शुक्रवार, 2 फ़रवरी 2018

कर्म भाव

करकर पूजा कर्म भाव की,
चलना था कन्टक राहों पर।
 सत्य ओढ़ लिया था मैंने ,
 चलकर असत्य के शूलों पर।

 सत्य बार बार सिया था मैंने ,
  ठोकर खाकर गिर गिरकर ।
 गिरकर फिर उठ चलता मैं,
 सत्य शिरोधार्य करकर ।

  न हारूँगा सत्य न छोड़ूँगा मैं,
  चलता बस इतना स्वीकार कर।
  बस सत्य ओढ़ लिया था मैंने 
   बस एक यही नियम लेकर ।

  ..... विवेक दुबे "निश्चल"©......

सास्वत सत्य


हाँ मुझे आँगे बहुत जाना है ।
दूर निकल बहुत जाना है ।

 निकल दूर बहुत अपनों से ,
 दिल अपनों का दुखाना है ।

 लौटूँगा फिर एक दिन में ,
 जब एकाकी हो जाना है ।

स्वप्निल  स्वप्न सजाना है ,
 वापस मुझको फिर आना है।

 नींद तो एक बहाना है ।
 माटी को माटी हो जाना है।

 मौत तो एक बहाना है,
 जीवन एक ठिकाना है ।

 आना है और जाना है ,
 साश्वत सत्य पुराना है  ।

 हाँ मुझे बहुत आँगे जाना है ।

  .... विवेक दुबे "निश्चल"©.....
Blog post 2/2/18

सत्य

जो भागे सत्य से , वो साहित्य कैसा।
 आईना बही दिखाता , जो है जैसा।

सम्बंध न तेरा है न मेरा है।
 यह दुनियाँ रेन बसेरा है।
 उड़ जाएगा पंक्षी एक दिन,
 पिंजरे में दो दिन का डेरा है।

.... विवेक दुबे "निश्चल"©....

सत्य

सनातन का सत्य यही ।
 सनातन का अंत नही ।
               सृष्टि का चक्र यही ।
                असुरों का अंत नही ।
  हर युग में हुआ यही।
  हैं रावण कंस यहीं। 

   .. विवेक दुबे.....

सत्य में बड़ा सतित्व है।
 असत्य बड़ा विचित्र है।
 आता बढ़चढ़ कर सामने,
 सत्य होता नही भृमित है।

.. विवेक दुबे..

कुछ लिखो अपना कुछ कहो अपना।
 सत्य नही जीवन जीवन एक सपना।

....विवेक दुबे©...
 इतिहास लिखें न हम कल का।
 इतिहास लिखें हम कल का।
      राह बदल दें हम सरिता की,
      सत्य लिखें हम पल पल का।

  .... विवेक दुबे©....


साँझ तले उजियारा छुप जाता है।
 अँधियारा तो आता ही आता है।

दुःख ही सत्य जगत का,
सुख तो बस आभास है।
 अंधकार से लड़ते लड़ते,
 हारा हर दम प्रकाश है ।
 ...

दीपक ने उजियारा ही बांटा है ।

 नीचे अपने अंधेरा ही काटा है ।

 हर रात की यही कहानी है।
 सुबह तक रात तो बितानी है।

...
दीप उजियारा बाँटता है।

 नीचे अंधेरा काटता है।

...विवेक दुबे,"निश्चल"..





कंटक पथ चलना होता है

कन्टक पथ पर चलना होता है ।
सत्य साथ के होना होता है ।
       धर धैर्य हृदय में सह कष्टों को ,
       हृदय प्रकट राम तब होता है । 
  विजय त्रिलोकपति पर पाकर ,
 राज्य विभीषण को देना होता है ।
       सुनकर एक पुकार किसी की,
       सीता को भी खोना होता है  ।
  वचन भंग न हो जाए पिता के ,
 वन वासी तब होना होता है ।
       खाकर जूठे बेर शबरी के ,
     शत्रु को पूज्य कहना होता है ।
 जीता जब स्वयं ने स्वयं को ,
 हृदय प्रकट राम तब होता है ।
   ..... "निश्चल" विवेक दुबे....

राम तुम आए थे तब

 राम आए थे , तुम जब ।
    नष्ट हुआ था , जब  सब ।
    राम आए थे , तुम जब ।
    मिटे भय भृष्टाचार सब ।

   पाप व्यभिचार,  सब नष्ट हुए  ।
    राम राज्य में ,  सब संतुष्ट हुए।

  समय पलटा,    युग बदला ।
   फिर आये, दानब लेने बदला ।
   धरती कांपी  ,  अम्बर डोला ।
   मानव ने फिर , बदला चोला ।

   सूर्पनखा दशानन खरदूषण ,
   करते फिर अत्याचार सुदर्शन ।

   पाप अनाचार बहुत बड़ा ,
   चहुँ और व्यभिचार मचा ।
   
     कोहराम मचाते आए फिर क्षण ,
    त्राहिमाम त्राहिमाम करते जन ।

   अब न देर लगाओ रामा तुम  ,
  अब तो आ जाओ हे रामा तुम ।

  ।। राम नवमी की मंगल कामनाएं ।।
  .... विवेक दुबे "निश्चल"@...... vivekdubeyji.blogspot.com
Blog post 2/2/18

गुरुवार, 1 फ़रवरी 2018

वो कंकड़

 शिला पत्थर तोड़ता वो ।
 स्वेद कण जोड़ता वो ।
     तर तन परिश्रम धार से ।
      टूटता पत्थर एक प्रहार से ।
 लीन अपने पुरुषार्थ में ।
 भावहीन वो हर भाव में ।
          हार कर अपने श्रम को,
          झोंकता पेट की आग में ।
 टूटता स्वार्थ के सँसार में ।
 लगा नित इसी प्रतिकार में ।
          टूटतीं आशाएँ हर प्रहार से,
         बदलतीं कंकर के आकार में ।
   खो गया वो पाषाण में
   ज्यो निष्प्राण वो प्राण में
               पाषाण हुआ वो भी ,
               कंकर की झंकार में ।
  ..... विवेक दुबे ©.....
2-
  पाषाण शिला तोड़ता वो ।
   ललाट स्वेद जोड़ता वो ।
   तर तन परिश्रम धार वो।
   लिप्त अपने पुरुषार्थ वो ।
          टूटता पाषाण एक प्रहार में ।
          वो भावहीन  हर भाव में।
          हार कर अपने श्रम को,
           झोंकता पेट की आग में।
 टूटता स्वार्थ के सँसार में ।
 लगा नित इसी प्रतिकार में ।
   आशाएँ देता हर प्रहार को ,
  बदलता शिला को आकार में ।
                खो गया पाषाण में ।
                 कंकड़ की झंकार में ।
                 सहता हर प्रहार को ,        
                 निष्प्राण ज्यो प्राण में ।
  .... विवेक दुबे ©.....
          1/2/18
 3-    वो कंकड़ ,
    ठुकराया सा ,
     बिसराया सा ,
     उसे निरंतर ।

     टूटा आघातों से ,
     आ पड़ा धरा पर ।
     जूझा तृसकारो से ,
      लड़ता हालातों से ,
      धुमिर धूल धरा पर । 

           जल लहरों में सँग थपेड़ों के , 
           बहकर आया एक तट पर ।
           शांत पड़ा निष्कांत पड़ा ,
            शून्य हुआ वो घिसकर । 

    आए कोई एक दिन तट पर ,
    सहज सवारे फिर घिसकर ।
    पूजे फिर निष्काम भाव से ,
    शायद वो हो जाए शँकर।
            ... विवेक दुबे©.....
     Blog post    1/2/18





कलम चलती है शब्द जागते हैं।

सम्मान पत्र

  मान मिला सम्मान मिला।  अपनो में स्थान मिला ।  खिली कलम कमल सी,  शब्दों को स्वाभिमान मिला। मेरी यूँ आदतें आदत बनती गई ।  शब्द जागते...