शनिवार, 24 मार्च 2018

साथ होंसले हर दम न थे

साथ होंसले हर दम न थे ।
ग़म ज़िंदगी के कम न थे ।
 ज़िंदगी थी कदम कदम ,
 ज़िंदगी सँग पर हम न थे ।
 .... विवेक दुबे"निश्चल"@..
...

जी ले तू जिंदगी अपनी


जी ले तू ज़िंदगी अपनी यही बहुत है ।
 वक़्त से नही शिकायत यही बहुत है ।
 न बाँट जमाने को तन्हाईयाँ तू अपनी ,
 पास दुनियाँ के अपने ग़म ही बहुत है ।
 .... 
 छुड़ाकर दामन दुनियाँ छूटती नही है ।
 प्रीतम प्यार से दुनियाँ ऊबती नही है ।
 डूब अपने आप में पीले तू इसको ।
 अश्कों से तेरे दुनियाँ भींगती नही है ।

 ... विवेक दुबे "निश्चल"@...

मगरूर न थीं होंसलों से




   कुछ शोहरतें मिलीं तोहमतों से ।
  कुछ मोहब्बतें मिलीं अदावतों से ।
  नजदीकियाँ मिलीं ज़िंदगी को मेरी ,
   मगरूर न थी मगर कभी होंसलों से ।

      ... विवेक दुबे"निश्चल"@..










बुत कह पुकारा उसने


शिद्दत से पुकारा उसने ।
          इल्म सा सराहा उसने ।
 गढ़ कर निगाह से मुझे ,
              बुत कह पुकारा उसने।
 .... 
मैं तेरे इस ज़वाब का , क्या ज़वाब दूँ ।
ज़िंदगी तुझे ज़िंदगी का , क्या हिसाब दूँ ।
.....

दरिया को चाह थी , छुअन की उनकी ।
 बहता गया बस वो , निग़ाह में उनकी ।
...

..... विवेक दुबे"निश्चल"@.....

नीड़ बनाया

नीड़ बनाया तिनके बुन बुन के 
पाला पोसा दाना चुन चुन के 
जैसे ही निकले पंख पखेरू के 
 हो गए वो अपने अपने मन के
      ...विवेक दुबे"निश्चल"@....

शुक्रवार, 23 मार्च 2018

मेरे मौला

मेरे मौला -----

मुझे कुछ और वक़्त देना।
 निगाहें नज़्र न सख़्त देना ।
 कुदेर लूँ कुछ ज़ख्म अपने,
 बस एक ज़िगर सख़्त देना ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@..

शब्द हम गढ़ चलते

  शब्द शब्द हम गढ़ चलते  हैं।
  शब्द वही पर अर्थ बदलते हैं।
 लिखकर शब्दों से शब्दों की भाषा,
 अक्सर हम शब्दों से छल करते हैं ।
---
 उस दर्द से न होना खुश तू ।
 उस दर्द की भी थी ज़ुस्तज़ू ।(तलाश)
 सीखा था मुस्कुराना उसने भी ,
 ग़मों की न थी उसे भी आरजू ।
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 उसके दर्द से न होना खुश तू ।
 उसे दर्द की  न थी ज़ुस्तज़ू ।
 सीखा था मुस्कुराना उसने भी ,
 ग़मों की न थी उसे भी आरजू ।

....विवेक दुबे"निश्चल"@....
डायरी

वो अर्थ हीन

वो अर्थ हीन है , 
 ऐश्वर्य से परे सा ।

        अर्थ हीन होकर भी ,
        अर्थ से भरा सा ।

 रुकता नही जो कभी,
 वो ज़ीवन से भरा सा ।

        ओढ़ता अंबर वो ,
        बिछौना धरा हरा सा ।

 चला जहाँ से वो ,
 आज वहीं खड़ा सा ।

       हार कर भी वो , 
      हालात से लड़ा सा ।

 देखता "निश्चल" मन से ,
 मानव से मानव ठगा सा ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@..
डायरी

आदमी

जल स्वार्थ भरा आदमी ।
 निग़ाह टारता आदमी ।

 स्वार्थ पर ही सवार आदमी ।
 चाहे खुदकी जयकार आदमी ।

 निग़ाह से उतारता आदमी ।
 करता नजर अंदाज आदमी ।

 चेहरे का पानी उतारता आदमी ।
 सूखा पानी निग़ाह आदमी ।

 खोता आज संस्कार आदमी ।
 लेता बस प्रतिकार आदमी ।

 ..... विवेक दुबे"निश्चल"@...

खोज रहा जल कण

रंग तजे वसुधा ने भी ,
बदले  रंग जो बादल ने ।
समेट लिया बस मरुवन ही,
धरती ने अपने आँचल में ।
 तप्त धरा है बैचेन हवा है ,
 शीतलता नही फिजाओं में ।
 चलता अब अंगारों पर मानव ,
अपनी ही रची गुफाओं में ।
 पीकर जल अपनी माँ के आँचल का ,
 जाता अब अनन्त दिशाओं में ,
 खोज रहा आज अंतरिक्ष में ,
 जल कण सूखे ग्रह शिराओं में ।
 विस्तृत होता पल पल अनन्त अंतरिक्ष ,
 सिकुड़ा मानव अपनी ही आशाओं में ।
 चूस लिया कण कण भू जल ,
 अपनी माता की शिराओं से ।
 जा तू अब कहाँ बसेगा ,
  अनन्त काल से घूम रही उल्काओं में ।
..... विवेक दुबे"निश्चल"@...



साँझ के आगोश में

साँझ के आगोश में खो गया वो ।
 लो सूरज भी बे-वफ़ा हो गया वो ।
... 
 चले उजाले हर दफ़ा साथ जिसके ,
  अँधेरों से मिलाता फिर भी नैन वो ।
.....
 न रहा छुपकर कभी अँधेरों में जो ,
 अपने ही उजालों से क्यों  बैचेन वो ।
....
 निखरा तपकर अपनी तपिश से जो ,
 एक साँझ की ख़ातिर ढलने बैचेन वो ।
....
 दिखाता उजले रास्ते दुनियाँ को जो ,
  एक छाँव से खुदको लगाता ग्रहण वो ।
...
ख़ातिर जिसकी खोता नही चैन जो ।
 ख़ातिर उसकी क्यों इतना बैचेन वो।
.....

 .....विवेक दुबे "निश्चल"@..



पानी भी अब होता पानी पानी

सूखी गर्भ धरा अब ख़त्म होती रवानी ।
पहुँच रसातल पानी-पानी होता पानी ।
 मोल नही रहा अब कोई रिश्तों का ,
 दुनियाँ भी दुनियाँ को लगती बेगानी ।

 रीत रही हैं सागर सी नदियाँ अब ,
 रीत रही है रिश्तों की बात पुरानी ।
 बहती थी जो कल कल कल तक ,
 मरु भूमि सी उसकी आज कहानी ।

  मोल नही रिश्तों का जिस दुनियाँ में ,
  पानी की बात लगे अब बेमानी ,
  फ़िक्र कहाँ अब आते कल की ,
  शर्म हया भी होती पानी पानी ।

  "निश्चल" ख़त्म हुई आज रवानी ,
   पानी भी होता अब पानी पानी ।

  ...... विवेक दुबे"निश्चल"@...
                  रायसेन (म.प्र.)

जल दिवस

   जल दिवस

हिमागिर पिघलता है ।
 सागर भी उबलता है ।
 तपता है दिनकर,
 धरा तन जलता है ।
 पास नही देने उसके कुछ,
 बादल प्यासा ही चलता है ।
 धरती की आशाओं को ,
 अब तो वो भी छलता है ।
 मानव ही  मानव का ,
 संहारक यूँ बनता है ।
 जीतूँ सृष्टि को मैं ,
 यह अहं नही तजता है ।
 शीतल था सदियों तक जो,
 वो जल भी अब जलता है ।
  हिमागिर पिघलता है ।
 सागर  भी उबलता है ।

 सहजे दृग जल नैनन में ।
 भाव भरें गागर मन में ।
 सींच प्रेमरस बूंदे कुछ ,
 न प्यास रहे धरा तन में ।
..... विवेक दुबे"निश्चल"@...

गुरुवार, 22 मार्च 2018

ख्वाहिशों की चाहतें

ख्वाहिशों की चाहतें  कैसी ।
 हसरतों की अदावतें कैसी ।

  पलकों की कोर से गिरते  ,
 अश्कों की आहटें कैसी ।
   ... विवेक दुबे"निश्चल"@..


अक़्स ज़माने से

 अक़्स ज़माने से क्या छुपाऊँ अपने ।
 ऐब ज़माने को क्यों न दिखाऊं अपने ।

 जिस ज़माने ने दिए यह उजाले मुझे ।
 ग़ुनाह ज़माने से क्यों छुपाऊँ अपने ।

 ज़माने ने बाबजूद उजालों से नावजा मुझे , 
    गुनहगार हूँ बहुत ही नजर में मैं अपने ।

           .विवेक दुबे"निश्चल"@....

इस दिल को

   दिल को ऐसी एक सौगात मिली ,
  शबनम को तरसती,  रात मिली ।

 सहरती अपने ही उजालों से जो ,
 रोशनी में ऐसी एक बात मिली ।

 तन्हा नही निग़ाह से मैं अपनी ,
 तन्हा साँसों में एक आह मिली ।

 जीता हूँ हरदम जिनके वास्ते  ,
 ज़िंदगी को ऐसी एक चाह मिली । 

  मिल न सकी मंजिल कहीं कभी ,
 "निश्चल" को  ऐसी  एक राह मिली ।

 .... विवेक दुबे"निश्चल"@.

नींद नही आती अब

नींद नही आती अब ,
               पलकों पे रात बिताने को ।
 रोतीं रातें क्यों अब  ,
              शबनम के अहसासों को ।

  भूल गई क्यों अब,
              अलसाए इन भुनासारों को । 
  खोज रहा अंबर अब ,
               तिमिर सँग चलते तारों को ।

नींद नही आती अब,
               पलकों पे रात बिताने को ।

 भूल रहे क्यों अब,
               अपने ही अपने वादों को । 
  रुके कदम क्यों अब, 
                 पाते ही मुश्किल राहों को । 

 एक अकेला चल न पाएगा ,
                 बीच राह में थक जाएगा ।
  कैसे अपनी मंजिल पाएगा ।
                आजा तू साथ बिताने को ।

  नींद नही आती अब ,
               पलकों पे रात बिताने को ।

 छोड़ राह मुड़,  तू जाना  ।
                  आधी राह चले , तू आना ।
 कुछ दूर चले भले कोई ,
                   जा फिर , वापस आने को ।
           
 राहों से बे-ख़बर नही मैं ,
                   एकाकी इस ज़ीवन में ,
 साथ चले बस मेरे कोई ।
                  मंजिल तो एक बहाने को ।

    नींद नही आती अब,
               पलकों पे रात बिताने को
 .....विवेक दुबे"निश्चल"@....
4/2/18 ,

उम्र चली अब थकने

 उम्र चली अब थकने ,
                नब्ज़ लगी अब बिकने।
 नजरों ने हाट लगाई ,
                 राह लगी अब तकने ।
    
  मंजिल से पहले ,
            साँझ नजर आई ।
    कदम लगे अब ,
             चलते चलते रुकने ।

    सोचूँ अब क्या सोचूँ ,
              क्या खोया क्या पाया ।
     स्वप्न नही आते अब ,
              नींद तले बिकने ।

    उठ जाग मुसाफ़िर देर भई, 
     भोर तले अब पल हैं कितने।

       उम्र चली है अब ...

     .. विवेक दुबे "निश्चल"@....

स्याह मेरे शहर के

 स्याह मेरे शहर के उजाले हैं ।
 रौशनियाँ जिन के हवाले हैं ।

 गिर टूटते नही अश्क़ अब तो ,
  दर्द जो इस दिल के निकाले है ।

 क्या लड़े साहिल से आज वो,
  समंदर ही दरिया के निवाले है ।

 बेख़ौफ़ नादाँ है नाख़ुदा वो ,
 कश्तियाँ तूफ़ां ही सँभाले है ।

  मंजिल निग़ाह नही अब तो ,
  यह रास्ते ही रखवाले हैं ।

   चलता निशां छोड़ अब वो ,
   कदमो ने छाले निकाले हैं ।

  
... विवेक दुबे"निश्चल"@.....


  

वो मंज़िल नई नही थी

वो मंजिल नई नही थी।
 बस हौंसले की कमी थी ।
 थे काँटे बहुत राह में ,
 कदम तले चुभन बड़ी थी ।

  सफर की मुश्किल घड़ी थी ।
  बस एक उलझन बड़ी थी ।
  धरता कदम सम्हल कर  ,
  और मंजिल मिलती नही थी ।

  रास्ते थे खुशमुना ,छाँव भी घनी थी ।
  पर नियत हर छाँव की भली नही थी ।
   है रास्ता बाँकी अभी बहुत ।
   मंज़िल अभी  मिली नही थी । 

  चलता हूँ मैं बस चलता ही हूँ ।
   मेरी मंज़िल कोई नई नही थी ।

  ..... विवेक दुबे "निश्चल"@....

रास्ते उसके मैं चला

    





जैसे ही वो , मुझे मिला , 
    वैसे ही मौज , मुझे मिला ।

           न अपनो से प्यार अब, 
             न गैरो से,   कोई गिला । 

    छोड़ , दुनियाँ के रास्ते , 
    रास्ते उसके , मैं चला ।

          पाकर , सँग उसका , 
         हर सँग , भूलता चला ।

    पा जाऊँ मैं भी , 
    मंजिल अनन्त की ।

               ख़त्म हो जाए ,
              यह सिलसिला ।

   दुनियाँ से , भागने की , ख़ातिर,
   तेरे पीछे ,     भागता मैं चला ।

         .... विवेक दुबे"निश्चल"@...
           

ज़ज़्बात जो पूरी ग़ज़ल बन गई

   ज़ज़्बात से जो पूरी ग़जल हो गई ।
   एक बात से बात कुछ यूँ हो गई ।

 नर्म सेज चुभन अहसास के  ।
 तेरी यदों में चैन बेचैन हो गई ।
 
  जज़्ब किया तेरी की यदों को ।
  तन्हा तन्हा बेचैन रात हो गई।
 

 आता नही चाँद चाँदनी रातों में ।
  तर झील सी यह आँख हो गई । 

 तपते अहसासों की ठंडक में ,
  झोंके लाते गुजरी याद हो गई ।


 जाओ साजन अब सहा जाता नही ।
 यह बिरह अगन जलाती आग हो गई।

  ... विवेक दुबे"निश्चल"@.....
Blog post 22/3/18

रूह जहाँ मिल जातीं हैं

  रूह जहाँ मिल जातीं हैं ,
  ज़िस्म खुदा हो जाते हैं ।
          अहसासों के साए में ,
          जज़्बात जवां हो जाते हैं ।
     
रूह जहाँ रुक जाती है ।
 लफ्ज़ दुआ हो जाते हैं ।
           निग़ाह झुका कर भी ,
           वहाँ सज़दे हो जाते हैं ।

रूह जहाँ खो जाती है ।
 चाह फ़ना हो जाती है ।
         गिरता जो फिर सज़दे में,
          निग़ाह तर हो जाती है ।

 .... विवेक दुबे"निश्चल"@....

घुटन बहुत है

घुटन बहुत है ,
 खिड़कियाँ खोल दो ।
               जज़्बातों को तुम ,
                जरा मोल दो । 
 गुज़रता हूँ फ़र्ज़ की,
  राह से अक़्सर ।
                    बेवजह न मेरे ,
                   इरादों को तोल दो । 
 रोशन थी शमा,
 बुझ गई ख़ुद ही ।
                तेरा क़सूर न कोई,
                 हवा को तुम बोल दो ।
           ... विवेक दुबे"निश्चल"@....

खूब दुआओं से सँवारा उसने

खूब दुआओं से , सँवारा उसने मुझे ।
अक़्स अपना , बनाया उसने मुझे ।

दरिया ख़ामोशी से , बहता था मैं ,
तूफ़ां समंदर, बनाया उसने मुझे ।

उकेरकर जमीं , जज़्बात की मेरी ,
फूल हसरत सा , उगाया उसने मुझे ।

नाकाफ़ी थी मेरी जमीं ,निगह में उसकी ,
लो आसमाँ पे , बिठाया उसने मुझे ।

जीत लूँगा दुनियाँ को ,तेरे वास्ते मैं ,
नम आँखों से ,हौंसला दिलाया उसने मुझे ।

यूँ तो खुद खुदा न था ,”निश्चल” वो कभी ,
यूँ खुदा का ,अहसास कराया उसने मुझे ।

…… विवेक दुबे”निश्चल”@…..

राज खुले जो धीरे धीरे

राज खुले जो धीरे धीरे ,
चलता नदिया तीरे तीरे ।

     छूना चाहे लहरों को ,
     हाथ फैले रीते रीते । 

  चाह छुअन शीतल जल की,
  बुझे मन अंगारों की पीरें।

     उन कदमों की आहट से  ,
      बनतीं हैं कुछ तस्वीरें । 

 विम्ब उभरता "निश्चल" जल में ,
 झलकीं धुँधली कुछ तस्वीरें ।

       कुछ खुशियाँ गैरो सी ,
        कुछ अपनी ही पीरें।

  गिरे अश्रु कण जल में , 
   मिटती सब तस्वीरें ।

        चलता नदिया तीरे तीरे,
        हाथ फैलाए धीरे धीरे ।

 चलना ही नियति जैसे ,
 चलता है सँग लिए पीरें ।

       ... विवेक दुबे"निश्चल"@..

बहुत कुछ लिख गया मैं

बहुत कुछ लिख गया मैं वक़्त में बहकर ।
 साथ राह यूँ वक़्त , वक़्त पर मेरा होकर ।
रूठते रहे अपने कभी वक़्त की राहों पे ।
 यूँ सहारा दिया अल्फ़ाज़ ने मेरा होकर ।

बहुत कुछ...

 अश्क़ गिरे पन्नो पर , लफ्ज़ बनकर ।
  दर्द निगाहों से , चले ग़जल बनकर ।
  सफ़े-दर-सफ़े सफर रहा कलम का 
  लफ्ज़ लफ्ज़ मेरा   हिसाब बनकर ।

बहुत कुछ...

  ख़्वाब सहेजे कुछ ख़्याल समेटे हुए।
 कुछ सँग उठ खड़े कुछ अधलेटे हुए ।
 थी जमीं हक़ीक़त ख़्वाब के ख़यालों में।
 रही अंगूर की बेटी काँच के प्यालो में ।

बहुत कुछ ...

 ख़ामोश थीं वो खुशियाँ , दर्द बोलते रहे ।
 तूफ़ान के इशारों से ,समन्दर डोलते रहे ।
 मैं होश में रहा, मगर , मदहोश रहकर।
 इश्क़ तेरे अंदाज से,   मैं हैरां होकर ।

बहुत कुछ

          .. विवेक दुबे"निश्चल"©...


पूछकर खैरियत मेरी

पूछकर खैरियत मेरी ,
             मुझसे वो क्या पूछता है ।
 ज़ख्म मेरे दिल के,
                निगाहों में मेरी ढूंढता है ।

देकर तोहफ़े ग़म के ,
                  अश्क़ भी मेरे लुटता है ।
लूटकर वो मुझे ,
                 खुशियाँ भी मेरी कूटता है ।

बहता चल वक़्त तो धार है ।
                  हाथ होंसले की पतवार है 

  रुकना फ़ितरत नही "निश्चल" ,
                किनारा नही यह तेरे हाथ है ।

 पूछकर वो खैरियत मेरी ..
           ... विवेक दुबे"निश्चल"@..

यूँ तो खुशियाँ भी साथ थी

यूँ तो खुशियाँ भी साथ थीं ।
 ग़म के साए से निराश थीं ।

 जीतती थीं बार बार मगर ,
 भय से हार के उदास थीं । 

  ओढ़कर रात ख़्वाब सुहाने ,
  ज़िंदगी के आस पास थी ।

  आती चुपके से पास सुबह ,
  साँझ भी जहाँ आस पास थी ।

 लिखकर गीतों में ज़िंदगी अपनी, 
 फिर किसी ग़जल की तलाश थी ।

 जीतता रहा हर हालत को ,
 हार भी तो एक विश्वास थी ।

 चल मुकम्मिल कर सफ़र अपना,
मंज़िल की तुझे भी तो तलाश थी ।
 ..... विवेक दुबे"निश्चल"@....
.

तारा टूटा फ़लक से


तारा टूटा फ़लक से जमीं नसीब न थी ।

ख़ाक हुआ हवा में मुफ़लिसी केसी थी ।

      .....विवेक दुबे"निश्चल"@.....

..
..

भेद भाव करती आँखे

भेद भाव करतीं आँखें।
 मन भरमातीं आँखें ।
           साँझ तले के मौन से ,
           निशा गहरतीं आँखे ।

 भेद भाव करती आँखे ।
 भावों में बंट जातीं आँखे।
            दर्द घनेरे बादल से,
           पीर नीर छलकाती आँखे।

 भेद भाव करतीं आँखे ।
 पल में भेद बतातीं आँखे।
                गहर निशा तम सँग,
                जुगनू बन जाती आँखे ।

 भेद भाव करतीं आँखे।
  सब कह जाती आँखें।
               खुशियों के झोंकों में,
              मौन तले मुस्काती आँखे।

 भेद भाव करतीं आँखे ।
.....विवेक दुबे"निश्चल"@..


           

यादों के बादल




          यादों के बादल से ।
          नीर बहे सागर से ।
        कुछ गहरे गहरे से ।
       कुछ राज उज़ागर से ।
     .... विवेक दुबे"निश्चल"@....

वक़्त तो वक़्त ही कहलाएगा



वो न रहा यह भी गुजर जाएगा ।
 वक़्त तो वक़्त ही कहलाएगा ।
 डूबकर भी समंदर में दरिया  ,
 तासीर-ऐ-आब ही कहलाएगा ।
... विवेक दुबे"निश्चल"@...

बुधवार, 21 मार्च 2018

इंसान वही

इंसान वही जो , चल पड़ता है ।
अपनी रहें जो , खुद गढ़ता है ।

      व्यथित नही , थकित नही वो ,
      लड़कर , विषम हालातों से ,
      पुलकित प्रयास , सदा करता है ।

पा विजय वरण , प्रयासों से ,
एक नया मुकाम , रचता है ।
मंजिल तो , वो खुद बनता है ।

… विवेक दुबे”निश्चल”@.....

इंसान वही जो चल पड़ता है ।।।

इंसान वही जो चल पड़ता है ।
पाषाण वही जो धरा गढ़ता है ।
 पा जाने धरती की चाहत को ।
दूर क्षितिज भी अंबर झुकता है ।

भोर साँझ आधा दामन बांटे ,
 सूरज जिस बीच मचलता है ।
 एक साँझ निशा की ख़ातिर ,
 सूरज भी अस्तांचल चलता है ।

 जीवन कहीं राह रुका नही,
 राह विपत्ति में भी गढ़ता है ।
 थम जाएँ क़दम कहीं कभी ,
 ज़ीवन तो फिर भी चलता है ।

 साहिल की चाहत में हरदम ,
 सागर ही खुद ऊपर उठता है ।
 तारे छाए "निश्चल" अंबर पर ,
 मिलने चँदा साँझ निकलता है ।

इंसान वही जो चल पड़ता है ।
पाषाण वही जो धरा गढ़ता है ।
 पा जाने धरती की चाहत को ।
दूर क्षितिज भी अंबर झुकता है ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@..

स्वयं को सवार कर

   

स्वयं को संवार कर  ।
भाव का श्रृंगार कर  ।

        प्रकाश के दिए तले ,
        तिमिर को याद कर ।

 धूप को बिसार कर ।
 घात का प्रतिकार कर ।

        छटेगी गहन निशा भी ,
       भोर का नव प्रभात कर ।

 जन्म को स्वीकार कर ।
 काल का प्रतिकार कर  ।

    ...विवेक दुबे"निश्चल"@.....

जन्म न व्यर्थ बेकार करें

जन्म न व्यर्थ बेकार करें ।
मानवता का श्रृंगार करें ।

       तिमिर तले कुछ प्रकाश गढ़ें ,
       ऐसे हम कुछ प्रयास करें ।

 जलकर अपने स्वार्थ तले ,
 जीवन अपना न बर्वाद करें ।

       निकलें हम कूप कुंठाओं से ,
       नदिया नीर सा विस्तार करें ।

 बहकर कल कल हर पल ,
 जलधि का हम श्रृंगार करें ।

        खोकर अचल जल अंनत में ,
       "निश्चल" वर्षा बूंदों का आधार बनें ।

     जन्म न व्यर्थ बेकार करें ।

..... विवेक दुबे"निश्चल"@.....

लुटता रहा मैं

लुटता रहा मैं प्रीत जिसे जान कर ।
 खुशियों के गीत जिसे जान कर ।
 हँसता रहा वो मुझ पे बार बार ,
 खुश रहा मैं उसे रीत जान कर ।

 सोचा था न रुलाएगा वो कभी मुझे ,
 मांग बैठा वो आँसू जीत जानकर ।
 खोजा न खुद को कभी आप में मैंने,
 खोजता रहा उसमे मीत जानकर ।

.... विवेक "निश्चल"@......

ढेर न लगाओ फूलों का


यूँ ढेर न लगाओ तुम फूलों के ।
 दिल न दुखाओ गुलशन के रसूलों के ।

 टूटता है फूल जो हर शाख से ,
 जुड़ा था जो अपने ही विश्वास से ।

 टूटकर वो एक पल में शाख से ,
 दूर हुआ अपने धरा आधार से ।

 सहज लाए नज़्र-ओ-अंदाज़ से ,
 सजायेंगे ज़ुल्फ़ अपने हाथ से ।

 मचलेगा कुछ पल उन जुफों में ।
  चमकेगा प्रियतम की नजरों में ।

 तोड़ा था जिसने बड़े अंदाज से ।
 मसला जाएगा फिर उन्ही हाथ से ।

 बिखेरता था जो खुशबू गुलशन में  ,
 हो गया वो ख़ाक एक मुलाक़ात में ।

..... विवेक दुबे"निश्चल"@.....
Blog post 21/3/18

यादगार हो गया

यह इश्क़ यादगार हो गया ।
 यूँ खुद राजदार हो गया । 

    चलता दरिया के किनारों पे ,
      लहरों को इंतज़ार हो गया ।

 उठी नज़र निग़ाह उठाने को ,
 आसमां को ऐतवार हो गया ।

     सुकूँ तलाशा साये में छाँव की  ,
     अँधेरा भी हमराज हो गया ।

 वक़्त गुजरा तनहाइयों में यूँ ही,
 हर शख़्स तलबगार हो गया ।

 .... विवेक दुबे"निश्चल"@...

उम्र के निशां छोड़ती ज़िंदगी

उम्र के निशां छोड़ती ज़िंदगी।
 खूँ में मिठास घोलती ज़िंदगी।

    गुजर कर एक कारवां से ,
    कारवां नया खोजती ज़िंदगी ।

 मैं चलता रहा साथ हालात के ,
 वक़्त की राज पूछती ज़िंदगी ।

      मैं चल न सका मुताविक सबके ,
      कदम कदम मुझे टोकती ज़िंदगी ।

 बिखरे क़तरे बे-वफ़ा शबनम के ,
 निगाहें मेरी वफ़ा खोजती ज़िंदगी ।

       "निश्चल" बिखरा ख़ाक के मानिन्द
        मेरे वुजूद में अना खोजती ज़िंदगी।

          ... विवेक दुबे"निश्चल"@...



        * अना- मैं - अहम

कुछ ख़्याल

चुरा कर अहसास मेरे ,
                मुझसे अंदाज़ पूछते हैं ।
 जज़्ब कर जज़्बात मेरे ,
                 मुझसे अल्फ़ाज़ पूछते हैं ।
.
 न देखें तासीर किरदार की ,
              किरदार तासीर हम गढ़ें ।
"विवेक"ख्वाहिशें सजा न बनें ,
              खुशियों की बजह हम बनें।

.
गढ़ कर अपने आप को ,
                       तू कर कुछ प्रयास तू ।
 रंग कोई तो चढ़ जाएगा,
                       कहलाएगा न कोरा तू।
.
कभी अपने आप को ,
               आईने में रखना तुम ,
 खुद को अक़्स से ,
                आईने में झकना तुम ।
कहता है क्या फिर,
                 अक़्स तुम्हे देखकर ।
  वयां कर अल्फ़ाज़ में,
                  अपने लिखना तुम ।
 .
.... विवेक दुबे"निश्चल"@.....

जुस्तजू

बस इतनी सी जुस्तजू (खोज)है ।
मुझे लफ्ज़ की आरजू (कामना)है ।

  लफ्ज़ बन सँग किताबों के हम हुए ।
   दफ़न किताबों में कुछ यूँ हम हुए ।

दूरियाँ नही दरमियाँ के,
                 अहसास खामोशियों के ।
सजती रही महफ़िल ,
                   बिन शमा रोशनियों के ।

  सबब परेशानियों का ,फ़क़त इतना रहा ।
   तू परेशां न रहा ,    मैं भी परेशां न रहा ।

  उतरे वीरानों में ,चैन की खातिर हम ।
  देखा वीरानों में बैचेनी बिखरी पड़ी है । 
.... विवेक दुबे "निश्चल"@.....



उजड़ता गया

उजड़ता गया  शहर पुरानों सा ।
 चलता गया एक अनजानों सा ।

 सोख कर अपनी ही नमी को ,
 रिसता रहा मकान पुरानों सा ।

 तंग नही गलियाँ शहर की मेरे ,
 रास्ता मिलता नही ठिकानों का ।

 तंग दिल नही है लोग मेरे वास्ते ,
 थामे हर शख़्स दामन बहानों का ।

 जानता सारा शहर यूँ तो "निश्चल",
 मोहताज़ है आज भी पहचानों का ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@....

शब्द गिरे हैं कट कटकर

शब्द गिरे है कट कट कर , 
कविता लहूलुहान पड़ी ।
 इंसानो की बस्ती में ,
 यह कैसी आग लगी ।

     धूमिल हुई भावनाएँ सारी ,
    सूखी अर्थो की फुलवारी ।
    अर्थ अर्थ के अर्थ बदलते ,
    शब्दों से शब्दों की लाचारी ।

मन हुये मरू वन जैसे ,
दिल में भी बहार नहीं ,
गुलशन को गुल से ,
 क्यों अब प्यार नहीं ।

       इंसानों की बस्ती में,
     यह कैसी आग लगी ।

अपनों ने अपनों को ,
 शब्दों से ही भरमाया  ।
शब्द वही पर अर्थ नया ,
हर बार निकल कर आया  ।

       सूखे रिश्ते टूटे नाते ,
        रिश्तों का मान नहीं ।
        रिश्तों की नातों से अब ,
        पहले सी पहचान नही ।

   शब्द गिरे है कट कट कर,
   कविता लहूलुहान पड़ी ।
   इंसानो की बस्ती में ,
    यह कैसी आग लगी। .

         ...विवेक दुबे"निश्चल"@...

अहसास खो गए

बूझकर चराग़ अँधेरों के हो गए ।
हालात के तले अहसास हो गए ।

 आँधियों से वो लड़े खूब मगर ,
 रुख हालात के खास हो गए ।

 जो उजाले थे एक मिसाल से ,
 आज अँधेरों के वो साथ हो गए ।

वक़्त मेहरवां था या सितमगर ,
 सवाल हर शख़्स के पास हो गए ।

न था सुबूत बेगुनाही का "निश्चल"
 हालात से गुनाहगार हाथ हो गए ।

 बूझकर चिराग अँधेरों के हो गए ।
 हालात के तले अहसास हो गए ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@...

आशाओं के उजियारे

उलझ गए कुछ यूँ बातों के बटवारे में,
ग़ुम हुए कुछ यूँ शब्दों के उजियारे में।

प्रश्न बना खड़ा है पल प्रति पल ज़ीवन,
प्रश्नों के अनसुलझे अंधियारे गलियारों में।

जगमग आकांक्षाएं चमक चाँदनी-सी,
घोर निराशाओं के गहरे अंधियारों में।

खोजा करते प्रतिदिन जीवन पथ पर,
आशाओं के धुँधले  से उजियारे में।।
... विवेक दुबे"निश्चल"@.....

शिकायत रही मुझसे

यूँ शिक़ायत ही रही उसे मुझसे ,
 बे-वजह अदावत रही उसे मुझसे ।

 यूँ तो संग सा न था मैं कभी  ,
 संग सी सिफ़त कही मुझसे ।

 न था माहिर मैं खेल बिसात का ,
 सियासत सी शराफत रही मुझसे ।

 जीतकर हारता रहा मैं बार बार ,
 न जीतने की कसक रही मुझसे ।

जो बात निग़ाह उतारी थी मैंने ,
 "निश्चल" जुवां गई न कही मुझसे ।

 ..... विवेक दुबे"निश्चल"@...

मैं कौन हूँ

  मैं कौन हूँ जमाना तय क्या करेगा ।
  मेरा हुनर ही तो मेरा आईना होगा ।

        सजा लूँ मैं अपने आप को ,
         ज़ज्व कर चुभती फ़ांस को ।

 ज़ख्म मेरा भी भरा होगा ।
 कल मेरा भी सुनहरा होगा ।

           जीतूँगा मैं भी आकाश को ,
           न हार कर अपने विश्वास को ।

 जमाना नजर भर रहा होगा ।
  जो मुकाम मेरा रहा होगा ।

     मैं कौन हूँ जमाना तय क्या करेगा ।
      मेरा हुनर ही तो मेरा आईना होगा ।

           .....विवेक दुबे "निश्चल"@...

दर्द नही अब सजा देता है

 दर्द नही अब सजा देता है ।
 अश्क़ भी अब मजा देता है ।

 बता कर गैर सा मुझे वो ,
 अपना सा मुझे बता देता है ।

 गिर कर टूटते नही अश्क़ अब तो,
 दरिया नही समंदर का पता देता है ।

 बहते नही पलकों की कोर से अब तो ,
  अश्क़ अंज़ाम निगाहों को बता देता है ।

       ... विवेक दुबे "निश्चल"@..

काव्य दिवस

काव्य दिवस पर


अभिलाषा बस कलम चलाने की ।
 आकांक्षा स्वयं को भुलाने की ।
 बह कर  "निश्चल" भाव प्रवाह में ,
  इच्छा शब्द शब्द लिख जाने की ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@....

यहाँ दिखते रहेंगे हम

  यहाँ दिखते रहेंगे हम ।
  यहाँ लिखते रहेंगे हम ।
  होता नही जब तलक ,
  ये कागज़ कलम ख़तम ।

 जज़्बात-ऐ-तमन्ना होते नही कम ।
 लफ्ज़ कागज़ पे खींचती कलम ।
 उकेरकर वो नक्स हालात के ,
 लड़ती जो हालात से हर दम ।

 चला हूँ तलाश में मंज़िल की ,
 रास्ते होते नही मगर ख़तम ।
 मुड़तीं हैं गालियाँ हालात की,
 उठ जाते उस और मेरे कदम ।।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@...

सोमवार, 19 मार्च 2018

हाल-ऐ-दिल

न पूछ मझसे तू हाल-ऐ'-दिल मेरा ।
 लिखता है हाल कागज़ दिल मेरा ।
 हर दर्द लिखता दिल कलम चलती है ।
 जज़्ब करता कागज़ यही मेरी हस्ती है ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@..

पहचान बने अपनो से

पहचान बने अपने ही जाने पहचाने से ।
क्या लाभ किसी अंजाने को यार बनाने से ।

गुलशन न महका कागज़ के फूल सजाने से।
 प्यास धरा न मिटती बिन मौसम बदली छाने से । 

 सूरज छिपता कब लाख छिपाने से ।
 प्रभा किरण चल पड़ती भोर मुहाने से ।

 पवन न थमी कभी पतझड़ हो जाने से ।
 सागर न सूखा अंजुरी जल भर लाने से ।

  ..... विवेक दुबे"निश्चल"@...

उस दर्द को बस माँ सहती है ।

उस दर्द को बस माँ सहती है ।
 निग़ाह अक्सर चुप रहती है ।

  सींच कर लहू से अपने , 
   बहाती आँख से मोती है ।

  टूटते ख़्वाबों सी अक्सर ,
  ख़यालों में जिसे पिरोती है ।

 बिखर कर स्याह रातों में ,
  शबनम जज़्ब जमीं होती है ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@....



कुछ यूँ ताक़ीद किया मुझको ।
 कनीज़ से हूर किया मुझको ।
 तराश कर अक़्स निगाहों से,
 काँच कोहेनूर किया मुझको ।
   ... विवेक दुबे"निश्चल"@..

वर्तमान

विषय.... *वर्तमान*


डरता हूँ कभी कभी डर जाता हूँ मैं ,
 दर्पण में अपने बिंबित प्रतिबिंब से ।
 चकित होता हूँ हाँ चकित होता मैं ,
 उभरते बढ़ती उम्र के हर चिन्ह से ।
 सोचता फिर अगले ही पल मैं ,
 परिवर्तन ही प्रकृति का नियम ,
 लागू होता है यह मुझ पर भी ।
 लड़ न सका कोई प्रकृति से ।
 समेट लेती वापस धीरे धीरे ,
 गर्भ में अपने अपनी गति से ।
 उदय और अस्त दिन और रात ,
 यह भी तो चलते इसी गति से ।
 अस्त हो उदय होना मुझे भी ,
 नियति की इस सतत गति से ।
 प्रकृति भी चलती प्रकृति से ।
 हटा सामने से दर्पण अपने ,
 चल पड़ता वर्तमान में ,
   मैं अपनी गति से ।
..... विवेक दुबे"निश्चल"©...

मांग कर अश्क़ मेरे

बैचेनियाँ दिल निगाह उतार लाए हैं ।
लफ्ज़ बेजुवां आँख छलक आए हैं ।
..
 माँगकर अश्क़ मेरे हँसी बाँटने आए है ।
 वो हमें खुद से खुद यूँ काटने आए हैं ।
  ...
हाथ रंग गुलाल लाए हैं ।
            निग़ाह मलाल लाए हैं।
  रहे बेचैन आज हम ,
             वो बहुत सवाल लाए हैं ।
...
 धुल जाएगी रंगत शूलों की ,
                         टीस साथ निभाएगी ।
आती होली साल-दर-साल ,
                         होली फिर आएगी ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@..

स्वागत न सत्कार करो

न स्वागत न सत्कार करो ।
 अब तो बस प्रतिकार करो ।

 बहुत हुआ खेल आँख मिचौली का ,
 शत्रु से अब सीधा ही संग्राम करो। 

 इन कूटनीति के वादों से ,
 इन उलझे आधे से वादों से ।

 अब तनिक नहीं विश्वास करो ,
 शत्रु से अब सीधा ही संग्राम करो ।

 कब तक गिनते गिनवाते जाओगे,
एक के बदले दस दस लाओगे ।

 नाम रहे न विश्व पटल पर ,
 अब ऐसा कोई इंतज़ाम करो ।

  पा सम्पूर्ण विजय विश्राम करो ,
 शत्रु से अब सीधा ही संग्राम करो। 

 ......विवेक दुबे "निश्चल"@....

कलम चलती है शब्द जागते हैं।

सम्मान पत्र

  मान मिला सम्मान मिला।  अपनो में स्थान मिला ।  खिली कलम कमल सी,  शब्दों को स्वाभिमान मिला। मेरी यूँ आदतें आदत बनती गई ।  शब्द जागते...