शनिवार, 10 सितंबर 2022

एक विस्तृत नभ सम

 1045

एक विस्तृत नभ सम ।

 भू धरा धरित रजः सम ।

         आश्रयहीन अभिलाषाएं ।

        नभ विचरित पँख फैलाएं ।

निःश्वास प्राण सांसों में ।

लम्पित लता बांसों में ।

         बस आशाएँ अभिलाषाएं ।

         ओर छोर न पा पाएं ।

   मन निर्बाध विचारों में ।

  जीवन के सहज किनारों में ।

   

          एक विस्तृत नभ सम ।

          भू धरा धरित रजः सम ।


   जब शशि गगन में आए ।

    निशि तरुणी रूप सजाए ।

          विधु भरता बाहों में ।

          विखरें दृग कण आहों में ।     

   प्रफुल्लित धरा शिराएं ।

    तृण कण जीवन पाएं ।

            अचल रहा दिनकर राहों में ।

             नव चेतन भर कर प्रानो में ।  

 नित माप रहे पथ की दूरी को ।

 छोड़ रहे न जो अपनी धुरी को।

        ये सतत नियति निरन्तर सी ।

        काल तले करती न अंतर सी ।     

    एक विस्तृत नभ सम ।

    भू धरा धरित रजः सम ।

            

  .. विवेक दुबे"निश्चल"@....

Blog post 18/7/18

डायरी 5(62)

यक्ष प्रश्न

1044

जो गरल हलाहल तप्त भरा है ।

एक रत्न जड़ित स्वर्ण घड़ा है ।


होश निग़ाहों से दुनियाँ  देखो ,

हर होश यहाँ मदहोश पड़ा है ।

 

रिंद सरीखे झूमें सब साक़ी सँग ,

फिर भी मैखाने में मौन बड़ा है ।


फूल चमन में खूब खिले देखो ,

अंग अंग पर रंग,बे-रंग चढ़ा है ।


गले मिलें सब आँख मींचकर ,

साँस जात पात का बैर मढ़ा है ।


अपनो की अपनी दुनियाँ में ,

अपनों से ही हर कोई लड़ा है ।


ख़ामोश सभी सम्मुख जिसके ,

"निश्चल" एक यक्ष प्रश्न धरा है ।

..... विवेक दुबे"निश्चल"@..

डायरी 7

बुधवार, 7 सितंबर 2022

दर्या

 

1
जितना तू बे-ज़िक्र रहेगा ।
उतना तू बे-फ़िक्र रहेगा ।

चल छोड़ दे फिक्रें कल की ।
न छीन खुशियाँ इस पल की ।

न कर रश्क़ अपने रंज-ओ-मलाल से ।
कर तर खुदी को ख़ुशी के गुलाल से ।

दर्या हूँ वह जाऊँगा समंदर की चाह में ।
मिलेगा बजूद मेरा कही किसी निगाह में ।
.....
सहारे गर्दिश-ऐ-फ़रियाद में ,
रिश्तों की बुनियाद हुआ करते हैं ।
....विवेक दुबे निश्चल"@..
2
मिरी याद में जो रवानी मिलेगी।
  उसी आह को वो कहानी मिलेगी ।

मिली रूह जो ख़ाक के उन बुतों से ,
जिंदगी जिस्मों को दिवानी मिलेगी ।

मुझे भी मिला है जिक्र का सिला यूँ ,
नज़्मों में मिरि भी कहानी मिलेगी ।

  जहाँ राह राही मुसलसल चलेगा ,
  जमीं पे कही तो निशानी मिलेगी ।

  बहेगा तु हालात के दर्या में ही ,
   नही मौज सारी सुहानी मिलेगी ।

  सजाता रहा मैं जिसे ख़्वाब में ही ,
   उम्र वो किताबे पुरानी मिलेगी ।

   कहेगा जिसे तू निगाहे जुबानी,
  "निश्चल" वो नज़्र भी सयानी मिलेगी ।
   
.... विवेक दुबे"निश्चल"@....
डायरी 6(146)
2
सँभाले से सँभलते नहीं हैं हालात कुछ ।
बदलते से रहे रात हसीं ख़्यालात कुछ ।

होता गया बयां ,हाल सूरत-ऐ-हाल से ,
होते रहे उज़ागर, उम्र के असरात कुछ ।

बह गया दर्या ,  वक़्त का ही वक़्त से ,
करते रहे किनारे, ज़ज्ब मुलाक़ात कुछ ।

थम गया दरियाब भी, चलते चलते ,
ज़ज्ब कर , उम्र के मसलात कुछ ।

"निश्चल" रह गये ख़ामोश, जो किनारे ,
झरते रहे निग़ाहों से ,  मलालात कुछ ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@....
डायरी 6(140)
3
जाने कैसी यह तिश्नगी है ।
अंधेरों में बिखरी रोशनी है ।

मचलता है चाँद वो फ़लक पे ,
बिखरती जमीं ये चाँदनी है ।

डूबता नहीं सितारा वो छोर का ,(उफ़्क)
मिलती जहाँ फ़लक से जमी है

सिमटा आगोश में दर्या समंदर के ,
जहाँ आब की नही कहीं कमी है ।

खिलता है वो बहार की ख़ातिर ,
बिखरती फूल पे शबनम नमी है ।

   चैन है नही मौजूद-ओ-मयस्सर ,
"निश्चल"मगर मुसलसल ये जिंदगी है ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@.....

तिश्नगी/प्यास/तृष्णा /लालसा
डायरी 6(147)
4
भुलाए भूली , नही जाती वो रात ।
जेठ की तपिश ,चाँदनी का साथ ।

थी बड़ी हसीं वो ,पहली मुलाकात ।
ज़िस्म जुदा,लेकर रूहों को पास ।

दमकती बूंदे ,थरथराते लब पर ,
झिलमिल सितारों सा, अहसास ।

बहता सा दर्या , ज़ज्बात का ,
किनारों पे, बुझती नही प्यास ।

सिमेट कर , खुद में ही खुद को ,
  साथ डूब जाने को,   बेकरार ।

डूबता रहा,  न रहा बजूद कोई ,
उभरने की ,  न रही कोई आस ।

ज़ज्ब हुआ , समंदर में दर्या सा,
न रहा दर्या का,  कोई आभास ।

भुलाए भूली,  नही जाती वो रात ।
जेठ की तपिश ,चाँदनी का साथ ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@....
डायरी 6(150)
5
ये फूल गुलाब से ।
नर्म सुर्ख रुआब से ।

नादानियाँ निग़ाहों की ,
नजर आतीं नक़ाब से ।

कशमकश एक उम्र की ,
उम्र पे पड़े पड़ाव से ।

गुजरते रहे वाबस्ता ,
राहों के दोहराव से ।

थमता दर्या हसरत का ,
"निश्चल" बहता ठहराब से ।
...विवेक दुबे"निश्चल"@..
डायरी 6(155)
6
हादसे ये हालात के,अश्क पलकों पे उतरने नहीं देते ।
टूटकर हालात-ऐ-हक़ीक़त,ज़मीं पे बिखरने नहीं देते ।
हुआ है ख़ुश्क अब तो, मुसलसल आँख का  दर्या भी ,
ये कोर पलकों पे ,अब मौजों को ठहरने नहीं देते ।
7
रूबरू ज़िंदगी ,घूमती रही ।
रूह की तिश्नगी, ढूँढती रही ।
रहा सफ़र दर्या का, दर्या तक,
मौज साहिल को ,चूमती रही ।
8
कुछ यूँ सूरत-ऐ-हाल से रहे ।
कुछ उम्र के ही ख़्याल से रहे।
ख़ामोश न थे किनारे दर्या के ,
मगर नज़्र के मलाल से रहे।
......
9
मिटते रहे निशां निशानों से ।
बहते रहे दर्या अरमानों से ।
रुत बदलते ही रहे मौसम ,
लाते रहे बहारें दीवानों से ।
10
कुछ फैसले कुदरत के ।
मोहताज़ रहे शोहरत के ।
बहता रहा दर्या वक़्त का,
ग़ुम हुये पल मोहलत के ।
11
हर नया कल आज सा रहा  ।
ख़याल गुंजाइशें तलाशता रहा ।
डूबती उबरती कश्ती हसरतों की ,
दर्या-ए-सफ़र साहिल राबता रहा ।
..
12
मिलता ही रहा दर्या को ,
साथ किनारे का हरदम ।
छोड़ बहता ही चला दर्या ,
हाथ किनारे का हरदम ।
..
13
पाले जो ख्वाब छोड़ चल जरा ।
रुख हवाओं सा मोड़ चल जरा ।
बहता है दर्या किनारे छोड़कर ,
नाता साहिल से तोड़ चल जरा ।
14
751
ये बेचैन है मन ,और खामोश निगाहें ।
सांसों की सरगम पे, सिसकती हैं आहें ।

कैसे रहे कब तलक, कोई जिस्म जिंदा ,
मिलती नहीं अब ,जब जमाने से दुआएं ।

चला था सफर ,हसरतों को सिमटे हुए ,
चाहतों के दर्या ,सामने डुबाने को आयें ।

हो गई कातिल मेरी , वफाएं ही मेरी ,
न आ सके काम,जो अरमा थे लुटाए ।

बेचैन रहा खातिर, जिसके हर घड़ी जो,
"निश्चल" वो दर्द दिल,  किसको दिखाएं ।
..... विवेक दुबे"निश्चल"@....
डायरी 6
Blog post 30/10/19
15
ग़म के दर्या में रंग खुशी का मिलाया जाये ।
क्युँ न इंसान को इंसान से मिलाया जाये ।
दूर हो जाये अदावत तब कोई बात बने ,
क्युँ न सभी को अब अपना बनाया जाये ।
एक टीस है दिलों में के मिटती ही नही ,
क्युँ न प्यार का अब मरहम लगाया जाये ।
....."निश्चल"@..
डायरी 7
Blog post 10/2/21
16
रुख हवा के साथ चला चल ।
खुद फ़िज़ा से हाथ मिला चल ।
बहकर सँग दर्या की धार में ,
जीत ज़ज्बात को दिला चल ।
....विवेक दुबे"निश्चल"@...
17
764 ग़ज़ल

122-122-122-122

बहारों ने तुझको पुकारा भी होगा ।
मिलाने निग़ाहें संवारा भी होगा ।

झुकाकर निग़ाहें बड़ी ही अदा से ,
इशारों में दिल को हारा भी होगा ।

चढ़ा इश्क़ परवाज़ राहे ख़ुदा में ।
हुस्न आइने में उतारा भी होगा ।

चला हूँ डगर पे तुझे साथ ले के ,
कहीं तो मुक़द्दर पुकारा भी होगा ।

नही है सफर पे मुसाफ़िर अकेला,
मुक़ा मंजिल पे इक हमारा भी होगा ।

रहेंगे जहाँ पे सफर में अकेले ,
वहाँ पे दुआ का सहारा भी होगा ।

बहा है सदा साथ "निश्चल" दर्या के ,
कही तो युं मेरा किनारा भी होगा ।

     ....विवेक दुबे"निश्चल"@...
Blog post 4/2/20
डायरी 7

रिश्ते

 

1
अपने ही अपनो को जब ठगते है ।
मंजिल पर जाकर तब थकते है ।
जीवन में सम्बन्धों के गुलदस्तों में ,
रिश्ते नाते फ़िजूल से अब लगते है ।
2
बार बार प्रतिकार मिला है ।
अपनो से ये उपहार मिला है ।
संघर्षित इस जीवन पथ पर ,
पारितोषित बस हार मिला है ।
स्वार्थ भरे रिश्ते नातों में ,
कुटिल नयन दुलार मिला है ।
अपनो से अपनो के संवादों में,
शब्द शब्द व्यापार मिला है ।
हर कांक्षित आकांक्षा में ,
अस्वीकारित स्वीकार मिला है ।
पार चला जब मजधारो के ,
तब तट पर इस पार मिला है ।
बार बार प्रतिकार मिला है ।
अपनो से ये उपहार मिला है ।
...विवेक दुबे"निश्चल"@...
3
मैं चलता रहा ।
वो चलाता रहा ।
जीवन से बस कुछ,
इतना ही नाता रहा ।
हँसता रहा हर दम ,
दर्द होंठों पे सजाता रहा ।
बाँट के खुशियां दुनियाँ को ,
दर्द दिल में छुपाता रहा ।
होती रही निगाहें नम ,
अश्क़ दरिया बहाता रहा ।
जाता रहा दर पे रिश्तों के
पर न किसी को भाता रहा ।
हो सके न मुकम्मिल रिश्ते ,
रिश्तों को रिश्तों से मनाता रहा ।
"निश्चल" बस बास्ते  दुनियाँ के ,
अपनो को अपना दिखाता रहा ।
....विवेक दुबे"निश्चल"@..
4
खत्म हुआ अब सब ,
बस फ़र्ज निभाना बाँकी है ।
जीवन के मयखाने में तू ,
खुद ही खुद का साकी है ।
मदहोश नही है रिंद यहाँ  ,
फिर भी उसको होश नही ,
सुध खोई रिश्तों की मय पीकर ,
बस इतना ही ग़ाफ़िल काफी है ।
सोमपान सा रिश्तों का रस ,
जिस मद के अपने ही साथी है ।
आती मयख़ाने में रूह रात बिताने को,
लगती जिस्मों में रिश्ते नातों की झाँकी है ।
...विवेक दुबे"निश्चल"@....
5
रिश्ते भी जब न टिकते हो ।
स्वार्थ तले ही सब बिकते हो ।
मर्यादा कैसी तब सम्बन्धों की,
स्वांग सभी जब लिखते हो ।
...विवेक दुबे"निश्चल"@ ...
6
रिश्ते खून के कभी दूर नही होते ।
रिश्तों में कभी क़सूर नही होते ।
झुकतीं है शाखें फूलों के बजन से,
दरख़्तों को गुमां मंजूर नही होते ।
....विवेक दुबे"निश्चल"@...
7
..
रिश्ते तो अब मजबूरी है।
दिल से दिल की दूरी है ।
..निश्चल...
8
जो समझता होता ,आदमी को आदमी ।
बिगड़ते न  रिश्ते , क़ायम रहते लाज़मी
......निश्चल...
9
- राज़-ऐ-वक़्त ---

2122 , 12 12 ,22

दूर कितना रहा , ज़माने में ।
कर सफ़र मैं तन्हा,वीराने में ।

छूटता सा चला कहीं मैं ही ,
यूँ नया सा शहर ,बसाने में ।

ढूँढ़ती है नज़र निशां कोई ,
क्यूँ मुक़ा तक ,चलके आने में ।

खोजता ही रहा कमी गोई ,
नुक़्स मिलता नही ,फ़साने में ।

रोकता चाह राह के वास्ते ,
चाँद भी हिज़्र तले,ढल जाने में ।

जूझती है युं रूह उम्र सारी ,
जिंदगी के रिश्ते निभाने में ।

राज़ है वक़्त में छुपा कोई   आज"निश्चल"मुझे,बनाने में ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@....

10
बदल रहीं है रीते सारी ,
आज नही कल जैसा है ।

रिश्ते नातों के कागज पर ,
उम्मीदों की रेखा है ।

ढ़लता है दिन धीरे-धीरे ,
  आते कल की आशा में ,

पर गहन निशा के आँचल में ,
कल को किसने देखा है ।

.......विवेक दुबे"निश्चल"@....
डायरी 7/3
Blog post 30/10/19
11
कुछ फर्ज निभाऊं कैसे ।
कुछ कर्ज चुकाऊं कैसे ।
दौड़ रहा लहुँ जो रग में ,
वो रिश्ते ज़र्द बनाऊं कैसे ।
....
12
वो अल्फ़ाज़ क्यों दख़ल डालते है ।
वो क्यों जिंदगी में ख़लल डालते है ।
ज़ज्बात भरे मासूम से इन रिश्ते में ,
सूरत अस्ल अकल नक़ल डालते है ।
... ....
13
पिघलते गये  कुछ रिश्ते वो धीरे धीरे ।
निकलते गये ज़िदगी से जो धीरे धीरे ।
चलते  गये अंदाज़ नाज़ुक फ़रेब के  ,
बदलते गये नर्म निग़ाहों को धीरे धीरे ।
14
वो कुछ रिश्ते धीरे धीरे पिघलते रहे।
जो ज़िदगी से धीरे धीरे निकलते रहे ।
चलता रहा अंदाज़ नाज़ुक फ़रेब का ,
नर्म निग़ाहों को धीरे धीरे बदलते रहे ।
....
15
बर्फ बन तपिश झेलते रहे ।
खामोशी से रिश्ते फैलते रहे ।
होते रहे ज़ज्ब रुख़सार पर ,
अश्क़ निग़ाहों से खेलते रहे ।
....
16

(एक मुसल्सल ग़जल)

रास्ते मंजिल-ए-जिंदगी, जो दूर नही होते ।
ये सफ़र जिंदगी , इतने मजबूर नही होते ।

खोजते नही , रास्ते अपनी मंजिल को ,
जंग-ए-जिंदगी के,ये दस्तूर नही होते ।

साथ मिल जाता गर, कदम खुशियों का ,
ये अश्क़ पहलू-ए-ग़म ,मशहूर नही होते ।

जो बंट जाते रिश्ते भी, जमीं की तरह ,
रिश्ते अदावत के, ये मंजूर नही होते ।

"निश्चल" न करता , यूँ कलम से बगावत  ,
ये अहसास दिलों से, जो काफूर नही होते ।
... विवेक दुबे"निश्चल"@..
17
है सब कुछ खेल नसीबों में ।
उलझे फिर भी तरकीबों में ।
सिमट रहे है अब रिश्ते नाते ,
राजा सब मन की जागीरों में।
18
चलती राहों का एक मुहाना होना है ।
गहरी रातों का भोर सुहाना होना है ।

इस दुनियाँ का होकर देख लिया ,
चल अब तुझको खुद का होना है ।

अहसासों की इन उलझी डोरों में ,
डोर कोई अब नई नही पिरोना है ।

जीवन के मनके मन के धागों से ,
अब जीवन मन में ही पिरोना है ।

चल अब तुझको खुद का होना है ।

अहंकार के इस बियावान वन में ,
अब स्वाभिमान तुझे संजोना है ।

हार रहा तू नाते रिश्ते चलते चलते ,
जीत तले स्वयं को स्वयं का होना है ।

इस दुनियाँ का होकर देख लिया ,

राग नही हो कोई द्वेष नही मन में ,
अब राग रहित ही तुझको होना है ।

खोकर दुनियाँ को दुनियाँ में ही ,
अब ख़ुद को ख़ुद में ही खोना है ।

भटक रहा जो मन चलते चलते ,
"निश्चल"मन अब तुझको होना है ।

इस दुनियाँ का होकर देख लिया ,
चल अब तुझको खुद का होना है ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@.....
19

कितना सच्चा सरल लिखा उसने ।
जीवन को एक गरल लिखा उसने ।

उस ठहरी हुई कलम से ,
शब्द शब्द सचल लिखा उसने ।

शुष्क हुई उन आँखों में ,
भर भाव सजल लिखा उसने ।

लिख भाषा रिश्ते नातो की ,
सम्बंधो का सकल लिखा उसने ।

सार लिखा है ज़ीवन का ,
नही कहीं नकल लिखा उसने ।

बदल रहे पल में रिश्ते ,
हर रिश्ता अचल लिखा उसने ।

हार गया अपनो के आगे ,
और जीवन सफल लिखा उसने ।

टालकर हर सवाल को ,
हर जवाब अटल लिखा उसने ।

भर मन शान्त भाव को ,
"निश्चल" विकल लिखा उसने ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@......
20
इतना ही कर्ज़ रहा ।
के मैं बे-अर्ज़ रहा ।

      निभाता रहा रिश्ते ,
      यह मेरा फ़र्ज रहा ।
..
बदलता रहा तासीर ,
यह कैसा मर्ज़ रहा ।

       आया नही नज़र जो ,
       अश्क़ निग़ाह दर्ज रहा ।

हर ख़ुशी की ख़ातिर ,
हंसता एक दर्द रहा ।

  हर एक मुब्तसिम लब ,
  असर बड़ा सर्द रहा ।

... विवेक दुबे"निश्चल"@...

तबस्सुम/मुब्तसिम/मुस्कान
21
अल्फ़ाज़ के रहे यूँ असर ।
  मायने रहे क्युं बे-असर ।

     रात सर्द स्याह असरात की ,
    होती नही क्युं अब सहर ।

छोड़कर बुनियाद अपनी ,
मकां आज क्युं रहे बिखर ।

     चलते रहे एक राह पर ,
     रहे रिश्ते पर तितर बितर ।
....विवेक दुबे"निश्चल"@....
22
शेष रहे अनुबंधों से रिश्ते ।
टूट रहे तटबंधों से रिश्ते ।

         सरल नही अब कोई कहीं ,
         अब पलते छल छंदों से रिश्ते ।

स्नेहिल महक उठे नही कोई ,
अब षडयंत्रो की गंधो से रिश्ते ।

      शेष रहे अनुबंधों से रिश्ते ।
      टूट रहे तटबंधों से रिश्ते ।

स्वत्व तत्व की अभिलाषा में ,
अहम तले दबे द्वन्दों से रिश्ते ।

        स्वार्थ भाव की तपन तले ,
        उड़ते अपने रंगों से रिश्ते ।

शेष रहे अनुबंधों से रिश्ते ।
टूट रहे तटबंधों से रिश्ते ।

      ..विवेक दुबे"निश्चल"@...
(स्वत्व-अधिकार)
23
वो खमोशी के मंजर भी,
        गहरे से हो जाते है ।

मेरे आँसू जब जब उसकी,
       आँखों में आ जाते हैं ।

दर्द छुपे इस मन के ,
      उन आँखों में छा जाते है ।

रिश्ते अन्तर्मन से ,
    पुष्पित पूजित हो जाते हैं ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@....
24
धूमिल धरा ,रश्मि हीन दिनकर है ।
अरुणिमा नही,अरुण की नभ पर है ।

तापित जल,नीर हीन सा जलधर है ।
रीती तटनी ,माँझी नहीं तट पर है ।

व्योम तले दबी अभिलाषाएं ,
आशाओं को डसता विषधर है ।

सीख चला वो अब धीरे धीरे ,
नियति लेती कैसे करवट है ।

रिक्त हुए रिसते रिसते रिश्ते ,
प्यासा सा अब हर पनघट है ।

  काल कला की चौखट से ,
"निश्चल" सी आती आहट है ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@...
25
क्युं रिश्तों को अपना बनाते हो ।
क्युं दर्द अपना जुबां पर लाते हो ।

बे-वफ़ा रहे है मुसलसल रिश्ते  ,
क्युं रिश्तों से वफ़ा दिखलाते हो ।

चलते तुम अपनी ही राह पर ,
चौराहों पर घुल मिल जाते हो ।

मिले आपस मे कुछ कदम को ,
कुछ साथ फिर ज़ुदा हो जाते हो ।

जाते तुम राह नई मंजिल को ,
तुम राह नई फिर कहलाते हो ।

नही मुक़म्मिल कभी कहीं कोई ,
मंजिल मंजिल रिश्ते गढ़ते जाते हो ।

छूट गया फ़िर पीछे कल को वो ,
आज मुक़ाम नया जो पा जाते हो ।

क्युं रिश्तों को अपना बनाते हो ।
क्युं दर्द अपना जुबां पर लाते हो ।

....विवेक दुबे"निश्चल"@...
25
चल आज किनारा करते हैं ।
नजर अश्क़ सहारा करते है ।
तोड़कर रिश्ते पुराने सारे ,
हम इश्क़ दुवारा करते हैं ।
...
हसरत नही इरादा करते हैं ।
एक अधूरा वादा करते हैं ।
उकेरकर लफ्ज़ कलम तले ,
जज्बात-ए-बहारा करते है ।
....
एक हसरत रही इरादों में ।
छूटता रहा कुछ वादों में ।
उकेरकर लफ्ज़ कलम तले,
हम बैठे जज्बा-ए-बहारों में ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@...
26
मूल्य नही अब भावों के ,
हृदय शून्य विचारो से ।

होते मतलब तब तक,
तब तक मिलते यारों से ।

हित साधन शेष रहे ,
रिश्ते नाते दारों से ।

क्या मित्र क्या आँख के तारे,
स्वार्थ भरे सब उजियारे ।

रिश्ते बिकते बाज़ारो में ,
फिरते मारे मारे गलियारों में।

... विवके दुबे"निश्चल"@.
27
ना रहे याद हम ,
आज अंजानों से ।

       हसरतों की चाहत में ,
        खो गए पहचानों से ।

रीतते ज्यों नीर से ,
नीरद असमानों से ,

         बरसने की चाह में ,
         ग़ुम हुए निशानों से ।

  घिरती रही जिंदगी ,
अक़्सर उल्हानो से ।

           लाचार ही रही ,
          घिरकर फ़सानो से ।

घटते नही आज,
फांसले दिल के ,

            रिश्ते रहे आज "निश्चल" ,
            होकर म्यानों से ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@...
28
शब्द गिरे है कट कट कर ,
कविता लहूलुहान पड़ी ।
इंसानो की बस्ती में ,
यह कैसी आग लगी ।

     धूमिल हुई भावनाएँ सारी ,
    सूखी अर्थो की फुलवारी ।
    अर्थ अर्थ के अर्थ बदलते ,
    शब्दों से शब्दों की लाचारी ।

मन हुये मरू वन जैसे ,
दिल में भी बहार नहीं ,
गुलशन को गुल से ,
क्यों अब प्यार नहीं ।

       इंसानों की बस्ती में,
     यह कैसी आग लगी ।

अपनों ने अपनों को ,
शब्दों से ही भरमाया  ।
शब्द वही पर अर्थ नया ,
हर बार निकल कर आया  ।

       सूखे रिश्ते टूटे नाते ,
        रिश्तों का मान नहीं ।
        रिश्तों की नातों से अब ,
        पहले सी पहचान नही ।

   शब्द गिरे है कट कट कर,
   कविता लहूलुहान पड़ी ।
   इंसानो की बस्ती में ,
    यह कैसी आग लगी। .

         ...विवेक दुबे"निश्चल"@....
29
शब्द छूटते ,कुछ शब्द टूटते ।
फिर भी हम , शब्द कूटते .।

शब्दों में कुछ ,रिश्ते ढूंढते ।
भावों से नाते , सींचते ।

बस शब्दों से ,शब्द खींचते ।
अपनेपन के , बीज़ सींचते ।

अंकुरित हो कोई बीज ,बन वृक्ष विशाल ।
कर जाये कमाल हुए हम मालामाल ।

  वृक्ष पर मीठे ,फल आयें जब ।
  पंक्षी डाल डाल नीड़ बनाये तब ।

हुए शब्द सार्थक तब ।
             ....विवेक दुबे "निश्चल"@..
  30
यादों में बिखर जाते हैं ।
  रिश्ते यूँ निखर जाते हैं ।
         कटती उम्र ख़यालों सँग ,
          जो आगोश भर जाते हैं ।

... विवेक दुबे"निश्चल"@..
31
शेष नही अब आज समर्पण,
होता है कुछ शर्तों पर गठबंधन ।
रिश्ते नाते सूखे तिनको से ,
एक चिंगारी से जलता घर आँगन ।
   ..32
रिश्तों की गर कोई जुवान होती ।
रिश्तों की कुछ और पहचान होती ।
न होते फिर दिल से दिल के रिश्ते ।
बाज़ारो में रिश्तों की दुकान होतीं ।
    ....विवेक दुबे "निश्चल"©...
33
  इस अर्थ युग मे अर्थ बोल रहा ।
रिश्तों का बस इतना मोल रहा ।
रिश्ते बस अब लाभ हानि के,
सोने सा रिश्तों का तोल रहा।
.......विवेक दुबे "निश्चल"©..

जीवन नही सरल है

 1021

जीवन नही कही सरल है ।

चलना ही जिसका हल है ।

घटता कुछ व्योम अंतरिक्ष में भी,

सागर तल में भी होती हलचल है ।

घूम रही है ,वसुंधरा धूरी पर ,

परिपथ में,जाने कैसा बल है ।

आई रजनी दिनकर के जाते ही,

चंदा सँग तारों की झिलमिल है ।

नव प्रभात की ,आशा में ,

रजनी से भी, होता छल है ।

बदल रहे है दिन, दिन से ही ,

यूँ होता, हर दिन का कल है ।

जीवन नही कही सरल है ।

चलना ही जिसका हल है ।

  ....."निश्चल"@..

डायरी 7


प्रणय मिलन

 1037

प्रणय मिलन की वेला में ,*

 *आलिंगन में तुम बंध जाओ ।*

 *साँसों के स्पंदन से तुम ,*

  *नव सृजन के भाव जगाओ ।*

*सिंचित कर स्वर अपने*

*सम्पूर्ण समर्पण से ,*

 *ये क्रम मधु मासों में ,*

 *बार बार तुम दोहराओ ।*

*प्रणय मिलन की वेला में ,*

 *आलिंगन में तुम बंध जाओ ।*

.... *विवेक दुबे"निश्चल"@* ....

डायरी 7

बार बार प्रतिकार मिला

 1040

बार बार प्रतिकार मिला है ।

अपनो से ये उपहार मिला है ।

संघर्षित इस जीवन पथ पर ,

पारितोषित बस हार मिला है ।

स्वार्थ भरे रिश्ते नातों में ,

कुटिल नयन दुलार मिला है ।

अपनो से अपनो के संवादों में,

शब्द शब्द व्यापार मिला है ।

 हर कांक्षित आकांक्षा में ,

अस्वीकारित स्वीकार मिला है ।

पार चला जब मजधारो के ,

तब तट पर इस पार मिला है ।

बार बार प्रतिकार मिला है ।

अपनो से ये उपहार मिला है ।

...विवेक दुबे"निश्चल"@..

डायरी 7


ये भी एक दौर है

 1041

वो भी एक दौर था ,

ये भी एक दौर है ।

वो न कोई और था ,

ये भी न कोई और है ।

 जिंदगी के हाथ में ,

चाहतों की डोर है 

जीतने की चाह में ,

 अदावतों का शोर है ।

 उम्मीदों के पोर पे ,

  हसरतों के छोर है ।

   छूटते आज में ,

  कल नई भोर है ।

 वो भी एक दौर था ,

 ये भी एक दौर है ।

..."निश्चल"@....

डायरी 7

कुछ फर्ज़

 1042

कुछ फ़र्ज़ निभाये जाते है ।

कुछ कर्ज़ चुकाये जाते है ।

रिश्तों के कंटक पथ पर ,

कुछ शूल हटाये जाते है ।

बनते है फिर मिटते है ,

 फिर खूब सजाये जाते है ।

 पास नही दिल के कोई ,

 पर पास बताये जाते है।

कुछ फ़र्ज़ निभाये जाते है ।

कुछ कर्ज़ चुकाये जाते है ।

सहज चले रिश्ते रिश्तों को,

वो एक आस लगाये जाते है ।

जिनमें है भाव समर्पण का ,

कुछ वो खास बनाये जाते है ।

देकर कुर्वानी खुशियों की ,

रिश्तों के कर्ज चुकाये जाते है ।

..."निश्चल"@...

डायरी 7

पहचानो की मोहताज

 1043

पहचान पहचानो की मोहताज रही ।

शख़्सियत कल जैसी ही आज रही ।

कभी न खनके रिश्तों के घुंघरू ,

जिंदगी फिर भी सुरीला साज रही ।

लिखता रहा मैं हर शे'र बह्र में  ,

पर हर ग़जल मेरी बे-आवाज रही ।

निभाया हर फ़र्ज़ को बड़ी शिद्दत से ,

दस्तूर-ए-जिंदगी पर बे-रिवाज़ रही ।

  न था मैं बे-मुरब्बत जमाने के लिए ,

  मेरी शोहरतें खोजती लिहाज़ रही ।

   बंधा न समां सुरों से महफ़िल में,

  "निश्चल"की ग़जल बे-रियाज़ रही ।।


डायरी 7




कलम चलती है शब्द जागते हैं।

सम्मान पत्र

  मान मिला सम्मान मिला।  अपनो में स्थान मिला ।  खिली कलम कमल सी,  शब्दों को स्वाभिमान मिला। मेरी यूँ आदतें आदत बनती गई ।  शब्द जागते...