फूटें कोंपल फिर शाखों से ।
शोले दहके बुझती राखों से ।
शान्त नही है वो नीरनिधि ,
लहरें टकरातीं किनारों से ।
मेघ मचलते अंबर आँगन में ,
बूंद बिखरती सौम्य फुहारों से ।
दीप्त रहे जो शून्य साधकर ,
हुई पराजित निशि तारों से ।
गिरता फिर उठ चल पड़ता ,
टकराता जो काल प्रहारों से ।
चलता बस लक्ष्य मानकर ,
जीत टली है कब हारों से ।
लक्ष्य नही है तब लक्ष्य कोई ,
चित्त चले जब आगे विचारों से ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@....
शोले दहके बुझती राखों से ।
शान्त नही है वो नीरनिधि ,
लहरें टकरातीं किनारों से ।
मेघ मचलते अंबर आँगन में ,
बूंद बिखरती सौम्य फुहारों से ।
दीप्त रहे जो शून्य साधकर ,
हुई पराजित निशि तारों से ।
गिरता फिर उठ चल पड़ता ,
टकराता जो काल प्रहारों से ।
चलता बस लक्ष्य मानकर ,
जीत टली है कब हारों से ।
लक्ष्य नही है तब लक्ष्य कोई ,
चित्त चले जब आगे विचारों से ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@....