शनिवार, 15 दिसंबर 2018

कितना सच्चा सरल लिखा उसने ।

668

कितना सच्चा सरल लिखा उसने ।
जीवन को एक गरल लिखा उसने ।

उस ठहरी हुई कलम से ,
शब्द शब्द सचल लिखा उसने ।

शुष्क हुई उन आँखों में ,
भर भाव सजल लिखा उसने ।

लिख भाषा रिश्ते नातो की ,
सम्बंधो का सकल लिखा उसने ।

सार लिखा है ज़ीवन का ,
 नही कहीं नकल लिखा उसने ।

बदल रहे पल में रिश्ते ,
हर रिश्ता अचल लिखा उसने ।

हार गया अपनो के आगे ,
और जीवन सफल लिखा उसने ।

टालकर हर सवाल को ,
हर जवाब अटल लिखा उसने ।

भर मन शान्त भाव को ,
"निश्चल" विकल लिखा उसने ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@......

डायरी 6(79)
Blog post 15/12/18

एक मौन निमंत्रण सा ।

  667


एक मौन निमंत्रण सा ।
 भावों का आमंत्रण सा ।

 लिप्त रहा चित्त में चित्त ,
 अन्तर्मन का अर्पण सा ।

 सुध खोता खुद में खुद ,
 आत्म देह समर्पण सा ।

 छवि देखे तन से मन की ,
 नैनो में नैनन दर्पण सा ।

निखर रहा पाषाण नदी का ,
बहता नीर बीच घर्षण सा ।

सँवर उठा वो सांझ तले ,
रश्मि तारा विकिरण सा ।

शीतलता की आस लिए ,
निहार हार दे तर्पण सा ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@...

डायरी (78)

न जीत से , न हार से ,

666
न जीत से , न हार से ,
मिलता नही कुछ , प्रतिकार से ।

जीतती है , जिंदगी ये ,
मिल अपनो के , ही दुलार से ।

 चुभता शूल , तुझे कही पे ,
 है आंखे वो नम , दर्द की पुकार से ।

खोजते पन , उस मन में ,
देखते है नयन , जिसे निहार से ।

मिलते अपने ही , अपने पाथ से ,
खिलती है जिंदगी , प्रीत के शृंगार से ।

ले चलें मिला, कदम से कदम ,
लक्ष्य तक भर ,जीत की जयकार से ।

 हो साथ पथ पाथ , अपनो का ,
 कुछ बड़ा नही , इस पुरुष्कार से ।

ले चला चल साथ ,अपनो का ,
जीतते तुझसे वो , अपनी ही हार से ।

न जीत से , न हार से ,
मिलता नही कुछ , प्रतिकार से ।


.... विवेक दुबे"निश्चल"@....
डायरी 6(77)

पूर्ण ब्रह्म वो जो स्वयं है ,

 665
हर विचार रहा अधूरा सा ।
 हुआ नही रजः कण सम पूरा सा ।

अद्भुत विधि है बिधना की ,
रंग भिन्न विविध भरता पूरा सा ।

जोड़ नही तू कुछ अपने मन से ,
कोई कार्य रहे न उसका अधूरा सा ।

पूर्ण ब्रह्म वो जो स्वयं है ,
वो ही करता तुझको मुझको पूरा सा ।

... विवेक दुबे"निश्चल"@....
डायरी 6(76)

जो चलकर भी "निश्चल" रहता ,

664
रुक हार कहीं जो थकता है ।
यह काल उसे ही ठगता है ।

सहता है जो   धूप ताप को ,
फ़ल वही   तो   पकता है ।

कहलाता तरल नीर वो भी ,
पोखर में जो जल रुकता है । 

बहता है जो नीर नदी सा ,
सागर में वो ही रूपता है ।   

जो चलकर भी "निश्चल" रहता ,
पाषाण मील सा वो सजता है ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@...

डायरी 6(75)

मुक्तक 672/677

672

दुनियाँ कमतर ही आँकती रही।
चुभते तिनके से आँख सी रही ।

 फैलते रहे दरिया से किनारे पे  ,
 दुनियाँ इतनी ही साथ सी रही ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@...

673

मुझे समझने के लिए, फ़िकर चाहिए ।
निग़ाह नज़्र में ,  आब जिकर चाहिए ।

न समझ हो कुछ , समझने के लिए , 
फक़त दिल , इतना ही असर चाहिए ।

..विवेक दुबे"निश्चल"@.

677

इस वक़्त से नही कुछ भला है ।
नहीं इस वक़्त से कुछ भला है ।

गुजरता रहा हाल हर हालत से ,
मेरे सवाल का ज़वाब ये मिला है ।

... विवेक दुबे"निश्चल"@....

675

कुछ दिन की कतरन है ।
सब रीते से ही बर्तन है ।

रीते से दिन खाली खाली ,
रातों का उतरा यौवन है ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@....

676

दिल की  यूँ झोली भर लो ।
खुशियों की बोली कर लो ।

       डूबकर खुशी के समंदर में ,
      जिंदगी कुछ होली कर लो ।

      ... विवेक दुबे"निश्चल"@.

677

कुछ फैसले किताबो से ।
कुछ फैसले मिज़ाज़ो से ।

बदल कर मिजाज अपना,
झुकते रहे जो सहारों से ।

... विवेक दुबे"निश्चल"@..

Blog.post 15/12/18

मुक्तक 670/671

670
कुछ कब होता है ।
कुछ कब होना है ।

छूट रहे कुछ प्रश्नों में ,
एक प्रश्न यही संजोना है ।

गूढ़ नही कुछ कोई ,
रजः को रजः पे सोना है ।
-----
671
हे अज्ञान ज्ञान के बासी ।
तू खोज रहा मथुरा काशी ।
तुझे श्याम मिलेंगे मन भीतर ,
तेरा मन देखे जिसकी झांकी ।
.
... विवेक दुबे"निश्चल"@..
डायरी 3

गुरुवार, 13 दिसंबर 2018

हर राह ही रही "निश्चल" मेरी ।

हर बह्र से खारिज ग़जल मेरी ।
कुछ कहती निग़ाह मचल मेरी ।

 उठते जो तूफ़ान रूह समंदर में ,
 अल्फ़ाज़ को छूती हलचल मेरी ।

आँख के गिरते क़तरे क़तरे को ,
ज़ज्ब कर जाती कलम चल मेरी ,
    
     खो गया क़तरा सा समंदर में ,
    बस इतनी ही एक दखल मेरी ।

मिल गया वाह जिसे अंजाम में ,
हो गई वो ग़जल मुकम्मल मेरी ।

     मिलता रहा साँझ सा भोर से ,
     हर राह ही रही "निश्चल" मेरी ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@..
डायरी 6(74)

लब ख़ामोश खुलें राजदार मिलेंगे ।

तू ढूंढ़ जरा बहाने हज़ार मिलेंगे ।
हर दिल में नही दिलदार मिलेंगे ।

न सजा ख़्वाब ख़्याल की खातिर ,
हर ख़्याल ख़्वाब के पार मिलेंगे ।

झाँक तो सही किसी निग़ाह में जरा ,
ज़िस्म तुझे रूह से गुनहगार मिलेंगे ।

करना नही सौदे नियत के अपनी ,
आज खुदगर्ज बड़े व्यापार मिलेंगे ।

परेशां है जमीं बरसते आसमां से ,
हमदर्दी के कुछ यूं त्योहार मिलेंगे ।

हर मिलती नजर निग़ाह के पीछे ,
अमन-ओ-ईमान के खार मिलेंगे ।

जीतना न कभी इस दुनियाँ से ,
हार के बाद ही तुझे यार मिलेंगे ।

"निश्चल"छेड़ किसी ज़ज्बात को ,
 लब ख़ामोश खुलें राजदार मिलेंगे ।

..... विवेक दुबे"निश्चल"@....
डायरी 6(73)

"निश्चल" रहा फिर भी नवाब सा ।

मैं हर्फ़ हर्फ़ एक किताब सा ।
मैं लफ्ज़ रहा बे-जवाब सा ।

खो गया अपनी मायूसी में ,
हटता नही जो हिजाब सा ।

अपने अरमानों की चाहत में ,
बदलता रहा वक़्त शबाब सा ।

 कह गया अल्फ़ाज़ खामोशी से ,
 हांसिल हुआ नही रुआब सा ।

 फांके मिले ग़जल और गीत से ,
"निश्चल" रहा फिर भी नवाब सा ।

... विवेक दुबे"निश्चल@...

डायरी 6(72)
Blog post 13/12/18

कहाँ इंसान से ईमान खो गया ।

आज कहाँ इंसान से ईमान खो गया ।
राम कहीं तो कहीं रहमान खो गया ।

करते रहे सजदे जाते रहे शिवाला ,
 नजरों में मगर सम्मान खो गया ।

बदल रही है रौनके पाक रिश्तों की ,
घर घर से आज मेहमान खो गया ।

 मिलते रहे गले लोग मुर्दार की तरह ,
 जिंदगी से जिंदा अरमान खो गया ।

 खुदगर्ज बने खुद खुदी के लिये ,
 हर फ़र्ज़ अपनी पहचान खो गया ।

करते नही खुशी उस खुशी के लिये ,
"निश्चल" कहाँ वो अहसान खो गया ।

..... विवेक दुबे"निश्चल"@....

डायरी 6(71)





अर्चन वंदन वो होगा शब्दों का ।

अर्चन वंदन वो होगा शब्दों का ।
एक मौन निमंत्रण होगा शब्दों का ।

गढ़कर परिभाषा कुछ शब्दों की ,
भावों से आलिंगन होगा शब्दों का ।
...
रिक्त रहा नही कहीं कुछ कोई ,
मन तृप्त हुआ होगा शब्दो का ।

खिलकर गूढ़ अर्थ के भाव तले ,
तन शृंगार मिला होगा शब्दों का ।
....
हर्षित पुलकित सी होगी काया ,
सृजन सफ़ल वो होगा शब्दों का ।

 "निश्चल"रहकर चलता चल सा ,
  निष्छल फल होगा शब्दो का ।

.... विवेक दुबे"निश्चल@...
डायरी 6(70)

समझ न सकोगे ।

मेरे सवालों को समझ न सकोगे ।
चलोगे साथ मेरे बस तुम थकोगे ।

कभी करती नही सवाल ये जिंदगी ,
इस बे-सबाल को तुम क्या कहोगे ।

 ये फासला खड़ा है तुझमे मुझमे ,
 दूर रहकर भी तुम दूर न रहोगे ।

बेकार ही रहा सफ़र तुझ सँग ,
बात एक दिन यह तुम कहोगे ।

.... विवेक दुबे "निश्चल"@..
डायरी 6(68)

किस को आना है ।

किस को आना है ।
किस को जाना है ।

बस एक प्रश्न यही ,
करता रहा दिवाना है ।

राह चले सब अपनी ,
सबका एक ठिकाना है ।

बीत रहे पल पल में ,
पल को यही बताना है ।

चलकर भी न पहुचें ,
 पर सफर सुहाना है 

"निश्चल" रहे हर दम ,
समय यहीं बिताना है ।

... विवेक दुबे"निश्चल"@...

 हम रीत राग में उलझे है ।
 कहते फिर भी सुलझे है ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@..

डायरी 6(67)
Blog post 13/12/18

अपनो के दुलारों से ।

चलो साथ किनारों पे ।
 अपनो के दुलारों से ।

 पार हुआ हर दरिया ,
 तिनको से सहारों से ।
 ..
 सँग मिला दिन भर ,
 ताप मिले नजारों से ।

 साँझ ढ़ले घर लौटें ,
अपनी सी पुकारो से ।

जीवन की बगियाँ में ,
पुष्प यहीं बहारों से ।

खोज रहे है गुपचुप ,
तन मन के इशारों से ।

चलो साथ किनारों पे ।
 अपनो के दुलारों से ।

... विवेक दुबे"निश्चल"@...

डायरी 6(66)
Blog post 13/12/18

रातों का योवन उतरता सा ।

मन से मन को भरता सा।
घट पर घट सा धरता सा।

बीत रहा समय यहाँ भी ।
ये वक़्त कहाँ ठहरता सा।

 मन क्यों मन को हरता सा ।
 तन क्यों मन का करता सा ।

 दृष्ट सदा सत्य नही रहा है ,
 नीर नयन रहा पहरता सा ।

  दिन दिन को कतरता सा।
  रीते बर्तन से बिखरता सा ।

 बीत रहे दिन खाली खाली ,
 रातों का योवन उतरता सा ।

मन से मन को भरता सा।
घट पर घट सा धरता सा।

 .... विवेक दुबे"निश्चल"@..

डायरी 6(65)
Blog post 13/12/18



तुझे देखकर भी न देखते रहे ।

दिल यूँ कुछ भटकते रहे ।
ख़्याल बीच अटकते रहे ।

न जा सके पार ख़यालों के ,
ख़्याल से ही लिपटते रहे ।
...
हम बार बार रोकते रहे ।
नज़्र निग़ाह से टोकते रहे ।

उलझकर निग़ाह की चाह में ,
हम खुद खुद को कोसते रहे ।
...
 मन सँग बदन लपेटते रहे ।
तन बदन को समेटते रहे ।

एक पहचान की चाहत में ,
तुझे देखकर भी न देखते रहे ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@..
सद्गुरु
डायरी 6(64)

एक पहचान की चाह में ,

दिल यूँ कुछ भटके से ।
ख़्याल बीच अटके से ।

      बे-पार रहे ख़यालों के ,
      चाहत से ही लिपटे से ।
...
लब बार बार रुकते से ।
नज़्र निग़ाह झुकते से ।

        उलझ निग़ाह चाहत में ,
        खुद खुद को चुभते से ।
...
बदन सँग मन लिपटे से ।
तन बदन वो सिमटे से ।

      एक पहचान की चाह में ,
      दिखकर भी न दिखते से ।

    .... विवेक दुबे"निश्चल"@..
सद्गुरु
डायरी 6(63)

सोमवार, 10 दिसंबर 2018

"निश्चल" चले सच साथ लेकर ,


मजबूत इरादे कहीं रुकते नही है ।
तूफ़ां के आंगे कभी झुकते नही है ।

प्रण ले जो प्राण से करके रहेंगे ,
हिमगिर भी सामने टिकते नहीं है ।

चल पड़े जो दृण संकल्प लेकर ,
छूकर आसमां भी थकते नही है ।

टकराते है आँधियों से हँसकर ,
हारकर कभी पीछे हटते नहीं है ।

बढ़ते है चीरकर समंदर का सीना ,
उफनाती लहरों से कटते नही है ।

करते नही ईमान का सौदा कभी ,
इस झूँठी दुनियाँ से लुटते नही है ।

 "निश्चल" चले सच साथ लेकर ,
  दुनियाँ को झूँठ से ठगते नही है ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@....
डायरी 6(62)

ये परिवर्तन क्या है ?

ये परिवर्तन क्या है ?
बस दृश्य बदलते है ।

बदले हुए मोहरे भी ,
चाल नही बदलते है ।

पिटते प्यादे मोहरों से ,
बजीर नही हिलते है ।

ढाई चाल की ऐड़ लगी ,
शह से प्यादे पिटते है ।

ये परिवर्तन क्या है ?
बस दृश्य बदलते है ।

... विवेक दुबे"निश्चल"@...

मत देने से मत पाता ।
तो मैं भी मत दे आता ।

छिनते सारे मत जिससे ,
फिर मैं कैसा मत दाता ।

... निश्चल..

लिखते रहे सब तक़दीर हमारी ।
कहते रहे , तुम, जागीर हमारी ।
घिस पिसते रहे दो पाटों में ,
समझे नही कोई पीर हमारी ।

बचपन आया योवन तन में ,
काम नही डिग्री की लाचारी ।
प्रौढ़ हुए युवा समय से पहले ,
रोजी की चिंता सिर पे भारी ।

सर्द खड़ा है खेतों में वो ,
लागत की वर्षा होती भारी ।
दे आया उनके दामों में धन ,
मालामाल माया के पुजारी ।

कहते है वो बड़ी शान से ,
अपने वादों में सत्ताधारी ।
बेठाओ तुम हमे कुर्सी पर ,
कर देंगे हम भर झोली भारी ।

बांट रहे है माल-ए-मुफ्त ,
सब के सब ही बारी बारी ।
काम नही पर हाथों में ,
बढ़ती है हाथों की बेकारी ।

कुछ दिन की कतरन है ,
रातो का योवन भारी ।
सब रीते से बर्तन है ,
रीत गये दिन खाली ।

... विवेक दुबे"निश्चल"@....
डायरी 6(62)

ये कैसी कहानी है ।


ये कैसी कहानी है ।
आंखों का पानी है ।

      ख़ुश्क रहा कोर में ,
      वो इतनी निशानी है ।

रूठते नही रुठकर ,
जो आदत पुरानी है ।

      मिलती रही हँसकर ,
      ये दुनियाँ दीवानी है ।

ठहर जरा क्षण को ,
 ये रात भी सुहानी है ।

         भोर मिले चलना ,
         रात तो बितानी है ।

 "निश्चल" सहज हर पल को,
  ये जिंदगी आनी जानी है ।

... विवेक दुबे"निश्चल"@....
डायरी 6(61)

कुदरत के ये सन्नाटे ,

कुदरत के ये सन्नाटे ,
 पग मौन चुभे कांटे ।

तपती सी ये धरती ,
 बस प्यास उसे बांटे ।

चलता शुष्क कंठ लिये ,
नभ नीर जहाँ बांटे ।

रहा आश्रयहीन सा वो ,
प्रश्न यही रात कहाँ काटे ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@..

तुझे मिले कुछ ऊंचा असमां से ।
हो जुदा कुछ जो इस जहां से ।

एक पहचान हो कल अपनी ,
अपने ही छोड़े कदम निशां से ।

उठते रहे हाथ हरदम ही मेरे ,
हर दुआ में मेरे इस दुआ से ।

... विवेक दुबे"निश्चल"@....

डायरी 6(60)

असरात लिखा करता हूँ ।

1
हालात लिखा करता हूँ ।
       असरात लिखा करता हूँ ।

बिखेरकर अल्फ़ाज़ अपने ,
         ज़ज्बात लिखा करता हूँ ।
.----2
जूझता रहा मैं ,
               हालात के हादसों से ।

गुजरता रहा मैं ,
             वक़्त के रास्तों से ।

कहाँ किसे कहुँ ,
           मैं मंजिल अपनी ,

बा-वास्ता रहा मैं ,
          खुदगर्ज वास्तो से ।
-----3
लिखता रहा खत,
            ख़्वाब ख़यालों से ।

पैगाम-ए-इश्क़ ,
         जिंदगी के सवालों से ।

पलटता रहा मैं ,
            जिल्द किताबों की ,

मिलते नही होंसलें ,
             कुछ मिसालों से ।
-----4
 वक़्त बड़ा कमज़र्फ हुआ है ।
           जफ़ा भरा हर्फ़ हर्फ़ हुआ है ।

  घुट रहे है अरमान सीनों में ,
            ये सर्द दर्द अब वर्फ़ हुआ है ।
---5
आँख मूंदने से रात नही होती ।
        झूंठे की कोई साख नही होती ।

 उड़ान कितनी भी हो ऊँची ,
          आसमान में सुराख नही होती ।
---6
कुछ कतरन है दिन की ।
           रीते रीते से बर्तन सी ।

रीत रहे दिन खाली खाली ,
           रातों है उतरे यौवन सी ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@..

डायरी 6(59)

जफ़ा/ जुल्म 
कमज़र्फ/ ओछा /कमीना

   

भाषा की परिभाषा में ।

शब्दों की अभिलाषा में ।
भाषा की परिभाषा में ।

खोज रहा मन , गुपचुप ,
कुछ अर्थ पिपासा में ।

लय घुटता कुछ रुकता है ,
डूब रहा राग निराशा में ।

प्रणय गीत गाता फिर भी ,
मधुर मिलन की आशा में ।

भाव भरे है , गीत मेरे ,
सरगम का हरदम प्यासा मैं ।

खनकेंगे सुर भी साथ मेरे ,
रहता मन मन की दिलाशा में ।

गहन निशा के आँचल से ,
उठता भोर तले, उबासा मैं ।

मौन लिए मन,मन के भीतर ,
गढ़ चलता भाव सहासा मैं ।

शब्दों की अभिलाषा में ।
भाषा की परिभाषा में ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@..
डायरी 6(57)

ऐसा कोई मुक़ा ढूंढते है ।

वो जमीं वो गली वो मकां ढूंढते है ।
जो हो यहीं कहीं वो जहां ढूंढते है ।

टकराती साहिल से बेख़ौफ बेझिझक ,
मचलती उस मौज की दास्तां ढूंढते है ।

लफ्ज़ ख़ामोश ख़यालों की ख़ातिर ,
उस ज़ीस्त रूह की जुबां ढूंढते हैं ।

जलते गुलिस्तां नफ़रत की आग में ,
निग़ाह आब की कोई अना ढूंढते है ।

 सींचे चाहत-ए-आब से गुल को ,
 गुलशन का कोई बागवां ढूंढते है ।

लूटते है दरिया साहिल को ,
मौज मैं किनारे वफ़ा ढूंढते है ।

करते रहे सफ़र सफर की खातिर ,
छूटते क़दमो के निशां ढूंढते है ।

पता मिले मंज़िल का जिस जगह पे,
चल"निश्चल" ऐसा कोई मुक़ा ढूंढते है ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@....
डायरी 6(58)
अना/अहमं

रविवार, 9 दिसंबर 2018

एक ठहरा हुआ असर सा






 एक ठहरा हुआ असर सा ।
 भागते से , इस शहर सा ।

 कुछ जीतने की चाहत में ,
 चाहतों पे , एक कहर सा ।

  वक़्त का कुछ कर्ज़  सा ।
  रहा कही क्यों फ़र्ज़  सा ।

  बदलता ही रहा हर घड़ी ,
  बस रहा इतना ही हर्ज़ सा

.... विवेक दुबे"निश्चल"@..
Blog post 9/12/18



कलम चलती है शब्द जागते हैं।

सम्मान पत्र

  मान मिला सम्मान मिला।  अपनो में स्थान मिला ।  खिली कलम कमल सी,  शब्दों को स्वाभिमान मिला। मेरी यूँ आदतें आदत बनती गई ।  शब्द जागते...