शुक्रवार, 1 मार्च 2019

अभिनन्दन

नन्दन वन्दन हे *अभिनन्दन* ,
लौटे अंगद सा पग धरकर ।

डिगे नही तनिक भी पथ से ,
हुंकारे तुम साहस भरकर ।

एक सिंह चला सीना ताने ,
दहाड़ उठे गर्जन कर कर ।

कांप उठा वो शत्रु भी ,
छलता जो हमको धोके देकर ।

शौर्य दिखाया मातृभूमि को ,
लौटे तुम वन्देमातरम गा कर ।

 झूम उठा हर रंग तिरंगा ,
अपने बीच तुम्हे पा कर ।

होली है और आज दिवाली है ,
रंग बसंती उड़ते हाथों में भरकर ।

जन जन आज वतन का ,
गर्व करे "निश्चल" *अभिनन्दन* पर ।

.... विवेक दुबे"निश्चल@....

एक अंदाज़ सूफ़ियाना सा ।

 एक अंदाज़ सूफ़ियाना सा ।
 ये जिंदगी एक ठिकाना सा ।

कह गया अल्फाज़ खामोशी से ,
आया नही जुबां गुनगुनाना सा ।

 गीत हो या हो ये ग़जल मेरी ,
 लफ्ज़ लफ्ज़ रहा बेगाना सा ।

चाहत-ऐ-ज़िंदगी की डगर पर ,
अनजान भी मिला पहचाना सा ।

स्याह रात साथ लिए सितारों का,
भोर तलक ढ़ले मिले सुहाना सा ।

चलता रहा सफ़र सफर के वास्ते,
"निश्चल" चला तन्हा दीवाना सा ।

.... विवेक दुबे"निश्चल@".....
डायरी 6(124)

तोड़ न पाईं होंसले, वो मुश्किलें भी ,

 जागता रहा , कुछ हम राज सा रहा ।
 छूटता किनारा , दरिया साथ सा बहा ।

बुझना बुझदिली , जलना मुहाल सा रहा ।
तूफ़ान के दिये सा,  ही मेरा हाल सा रहा ।
...
सिखाता वक़्त , हालात से हरदम रहा ।
हारता  इंसान , ज़ज्बात से हरदम रहा ।
...
तोड़ न पाईं होंसले,  वो मुश्किलें भी ,
सँग छालों के , पाँव सफर करता रहा ।
...
कौन है अपना , अब किसे कहूँ नाख़ुदा ,
लूटने का काम , जब रहबर करता रहा ।
...
दिन उजलों से टले , रातें अंधेरी साथ सी ।
चलते रहे सफ़र पर, बस हसरतें हाथ सी ।

...... विवेक "निश्चल"@...
दायरी 6(123)

आधी सी इस आवादी में ।

आज़ाद वतन की आज़ादी में ।
 आधी सी इस आवादी में ।

 बैर धुले है मज़हब के ,
 बंट गए कुछ जाती में ।

 लिप्त हुए है यूँ सब ,
अपनी ही आज़ादी में ।

 रंग उड़े है गुलशन के ,
 चलती गोली वादी में ।

ताल ठोकते है कुछ ,
सत्ता की पहरेदारी में ।

 जहर उगलते नित जो ,
 अपनी ही मुंसिफ़ दारी में ।

 रहा नही क्यों , देश प्रेम अब उनमें ,
 सजे हुए जो ,परिधानों के खादी में ।

   लुप्त हुई आज़ादी अब क्यो ,
  आजाद भगत गांधी बलिदानी में ।

... विवेक दुबे"निश्चल"@...

डायरी 6(125)

मुझे समझने के लिए, फ़िकर चाहिए ।

मुझे समझने के लिए, फ़िकर चाहिए ।
निग़ाह नज़्र में ,  आब जिकर चाहिए ।

ख़बर को ख़बर की ख़बर चाहिए।
असर को असर का असर चाहिए ।

न समझ हो कुछ , समझने के लिए , 
फक़त दिल,इतना ही असर चाहिए ।

टूटे नही होंसले ये कभी चलते चलते  ,
मंजिल का रास्तों पे जिकर चाहिए ।

दर्द मेरे दिल का , निग़ाह में नजर चाहिए।
शाम-ए-महफ़िल में,मेरा भी जिकर चाहिए ।
...
ग़ुम हुए साये भी यहाँ इस कदर ।
पराया सा लगता है अपना शहर ।

है नही आब आँख में अब कोई ,
बेअसर सा हुआ हर निग़ाह असर ।
..
कुछ हम यूँ उनके हवाले रहे ।
निग़ाह नुक़्स निकाले न गए ।

 दुआओं के असर उस नज़्र में ,
 इल्म ताबीज़ गले डाले न गए ।
...
 डूबता रहा उभरता सा रहा है ।
 दरिया का इतना असर रहा है । 

 रातें थी       सितारों से  सजी ,
 नाम चाँद के सफऱ सा रहा है।
...
   शब्द किताबों में होते हैं ।
    शब्दों में असर होते हैं ।

    जागते है शब्द सदा ,
     नही शब्द नही सोते है ।

     .. विवेक दुबे"निश्चल" @.
डायरी 6(122)a

यूँ रास्ते चले , कुछ बाँटते चले ।


 यूँ रास्ते चले ,  कुछ बाँटते चले ।
 हसरत-ए-हालात , पास से चले ।

ये गुजरते दिन , दिन बदलकर ,
कल नही, साथ , आज से चले ।

बदलता सा रहा, हर दिन मुक़द्दर ,
क्यूँ जीतते , हार के , हाथ से चले ।

बदलती रही , तदबीरें , तक़दीरों सी ,
हाथ ,लकीरों में,मुक़द्दर नापते चले ।

मन मशोसता रहा, रूह का समंदर ,
ज़िस्म-ओ-जाँ जहां,बिसात पे चले ।
  
  डूबता रहा, दरिया ही समंदर में ,
 "निश्चल" किनारे क्यूँ ,साथ से चले ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@....

मन मशोसते रहे , रूह के समंदर ,
 ज़िस्म ज़िस्म जहां , बिसात पे चले ।
.
डायरी 6(121)

घर जले चिंगारियों से ,

घर जले चिंगारियों से , 
 चराग़ थे नही आफतों के लिए । 

निग़ाह दोस्ती थी कभी , 
सामने थे खड़े नफरतों के लिए ।

 वक़्त सा चलता रहा ,
 हर वक़्त वक़्त के अहसास से ,

 सफ़र रहा तारीखों सा ,
मोहताज से रहे शोहरतों के लिए ।

एक बिसात जिंदगी की ,
हर चाल शेह और मात सी ,

हार में जश्न जीत का,
मनाते ही चले दौलतों के लिए ।

"निश्चल"चले शिद्दत से ,
  इस सफ़र-ए-जिंदगी पर ,

न पाए चैन कभी ,
तरसते मिले मोहलतों के लिए ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@..
डायरी 6 (121)

अब और नही सहेंगे ।

अब और नही सहेंगे ।
न ही अब ख़ामोश रहेंगे ।

अब उनकी ही भाषा में ,
 उनसे अब बात करेंगे ।

करते है जो छुप कर हमले ,
हम उनको पहले आगाह करेंगे ।

नजर अंदाज किया था जिनको ,
वो अब अपना अंजाम भरेंगे ।

लहु खोलता माँ के लालो का ,
अब आकाश जमीं पाताल हिलेंगे ।

पार हुई पराकाष्ठा सभी माधव की ,
अब महा समर के बिगुल बजेंगे ।

निशान रहे न वो नाम रहे कहीं ,
अब तो भारत को बस एक कहेंगे ।

......विवेक दुबे"निश्चल"@...
डायरी 6(120)
अब और नही सहेंगे ।

ओ राजनीति के रणकारों ।

ओ राजनीति के रणकारों ।
 ओ सत्ता के फनकारों ।

भारत माता के बेटों की ,
 कब तक बलि चढ़ाओगे ।

 मातृ भूमि के  लालों पर ,
 घात पे घात कराओगे ।

  अफ़सोस न हीं कोई पछतावा ।
  बस घड़ियाली आँसू बहाओगे ।

  पठानकोट उरी अब पुलवामा ।
  कितनी बहनों का सुहाग छुड़ाओगे ।

ओ राजनीति के राणकारों ।
 ओ सत्ता के फनकारों ।

  बातों को अब विश्राम धरो ।
  अब तो सीधा संग्राम करो ।

  छुरा घोंपते जो छुप छुप कर ,
  घर में घुसकर उनका संहार करो ।

न रहें जड़ें जमीं भीतर तक ,
जड़ पर ही अब बार करो ।

जयचंद डटे जो घर भीतर ,
उनको पहले बेघर बेकार करो ।

ख़त्म करो तुम 370 को  ,
देव भूमि को साथ करो ।

एक देश एक नियम चले ,
समान संहिता की बात करो ।

आजाद वतन की आजादी से,
अब न कोई मज़ाक करो ।

ओ राजनीति के राणकारों ।
 ओ सत्ता के फनकारों ।

अब तो बस प्रतिकार करो ।
खड़क भवानी पे धार धरो ।

अचूक निशाना हो जिसका ,
ऐसा अब हर प्रहार करो ।

न स्वागत न सत्कार करो ।
 अब तो बस संहार करो ।

 बहुत हुआ खेल आँख मिचौली का ,
 शत्रु से अब सीधा ही संग्राम करो। 

 इन कूटनीति के वादों पे ,
 इन उलझे आधे से वादों पे ।

 अब तनिक नहीं विश्वास करो ,
 शत्रु से अब सीधा ही संग्राम करो ।

 कब तक गिनते गिनवाते जाओगे,
एक के बदले दस दस लाओगे ।

 नाम रहे न विश्व पटल पर ,
 अब ऐसा कोई इंतज़ाम करो ।

  पा सम्पूर्ण विजय विश्राम करो ,
 शत्रु से अब सीधा ही संग्राम करो।

नही तनिक भी मेरी परवाह करो ।
करो करो बस शत्रु का संहार करो ।

 शत्रु आ छुपे जब मेरे पीछे तब ,
तुम पहले मुझ पर ही प्रहार करो ।



   .... विवेक दुबे"निश्चल"@...
डायरी 6(119)

क्यों आग लगी, अमन को मेरे ।

सज़ल नयन करते नमन ।
मेरे यह श्रद्धा सुमन ।
अर्पित करता मैं श्रद्धांजलि ,
नमन नमन कोटिशः नमन ।
====
क्यों आग लगी, अमन को मेरे ।
क्यों दाग लगे, चमन को मेरे ।
गद्दार हुए ,साजिश में शामिल ,
क्यों ज़ख्म मिले , वतन को मेरे ।
=====
सिंदूर उजड़ते , सूनी राखी ।
 सूनी कोख , छाया की लाचारी ।
 कुटिल नीतियाँ सत्ता की ।
 सैनिक की छाती गोली खाती ।
====
फटा कलेजा उसका जाता है।
जब बेटे का शव घर आता है।

भारत माँ का सैनिक बेटा,
जब गद्दारी से मारा जाता है।

क्या तुम केवल नारों में ,
56 इंची कहलाआगे ।

बोलो तुम दुश्मन की
कब ईंट से ईंट बजाओगे।

कब तक शोक सभाएँ ,
कब तक श्रद्धा सुमन चढ़ाओगे ?

बड़े बड़े वक्तव्यों से ,
माँ की सूनी गोदी बेहलाओगे ।

सत्तासीनों ! प्रतिशोध करो ,
सेना का जय घोष करो ।

कह दो बंधन नही कोई ,
तुम शत्रु में बारूद भरो ।

 अन्यथा तुम पछताओगे ,
 किस मुँह से आँख मिलाओगे ।
=====
नही तनिक भी मेरी परवाह करो
 शत्रु आ छुपे जब मेरे पीछे तब
तुम पहले मुझ पर ही प्रहार करो
 करो करो बस शत्रु का संहार करो

 ... विवेक दुबे "निश्चल"@...
डायरी 6(118)

कलम चलती है शब्द जागते हैं।

सम्मान पत्र

  मान मिला सम्मान मिला।  अपनो में स्थान मिला ।  खिली कलम कमल सी,  शब्दों को स्वाभिमान मिला। मेरी यूँ आदतें आदत बनती गई ।  शब्द जागते...