ज़िंदगी को न समझ सकी ज़िंदगी।
बस इस तरह सफर रही ज़िंदगी ।
करती रही बार बार वादे वो ,
फिर भी बे-वादा रही ज़िंदगी।
पाकर ख्याल खो गईं हक़ीक़तें ,
क्यों ख़्वाब पालती रही ज़िंदगी ।
पढ़ी जो आज तक किताबों में ,
बस बेहतर तो थी बही ज़िंदगी।
जी रही दुनियाँ दुनियाँ के वास्ते ,
फिर भी दुनियाँ में नही ज़िंदगी ।
रूठता है क्यों तू अपने आप से ,
तेरे ही वास्ते तो जी रही ज़िंदगी ।।
..... विवेक "निश्चल"@..
बस इस तरह सफर रही ज़िंदगी ।
करती रही बार बार वादे वो ,
फिर भी बे-वादा रही ज़िंदगी।
पाकर ख्याल खो गईं हक़ीक़तें ,
क्यों ख़्वाब पालती रही ज़िंदगी ।
पढ़ी जो आज तक किताबों में ,
बस बेहतर तो थी बही ज़िंदगी।
जी रही दुनियाँ दुनियाँ के वास्ते ,
फिर भी दुनियाँ में नही ज़िंदगी ।
रूठता है क्यों तू अपने आप से ,
तेरे ही वास्ते तो जी रही ज़िंदगी ।।
..... विवेक "निश्चल"@..