शनिवार, 9 जून 2018

मुक्तक 424/426

424
ज़ीवन का गणित 
 जुड़ता घटता प्रति पल कुछ न कुछ ।
 चलते रहते गुणा भाग भाग भाग में । 
 अंत यही बस ज़ीवन प्रमेय का ,
 शून्य शेष रहा बस अंत हाथ में ।
.... 
425
पर्दे खुले से कुछ नही खुले से ।
 दर्द मिले से कुछ नही गिले से ।
 ज़िंदगी के ये सिलसिले से ।
 हारकर ज़िंदगी से मिले से ।
  ... 
426
यह आकाश घनेरा है ।
 दूर क्षितिज तक फैला है ।
 पाया संग सितारों का ,
 फिर भी हरदम अकेला है ।
.... विवेक दुबे....

मुक्तक 420/423

420
अहसास हुआ वक़्त की कमी का ।
 आभास हुआ वक़्त की जमीं का ।
 रंग ले हर पल खुशियों के रंग से , 
 अंदाज़ यही ज़िंदगी-ऐ-तिश्निगी का ।
.421
वो कोई    अदावत नही थी ।
 हुस्न से   शिकायत नही थी ।
 हुआ रुसवा जिस निगाह से ,
 वो निगाह-ऐ-शरारत नही थी ।
...
422
न सिद्ध हूँ न प्रसिद्ध हूँ मैं ,
 न चाहत है शिरोधार्य की ।
लिखता रहूँ अंत समय तक ,
 बनी रहे धार कलम तलवार की ।
... 
423
 तू न तोड़ इन होंसलों को ।
 तू बुन ख़याल घोंसलों को ।
 तिनका तिनका जोड़ता जा ,
 दे आवाज़ अपने मुर्शिदों को ।
... विवेक दुबे"निश्चल"@..

मुर्शिद - रास्ता दिखाने बाला /पूज्य व्यक्ति/सही राह पर प्रेरित करने बल

मुक्तक 414/419

414
तस्वीरों को खींचता आदमी ।
वक़्त को भींचता आदमी ।
सहजता आज को क्यों ,
आज से ही रीतता आदमी ।
415
तुम लिखो अपना ।
कुछ कहो अपना ।
सत्य नही जीवन ,
जीवन एक सपना।
416
कुछ पल ठहर तो सही ।
कुछ वक़्त गुजार तो सही ।
होगा फैसला खुद-बा-खुद ,
क्या है सही क्या न सही ।
417
नीर नीर नदिया सा तू पीता जा ।
"निश्चल" सागर सा तू जीता जा ।
मचलें खेलें लहरें तेरे दामन में ,
दामन को अपने भिंगोता जा ।
418
अतृप्ति यह भावों की ।
संतृप्ति यह हालातों की ।
आदि अनादि की परिधि से ,
सृष्टि चलती विस्तारों की ।
416
जो न मिल सका गम न कर ।
जो मिल सका उसे कम न कर ।
जो मिला वो कम नही ,
 जो न मिला कोई गम नही ।
419
वो न रहा यह भी गुजर जाएगा ।
वक़्त तो वक़्त ही कहलाएगा ।
डूबकर भी समंदर में दरिया ,
तासीर-ऐ-आब कहलाएगा ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@..

मुक्तक 410/413

410
क़ुसूर बस इतना रहा ।
बे-क़ुसूर मैं अदना रहा ।
न बढ़ा कद फरेब का ,
सच तले मैं चलता रहा ।
411
मुस्कुराते है अब हम हिसाब से ।
जीना है हमे दुनियाँ के रिवाज़ से ।
खुलकर ख़ुशी बयां करे कैसे ,
जीते है अब हम बड़े आदाब से ।
412
सोचो बस तुम आज को ।
भूल जाओ बीती बात को ।
न करो फ़िक़्र आते कल की ,
बस जिओ पूरा आज को ।
413
खोया ख़यालों में अक्सर ।
बंद सवालों में अक्सर ।
 हारकर खुद ही खुद से ,
 जीत जाता मैं अक्सर ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@....

मुक्तक 406/409

406
शरद सुधाकर भरा सुधा जल से ।
उज्वल धवल किरणो संग से ।
छाया अपने पूरे यौवन संग
 छलकाता सोम पीयूष गगन से ।
407 
 छंटती है धुंध कोहरे हटते हैं ।
खिली धूप से चेहरे निखरते है ।
चलते छोड़कर राह पुरानी ,
नई राह होंसले आगे बढ़ते है ।
408
आज हर अजनबी भी ,
जाना पहचाना लगता है ।
बजह फकत इतनी सी ,
 उसके ग़जल कहने का,
 अंदाज पुराना लगता है ।
409
सारे किस्से किताब हुए ।
यूँ जिंदगी के हिसाब हुए ।
दिल ने चाहा समंदर को ,
 दरिया भी न हम राज हुए ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@..

मुक्तक 401/405

401
न हारना होंसला कभी ,
मंजिल अभी बाँकी है ।
मुक़ाम अभी बाँकी है ।
सफर अभी बाँकी है ।
402
रौशनी की तलाश में चला हूं मैं ।
यह अंधेरे छंट जाएंगे एक दिन ।
उजाले भी होंगे कहीं न कहीं 
अंधेरे भी गुम होंगे कहीं न कहीं ।
403
यह नील गगन अनंत विस्तार लिए ।
विधि के आगे विधि का श्रृंगार लिए ।
खोज रहा है जैसे ख़ुद को ख़ुद में
अपने ही न होने का अहसास लिए।
404
अनंत अंतरिक्ष को खोजता मैं ।
कौन हूं क्यों हूं यही सोचता मैं ।
इस स्वार्थ से परे भी है क्या कुछ
यही प्रशन ख़ुद से ख़ुद पूछता मैं ।
405
ख़ुद से ख़ुद का द्वंद था ।
पर थोड़ा सा प्रतिवंध था ।
चलता था उजियारों संग 
फिर भी अँधियारो का संग था ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@..






मुक्तक 396/400

396
ज्यों ज्यों अक़्स छुपाया है ।
त्यों त्यों अंधियारा छाया है ।
ढूंढते है जिन्हें तन्हाई में हम,
वो मेरा ही हम साया है ।
397
शब्दों ने फ़र्ज निभाया था ।
भावों ने साथ निभाया था ।
दे न सका जुबां मगर वो ,
 कहते बार बार लड़खड़ाया था ।
398
जब जीवन की साँझ ढली ।
तब जाकर आँख खुली ।
 सोचूँ अब क्या खोया क्या पाया,
 क्यों ज़ीवन व्यर्थ गवांया ।
399
यहां वहां जो घटता है ।
आस पास जो दिखता है ।
यह मन वही तो लिखता है ।
किंतु सत्य कहां बिकता है ।
400
तुम अक़्स बन सँवारो मुझको ।
मेरी गुस्ताखियों से उबारो मुझको ।
क़तरा हुन ओस की बूंद का मैं ,
बहता हुआ दरिया बना दो मुझको ।
....विवेक दुबे"निश्चल"@..

मुक्तक 394/399

394
पूछने चला था अँधेरो से वो ,
साथ उजालों ने तुझे क्या दिया ।
जो समेट कर दामन में अपने ,
उजालों को बिखर जाने दिया ।
395 
परवाह नही मान की सम्मान की ।
फ़िक़्र है मुझे बस स्वाभिमान की ।
मैं नही मांगता दुनियाँ से कुछ भी,
उसे तो फ़िक़्र है दोनों जहान की ।
396
यह निश्चल नयन सजल से ।
बह जाते थोड़े से अपने पन से।
कह जातीं यह आँखे सब कुछ ,
बरसी जब जब सावन बन के ।
397
यह आसमां रंग बदलता धीरे धीरे ।
चाँद सितारों संग चलता धीरे धीरे ।
दूर क्षितिज से दूर क्षितिज तक ,
सूरज जलता फिर ढलता धीरे धीरे।
399
मन समझे मन की भाषा ।
नयन पढ़ें नैनन की भाषा ।
न कोई आशा न अभिलाषा,
जीवन की इतनी सी परिभाषा।

वीििएक दुबेवव

मूक्तक 392/393

392
न जीत लिखूँ न हार लिखूँ ।
 न प्रीत लिखूँ न प्यार लिखूँ ,
 हर दिन धटते बढ़ते चँदा से , 
 मैं बस जीवन हालात लिखूँ ।
..... 
393
राष्ट्र प्रेम को गढ़कर ।
 मधु नेह की भरकर ।
 श्रृंगार कर तू अपना ,
 निज स्वार्थ को तजकर ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@..

गुरुवार, 7 जून 2018

अन्तरा शब्द शक्ति

अंतरा शब्द शक्ति

http://antrashabdshakti.com/?p=3974

*सृजक-सृजन-समीक्षा विशेषांक* में प्रस्तुत है *विवेक दुबे रायसेन (मप्र)*
प्रस्तुतकर्ता
*अन्तरा-शब्दशक्ति*

मैं - विवेक दुबे "निश्चल"
पत्नी- राधा दुबे
पिता-श्री बद्री प्रसाद दुबे"नेहदूत"
माता- स्व.श्रीमती मनोरमा देवी

शिक्षा - स्नातकोत्तर
पेशा - दवा व्यवसाय
निवासी- रायसेन (मध्य प्रदेश)
मोबाइल-- 07694060144

सम्मान एवं उपलब्धियां--

*निर्दलीय प्रकाशन भोपाल*
द्वारा बर्ष 2012 में
*"युवा सृजन धर्मिता अलंकरण"*
से अलंकृत।

जन चेतना साहित्यिक सांस्कृतिक समिति पीलीभीत द्वारा 2017
श्रेष्ठ रचनाकार से सम्मानित ।
*वागेश्वरी-पुंज*
सम्मान से सम्मानित ।

कव्य रंगोली त्रैमासिक पत्रिका
लखीमपुर खीरी द्वारा
*साहित्य भूषण*
सम्मान 2017 से सम्मानित ।

अपना ब्लॉग लिखता हूँ ।
*"निश्चल मन "* नाम से
vivekdubyji.blogspot.com

काव्य रंगोली ,अनुगूंज , कस्तूरी कंचन साहित्य पत्रिका एवं निर्दलीय साप्ताहिक
पत्र में रचनाओं का प्रकाशन।
हिंदी साहित्य पीडिया , कागज़ दिल, मेरे अल्फ़ाज़ , मृत भाषा.कॉम
वेब साइट्स पर रचनाओं का निरन्तर प्रकाशन ।

*आत्मकथ्य* ---
कवि पिता श्री बद्री प्रसाद दुबे "नेहदूत" से
प्रेरणा पा कर कलम थामी।
साहित्यिक परिदृश्य का असर एवं साहित्यकार पिता का अंश , सींचता रहा मन को वृक्ष का रूप लेता राह ।
खून रंग दिखाता है इस बात को सही साबित करता रहा ।
भोपाल से जुड़े होने की बजह से उर्दू ज़ुबान आम बोल चाल में मिली जो रचनाओं में भी इस्तेमाल करने में कोई हिचकिचाहट नही होती ।
सहजता हूँ कुछ घटनाओं को, कुछ पूरी कुछ अधूरी इच्छाओं को ।
देखता जो यहाँ वहाँ कर देता शब्दों की छाँव ।
कभी कभी कुछ न कह पाने की कसक , शब्द बन कागज पर उतर जाती है ।
दवा व्यवसाय के साथ मिलते वक़्त को शब्दों में खर्च करता हूँ ।
बेसे शब्द भंडार की कमी है पास मेरे, कम शब्दों से ही काम चलता हूँ ।
सरल सहज आम बोल चाल के शब्दों का ही प्रयोग , बस प्रयास अपनी बात दिल से कहकर दिल तक पहुंचाने की।अक्सर व्यकरण की गलतियाँ भी करता हूँ, जिन्हें कुछ अजीज सुधारते है ।
बात कहता हूँ निश्चल सरल सी ।
त्वरित विचार आए तुरन्त लिख डाले ।
सोचकर लिखने का समय नही मिला कभी, जो शायद अब आदत बन गई ।
आत्मकथ्य भी लिख रहा हूँ समिकक्षार्थ बस यूँ ही ।
छोटे से शहर के छोटे से इंसान की तरह ।

*कुछ रचनाएँ सादर प्रस्तुत है*

1-- *माँ*
ममता जब जब जागी थी ।
माता की टपकी छाती थी ।
दे शीतल छांया आँचल की ,
माता सारी रात जागी थी ।

देख अपलक निगाहों से ,
गंगा यमुना अबतारी थी ।
स्तब्ध श्वास थी साँसों में ,
अपनी श्वासों से हरी थी ।

आँचल की वो छाँव घनी थी।
दुनियाँ में पहचान मिली थी ।
छुप जाता तब तब उस आँचल में,
जब जब दुनियाँ अंजान लगी थी।

उस आँचल की छोटी सी परिधि से ,
इस दुनियाँ की परिधि बड़ी नही थी।
हो जाता "निश्चल" निश्चिन्त सुरक्षित ।
उस ममता के आँचल में चैन बड़ी थी।

उस माता के आँचल में ....
........
2-- *पिता*
मनचाहा बरदान मांग लो ।
अनचाहा अभय दान माँग लो ।।
होंठो की मुस्कान माँग लो ।
जीवन का संग्राम माँग लो ।।
सारा पौरुष श्रृंगार माँग लो ।
साँसों से तुम प्राण माँग लो ।।
बस हँसते हँसते हाँ ।
कभी न निकले ना ।।
कुछ ऐसा होता है पिता ।
क्या हम हो सकेंगे कभी ?
इस ईस्वर के आस पास कहीं ...
शायद तब समझ सकें हम भी ।
क्या होता है पिता ?
......

*3--चेहरे*

चेहरे ही बयां करते है,
इंसान के हुनर को ।
नजरें ही पढ़ा करतीं हैं ,
हर एक नज़र को ।
क्यों इल्ज़ाम फिर लगाएँ ,
इस मासूम से ज़िगर को ।
दिल झेलता है फिर भी,
दर्द के हर कहर को ।
चेहरे ही बयां करते हैं ,
इंसान के हुनर को ।
शब्दों ही ,ने उलझाया ,
शब्दों के असर को ।
मिलें सब जिस नज़र में ,
कहाँ ढूंढे उस नज़र को ।
मासूमियत ने देखो ,
किया ख़त्म , हर असर को।
चेहरे ही बयां करते हैं ,
इंसान के हुनर को ।

.......

4-- *एकाकी इस जीवन मे*

नींद नही आती अब ,
पलकों पे रात बिताने को ।
रोतीं रातें क्यों अब ,
शबनम के अहसासों को ।

भूल गई क्यों अब,
अलसाए इन भुनसारों को ।
खोज रहा अंबर अब ,
तिमिर सँग चलते तारों को ।

नींद नही आती अब,
पलकों पे रात बिताने को ।

भूल रहे क्यों अब,
अपने ही अपने वादों को ।
रुके कदम क्यों अब,
पाते ही मुश्किल राहों को ।

एक अकेला चल न पाएगा ,
बीच राह में थक जाएगा ।
कैसे अपनी मंजिल पाएगा ।
आ जा तू साथ बिताने को ।

नींद नही आती अब ,
पलकों पे रात बिताने को ।

छोड़ राह मुड़, तू जाना ।
आधी राह चले , तू आना ।
कुछ दूर चले भले कोई ,
जा फिर , वापस आने को ।

राहों से बे-ख़बर नही मैं ,
एकाकी इस जीवन में ,
साथ चले बस मेरे कोई ।
मंजिल तो एक बहाने को ।

नींद नही आती अब,
पलकों पे रात बिताने को
..
5- *ख़्वाबों की खातिर*

सोया हूँ ख़्वाबों की ख़ातिर ,
मुझे नींद से न जगाना तुम।
आना हो जो मुझसे मिलने ,
ख़्वाबों में आ जाना तुम ।

यह दुनियाँ ,नही हक़ीक़त ।
यह दुनियां एक फ़साना है ।
ठहरा नही यहाँ कभी कोई,
यहाँ तो आना और जाना है ।

ख़्वाबों की दुनियाँ ही , सच्ची झूठी है ।
यह दुनियां तो , झूठी सी सच्ची है ।

ख़्वाबों में असल तसल्ली होती है ।
दुनियां में ,तल्ख़ तसल्ली होती है ।
ख़्वाबों में ही , हँस रो लेते हम।
ख़्वाबों में हर बात बयां होती है ।

इस दुनियां में तो , उसकी मर्ज़ी है ।
रोने हँसने की,उसकी ख़ुदगर्ज़ी है।
यहाँ रोते हैं , उसकी मर्ज़ी से ,
हँसने में भी, उसकी ख़ुदगर्ज़ी है ।

जी न सकें जो ,यहाँ जी ते जी,
मर कर वो, यहाँ ज़िंदा रहते हैं।
इस जी ते जी ,मरकर जी ने से,
ख़्वाबों की दुनियां ,कितनी अच्छी है।

मौत नहीं जहाँ दूर तलक ,
ज़िंदगी इनमें बस मिलती है।

खोया हूँ ख़्वाबों की ख़ातिर,
मुझे नींद से न जगाना तुम ।
आना हो जो मुझसे मिलने,
मेरे ख़्वाबों में आ जाना तुम।

.......

6-- *आँख आँख नीर*

अब तो आँख आँख नीर बहाती है ।
ग़म के बादल से छाई अँधियारी है ।

टूट रहीं है सीमा पर डोरे जीवन की ,
दुश्मन की गोली चुपके से आ जाती है ।

राख हुए सपने यौवन मन के ,
डिग्री को दीमक खा जाती है ।

अहं भाव के मकड़ जाल में ,
मंदिर मस्ज़िद उलझीं बेचारी है ।

लिपट रहे अँधियारे उजियारों से ,
अपनो की अपनो से सौदेदारी है ।

गहन निशा हर दिन कुंठाओं की ,
दिनकर को भी ढँक जाती है ।

राह नही सूझे कोई अब तो ,
राहें राहों में उलझी जाती हैं ।

तारा भी न चमके भुंसारे का ,
निशा गहन की ऐसी सरदारी है ।

अब तो आँख आँख ...

........

7- *कड़े फैसले*

पठानकोट हमले के बाद लिखी रचना
गुरुवार, 7 जनवरी 2016

आज कड़े फैसले लेने होंगे,
कुछ अनचाहे निर्णय लेने होंगे।
करते जो छद्म वार ,
बार बार हम पर ।
मांद में घुस कर ,
वो भेड़िये खदेड़ने होंगे ।
आज कड़े फैसले .....

अब न समझो ,न समझाओ।
अब तो ,आर पार हो जाओ।
जाकर दुश्मन के द्वार ,
ईंट से ईंट बजा आओ।
आज कड़े फैसले ....

कितना खोयें अब हम ,
अपनी माँ के लालों को।
कितना पोछें और सिंदूर हम,
अपनी बहनों के भालों से।

सूनी आँखे , सूना बचपन,
ढूंढ रही पापा आएंगे कल।
देखो उस अबोध बच्ची को,
कांधा देती शहीद पिता की अर्थी को।
आज कड़े ....

यूं चाय पान से कोई माना होता ।
तब धनुष राम ने न ताना होता ।
तब चक्र कृष्ण ने न भांजा होता ।
बन जाओ राम कृष्ण तुम भी ।
देर नही चेतो अब उठा धनुष
 चढ़ा प्रत्यंचा, दे टंकार कहो ,
दुश्मन तेरी अब खैर नहीं ।
आज कड़े फैसले लेने होंगे ..
.... *विवेक दुबे "निश्चल"* @.....
1---
[06/05, 10:41 p.m.]
 आदरणीय विवेक दुबे जी आपकी रचनायें विभिन्न पत्रिकओं में प्रकाशित होती हैं l आपके पिता श्री की प्रेरणा से आप भी लेखन में आगे आये हैं l आपके पिताश्री को सादर नमन् l आपकी रचना माँ बहुत ही रोचक तरीके से माँ के स्वरूप का वर्णन कर रही है l पिता शीर्षक वाली रचना भी अद्भुत है l चेहरे पर लिखी रचना भी कमाल है जिसमें चेहरे के विभिन्न कलाओं का वर्णन है l वासितव में चेहरा स्वयं बहुत सी बातें व्यक्त कर देता है l आपकी अन्य सभी रचनायें भी अपने शीर्षक के अनुरूप रची हुई हैं l आप कमाल के रचनाकार हैं l आपकी लेखनी निरंतर गतिमान रहे हमारी अनंत शुभ कामनायें l

डॉ अनिल कुमार कोरी
2---
[06/05, 10:41 p.m.]
 आदरणीय विवेक जी की रचनाएँ
सचमुच निश्छल हृदय की सरल सहज रचनाएँ हैं। भाव बहुत अच्छे हैं। माँ व पिता को समर्पित कविताएँ मन संवेदन को छूती हैं।

"नींद नहीं आती अब पलकों पर रात बिताने को" बहुत अच्छा कहन।
कड़े फैसले लेने होंगे   सामयिक संदर्भ की अच्छी रचना।
बहुत बधाई व शुभकामनाएँ स्वीकारें।
3----
[06/05, 10:41 p.m.]
बहुत खूबसूरत भावपूर्ण रचनाओं के सृजनकर्ता विवेक जी को बधाई।माँ,पिता जी से संबंधित रचनाएं दिल को छू गई आपकी उपलब्धियां ही आपकी प्रतिभा के प्रमाण हैं।आप सदा साहित्य सेवा के पथ पर अग्रसर रहें यही शुभकामना है।
मधु तिवारी
4---
[06/05, 10:41 p.m.]
 रचनाकार विवेक दुबे जी का हार्दिक अभिनंदन
आपकी रतनाये नित पटल पर पढती रहती हूं |निश्छलता ,परिपक्वता ,सहजता ,आपकी रचनाओं की विशेषता है|
साहित्य आपको विरासत में मिला है |जिसे आपनें अपनें प्रयास से समृद्ध किया है |लेखनी का पैनापन धार सीधे निशाने पर अटैक करती है | आज की सभी रचनायें उम्दा उच्च स्तर की हैं |
माता पिता को समर्पित कविता अन्तरमन को छूती है |
नींद नहीं आती ,सभी श्रेष्ठ और सारगर्भित हैं |बहुत बहुत बधाई शुभकामनाएं
5---
[06/05, 10:41 p.m.] vivekdubeyji.blogspot.com: आज के केंद्रीय रचनाकार विवेक दुबे जी का अंतरा में
अंतरा में हार्दिक अभिनंदन,
 परिचय मैं रायसेन पढ़कर बचपन याद आ गया, मेरा ननिहाल है वहां ।
श्री परमानंद जी दुबे परिवार से हमारे अच्छे संबंध भी रहे थे, (शायद आप जानते हो)
प्रभावी आत्मकथ्य दवा व्यापार के साथ हिंदी मां की सेवा में संलग्न होना, यह बहुत अच्छी बात है।
 समय समय पर आप की रचनाएं अंतरा में पढ़ने को मिलती हैं विरासत में मिली यह कला की बेल दिनो दिन निखरती जाए चढ़ती जाए यही कामना है
*माता पिता* पर लिखी गई दोनों रचनाएं बहुत खूबसूरत

 *एकाकी जीवन*
अलसाए इन भुनसारों को लोकभाषा के विलुप्त होते शब्दों का प्रयोग बहुत सुंदर

 *ख्वाबों की खातिर*
अच्छी रचना लेकिन टंकण त्रुटि के कारण प्रभाव कम हो जाता है जी ते जी -जीते जी

 *आंख आंख नीर* बेहतरीन भाव

 पठानकोट हमले पर लिखी गई
*कड़े फैसले*
 प्रत्येक सच्चे भारतीय के मन का आक्रोश!! परंतु यह रचना और भी प्रभाव छोड़ सकती थी।
 रचनाएं टाइप करने  के बाद दो बार अवश्य पढ़ें ,और अधिक प्रभावशाली होंगी
आप को उज्जवल भविष्य की अनेक-अनेक शुभकामनाएं
       -कीर्ति प्रदीप वर्मा
6----
[06/05, 10:41 p.m.]
*आद. विवेक जी 'अंतरा-शब्द शक्ति' में आज की उत्सव मूर्ति बनने की बहुत-बहुत बधाई
आपका परिचय व आत्मकथ्य पढ़कर आपको जानने का अवसर मिला। यह बड़ी ही खुशी की बात है जो साहित्य आपको विरासत में मिला है।

आज आपकी रचनाएँ

 *🔹माँ*
 *🔹पिता*
 *🔹चेहरे*
 *🔹एकाकी इस जीवन में*
 *🔹ख्वाबों की खातिर*
 *🔹आँख का नीर*
 *🔹कड़े फैसले*

सीधी, सहज, सरल भाषा शैली में रची, सजी उत्कृष्ट रचनाएँ एक से बढ़ कर एक जो सीधे दिल पर असर करती हैं।

*आपसे मिलवाने के लिए अंतरा-शब्द शक्ति का धन्यवाद

*विवेक जी एक बार पुनः बधाई स्वीकार करे
7----
रेखा ताम्रकार 'राज'
[06/05, 10:41
*श्रद्धेय श्री विवेक दुबे "निश्चलजी"*
*सादर अभिवादन....

 *अन्तरा-शब्दशक्ति के सृजक सृजन समीक्षा विशेषांक में उत्सव मूर्ति के रूप में आपका हार्दिक स्वागत है, अभिनंदन है...
*युवा सृजन धर्मिता अलंकरण से अलंकृत*
*वागेश्वरी-पुंज और साहित्य भूषण से सम्मानित*
होकर स्वयं के ब्लॉग
द्वारा साहित्य सेवा के *निश्चल मन विवेक*  को नमन करता हूँ...
आपका आत्मकथ्य पढ़कर हृदय आनंदित हो गया..

*जिस पुत्र को विरासत में साहित्य मिला हो उस पुत्र के सृजन में श्रेष्ठता का दर्शन होना स्वाभाविक है...*

आपने कहा कि आपके पास शब्द भंडार की कमी है लेकिन आपकी रचनाओं को पढ़कर ऐसा लगता है जैसे...
*शब्द याचना करते हों आपसे कि हमें अपने सृजन में स्थान दो...*

*मैं मेरी पसंदीदा विधा तांका से आपके सृजन से ही शब्द लेकर समीक्षा करने का प्रयास कर रहा हूँ...*

*(1)--माँ*
माँ की ममता
देती शीतल छांया
गंगा यमुना
आँचल छांव घनी
दुनिया है अंजान
*(2)--पिता*
पिता आशीष
जीवन का संग्राम
सारा पौरुष
साँसों से प्राण मांगा
हाँ हँसते हँसते
*(3)--चेहरे*
चेहरे पर
इंसान का हुनर
एक नज़र
मासूम सा जिगर
किया खत्म असर
*(4)--एकाकी इस जीवन मे*
रोती है रातें
एकाकी है जीवन
भूल गई क्यों
खोज रहा अंबर
तिमिर सँग तारे
*(5)--ख्वाबों की खातिर*
सोये जो ख्वाब
नींद से न जगाना
है सच्ची झूठी
ख्वाबों की दुनिया
बस तुम आ जाना
*(6)--आँख आँख नीर*
आँख में नीर
छाई है अँधियारी
गहन निशा
राहें उलझ गई
तारा भी न चमके
*(7)--कड़े फैसले*
कड़े फैसले
अनचाहे निर्णय
लेने ही होंगे
बनकर राम कृष्ण
फैसले लेने होंगे

*श्रेष्ठ सृजन*
*माँ से कड़े फैसले*
*आंखे भिगोई*
*एक से सात तक*
*लख लख बधाई*

उज्ज्वल भविष्य की शुभमंगल कामनाओं के साथ हृदयतल से पुनः बधाई....
अन्तरा शब्दशक्ति के संचालक मंडल को धन्यवाद धन्यवाद....
इति शुभम्
8--
*कैलाश बिहारी सिंघल...*
[06/05, 10:41 p.m.]
आदरणीय विवेक जी , केंद्रीय रचनाकार के रूप में आपका हार्दिक स्वागत  है । बधाई स्वीकार करें ।
जमीन, संपत्ति तो विरासत के रूप में मिलती ही हैं और अगली पीढ़ी को हस्तांतरित भी होती है किंतु यदि कोई कला विरासत में मीले और हस्तांतरित भी होती रहे तो  पुरखों की आत्मा के लिये उससे बढ़ कर कोई सुकून नहीं हो सकता । आपने अपने पिताश्री के हुनर को ज़िंदा रखा और बखूबी निभा भी रहे हैं । आपकी रचनाओं में हिंदी उर्दू की मिली जुली तहरीरें अच्छी लगी, मेरा भी पसंदीदा लहज़ा है यह ।
माँ, पिता,चेहरे,एकाकी इस जीवन में ,ख्वाबों की ख़ातिर..रचनाओं ने प्रभावित किया ।
ईश्वर से आपके स्वस्थ एवं प्रसन्न जीवन की कामना करता हूँ ।
पुनः बधाई । सादर नमन ।
9---
हेमन्त बोर्डिया
 [06/05, 10:41 p.m.]
आदरणीय विवेक जी निश्छल
सब से पहले तो आप को बहुत बहुत बधाई की आप का चयन केंद्रीय रचनाकार के रूप में हुआ
आप की समस्त रचनाएँ बेहतरीन है और विशेष तौर से आप की आप की समस्त रचनाओ में आज की 7 रचनाएं लाजवाब है..मेरे पास शब्द नही है विस्तारित करने को
आप।की हर रचना बहुत सुंदर है..
आप को बहुत बहुत बधाई
आप पात्र है इसके लिए
सभी के लिए
व्व्वाह व्व्वाह व्व्वाब
अहबाब अहबाब अहबाब
बहुत बधाई

http://antrashabdshakti.com/?p=3974

मुक्तक

चकित हिमालय थकता सागर है ।
 सुप्त चाँदनी थमता दिनकर है ।
 रीत रही गागर आशाओं की ,
 बून्द बून्द रिसता दृग सर है । (अश्रु जल)
..... विवेक दुबे"निश्चल"@...

हालात ने ठगा वक़्त ने छला है ।
 उम्मीद को ,उम्मीद से गिला है ।
 हारते रहे जीता कर जिनको ,
 जाने कैसा यह  सिलसिला है ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@...

निखरता रहा बड़े शौक से ।
 बिखरता रहा मैं शोक में ।
 कह गया था वो आऊंगा ,
 सच मान बैठा मैं जोश में ।
..... विवेक दुबे"निश्चल"@....

शकुनि निकला बिसात बिछाने को ।
मांझ रहा पांसे अपने पलटाने को ।
जंघा ठोके दुर्योधन आतुर दुःशासन
 पांचाली को ले कर आने को ।
 .... विवेक दुबे"निश्चल"@...




बहता चल

बहता चल तू धाराओं संग बहता चल ।
वक़्त किनारों को जायेगा जाता छल ।
 खोकर एक दिन तू हस्ती अपनी  ,
 कहलायेगा तू भी    सागर कल । 

बहता चल तू धाराओं संग बहता चल ।
..... विवेक दुबे"निश्चल"@....


कलम चलती है शब्द जागते हैं।

सम्मान पत्र

  मान मिला सम्मान मिला।  अपनो में स्थान मिला ।  खिली कलम कमल सी,  शब्दों को स्वाभिमान मिला। मेरी यूँ आदतें आदत बनती गई ।  शब्द जागते...