शनिवार, 17 नवंबर 2018

मैं बस एक सादा सा रिश्ता हूँ ।

 मैं जैसा हूँ बदल नहीं सकता हूँ ।
 मैं बस एक सादा सा रिश्ता हूँ ।

पहुँचे लक्ष्य मुहाने चल मुझ पर ,
हाँ मैं एक सीध सा ही रस्ता हूँ ।

सहज रहा आती जाती यादों को ,
पीठ धरे हरदम यादों का बस्ता हूँ ।

 मैं जैसा हूँ बदल नहीं सकता हूँ ।
 मैं बस एक सादा सा रिश्ता हूँ ।

धूमिल संध्या कुछ पद चापों से ,
दिनकर के आते फिर पिसता हूँ । 

 अपने तन पर पड़ते घावों को ,
 आते जाते कदमो से घिसता हूँ ।

 मैं जैसा हूँ बदल नहीं सकता हूँ ।
 मैं बस एक सादा सा रिश्ता हूँ ।

 धूप कहीं छाँव कहीं मुझ पर ,
 मंजिल की खातिर बिछता हूँ ।

 "निश्चल" रहा हर दम ही मैं ।
 बढ़ता हूँ ना ही मैं घटता हूँ ।

पहुँचे लक्ष्य मुहाने चल मुझ पर ,
हाँ मैं एक सीध सा ही रस्ता हूँ ।

... विवेक दुबे"निश्चल"@....
डायरी 5(179)




मैं बस एक सादा सा रिश्ता हूँ ।

यह नसीब भी आदत बदलता रहा ।


यह नसीब भी आदत बदलता रहा ।
बदल बदल कर साथ चलता रहा ।
.... 
मुक़ाम की तलाश को तलाशता रहा ।
वो हर दम हारते से हालात सा रहा ।
...  
अपने आप से यूँ भी सौदा रहा।
ज़िन्दगी का यूँ भी मसौदा रहा।
....
 अपने ही आप को ढालता रहा ।
 ज़ज्ब जज्बात को पालता रहा ।

   सच में झूठ का साथ देता राह ।
  कुछ यूँ सच का साथ देता रहा  ।

विवेक दुबे"निश्चल"@.
डायरी 5(178)

ख़ामोश हुए , अरमानों की ख़ातिर ।


क्या खूब दीवानगी है ।
         ज़िस्म की रवानगी है ।

खो जाते नैना चँचल ,
        मन की यही बानगी है ।
....
छलकते रहे पैमाने ,
       मयखानों की खातिर ।

 होते रहे दीवाने ,
       बेगानों की खातिर ।

 सुनाकर नज़्म ,
      आज महफ़िल में ,

ख़ामोश हुए ,
     अरमानों की ख़ातिर ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@...
डायरी 5(177)

रिक्त व्योम छूने की आशा में ।

रिक्त व्योम छूने की आशा में ।
कुंठित मन अभिलाषा में ।

तप्त धरा पथ पग रख कर ।
चलता शापित पथ पर ।

लक्ष्यहीन सी दृष्टि विखरी ।
दूर क्षितिज छितरी छितरी ।

दीप्त नहीं आभा कोई आवर्तन को ।
तम गर्भ तले अवशोषित दृष्टि पसरी ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@...
डायरी 5(176)

छोड़ चला वो धीरे धीरे ,

छोड़ चला वो धीरे धीरे ,
दुष्कर सी उन राहों को ।

मदहोशी के आलम में ,
बहकाती फ़िज़ाओं को ।

 छोड रहा  बूंद बूंद सा ,
परिपोषित विचारो को ।

आ बैठा हृदय कुंज तले ,
ले अपने सुरभित सहारों को ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@..
डायरी 5(175)

रीते रीते से सब बर्तन ।


रीते  रीते से सब बर्तन ।
उधड़ रही बाहों से अचकन ।

भूल गया सब तरुणाई सँग ,
झूँठा सा वादों का बचपन ।

मदहोश हुआ योवन पाकर ,
मन करता मन से अनबन ।

नेह बसा था जिन नयनों में ,
बदल गई अब वो चितवन ।

अहम हुआ मन को तन का ,
चलता गर्भित ले तन मन ।

भूल चला उसको अहम तले,
हर लेता जो तन से ज़ीवन ।

रीते रीते से सब बर्तन ।
उधड़ रही बाहों से अचकन ।

.... विवेक दुबे"निश्चल@..
डायरी 5(174)
Blog post 17/11/18

अपने अपनों के बाजार निकले ।

अपने अपनों के बाजार निकले ।
करने को वो व्यापार निकले ।

 जात धर्म के पलड़े पर ,
 क़रने को विस्तार निकले ।

 तौल रहे हैं मोल रहे हैं ।
 कुछ रद्दी के अखवार निकले ।

कुछ वादों की परत सुनहरी ,
देने को वो उपहार निकले ।

मानवता मानव से हार रही ,
मानव मानव के गद्दार निकले ।

क्या कहे कवि कविता गढ़ ,
शब्द शब्द के पहरेदार निकले ।

.....विवेक दुबे"निश्चल"@....
डायरी 5(173)

सब दे कर ले चलता कुछ वो ।

572
शिल्प चार सगण 16 वर्ण
        सम तुकांतक 

सब दे कर ले चलता कुछ वो ।
निकला मन के पथ पे अब वो ।
 मन रीत रहा मन दे चल के ।
 ठहरा सबसे मिलता चल के ।

रुक राह कभी ठहरा पल को ।
रख साथ लिया अगले पल को ।
तब रीत गया गुजरे पल से ।
मिलने चलता अगले पल से ।

भरता जल भीतर था घट के ।
घट वो अब रीत रहा भर के ।
लहरा उठता लहरें बन के ।
ठहरा जलधी तट से मिल के ।

कब राग पले अब याद नहीं ।
सब छोड़ चला सबसे मिल के ।
अब जीत नहीं अब हार नहीं ।
चलता अब वो "निश्चल" बन के ।

लहरा चलती लहरें बन के ।
बहती तटनी तट से मिल के ।

..... विवेक दुबे"निश्चल"@...
डायरी 5(172)

यूँ मुझे बदनाम न कर ।

यूँ मुझे बदनाम न कर ।
 किस्सा-ए-आम न कर ।

लाकर किनारे तक मुझे ,
तू कोई अहसान न कर ।

 छोड़ तूफानों के सहारे मुझे ,
 जी लूँ खुद को पहचान कर ।

 दरिया जहां तक बहने दे मुझे ,
 जाने दे मुझे मेरे अंजाम पर ।

 खो जाएगा दरिया भी एक दिन ,
पहुंचा कर मुझे मेरे मुक़ाम पर ।

... विवेक दुबे"निश्चल"@...
डायरी 5(171)

भृमित रहा मघुकर भी ।

111 121 111 2

भृमित रहा मघुकर भी ।
उदित नहीं दिनकर भी ।

सहज चला तिमिर तले ,
पथिक रहा पथ पर ही ।

सृजन तभी कर सकता ,
चलकर आ पथ पर ही ।

सृजित सभी पथ करना ,
धरकर भीतर पग ही ।

बस चलता चल पथ पे ,
मंजिल रहे पथ पर ही ।

थककर भी ठहर नहीं ,
कलम चले "निश्चल" सी ।

... विवेक दुबे"निश्चल"@..
डायरी 5(170)

शुक्रवार, 16 नवंबर 2018

वो सम्बन्धों की परिभाषा ।

609
वो सम्बन्धों की परिभाषा ।
जहाँ मौन रही हर भाषा ।

लिखती चितवन गीत नए ,
हृदय धड़क संगीत सजाता ।

भृम नही कोई नयनों में ,
मन ही मन को भरमाता ।

 कलम चले पलकों सी ,
शब्द शब्द सा लिख जाता ।

वो सम्बन्धों की परिभाषा ।
जहाँ मौन रही हर भाषा ।

... विवेक दुबे"निश्चल"@...
डायरी 6(21)

मनोज्ञा छंद

607
मनोज्ञा छंद
(111  212  2 )

 भजत नित्य माता ।
 सकल ज्ञान पाता ।
 चरन पाद सेवा ।
 मिलत ज्ञान मेवा ।

 सहज भाव आया ।
 सकल प्राण लाया ।
 नित तुझे मनाऊँ ।
 कब "विवेक" पाऊँ ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@...


आओ माँ उपकार करो ।
  दुष्टों का तुम संहार करो ।
 पाप अनाचार रजः छाई है ,
  हर पापी पर प्रहार करो ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@....
Blog post 15/10/18
डायरी 6(19)

मत्ता छंद

मत्ता छंद
222 211 112 2

 गीतों में माँ ,तुम बस जाओ ।
ज्योती दीप्त , कलम जगाओ ।
 आया माता ,निकट तुहारे ।
 तू है दाता,  तुमहि सहारे ।

 दीनो की लाज झट बचाये ।
 सारे ही कष्ट फट हटाये ।
 माता तेरे गुन सब गायें ।
 तेरी भक्ति जन जब पायें ।

 दे दो माता सुफल सहारे ।
 आया हूँ याचक बन द्वारे ।
  दाता है तू जग जननी माँ ।
 माया तेरी शिव कथनी माँ ।

  दुर्गा हो आदि शिव शक्ति हो ।
   चंडी माया हर हर भक्ति हो ।
    तेरे ही रूप रचत माया  ।
    सारा प्रकाश जगत छाया ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@....
डायरी 6(18)
Blog post 15/10/18

एक आइना ही अपना निकला ।

605
एक आइना ही अपना निकला ।
हर सच्चा तो सपना निकला ।

उठाता रहा कसम उसूलों की ,
उसूलों पर जितना निकला ।

  सजा नही कहीं श्रृंगारों में ,
  मुफ़्त ही बिकना निकला ।

लाया न हाल जुबां कभी कोई ,
किस्सा मुफ़्लिशि उतना निकला ।

 डूबता रहा रिवायत दुनियाँ में ,
 "निश्चल" नादां इतना निकला ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@...
डायरी 6(16)

एक अधूरा सा, अहसास रह गया ।

एक अधूरा सा, अहसास रह गया ।
लिखा बहुत ,कुछ खास रह गया ।
******
एक उजड़ा सा ,मिज़ाज रह गया ।
कहा बहुत ,कुछ राज रह गया ।

गुजरता रहा कल, आज रह गया ।
हर अंजाम का, आगाज़ रह गया ।

बिखेरता रहा सुर, साज रह गया ।
मेरे लिखे गीतों में, नाज रह गया ।

 कह गया ग़जल, अंदाज रह गया ।
 प्यासा सा, हर अल्फ़ाज़ रह गया ।

 ख्वाहिशों में कल की,आज रह गया ।
"निश्चल" यही,आज रिवाज़ राह गया ।

 ...... विवेक दुबे"निश्चल"@...
डायरी 6(17)



सफ़र होता रहा यूँ ही,

603
1222   1222    1222  1222

सफ़र होता रहा यूँ ही,
           असर नही पूरा कोई  ।

डगर खोता रहा यूँ ही,
          नजर धोका मिला कोई।

जुल्म है ये नए यूँ ही ,
           ज़ख्म हरा बोला कोई ।

 सख़्त था वो नही यूँ ही ,             
         जली शमा मोम से कोई ।

पिघलता ही रहा यूँ ही ,
         हुआ रोशन कहीं कोई ।

चलता रहा साथ हालात यूँ ही ,
         वो "निश्चल" रहा चलता रहा कोई ।
             
.....विवेक दुबे"निश्चल"@..
डायरी 6(17)

किस्मत रब के किस्से ।

602
222     222
 किस्मत रब के किस्से ।
 आती किस के हिस्से ।

 रूठी किस्मत उससे ।
 रूठा जब वो जिससे ।

    टूटा नाता उससे ,
    बदले जिसने रस्ते ।

  निश्चल मिलता वो तो ,
  जाता जो सीधे रस्ते ।
  
   कहता है वो तुझसे ,
   चलता जा तू हँस के ।

    रहता मैं तो हर दम  ,
     मन में तेरे बस के ।

... विवेक दुबे"निश्चल"@..
डायरी 6(16)


एक तस्बीर उतारी अल्फ़ाज़ की ।

601
एक तस्बीर उतारी अल्फ़ाज़ की ।
रही गुजारिश जुबां आवाज की ।

खनके नहीं तार सुरों के मचलकर ,
एक ख़ामोश शरारत रही साज की ।

देखता ही रहा असमां हसरत से ,
नियत रही परिंदा पँख परवाज़ की ।

गुजरता रहा वो चाँद आसमान से ,
गुजरती रही और रात आज की ।

न बंध सकी सुरों में यह जिंदगी ,
 कसक रही "निश्चल" रियाज़ की ।

... विवेक दुबे"निश्चल"@....
डायरी 6(15)

भाग्य भाग्य से ही हारा है ।

600
भाग्य भाग्य से ही हारा है ।
मिलता नही कहीं सहारा है ।

घुटतीं है अब अभिलाषाएं  ,
आशाओं का नही किनारा है ।
...
इनको देखो उनको देखो ।
देखो किन किन को देखो ।

देख रहे वो अपनी मर्जी को ,
देख देख बस उनको देखो ।
.. 
न धर्म रहा न कर्म रहा ।
कांप रही है आज धरा ।

पियूष भरे से प्यालों में ,
कालकूट कूट कूट भरा ।
....
खोजता रहा हल हालात का ।
प्रश्न प्रश्न हर दिन आज का ।

उठाता रहा खाली घड़े काँधे पर ,
मिला न भरा घड़ा विश्वास का ।

...विवेक दुबे"निश्चल"@..
डायरी6(14)

निखर चला चल , मन भीतर से ।

599
निखर चला चल , मन भीतर से ।
श्रृंगारित छण बन , मन भीतर से ।

आत्म भाव गुन , मन भीतर से ।
अवचेतन धुन सुन, मन भीतर से ।

बैर रहे न , राग द्वेष रहे कोई ,
"निश्चल" बन जा , मन भीतर से ।

ज्योत जलेगी तब , अन्तर्मन में ,
प्रगट हरि जब , मन भीतर से ।

न मचल लहरों पे ।
डूब जा किनारों पे ।

कर यक़ीन इतना ,
डूबने के इरादों पे ।

मिल जाएगी मंजिल ,
छोड़ते ही सहारों  के ।

है निग़ाह तू हरदम ,
है उसके दुलारों में ।

तू आँख तो मिला ,
बस उसके नजारों से ।

.. विवेक दुबे"निश्चल"@...
डायरी 6(13)

व्यर्थ को जाने दो ।

व्यर्थ को जाने दो ।
घट भर जाने दो ।

जीत सकें मन को ,
प्रीत निखर जाने दो ।

राह निहारें नयना ,
रात गुजर जाने दो ।

भोर भरी एक आभा ,
भोर बिखर जाने दो ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@...
डायरी 6(12)

क्रम जन्म जन्म चलता रहा

क्रम जन्म जन्म चलता रहा ।
जीवन से जीवन मिलता रहा ।

एक आकार निराकार सा ,
स-आकार  बदलता रहा ।

वसुधा पोषित सम भाव सभी ,
कण कण शृष्टि से पलता रहा ।

 क्रम नियत यही नियंता का ,
रजः रजः में घुल मिलता रहा ।

 घटना बदलती रही दृष्टि टलती रही ।
 शृष्टि अपने ही क्रम से चलती रही ।

न आई वो घड़ी लौटकर फिर कभी ,
नियति हर पल करवट बदलती रही ।

 लेती रही अद्भुत रूप हर पल शृष्टि ,
अनुपल विपल पल घड़ी चलती रही ।

 .... विवेक दुबे"निश्चल"@...

डायरी6(10)

चलता रहा उधार ,

चलता रहा उधार ,
जिंदगी से जिंदगी की ख़ातिर ।

होता रहा व्यापार ,
 खुदी से खुदी की ख़ातिर ।

खोता रहा इख़्तियार ,
दिल से दिल्लगी ख़ातिर ।

जीत सा रहा खुमार ,
निग़ाह से नमी की ख़ातिर ।

हारता रहा हर बार ,
हँसी से हँसी की ख़ातिर ।

लुटाता रहा मैं प्यार ,
खुशी से खुशी की ख़ातिर ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@....
डायरी 6(9)

मुरझाए चेहरे फिर भी, खुशहाली है ।

मुरझाए चेहरे फिर भी, खुशहाली है ।
रोशन नहीं दिया कोई, रात दिवाली है ।

सुलग रहीं किरणें , चँदा से छितरी ,
 रजनी भी कितनी , मतवाली हैं ।

छँटे नही अंधियारे अब तक भी ,
अरुणिमा की कैसी यह लाली है ।

मूक रहे शब्द सभी, अधरों पर आकर,
नयनों से नयनों की , होती रखवाली है ।

आस नही प्यासे को क्यों अब कोई ,
अश्रु नीर नैनो से होता जब खली है ।

अब क्षुधा रही नही कहीं कोई ,
वादों से भरती जब हर थाली है ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@..
डायरी 6(8)

विवश रही व्यबस्था ।

विवश रही व्यबस्था ।
घुन सा रहा पिसता ।

छद्मवेश धरे दशानन ,
जनक सुता से लेता भिक्षा ।

मुख श्वान भरा एकलव्य तीरों ने ,
 गुरु द्रोण चले लेने गुरु दीक्षा ।

भेद खुला जब सूर्य पुत्र का ,
निष्फ़ल हुई तब सारी शिक्षा ।

किया समर्पित प्रण प्राण से जिसने ,
बार बार देता बस वो ही परीक्षा ।

विवश रही व्यबस्था ।
घुन सा रहा पिसता ।

... विवेक दुबे"निश्चल@..
डायरी 6(7)

पढ़ते रहे सब खमोशी से ,

पढ़ते रहे सब खमोशी से ,
महफ़िल सजी बहारों की ।

रोशन शमा महफ़िल में ,
मुंतज़िर रही बहारों की ।

तल्ख़ रहे दिन ठंडे ठंडे ,
गर्म रही रात इशारों की ।

बैठे रहे बस यूँ ही तन्हा ,
छूती रही लहर किनारों की ।

उतर रहे माँझी लहरों में ,
कश्ती साथ रही सहारों की ।

चलते रहे स्याह अंधेरों में ,
आस रही रोशन मीनारों की ।

 ख़ामोश रहे सब खामोशी से ,
 तासीर रही ये"निश्चल"यारों की ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@...
डायरी 6(6)

एक अगन तपन सी ।

एक अगन तपन सी ।
श्रापित रही लगन भी ।

लिखती जो हालातों को ,
वो कलम चली चुभन सी ।
....
शब्द शब्द से खिलते ।
स्वप्न तले आ मिलते ।

दिनकर की आशा में ,
उधड़ी रातों को सिलते ।
...
धड़कन से धड़कन तक ।
शब्दों की जकड़न तक ।

कुछ गीत रहे बिखरे से ,
सरगम की बिखरन तक ।

राहें रहीं सब व्यर्थ बेकार सी ।
चाहत रही नही जब राह की ।

चुकाता रहा मोल हर बात का ,
 ज़िन्दगी रही मगर उधार की ।

... विवेक दुबे"निश्चल"@....
डायरी 6(5)

खोज रहा दिन को दिनकर ,


खोज रहा दिन को दिनकर ,
रात गुजरती टुकड़ों में ।

लुप्त रही अरुण अरुणिमा ,
आस उतरती मुखड़ों में ।

सोई रही चन्द्र चाँदनी ,
बंद निहार रही पिजड़ों में ।

ढूंढ़ रहा खुशी खुश हो कर ,
दर्द नहीं अब दुखड़ों में ।

मिल रहा दुशाला आशाओं का ,
लिपटे कुछ तन चिथड़ों में ।

"निश्चल" रहा वो पथ पर ,
  रोक रही दुनियाँ पचड़ों में ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@...
डायरी 6(4)

शांत साँझ सुप्त निशा है ।

शांत साँझ सुप्त निशा है ।
दिनकर भी लुप्त हुआ है ।

टूट रहे तारे भी अब अंबर से ,
अंधियारों ने अभिमान छुआ है ।

बस उठे हुए है हाथ हवा में ,
आँखों में अब नही दुआ है ।

धरती की आशाओं को ,
 धीरे धीरे बैराग्य हुआ है ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@..
डायरी 6(3)

मिटते शब्द

मिटते शब्द ,
सूखती स्याही ।

सिमटती अभिलाषाएं ,
अहसासों की रुसवाई ।

उखड़े से कुछ पन्नों पर ,
शेष रहीं कुछ परछाई ।

 दूर रहे शब्दों से अर्थ ,
 अर्थों ने शब्दों की ,
 कब प्यास बुझाई ।

 "निश्चल"निकट रहा कोई ,
  निग़ाह पास नहीं आई ।

... विवेक दुबे"निश्चल""@...
डायरी 6(2)

मुक्तक 568

तेरी सोच की सोच को क्या कहूँ ।
उस निर्दोष के दोष को क्या कहूँ ।
करता रहा गुनाह सवाब की तरह ,
तुझ मदहोश के होश को क्या कहूँ ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@..

बुधवार, 14 नवंबर 2018

मुक्तक 564/567

564
एक उम्र तराश तलाशती रही ।
जिंदगी कुछ यूँ ख़ास सी रही ।
कटता रहा सफ़र सहर के वास्ते ,
सँग जुगनुओं के स्याह रात सी रही ।
... 565
तुम कुछ लिखते क्यों नही ।
लफ्ज़ लफ्ज़ बिकते क्यों नही ।
लगाकर जरा सा मोल अपना ,
निग़ाह में तुम टिकते क्यों नहीं ।
...566
मैं कभी कुछ लिख सका नही ।
लफ्ज़ लफ्ज़ बिक सका नही ।
लगाकर मैं कभी मोल अपना ,
निग़ाह में कभी टिक सका नहीं ।
...567
मैं धीरे धीरे बदलता गया   ।
 एकाकी जब चलता गया ।
  बैठा कर अपने मौन तले ,
   स्वयं स्वयं से मिलता गया ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@....

मुक्तक 562/563

562
सपना दिखाता रहे , जीना सीखाता रहे ।
हँसता रहे हर दम , गम पीता पिता रहे ।
लड़ता रहे हालत से,हसरतों की ख़ातिर, खुशहाल रहे हर हाल , जीता पिता रहे ।
... विवेक दुबे"निश्चल"@....
563
वो ही सच है जो सामने है निग़ाह के ।
ये वादे तो झूंठे है सब इस संसार के ।
बिता लें कुछ पल अपनो की खातिर ,
कल गुजर जाएंगे ये दिन बाहर के ।
....विवेक दुबे "निश्चल"@..

मुक्तक 559/561

559
हर दिन गुजर जाता रहा ।
कुछ कहकर जाता रहा।
कुछ पा जाने की आशा में ,
कुछ शेष बिखर जाता रहा ।
...
560
 नज़र रहा कुछ बे-नजर आता रहा ।
हर्फ़ अल्फ़ाज़ क्युं बे-खबर जाता रहा ।
रहा खंजर वक़्त हालात के हाथों में ,
एक ज़ख्म दिल ये ज़िगर पाता रहा ।
...
561
नेकनीयत चल चलता रहा ।
हालातो में ढल ढलता रहा ।
बदल जाएंगे एक दिन ये ,
नाकामी का पल पलता रहा ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@....
डायरी 3

मुक्तक 554/558

554
लौट चला जीवन से जीवन की और ।
सँग लेकर नव स्वप्न विहान सलोना ।
जाग चलीं अभिलाषाएं फिर कुछ ,
नवल धवल सा एक आस बिछौना ।
(विहान - भोर)
.... विवेक दुबे"निश्चल"@...
555
देह का आयाम है झुर्रियां ।
उम्र का विश्राम है झुर्रियां ।
 गुजरता कारवां है जिंदगी ,
बस एक मुक़ाम है झुर्रियां ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@..
556
छूटे कुछ पल जीवन के ,
नवजीवन की छांव तले ।
"निश्चल" मन रोपित करता ,
 आशाओं की ठाँव तले ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@....
557
दुनियाँ के प्रश्नों के उत्तर देते देते ।
कुछ प्रश्न अधूरे छूटे जीवन के मेरे ।
अहसासों के चलते इस अंधड़ में ,
गुवार भरे गहरे कुछ धूमिल से घेरे ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@..
558
हर्फ़ हर्फ़ किताब सिमटता रहा ।
साथ कलम स्याह लिपटता रहा ।
रहे बंद झरोखे उस दीवार के ,
पीछे जिसके दिया टिमकता रहा ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@..

डायरी 3

मुक्तक 549/553

549
इतना ही मैं ख़ास रहा ।
 के मैं ना-ख़ास रहा ।
 लफ्ज़ के समंदर में ,
बूंद सा अहसास रहा ।
...विवेक दुबे"निश्चल"@..

इतना ही मैं ख़ास रहा ।
 के मैं ना-ख़ास रहा ।
 रिश्तों की दुनियाँ में ,
 मतलब में मैं पास रहा ।
...विवेक दुबे"निश्चल"@..

550
वो क्या था जब कुछ नही था ।
यह क्या है जब सब कुछ है ।
एक फ़र्क सिर्फ इतना सा ,
के बीच में सिर्फ एक कुछ है ।
... 
551
एक मिज़ाज सख़्त सा ।
ठहरा हुआ वक़्त सा ।
चला था जो मुक़म्मिल ,
थम गया शाम पस्त सा ।
.... निश्चल@...
552
चल रचते है कुछ लफ्ज़ खमोशी के ।
उठाकर कुछ अल्फ़ाज़ मदहोशी के ।
उठाकर निगाहें आज हम फुरसत से ,
लेते हैं कुछ ख़्वाब आगोश आगोशी के ।
..... विवेक दुबे"निश्चल"@...
553
ज़ीस्त जोश , बुत मचलता गया  ।
मैं हाल खुद , खुद बदलता गया ।

ढल गया , वो आसमां की कोर में ,
जो चाँद , साथ जमीं चलता गया ।
(लाइफ)
.... विवेक दुबे"निश्चल"@.

डायरी 3

मुक्तक रिश्ते 548

वो खमोशी के मंजर भी,
        गहरे से हो जाते है ।

मेरे आँसू जब जब उसकी,
       आँखों में आ जाते हैं ।

दर्द छुपे इस मन के ,
      उन आँखों में छा जाते है ।

रिश्ते अन्तर्मन से ,
    पुष्पित पूजित हो जाते हैं ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@....
डायरी 3

मुक्तक 541/548

541
एक परपोषित वृक्ष लता सा ।
जीवन आश्रित देह सटा सा ।
पाता पोषण कण कण से ,
अस्तित्व हीन हो रहा बचा सा ।
...542
 कागज़ स्याह करता गया।
 लफ्ज़ निग़ाह करता गया ।
 गिराकर कुछ क़तरे अश्क़ के ,
 हर्फ़ हर्फ़ गुमराह करता गया।
... 543
खोजता रहा वो किताबों में ।
मिलता नही जो मिजाजों में ।
गिरा नही क़तरा जमीं पर ,
सूखता रहा अश्क़ निग़ाहों में ।
..544
यह ख्याल रहे ख़्याल से ।
अक़्स ढ़लते रहे निग़ाह से ।
खोजते रहे रौनकें जमाने में,
फिर भी रहे तंग दिल हाल से ।
...545
कोई तो कर्ज़ चुकाईये ।
अपना भी फ़र्ज़ निभाइये ।
टूटें ना ताने बाने सौहार्द के,
सौहार्द का मर्ज़ बढ़ाइये ।
....546
आशीषों के पथ चलकर ।
लक्ष्य सदा ही मिलते है । 
 तापित मरुभूमि पर भी ,
 "निश्चल" शीतल जल मिलते हैं ।
..547
कल के सफर की ख़ातिर ।
ख़्वाब फिर मेहमान हो जाए ।
वक़्त से वक़्त की ख़ातिर ,
वक़्त से इंतकाम हो जाए ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@....


मंगलवार, 13 नवंबर 2018

रूठती जवानी,569

रूठती जवानी,
      आब जिंदगानी बहाने आए।

प्यास दरिया की, 
      समंदर से बुझाने आए ।

 टुकड़े टुकड़े तोड़ते, 
       तरासने की चाह में ,

 हर तरास से बुत की ,
        कहानी सुनाने आए ।

उठाकर हाथ , 
         ख़ाक हसरतों की ,

आग ज़ज्बात की ,
        बुझाने आए ।

 तरसती निग़ाहों पे, 
          ये इल्ज़ाम आए ।

  इस तरह हम , 
        ज़माने के काम आए ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@....
डायरी 5(169)

दौड़ रहे हैं अश्व मन

दौड़ रहे हैं अश्व मन आशाओं के ।
हाथ लिए ध्वज अभिलाषाओं के ।

उड़ती रजः इच्छाओं की टापों से ।
धूमिल नभ पथ पडता पद चापों से ।

राह जटिल है लक्ष्य कठिन है ।
जूझ रहा है मन झंझावातों से ।

काट रहा उलझी राह लता बेल को ,
वो अश्व आरोही आपने ही हाथों से ।

खोज रहा एक लक्ष्य नया फिर ,
खोकर नव जीवन की चाहों में ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@...
डायरी 5(168)

चल आज

चल आज किनारा करते हैं ।
नजर अश्क़ सहारा करते है ।
 तोड़कर रिश्ते पुराने सारे ,
 हम इश्क़ दुवारा करते हैं ।
...
हसरत नही इरादा करते हैं ।
एक अधूरा वादा करते हैं ।
उकेरकर लफ्ज़ कलम तले ,
 जज्बात-ए-बहारा करते है ।
....
एक हसरत रही इरादों में ।
 छूटता रहा कुछ वादों में ।
उकेरकर लफ्ज़ कलम तले,
हम बैठे जज्बा-ए-बहारों में ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@...
डायरी 5(167)

एक लाचारी है


लफ्ज़ लफ़्ज़ की एक लाचारी है ।
एक निग़ाह तुम्हारी एक हमारी है ।

ख़ामोश ख़याल ख़लिश हमारी है ।
खोती ख्वाबों को तपिश हमारी है ।

कसकती रहीं बेचैनियां अक्सर ,
तन्हाइयों से यूँ रंजिश हमारी है ।

बैठे रहे अल्फ़ाज़ भी सिमटकर ,
साज से होती नही बंदिश हमारी है ।

डुबोकर कलम अश्क़ स्याही में ,
नज़्म अल्फ़ाज़ कशिश हमारी है ।

 क्या कहुँ बात मैं अब अपनी ,
 निग़ाह जमाना साजिश हमारी है ।

  होता रहा तर-बा-तर लफ्ज़ जो ,
  वो अश्कों की बारिश हमारी है ।

ख़ामोश ख़याल रहे हर दम ही ,
एक नज़्म कहें ख्वाहिश हमारी है ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@...
डायरी 5(166)

वो ज़श्न मनाते हैं

अरमानों को रोशन कर ,
   वो जश्न मनाते है ।
 चिराग तले अंधियारे ,
    घुटकर रह जाते है ।

 गीत प्यार के , 
    जब हम गाते हैं ।
 बोल प्यार के , 
     उन्हें नही सुहाते हैं ।

उमंग रही अब सिरहन सी ,
स्वप्नों से अब हम कतराते हैं ।

छूटे कुछ पल ज़ीवन के ,
नव ज़ीवन की छांव तले ।

"निश्चल" मन रोपित करने ,
आशाओं का ठाँव नही पाते है ।

... विवेक दुबे"निश्चल"@....
डायरी 5(165)

मणि माल छंद

मणिमाल छंद 
विधान~ 
19 वर्ण ,10,9 वर्णों पर यति , 4 चरण
दो-दो चरण समतुकांत।
( 112 121 121 211 2 12 112 1)

कर जोड़ कर नित्य करें, 
          हम मातु को नित याद ।
नव रूप देत सदा दया ,
          जब पूजते हम पाद ।  

नवरात्रि ज्योत जहाँ जले,
       करती वहाँ यह वास ।
उपकार भाव यही मिले,
          कर माँ तु हृदय वास ।

..... विवेक दुबे"निश्चल"@...
डायरी 5(164)
    

ठहर गया


उसे देख देख वो ठहर गया ।
देकर जो यूँ कुछ नजर गया ।

 दूर था कल तक निग़ाह के ,
आज धड़कन बन उतर गया ।

 सजाकर महफ़िल दिल की ,
क़तरा क़तरा सा निखर गया ।

गिरा न क़तरा आँख से कभी ,
एक अश्क़ निग़ाह सँवर गया ।

करता रहा फरियाद मुंसिफ़ भी ।
दौर ज़िरह का यूँ मुकर गया ।

ग़ुम हुए हर्फ़ हर्फ़ किताबों से ,
रफ्ता रफ्ता लफ्ज़ असर गया ।

...विवेक दुबे"निश्चल"@...

गुस्ताखी कर बैठा

यह कैसी गुस्ताखी कर बैठा ।
इश्क़ खुद खुदी से कर बैठा ।

चलकर भी साथ दुनियाँ के ,
तिश्निगी से दामन भर बैठा ।

लिपटा रहा अपने लिबासों में ,
अस्क़ाम असर दिल पर बैठा ।

टोकती रही रूह हर कदम  ,
इनाद रूह ख़ाक धर बैठा ।

भूलकर अस्ल असर अपना ,
"निश्चल" आराईश गुरुर बैठा ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@..
डायरी 5(182)

खुदी -अहंकार
अस्काम - बुराइयां 
इनाद - विरोध 
अस्बाब - कारण
अस्ल - मूल
असर - फल परिणाम 
आराईश = सजावट, सुन्दरता

चलो एक दीप जलाते है

आज चलो एक दीप जलाते हैं ।
तम अन्तर्मन आज मिटाते है ।

दीप्त करें स्वयं स्वयं को ,
स्व-कान्ति स्वयं जागते है ।

रिक्त रहे न मन कोना कोई ,
मन कण कण दमकाते हैं ।

 स्वयं चेतन रश्मि से ,
अहम अंधकार मिटाते हैं ।

आज चलो एक दीप जलाते हैं ।
तम अन्तर्मन आज मिटाते है ।

.... विवेक दुबे" निश्चल"@...

उजर रहा मन मन के आंगे ।
मन दीप उजारे तम के आंगे ।
रिक्त हुआ व्योम सभी तब ,
खोल दिए जब मन के द्वारे ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@..
डायरी 5(185)



कलम चलती है शब्द जागते हैं।

सम्मान पत्र

  मान मिला सम्मान मिला।  अपनो में स्थान मिला ।  खिली कलम कमल सी,  शब्दों को स्वाभिमान मिला। मेरी यूँ आदतें आदत बनती गई ।  शब्द जागते...