला क्या है तेरी ,सच की पुड़िया में ।
...

 सच के रंग, आज छुपते स्याह जमानो में  ।
 न डालना रंग,किसी पर अपने बयानों में ।
  
....विवेक दुबे"निश्चल"@...

वक़्त नही था जब मुझ पर

वक़्त नही था जब मुझ पर ,
देख रहा था वो मुड़ मुड़कर ।
 पास नही जब कुछ खोने को ,
 मांग रहा कुछ मुझसे देने को ।

 कैसे दूँ मैं उत्तर कुछ जीवन पश्नो के ,
 बे-उत्तर रहने दो कुछ जीवन प्रश्नों को ।
  ढल रही है अब स्वर्णिम सन्ध्या ,
 खुश होने दो भोर तले दिनकर को ।

 ले मौन चला पथ पर यह जीवन ,
 होने दो मस्त किलोल जीवन को  ।
 इस सन्ध्या से उस सन्ध्या तक ,
 जगमग होने दो दिनकर को ।

जीवन की ख़ातिर खोने दो जीवन को ।
 जीवन का बस होने दो जीवन को ।
 सतत क्रम यही नियत नियति का ,
  नियत निरन्तर होने दो नियति को ।

...... विवेक दुबे"निश्चल"@...

समय

  समय बदलता समय बदलकर ।
  दिनकर चलता  फिर ढलकर ।
  तारे नभ में फिर से चमके ,
 अपने रजनीचर से मिलकर ।
.
 पाता ज़ीवन ज़ीवन को ,
 फिर ज़ीवन से मिलकर ।
 शास्वत सत्य यही है एक ,
 ज़ीवन पाता ज़ीवन खोकर ।
..... विवेक दुबे"निश्चल"@...

रविवार, 27 मई 2018

समय चला है समय से आगे

समय चला है समय से आगे ।
 सांझ निशा को भोर से मांगे ।
 गहन निशा अंधियारे गढ़कर,
 उजियारे उजियारो से मांगे ।

 समय चला है समय से आगे ।

 बीत रहा है समय समय से , 
 सीमा समय समय से मांगे ।
  दीप्त फूट चली दिनकर से ,
  उजियारे दिनकर से मांगे । 

 समय चला है समय से आगे ।

 रुककर भी रुका नही ज़ीवन ,
 प्रेरणा ज़ीवन ज़ीवन से मांगे ।
 अंत नही है यह एक ज़ीवन ,
 ज़ीवन भी है ज़ीवन से आगे ।

 समय चला है समय से आगे ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@...

जीत का प्रसाद हो ।

जीत का प्रसाद हो ।
 हार का प्रतिकार हो ।

 नभ के भाल पर ,
 भानु सा श्रृंगार हो ।

 नहीं जीतकर भी ,
 जीत का विश्वास हो ।

 तोड़कर हर बंधन ,
 चलने को तैयार हो ।

राह नई गढ़कर ,
 लक्ष्य साकार हो ।

 रजः उड़ाते कदमों का ,
 लक्ष्य को इंतज़ार हो ।

   जीतकर संघर्षो से ,
  ज़ीवन पर विश्वास हो ।

जीत का प्रसाद हो ।
 हार का प्रतिकार हो ।

 .... विवेक दुबे"निश्चल"@...

रुकना नही इन राहों पे

रुकना नही इन राहों पे ,
 बस चलते ही जाना है ।
 मंजिल लक्ष्य नही मेरा ,
 मंजिल तो एक ठिकाना है ।

भोर तले चँदा के संग,
 तारों को छिप जाना है ।
 सूरज की ही गर्मी से ,
 सूरज को पिघलना है ।

 तप्त धरा अंगारों सी ,
 क़दम मुझे बढ़ाना है ।
 शब्दों की शीतलता से ,
 अर्थ मुझे पिघलना है । 

 रुकना नही इन रहो पे ,
 बस चलते ही जाना है । 
"निश्चल" से निष्छल मन को ,
 दूर क्षितिज तक जाना है ।

रुकना नही इन राहों पे ,

..... विवेक दुबे"निश्चल"@...

कलम चलती है शब्द जागते हैं।

सम्मान पत्र

  मान मिला सम्मान मिला।  अपनो में स्थान मिला ।  खिली कलम कमल सी,  शब्दों को स्वाभिमान मिला। मेरी यूँ आदतें आदत बनती गई ।  शब्द जागते...