शनिवार, 28 जुलाई 2018

हमे भी पता है

435
हमें भी पता है के तुम्हे पता है ।
ढूंढकर भी पता कोई लापता है ।

 मिलकर भी कोई न मिल सका है ।
न मिलकर भी कोई नही जुदा है ।

जिंदगी की इतनी ही अदा है ।
 के ज़िन्दगी बस एक सदा है ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@..
डायरी 5(22)

यह अखवार

यह अखवार हर दिन घर क्यों आता है ।
आता है आते ही आँखों में छा जाता है ।

 फिर लुटी आबरू मासूम अबला की ,
 बड़े बड़े लफ़्ज़ों में नजर आ जाता है ।

 फिर कटे कुछ सर ,बिके कुछ फिर धड़ ,
 सरमायेदार ख़ामोश नजर आता है ।

 यह अखवार ....

 टूट रहीं है छूट रही है डोरे जीवन की ,
 ज़ीवन से ज़ीवन अब डरता जाता है ।

 रिश्ते फटते अब रद्दी के कागज़ से ।
 रिश्तों का रिश्तों से एक रात का नाता है ।

 उजले से कोमल इस कागज़ पर ,
 स्याह स्याही से स्याह स्याह छप जाता है ।

 यह अखवार ....
 .... विवेक दुबे"निश्चल"@..
Blog post 28/7/18
डायरी 5(21)

आज़ाद वतन

431
आज़ाद वतन की आज़ादी में ।
 आधी सी इस आवादी में ।

 बैर धुले है मज़हब के ,
 बंट गए कुछ जाति में ।

 लुप्त हुए है यूँ सब ,
अपनी ही आजादी में ।

 रंग उड़े उस गुलशन के ,
 चलती गोली वादी में ।

ताल ठोकते कुछ ,
सत्ता के मैदानों में ।

 जहर उगलते नित जो ,
 नित नए बयानों में ।

 रहा नही क्यों , देश प्रेम अब उनमें ,
 सजे हुए जो , खादी के परिधानों में ।

  लुप्त हुई आज़ादी ज्यों ,
 आजाद भगत , गांधी के बलिदानों में ।

... विवेक दुबे"निश्चल"@..
डायरी 5(20)

श्रृंगार हीन हुई थी

430
श्रृंगार हीन हुई थी माता ,
दंश झेलकर अपने ही गद्दारों के ।

प्रण ले लिया था उसने भी ,
मैं सहजूंगा माता के श्रृंगारों को ।

 पाले था आज़ाद ख़यालों को ।
 देख देख अलबेले मतवालों को ।

 देख रहा था उसका बचपन भी ,
 गलते मातृभूमि के घावों को ।

 वचन निभाया प्रण प्राण से, 
 कफन बाँध आज़ादी के दीवानों का ।

आजाद रहा हूँ आजाद रहूँगा ,
 ख़ौफ़ बना था वो गोरों का ।

 देकर आहुति अपने प्राणों की ,
 आज़ादी की यज्ञ हवि में ।

 थकित पड़ी क्रांति ज्वाला में ,
 वो भर गया जोश जवानों सा ।

मातृ भूमि की रक्षा में ,
खाकर गोली सीने पर ,
 सींचा लहु देश प्रेम फुहारों सा ।

 रंगा राष्ट्र राष्ट्र प्रेम के जज्बे से ,
 काल बना जो उन गोरों का ।

 निकल पड़ीं टोलियां गली गली,
 नारा वन्दे मातरम् के घोषों का ।

 भर आज नयन श्रद्धा जल ,
 नमन करे कोटि कोटि जन ।

  वो चंद्र सरीखा दमक रहा ,
 शेखर बन माता के श्रृंगारों का ।

 उठो नौजवानों आवाहन करो ।
 दे माता की दुहाई आज उठो ।

 उठे न कोई आँख माता के आँचल पर ।
 आएँ न कोई छींटे माता के दामन पर ।

 एक प्रण तुम भी प्राण भरो ।
 शत्रु के सीने में बारूद भरो ।

..... विवेक दुबे"निश्चल"@...
डायरी 5(19)

ये वक़्त फिर

429
  ये वक़्त फिर तुझे संवारेगा ।
  आसमां फिर तुझे पुकारेगा ।

चमकेगा फिर दिनकर बनकर,
अपने उजियारे फिर बिखारेगा ।

ना हारना होंसलों से कभी ,
एक दिन वक़्त तुझसे हारेगा ।

रात तो है बस रात भर की ,
भोर कल फिर असमां उजारेगा ।

डूबकर भी डूबता ना जो कोई ,
हांसिल है वो ही किनारे का ।

बहता रहा जो वो दरिया  ,
हुआ सागर के सहारे का ।

यह वक़्त फिर तुझे संवारेगा ।
  असमां फिर तुझे पुकारेगा ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@....
डायरी 5(18)

गुरुवार, 26 जुलाई 2018

मुक्तक

*यमक* अलंकार कुछ मुक्तक

466/1...
ज़ीवन कुछ हिसाब पूछता है ।
हिसाब का हिसाब पूछता है ।
याद न रहे भाग हिसाब कभी , (बिभाजन)
"निश्चल" अपना भाग पूछता है । (भग्य)

467/2...

प्रयत्न की हार कहाँ ।(पराजय)
 प्रयास ही हार जहाँ ।(आभूषण)
 चलते जो राहों पर ,
 लक्ष्य प्रतिसाद वहाँ ।

468/3...

 साँझ ढ़ले तू आ जा चँदा ।
 तारों के सँग छा जा चँदा ।
 निहार कण बिखरा कर , (ओस)
 निहार मुझे  तू जा चँदा ।(देखना)

469/4...
रीत रही अब अनबन सी ।(परम्परा)
रीत रही अब टूटे बर्तन सी ।(रिक्त )
अपने ही स्वप्नों की ख़ातिर ,
रातें से ही अब अड़चन सी ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@..
डायरी 3

मुक्तक

462
वो जाम सा अंजाम था ।
निग़ाहों से अपनी हैरान था ।
नही था कोई रिंद वो साक़ी,
जिंदगी उसका ही नाम था ।
.... 
463
निगाहों को निग़ाहों से धोका हुआ है ।
ज्यों जागकर भी कोई सोया हुआ है ।
झुकीं हैं निग़ाहें यूँ हर शख़्स की क्युं ,
ज्यों निग़ाहों का निग़ाहों से सौदा हुआ है ।
....
464
चलते रहो साथ हर दम मगर, 
 बातें वफ़ा की किया ना करो ।
 घुटते हों अरमां जहाँ दिल में ,
 वो ज़िंदगी तुम जिया ना करो ।
... विवेक दुबे"निश्चल"@...
डायरी 3

मुक्तक

एक रात सजी दुल्हन जैसी ,
 अरमानों की चूनर ओढ़ी ।
चँचल चँदा होगा दामन में ,
 झिलमिल तारे होंगे हम जोली ।
..
460
पढ़ता रहा मैं किताबों को ।
 छानता रहा मैं अखबारों को ।
 एक खबर में ढूंढता रहा कहीं ,
 अपने शहर के उजियारों को ।
....
461
वो पर्त्-दर-पर्त् मुखोटे उतारते रहे ।
हम निग़ाह-दर-निग़ाह निहारते रहे ।
तलाशते रहे शराफत मुखोटों में , 
 क्यों हमें शराफत के मुग़ालते रहे ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@..



तलाशता रहा

तलाश


अजनवी शहर में ,
चाहत को तलाशता रहा ।

सितारों भरी रात में ,
चाँद को तलाशता रहा ।

रहा सफ़र हर मुकम्मिल,
 उसका यूँ तो मगर ,

सफ़र-दर-सफ़र मंजिल को ,
 तलाशता रहा ।

...... विवेक दुबे"निश्चल"@...

रिश्ते रहे आज म्यानों से ।

ना रहे याद हम , 
आज अंजानों से ।

       हसरतों की चाहत में ,
        खो गए पहचानों से ।

 रीतते ज्यों नीर से ,
 नीरद असमानों से ,

         बरसने की चाह में ,
         ग़ुम हुए निशानों से ।

  घिरती रही जिंदगी ,
 अक़्सर उलाहनों से ।

           होती रही लाचार ,
          घिरकर फ़सानो से ।

 घटते नही आज,
 फांसले दिल के ,

            रिश्ते रहे आज "निश्चल" ,
            होकर म्यानों से ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@...

विकास को बांट कर



विकास को   बांट कर ।
वसुधा को     छाँट कर ।
जा पहुँचे     आज हम ,
बिनाश के    काल पर ।

विकृति को मानकर ।
प्रगति को   जानकर ।
जा पहुँचे    आज हम ,
तनाव के     भाल पर ।

 प्रकाश को  पाल कर ।
 अंधेरों को  टाल कर ।
 जा पहुँचे    आज हम ,
 भानू के      गाल पर ।

 गति को   जान कर ।
 वृत्ति को    मान कर ।
 जा पहुँचे   आज हम ,
 पतन की    पाल पर ।

 समझें न जान कर ।
 बूझें न     मान कर ।
 जी रहे   आज हम ,
 अपने अभिमान पर ।

 प्रकृति को   साध कर ।
 कण कण व्यापार कर ।
 सो रहे       आज हम ,
 अपने    ईमान पर ।

... विवेक दुबे"निश्चल"@....

बस लिखता चल

बस लिखता चल जो मन कहता है ।
काव्य काल कब भाषा में रहता है ।

सृजित हुआ सदा यह मन से ,
 हृदय भाव मन ही कहता है ।

काव्य काल कब भाषा में रहता है ।

बदला नही कभी किसी भाषा में ,
यह समय सदा समय रहता है ।

 चला सदा लाँघ कर सीमाएं सारी ,
 देश काल भाषा के परे मन बहता है ।

काव्य काल कब भाषा में रहता है ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@..

वहाँ रिवाज़ नही

वो मलफूजात इमारतें ,
आज भी ढही नही है ।
तख़लीकी तजुर्बों की ,
 वहाँ कोई कमी नही है ।
तज़किरा न कर "निश्चल"'
 उस मरातिब नज़्म पर ,
 दावत-ए-रिहलत,
 वहाँ रिवाज़ नही है ।
..... विवेक दुबे"निश्चल"@..



मलफूजात (सूफियों के प्रवचन)
तख़लीकी (सुधार)
तज़किरा (चर्चा)
मुरातिब (दर्जा)
रिहलत (मृत्यु रवानगी)

ईंट पत्थर के मकानों से

ईंट पत्थर के मकानों से ।
 मेरे होने के निशानों से ।
 ....
       नही बोलता संग कोई ,
       ये हालात है अंजानो से ।
....
 गुजरता रहा लम्हा लम्हा ,
 लफ्ज़ ख़ामोश मुकामों से ।
...
         दर्ज होते रहे अल्फ़ाज़ ये ,
         आग़ोश मेरे ही वीरानों से ।
...
लूटकर महफ़िल तिश्निगी ,
दबता राह यूँ अहसानों से ।
.....
        कर उजागर अपने नाम को  ,
        हुआ रंज अपनी पहचानों से ।
.......
    कहने को तो वो "निश्चल"
   आज भी है मेरे दीवानों से ।


..... विवेक दुबे "निश्चल"@...

रविवार, 22 जुलाई 2018

समझता रहा कोई

समझता रहा कोई कोई समझाता रहा ।
 रूठता रहा वो कोई कोई मनाता रहा ।

 चलता रहा सफ़र राह-ए-जिंदगी पे ,
 ज़िंदगी से फक़त इतना ही नाता रहा  

 बिखेर चंद क़तरे अश्क़ शबनम से ,
  वो बागवां गुलशन सजाता रहा ।

 उठते से तूफ़ां उन हवाओं से  ,
 वो फ़िज़ा चिराग़ जलाता रहा ।

 फ़र्ज़-ए-कश्ती साहिल के वास्ते ,
 वो खुद को नाख़ुदा बनाता रहा । 

 "निश्चल" टूटकर भी टूट न सका कभी ,
 वो संग अपने आपको दिखाता रहा ।
..... विवेक दुबे"निश्चल"@...





मुक्तक

नशा मेरा बाखूब हुआ ।
  इश्क़ तेरा मंसूब हुआ ।
 डूबता रहा किनारों पे ,
 तमाशा यह खूब हुआ ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@..

शरारत हो जाए जरा जरा ।
 यूँ रात गुजर जाए जरा जरा ।
 टूटकर पैमाने साक़ी के हाथों से ,
 रिंद से बिखर जाएं जरा जरा ।
... विवेक दुबे"निश्चल"@..

जिंदगी तो लौट कर फिर आती है ।
खुशियों को नज़र क्यों लग जाती है ।
.... "निश्चल"@..
Blog post 22/7/18

कोई देख ले मुझे

कोई देख ले मुझे ।
कोई तो देख ले मुझे ।

अक़्स निग़ाहों में , 
खेंच ले मुझे ।
सोखकर अस्र मेरा , 
कोई सोच ले मुझे ।

 अश्क़ नही ,
 जो बह जाऊँगा ।
 शबनम सा कोई ,
 सोख ले मुझे ।

 वक़्त भी नही  ,
 जो गुजर जाउँगा  ।
 समंदर सा कोई ,
  रोक ले मुझे ।

 जज्वात हूँ मैं ,
 धड़कन सा ,
 दिल उतर जाऊँगा ,
 मैं मन सा ।

 कोई देख ले मुझे ।
 कोई तो देख ले मुझे ।

..... विवेक दुबे"निश्चल"@..

वो नैना

वो नैना मन भावन से ।
 कारे कजरारे सावन से ।

 बिजुरी चमके सावन की ।
 झपकें पलकें साजन की ।

 वो केश घनेरे काजल से ।
  लहराते गहरे से बदला से ।

 लहराती तब नागिन सी ।
 भींगी लट जो साजन की ।

 रिमझिम बूंदे सी सावन की ।
 पायल खनकी  साजन की ।

  वो चितवन जीवन सी ।
 धडक़त मन चेतन सी ।

 वो नैना मन भावन से ।
 कारे कजरारे सावन से ।

... *विवेक दुबे"निश्चल* "@.

मुक्तक

मैं असमां पे ठहरे बादल सा ।
तू झोंका मस्त पवन सा ।.
उड़ा ले चल साथ मुझे ,
बरस जाऊँ मैं सावन सा ।
...
सावन की बदरी सी तू आई ।
पवन मन ने ली  अंगड़ाई ।
 उड़ा ले चलूं तुझे दूर कहीं  ,
 खो जाए तुझमे मेरी तन्हाई  ।

 बरसे बून्द बून्द सी फिर तू ,
 तप्त पवन मन शीतलता छाई ।
 अस्तित्वहीन हो जाऊँ वहाँ मैं ,
साथ चले जो तू बन मेरी परछाई ।
..... विवेक दुबे"निश्चल"@...
Blog post 22/7/18

मुक्तक

आज कुछ लिखा ना गया ।
आज कुछ कहा ना गया ।
सुनता रहा मैं खमोशी से ,
जो सवाल मुझे कहा ना गया ।
... विवेक दुबे"निश्चल"@...

वो जाम सा अंजाम था ।
निग़ाहों से अपनी हैरान था ।
नही था कोई रिंद वो साक़ी,
जिंदगी उसका ही नाम था ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@...


कलम चलती है शब्द जागते हैं।

सम्मान पत्र

  मान मिला सम्मान मिला।  अपनो में स्थान मिला ।  खिली कलम कमल सी,  शब्दों को स्वाभिमान मिला। मेरी यूँ आदतें आदत बनती गई ।  शब्द जागते...