गुरुवार, 16 जनवरी 2020

कुछ मुक्तक

 890
हसरतों के सँग भागता रहा ।
 जिंदगी से यूँ ही राबता रहा ।
  एक सफ़र सहर के वास्ते ,
 साँझ उजाले में जागता रहा ।
  .... 
891
बीते कल को स्वीकार किया मैंने ।
हाँ यूँ जीवन से प्यार किया मैंने ।
आते उजले कल की अभिलाषा में ,
"निश्चल" पल को दुलार किया मैंने ।
..
892
दूर खड़ा मन देखे ,
मन की हलचल को ।

आते आकर जाते ,
आते जाते हर पल को ।

मोह नही अब कोई ,
अपनी पहचानों का ,

जान गया अब वो ,
मन से मन के छल को ।

...विवेक दुबे"निश्चल"@...
893
यात्रा स्वयं में स्वयं की ।
खोज यही जीवन की ।
चला यहीं "निश्चल"मन 
परिधि इतनी ही मन की ।
...विवेक दुबे"निश्चल"@..
डायरी 3

894
बस एक यही यथार्थ है ।
पिता नही कभी स्वार्थ है ।
चलता है सतत निरंतर ,
ज़ीवन रण का वो पार्थ है ।
....विवेक दुबे"निश्चल"@..
895
मन दर्पण में श्याम निहारे है ।
यूँ राधा अपना रूप सँवारे है ।
पुलकित मन आलोकित नैना ,
चित धड़कन श्याम पुकारे है ।
....विवेक दुबे"निश्चल"@..
896
 दुआओं का यूँ असर होता है ।
खुशनुमा ज़िंदगी बसर होता है ।
गुजरती है कश्ती जो तूफ़ान से ,
तो समंदर भी रहबर होता है ।
      ..विवेक दुबे"निश्चल"@..
897
शरद चली विदा लेकर ।
आई बसंत अदा लेकर ।
धानी चूनर ओढ़ी धरा ने,
 कलेवर फ़िर नया लेकर ।
....विवेक दुबे"निश्चल"@...
898
हे वर्ष तुझे विदा करूँ कैसे ।
ज़ख्म मिले गहरे भरूँ कैसे ।
धू धू करती काया लज़्ज़ा की ,
नारी रक्षा की शपथ पढूं कैसे ।
....विवेक दुबे"निश्चल"@....
डायरी3
Blog post 15/1/20

899
जो सतत चलता गया है ।
वही तो बदलता गया है ।
ढलकर कोर क्षितिज में ,
भानू भोर सा निकलता गया है ।

900
आशाओं के बोझ तले ,
चुपचाप चली अभिलाषा ।
ज़ीवन के ज़ीवन पथ पर ,
जीव सदा एकाकी आता जाता ।

901
एक धूल भरा दिनकर सा ।
अस्तित्व हीन सा कंकर सा ।
खोज रहा ख़ुद को ख़ुद में ,
अन्तस् मन स्वयं पिरोकर सा ।

902
है नही कुछ स्पष्ट सा ।
बस इतना सा कष्ट सा ।
सामने है पट समय का ,
पीछे पटल सब दृष्ट सा ।
.... विवेक दुबे "निश्चल"@...
डायरी 3

मुक्तक 874/889

874
एक नक्श पुराना सा।
एक अक्स पुराना सा ।
काफिला-ऐ-नए दौर में,
में एक शख्स पुराना सा ।
....विवेक दुबे"निश्चल"@..

874/A
कुछ नक्श पुराने से ।
कुछ अक्स पुराने से ।
काफिला-ऐ-नए दौर में,
 कुछ शख्स पुराने से ।
....विवेक दुबे"निश्चल"@...

875
तू मत सोच के सब सच्चा है ।
हर रिश्ता दुनिया में अच्छा है ।
टूट रहे सच्चे सपने कच्चे से ,
एक तेरा सच भी तो कच्चा है ।
....विवेक दुबे"निश्चल"@...
875/A
तू मत सोच के सब सच्चा है ।
हर रिश्ता दुनिया में अच्छा है ।
टूट रहे है कुछ सपने सच्चे से ,
एक तेरा सच भी तो कच्चा है ।
....विवेक दुबे"निश्चल"@...
876
कर्म सदा तू तेरा करता जा।
 मन मनका फेरा करता जा ।
 मन अँधियारो की परिधि में,
 उजियारो का घेरा करता जा ।
....विवेक दुबे"निश्चल"@..
876/A
कर्म सदा तू अपना करता जा।
 मन मनका जपना करता जा ।
 मन के अँधियारो की परिधि में,
 उजियारो की रचना करता जा ।
    ...विवेक दुबे"निश्चल"@...

 877
 ये तप्त शिलाएं वर्तमान की ,
   ठंडी होतीं अतीत हिमकण से ।
   दिन चलता उजास सँग तपते तपते ,
   साँझ जीत रही फिर दिनकर से ।
.     .....
878
क्यूँ अब तक मैं कुछ न कुछ सीख रहा ।
क्यूँ अब तक कुछ न कुछ न ठीक रहा ।

कुछ धुँधले से साये मन के उजियारों में ,
क्यूँ दिन उजियारों में कुछ न दीख रहा ।
 ......
879
क्यूँ अब तक मैं कुछ न कुछ सीख रहा ।
क्यूँ अब तक कुछ न कुछ न ठीक रहा ।

कुछ धुँधले से साये दिन के उजियारों में ,
मन के उजियारों में हाँ कुछ दीख रहा ।

     ....विवेक दुबे"निश्चल"@...
डायरी 3


880
लहरों का यूँ नसीब न रहा ।
साहिल कभी रक़ीब न रहा ।
उठते रहे तूफ़ां समंदर के दिल में,
समंदर का कोई हबीब न रहा ।
........
881
एक शाम समंदर सी ।    
 खुशियों का मंजर सी ।
  डूब रही है धीरे-धीरे ,
 देकर चाहत सुंदर सी ।
.......
882
अक़्स अश्क़ में धुल गए ।
छाँव पलकों में जल गए ।
मंजिल पा जाने से पहले ,
छाले पाँव में मचल गए ।
….
883
इस हिसाब-ऐ-दुनियाँ में ,
न कुछ जोड़ न कुछ घटा ।
रहने दे मुगालता निग़ाह का ,
पर्दा निग़ाह का तू न हटा ।
.......
884
जब कोई सहारा न हो ,
तू तब आप सहारा बन जा ।
वक़्त झुकेगा तेरे आंगे ,
तू तूफानों का प्यारा बन जा ।
.......
885
आशाओं ही के बोझ तले ,
 चुपचाप चली अभिलाषा ।
"निश्चल" ज़ीवन के पथ पर ,
 जीव सदा एकाकी चलता जाता ।
....
886
सिहर चला सन्नाटे से ।
वक़्त कटे न काटे से ।
टकरातीं लहरें सागर की ,
ज़ीवन तट ज्वर के भाटे से ।
.......विवेक दुबे"निश्चल"@...
887
कुछ चाहतें जिंदगी की ।
कुछ हसरतें जिंदगी की ।
बदलती रही तासीर अपनी,
कुछ शोहरतें जिंदगी की ।
....विवेक दुबे"निश्चल"@...

डायरी 3

888
कुछ मोहरे बिछे बिसात पे ।
 चलते चालें घात से घात पे । 
  अपने एक राजा की ख़ातिर ,
 गिरते प्यादे शेंह और मात पे ।
....
889 
अंजाम से अपने वो अंजान हैं ।
हाथ में नही तनिक भी ईमान है ।
चलते हैं साथ ले नस्लें इंसान की ,
इतना ही इंसानियत का गुमान है ।
...विवेक दुबे"निश्चल"@...
डायरी 3

कलम चलती है शब्द जागते हैं।

सम्मान पत्र

  मान मिला सम्मान मिला।  अपनो में स्थान मिला ।  खिली कलम कमल सी,  शब्दों को स्वाभिमान मिला। मेरी यूँ आदतें आदत बनती गई ।  शब्द जागते...