बुधवार, 19 अप्रैल 2017

ज़िन्दगी

 ज़िंदगी को न समझ सकी ज़िंदगी।
 बस इस तरह सफर रही ज़िंदगी ।

  करती रही बार बार वादे वो ,
  फिर भी बे-वादा रही ज़िंदगी।

 पाकर ख्याल खो गईं हक़ीक़तें ,
 क्यों ख़्वाब पालती रही ज़िंदगी ।

 पढ़ी जो आज तक किताबों में  ,
 बस बेहतर तो थी बही ज़िंदगी।

 जी रही दुनियाँ दुनियाँ के वास्ते ,
 फिर भी दुनियाँ में नही ज़िंदगी ।

 रूठता है क्यों तू अपने आप से ,
 तेरे ही वास्ते तो जी रही ज़िंदगी ।।
    ..... विवेक "निश्चल"@..




कलम चलती है शब्द जागते हैं।

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