शनिवार, 24 नवंबर 2018

जीत टली है कब हारों से ।

फूटें कोंपल फिर शाखों से ।
शोले दहके बुझती राखों से ।

    शान्त नही है वो नीरनिधि ,
    लहरें टकरातीं किनारों से ।

मेघ मचलते अंबर आँगन में ,
बूंद बिखरती सौम्य फुहारों से ।

  दीप्त रहे जो शून्य साधकर , 
  हुई पराजित निशि तारों से ।

गिरता फिर उठ चल पड़ता ,
टकराता जो काल प्रहारों से ।

    चलता बस लक्ष्य मानकर ,
   जीत टली है कब हारों से ।

लक्ष्य नही है तब लक्ष्य कोई ,
चित्त चले जब आगे विचारों से ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@....

जीत हार प्रेम की ,

जीत हार प्रेम की ,  प्रीत रीत पीर सी ।
छीर छीर बिखेरती , नैन नीर तीर सी ।

डूबती उगती, अरनिमा शुचि शरीर सी।
तुषार हार उकेरती,वसुधा तन हीर सी ।

रीतती व्योम से, तमसा गम्भीर सी ।
साथ भोर झूमती ,निशि सुधीर सी ।

सींचती रीतती , रजनी निहार नीर सी ।
साजती सुहागती ,यामिनी रजनीश सी ।

...विवेक दुबे"निश्चल"@..

(अरुणिमा -सूर्य पहली किरण)
(शुचि -सूर्य)
(निहार-ओस)
(सुधीर-उज्वल )
(तमसा-संध्या)
(निशि-रात्रि)
         
डायरी6(41)

खामोशियों को भी खर्च कर गया ।

खामोशियों को भी खर्च कर गया ।
मैं लम्हा लम्हा यूँ दर्ज कर गया ।

छुपाकर आब पलकों की कौर में ,
हर दर्द निग़ाह का अर्ज कर गया ।

उड़ेलकर सारी खुशियाँ दामन में ,
नज़्र निग़ाह को मैं फ़र्ज़ कर गया ।

चलकर उजालों से अँधेरो तक ,
साथ होंसलों का कर्ज़ कर गया ।

लगता रहा मरहम रहमत का ,
हर दर्द वक़्त सर्द कर गया ।

सोचता रहा खमोशी से "निश्चल" ,
क्यों मैं वक़्त वो हर्ज कर गया ।

... विवेक दुबे"निश्चल"@....
(फ़र्ज/प्रार्थना/मान लेना)

डायरी 6(40)

मौन रहा फिर भी बोल रहा हूँ ।

..चुनाव परिदृश्य...

एक मतदाता का मन पढ़ने का प्रयास
      =================


मौन रहा फिर भी बोल रहा हूँ ।
अंधियारों सा मैं डोल रहा हूँ ।

पसरा तम सरपट ले करबट ,
तमस तन तम  घोल रहा हूँ ।

व्यथित नही सृष्टि फिर भी ,
तम को तम से तौल रहा हूँ ।

चलता हूँ फिर भी दृष्टि लेकर ,
निःशब्द रहा पर बोल रहा हूँ ।

रहा समय सदा दृष्टा बनकर ,
भेद समय पर खोल रहा हूँ ।

दाग लगे है दामन में दामों के ।
हरदम फिर भी अनमोल रहा हूँ ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@.....

शुक्रवार, 23 नवंबर 2018

मुक्तक 665/669

664
सफ़र इन राहों पर अनन्त विस्तार सा ।
 मिलता हर मोड़ पर जीवन श्रृंगार सा ।
 मिलता पथ उपवन तपन ढ़ले ही ,
 हर्षित पथ तृष्णाओं के तृसकर सा ।

   ..विवेक दुबे"निश्चल"@...
666
हर हाल बे-हाल कचोटते रहे ।
कुछ ख़ुश ख़याल खोजते रहे ।
चलते रहे सफ़र जिंदगी के ,
ये दिल हाल मगर रोज से रहे ।

.. विवेक दुबे"निश्चल"@...
667
यह कैसे कल की चाहत है ।
 आज लम्हा लम्हा घातक है ।
उठ रहे हैं तूफ़ान खमोशी के ,
साहिल पे नही कोई आहट है ।

... विवेक दुबे"निश्चल"@...
668
शेष नही कही समर्पण है ।
मन कोने में टूटा दर्पण है ।
आश्रयहीन अभिलाषाएं ,
अश्रु नीर नयनो से अर्पण है ।

...विवेक दुबे"निश्चल"@.
669
एक उम्र की तलाश सी ।
एक अधूरी सी आस सी ।
गुजरता रहा उम्र कारवां,
साथ लिए हसरत प्यास सी ।

... विवेक दुबे"निश्चल"@...

शेष रहे अनुबंधों से रिश्ते ।

शेष रहे अनुबंधों से रिश्ते ।
टूट रहे तटबंधों से रिश्ते ।

         सरल नही अब कोई कहीं ,
         अब पलते छल छंदों से रिश्ते ।

स्नेहिल महक उठे नही कोई ,
अब षडयंत्रो की गंधो से रिश्ते ।

      शेष रहे अनुबंधों से रिश्ते ।
      टूट रहे तटबंधों से रिश्ते ।

स्वत्व तत्व की अभिलाषा में ,
अहम तले दबे द्वन्दों से रिश्ते ।

        स्वार्थ भाव की तपन तले ,
        उड़ते अपने रंगों से रिश्ते ।

शेष रहे अनुबंधों से रिश्ते ।
टूट रहे तटबंधों से रिश्ते ।

      ..विवेक दुबे"निश्चल"@...

(स्वत्व-अधिकार)



सोमवार, 19 नवंबर 2018

मुक्तक 562/564

562
प्रसन्नता भी एक चयन है ।
जीवन तो एक मधुवन है ।
चुनते क्यों दुःख आप ही ,
चयन कर्ता जब स्व-मन है ।
..
563
जरा ज़मीर अपना मैं गिरा लेता।
दौलत शोहरत मैं खूब कमा लेता ।
जीता रहता मैं अपनी ही ख़ातिर 
अपनो की मैं निग़ाह भुला देता ।
.... 
564
चलता नही मन साथ कलम के ।
खाली रहे अब हाथ कलम के ।
सिकुड़ती रहीं कुलषित कुंठाएं ,
लिए बैठीं दाग माथ कलम के ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@...

(कुलषित-   कुंठाएं ,)
(क्षुब्ध -  अतृप्त भावनाएं)




रविवार, 18 नवंबर 2018

धूमिल धरा ,रश्मि हीन दिनकर है ।

620
धूमिल धरा ,रश्मि हीन दिनकर है ।
अरुणिमा नही,अरुण की नभ पर है ।

 तापित जल,नीर हीन सा जलधर है ।
 रीती तटनी ,माँझी नहीं तट पर है ।

व्योम तले दबी अभिलाषाएं ,
आशाओं को डसता विषधर है ।

 सीख चला वो अब धीरे धीरे ,
 नियति लेती कैसे करवट है ।

 रिक्त हुए रिसते रिसते रिश्ते ,
प्यासा सा अब हर पनघट है ।

  काल कला की चौखट से ,
 "निश्चल" सी आती आहट है ।

 .... विवेक दुबे"निश्चल"@...
डायरी 6(32)

उसने कहा तुनक कर ,

 619
उसने कहा तुनक कर ,
  तुम क्या लिखते हो ।

  मैंने कहा हँसकर ,
 मैं क्या तुम लिखते हो ।

 गढता हूँ जब शब्दों को ,
 तब तुम ही तो दिखते हो ।

तुम्हे सहज रहा हूँ शब्दो में ,
जब तुम मुझसे मिलते हो ।

 कशिश बड़ी है रिश्तों की ,
 साँस साँस तुम तपते हो ।

कांप रहे उघड़े तन को ,
अचकन से तुम ढंकते हो ।

पाता एक आहट ताप भरी ,
शब्दों में तुम जब झांकते हो ।

कहता हूँ शब्द शब्द तुझको ,
मेरे शब्दों में तुम बसते हो ।

लिखता तुझको अक्षर अक्षर ,
हर अक्षर में तुम सजते हो ।

स्नेहिल सी एक ड़ोर बंधी है ,
तब ही तुम मुझपर हँसते हो ।

 उसने कहा तुनक कर ,
  तुम क्या लिखते हो ।

..... विवेक दुबे"निश्चल"@....
डायरी 6(31)

तलाश सी फुर्सत की ।

618
तलाश सी फुर्सत की ।
वक़्त की ग़ुरबत सी ।

देखते ही रहे आईना ,
निग़ाह से हसरत की ।

आरजू-ऐ-जिंदगी रही ,
 वक़्त की करबट सी ।

 चाहकर भी न मिली ,
चाहत सी मोहलत की ।

 तलाशता रहा सफ़ऱ ,
 शोहरत की दौलत सी ।

.... *विवेक दुबे"निश्चल"*@...
डायरी 6(30)

वक़्त का एक तकाजा है ।

617
वक़्त का एक तकाजा है ।
वक़्त हुआ आधा आधा है ।

  चलता साथ सिरे से सिरे तक ,
 मिलता सिरा फिर भी आधा है ।

न कुछ कम है न ज्यादा है ।
हसरतों से इतना ही वादा है ।

चलते रहे सुबह से साँझ तलक,
बस अब मुक़ाम का इरादा है ।

जीता है जीतकर हारा है ।
हर हार भी एक सहारा है ।

टूटता सितारा फ़लक से ,
दुनियाँ ने उसे निहारा है ।

 वक़्त ने वक़्त को दुलारा है ।
 हुआ वक़्त भी बे-सहारा है ।

 करता रहा मुक़म्मिल इवादत ,
"निश्चल"को आवारा पुकारा है ।

..... विवेक दुबे"निश्चल"@....
डायरी 6(29)

मैं ढूंढता रहा आप को आप में ।

616
मैं ढूंढता रहा आप को आप में ।
मैं मिलता नही निग़ाह आब में ।
ठहरी रही शबनम हरी दूब पर ,
डुबो ज़िस्म अपना आफ़ताब में ।

राहें रहीं सब व्यर्थ बेकार में ।
चाहत रही नही जब राह में ।
चुकाता रहा मोल हर बात का ,
 ज़िन्दगी रही मगर उधार में ।

 उतर कर कलम खोता रहा,
 खुद को खुद अपने आप में ।
जज़्बात की ऊसर जमीं पर ,
वोता रहा जरखेज अल्फ़ाज़ मैं ।

(जरखेज-उपजाऊ/उर्वर)

... विवेक दुबे"निश्चल"@....
डायरी6(28)

पल पल के पल ।

615
पल पल के पल ।
 पलको पर ये पल  ।

 आज तले वो बीते ,
 गुजरे आते जो कल ।

 छिटक चाँदनी चँदा से,
 निहार चली जमीं तल ।

  कर शीत हृदय धरा का ,
  रुन्दी कदम अगले पल ।

    पल पल के पल ।
    पलको पर ये पल  ।

 उदित चला दिनकर ,
 लेकर नव चेतन बल ।

 दे चेतन जड़ चेतन को,
 साँझ तले जाता छल ।

    पल पल के पल ।
    पलको पर ये पल  ।

   जीवन भृमित आभा से ,
   खो जाता जीवन में ढल ।

   सत्य मिला जब कोई ,
  जीवन जीव गया निकल ।

   पल पल के पल ।
    पलको पर ये पल  ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@.
डायरी 6(27)

कुछ कर लें , अपने मन की ।

614
कुछ कर लें ,
      अपने मन की ।

डगर कठिन है,
       इस जीवन की।

 राह बदलतीं है ,
            चौराहों पर ,

एक अनबन सी,
           मन से तन की ।

दीप्त रहे फिर भी ,
          ज्योत जले जीवन की ।

सिमेट चले तम को ,
          दीप तले तम सी ।

आशाओं के हाथों ,
            जीत हर से ,

खेल रही है ,
            पल पल सी ।

डगर कठिन है ,
          इस जीवन की।

  .... विवेक दुबे"निश्चल"@....
डायरी 6(26)

गौर चिराईये मेरे आँगन की ।

613
एक धूप सुनहरी पावन सी ।
गौर चिराईये मेरे आँगन की ।

फुदक रही आँगन कौने कौने ,
लगतीं कितनी मन भावन सी ।

 बैठ चहक उठी मुँडेर तले ,
बहती है सरिता गायन की ।

रचतीं नित नित गीत नए ,
गुंजित हर राग सुहावन सी ।

भींग रहा है हर्षित अन्तर्मन ,
रिमझिम बूंदे ज्यों सावन की ।

पुष्प खिले वृक्ष पलाश पर ,
अबीर उड़ी हो फागन की ।

बीत रहे पल पँख लगाकर ,
बयार चली मस्त पवन सी ।

उड़ जाएंगी एक भुनसारे ,
आस अधूरी इस मन की ।

एक धूप सुनहरी पावन सी ।
गौर चिराईये मेरे आँगन की ।

..... विवेक दुबे"निश्चल"@...

वो धूप सुनहरी आँगन सी ।
 प्रीत घनेरी मन भावन सी ।
एक प्रणय निवेदित चितवन ,
वो चँचल सजनी साजन की ।
..."निश्चल"@.
डायरी 6(25)


प्रफुल्लित हुए नयन ,

 प्रफुल्लित हुए नयन ,
    जब जब उसको देखा ।

शब्दों की शब्दो के,
   बीच रही फिर भी रेखा ।

 नेह निमंत्रण नयनों का ,
     नयनो ने नयनों को टोका ।

मूक रहे अधर हरदम ही ,
   शब्दों ने शब्दो को रोका ।

 भाव विकल पल मन के ,
     पल पल छण को खोता ।

  नयन रहे नम हर दम ही ,
       पलकों ने नम को सोखा ।

 फूटें नव अंकुर भावों के ,
         भाव तले मन को वोता ।

 जीव चला जीवन लेकर ,
        "निश्चल" चल देता मौका ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@..
डायरी 6(24)

एक तस्वीर उतारी अल्फ़ाज़ की ।

एक तस्वीर उतारी अल्फ़ाज़ की ।
जुबां गुजारिश रही आवाज़ की ।

 खनके न तार मचलकर कोई,
 ख़ामोश शरारत रही साज की ।

देखता रहा आसमान हसरत से,
हसरत परिंदा रही परवाज की ।

करते रहे रक़्स अश्क़ निग़ाहों में ।
टूटे घुँघरू ख़ामोश अदा रियाज की।

चला न कोई सितारा साथ चाँद के ,
डूबते चाँद ने मग़रिब की लाज की ।

.... *विवेक दुबे"निश्चल"*@..
डायरी 6(23)

कलम चलती है शब्द जागते हैं।

सम्मान पत्र

  मान मिला सम्मान मिला।  अपनो में स्थान मिला ।  खिली कलम कमल सी,  शब्दों को स्वाभिमान मिला। मेरी यूँ आदतें आदत बनती गई ।  शब्द जागते...