सफ़र-ऐ-तलाश हम ही ।
सफर-ऐ-मुक़ाम हम ही ।
रख निगाहों को आईने में,
ख़्वाब-ऐ-ख़्याल हम ही ।
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आइनों ने भी आईने दिखाए हमें ।
यूँ अक़्स अपने नज़र आए हमें ।
दूर रखकर दुनियाँ की निगाहों से,
तन्हा होने के अहसास कराए हमें।
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झाँकता रहा आईने में अपने ।
बुनता रहा सुनहरे से सपने ।
सजते आँख में मोती कुछ ,
ढलक ज़मीं टूटते से सपने ।
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अक़्स आईने में देखो यदा क़दा ।
खुद को पहचानते रहो यदा कद ।
न ऐब लगाओ दुनियाँ को कभी ,
ऐब अपने तो खोजो यदा कदा ।
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काश! आइनों के लव न सिले होते
काश! आईने भी बोल रहे होते
तब,आईने में झांकने से पहले
हम,सौ सौ बार सोच रहे होते
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आइनों ने भी भृम पाले हैं ।
रात से साये दिन के उजाले हैं ।
निग़ाह न मिला सका खुद से वो,
ऐब दुनियाँ में उसने निकले हैं ।
....विवेक दुबे "निश्चल"©.....
आइनों ने अक़्स उतारे हैं ।
जब आइनों में झाँके हैं।
जिंदा रखते है ज़मीर यूँ,
खुद को आइना दिखाते हैं ।
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हर चेहरा शहर में नक़ली निकला ।
एक आईना ही असली निकला ।
लिया सहारा जिस भी काँधे का ,
वो काँधा भी जख़्मी निकला ।
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... विवेक दुबे"निश्चल"@...