शनिवार, 14 अप्रैल 2018

मुक्तक .... आईना


  सफ़र-ऐ-तलाश हम ही ।
  सफर-ऐ-मुक़ाम हम ही ।
 रख निगाहों को आईने में,
  ख़्वाब-ऐ-ख़्याल हम ही ।
..
आइनों ने भी आईने दिखाए हमें । 
 यूँ अक़्स अपने नज़र आए हमें ।
 दूर रखकर दुनियाँ की निगाहों से,
 तन्हा होने के अहसास कराए हमें। 
 ....
झाँकता रहा आईने में अपने ।
 बुनता रहा सुनहरे से सपने ।
 सजते आँख में मोती कुछ ,
 ढलक ज़मीं टूटते से सपने ।
 ...
अक़्स आईने में देखो यदा क़दा ।
 खुद को पहचानते रहो यदा कद ।
न ऐब लगाओ दुनियाँ को कभी ,
 ऐब अपने तो खोजो  यदा कदा ।
.....
काश! आइनों के लव न सिले होते
 काश! आईने भी बोल रहे होते
 तब,आईने में झांकने से पहले 
 हम,सौ सौ बार सोच रहे होते 
      ...
आइनों ने भी भृम पाले हैं ।
 रात से साये दिन के उजाले हैं ।
निग़ाह न मिला सका खुद से वो,
 ऐब दुनियाँ में उसने निकले हैं ।
  ....विवेक दुबे "निश्चल"©.....

आइनों ने अक़्स उतारे हैं ।
 जब आइनों में झाँके हैं।
 जिंदा रखते है ज़मीर यूँ,
  खुद को आइना दिखाते हैं ।
.....
  हर चेहरा शहर में नक़ली निकला ।
  एक आईना ही असली निकला ।
  लिया सहारा  जिस भी काँधे का ,
   वो काँधा भी  जख़्मी निकला ।
... 
   ... विवेक दुबे"निश्चल"@...

मुक्तक

मशविरे हज़ार मिलते हैं ।
  सरे राह यार मिलते हैं ।
  जीतना है ख़ुद से ख़ुद को,
  मौके बार बार मिलते हैं ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@..

चला रसातल को मानव ।
 हावी होते अब दानव ।
  बातें करते जो बड़ी बड़ी,
 हैं वो बस रद्दी कागज़ ।

 .... विवेक दुबे"निश्चल"@....

इतर नही मैं दुनियाँ से ।
 कायम हूँ मैं दुनियाँ से ।
 रोता हूँ मैं भी हँसता हूँ ,
 मिलकर इस दुनियाँ से ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@..

  *इतर* - *भिन्न*
....
वे-मौके पर जो याद करे ,
  वो सच्चा मित्र कहलाए ।
  मौके पर जो साथ चले ,
  वो स्वार्थ सिध्द को आए ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@...

शुक्रवार, 13 अप्रैल 2018

चित्र चिंतन


  उठा किताब कलम को ।
   तू थाम ज्ञान विज्ञान को  ।
    कर पथ रोशन अपना ,
    तू बना सहारा ज्ञान को ।
   
  जकड़ न लें बेड़ियाँ तुझको ।
  जकड़े पराधीन बंधन तुझको ।
  तोड़ बेड़ियाँ कुंठित बंधन की ।
    स्वयं सहारा दे तू खुदको ।
..... विवेक दुबे"निश्चल"@...


चित्र गूगल संभार

चले जाएंगे एक दिन

चले जाएंगे एक दिन, 
 अहसास बिखेरकर ।
  सिमट जाएंगे हम ,
 आभास सिमेटकर ।

   रखना साथ यादों को ,
   यादों में लिपेटकर ।

   आती है ज़िंदगी हरदम  ,
   ज़िंदगी को हारकर ।

   पाती है रूह ज़िस्म   ,
   ज़िस्म को जीतकर ।

   

... विवेक दुबे"निश्चल"@..

गुरुवार, 12 अप्रैल 2018

ज़िंदगी तुझमे भी मेरा दख़ल होता ।

 ज़िंदगी तुझमे भी मेरा दख़ल होता ।
 हाथों में मेरे भी मेरा कल होता ।

  न हारता हालात से कभी ,
  बदलता हर हालत होता ।

  अँधेरे न समाते उजालों में कभी ,
 अँधेरों से भरा न कोई कल होता ।

  महकता गुलशन हर घड़ी ,
 उजड़ा न कोई चमन होता ।

  रूठता न अपने भी कभी ,
  अपना न कोई गैर होता ।

 ज़िंदगी तुझमे भी...
  
... विवेक दुबे"निश्चल"@...

निग़ाहों में शरारत



 निगाहों निगाहों से शरारत मेरी। 
 आज उनसे कुछ अदावत मेरी।
 बिखरी हँसी लब इनायत हुई ,
 रूठ कर मनाने की चाहत मेरी ।

 बिखरे ख़्वाब जो हक़ीकत में  ।
 फिर ख़्वाब सजाने चाहत मेरी।
 जीतू ही हर दम क्यों मैं उससे , 
 अब हार जाने की नियत मेरी।
.
 मुस्कुराने की चाहत नही मेरी ।
दिल से अब अदावत नही मेरी।
 आते नही अश्क़ पास अब मेरे ,
 बहाने की मेरी ताकत नही मेरी।

...
वफ़ा के दायरे में थी बेवफ़ाई मेरी ।
 क्यों हो गई आवाद बर्वादी मेरी ।
 टूटा तो न तारा फ़लक से कोई ,
 क्यों आसमाँ पे निग़ाह उठी मेरी।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@....

नही तब कोई मेरी हस्ती थी

 नहीं तब कोई मेरी हस्ती थी ।
 फिर भी जाने कैसी मस्ती थी ।
 कितना सुगम था वो बचपन ,
 बस अल्हड़पन वो मस्ती थी ।

 फूल भरे खेतों की पगडंडी थीं ,
 तितलियाँ भँवरों की सँगी थीं  ।
  उड़ते थे मदमस्त हवाओं सँग ,
 मस्तानों की नादानों सी सँगी थीं।
   ..... विवेक दुबे"निश्चल"@ ....

कर इश्क अपने आप से

कर इश्क़ अपने आप से, 
 जी जरा अपने वास्ते ।
 भूल रुस्वाई दुनियाँ की ,
 छोड़ जरा गम के रास्ते ।
....
आज तुम मुस्कुरा दे जरा ।
 हँसने की बजह दे जरा ।
 झाँक दिल के आईने में ,
 तू अपना पता दे जरा  ।
...
 वो हुआ बे-पता मैं पता ढूंढता ।
 गुम हुआ कहाँ वो मकां ढूंढता ।
 था ऐतबार जिस साहिल पर  ,
 उस साहिल में मैं वफ़ा ढूंढता ।
.....
खोजता आस के सहारे से ।
 सम्हल न सका सम्हाले से ।
चलता रहा तलाश में जिसके ,
 वो मिले साँझ तले उजाले से।

 .... विवेक दुबे"निश्चल"@....

तर हूँ रोशनी दिन उजालों से

खुलकर भी वो खुलते नहीं ।
 ज़ख्म दिल के पिघलते नहीं ।
 यूँ तो तन्हां है वो बहुत मगर ,
 आगाज महफ़िल में करते नही ।

 बीता है वक़्त उन्हें मनाने में ।
 दिल-ऐ-नगम उन्हें सुनाने में ।
 दफ़न कर ज़ख्म-ऐ-दिल सारे ,
 गीत खुशियों के हमे गाने में ।

 न टूटा कोई सितारा उस फ़लक से ,
 न आया काम मुराद पूरी कराने में ।
 लो छुप गया वो चाँद भी अब ,
 न रहा साथ मेरे अँधेरे मिटाने में ।

 तर हूँ रोशनी दिन उजालों में ,
 झुलसा "निश्चल" दिन के बिराने में ।
 खुलकर भी वो खुलते नही ।
 ज़ख्म दिल के पिघलते नही ।
.....विवेक दुबे"निश्चल"@....

बुधवार, 11 अप्रैल 2018

वक़्त बड़ा परवान चढ़ा

वक़्त बड़ा परवान चढ़ा ।
 बिकने को ईमान चला ।
  देश भक्ति की कसमें खाता,
  चाल कुटिल शैतान चला ।

   लांघ मर्यादाएँ अपनी सारी ,
   हवस दरिंदा शैतान चला ।
   वो वासना भरा अतिचारी ,
   अबोध बालपन रौंद चला ।

   सुरक्षित रहे कहाँ अब नारी ,
   रिश्तों ने ही जब चीर हरा ।
   चुप क्यों सभा सद सभी ,
   दर्योधन फिर चाल चला ।

    अबला ही रही नारी बेचारी ,
    सबला कहता इंसान चला ।
    शैतानों के इस मरु वन में ,
     लाचार फिर इंसान खड़ा ।
  
   वक़्त बड़ा परवान चढ़ा ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@....

ज़ीवन बस आना जाना है

 मुड़ जाना है , बूंद बूंद उड़ जाना है ।
एक ठिकाना है,ज़ीवन आना जाना है ।
  करता है क्यों मनमानी तू बन्दे ,
  साथ नही कुछ, लेकर जाना है ।

  जागीर यही है बस शब्दों की ,
  शब्द शब्द रच बस जाना है ।
  याद रहें आते कल तक जो ,
  शब्द कोई ऐसे गढ़ जाना है । 

   अंबर से आती बूंदों को ,
    उर्वी की प्यास बुझाना है ।
     सागर की इन बूंदों को ,
     फिर साग़र हो जाना है ।

  ज़ीवन बस आना जाना है ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@..

पथिक तुम बड़े चलो

 पथिक तुम बड़े चलो ।
  नाद पथ चले चलो ।
        भाव सींचते चलो ।
        कुछ रीतते चलो । 

 आकृति खींचते चलो ।
 विकृति विलोपते चलो ।
         अनुगुंजित साँझ तले ,
         नव प्रभात ओर चलो ।
  
   आशाओं के क्षितिज तले ,
   अभिलाषाओं के उस ओर चलो । 
         आकांक्षा नही प्रसाद प्राण में ,
         आशाओं से तुम दीप जलो ।
             ... विवेक दुबे"निश्चल"@...
Blog post 11/4/18
    
  
  
  

होंसले की बात

किस तरह करूँ, 
                   होंसले की बात ।

 आज तो सूरज भी ,
                  है अँधेरे के साथ ।

  स्याह रंगीन उजाले आज ।
  दिनकर पैर तले छाले हुए ।

  भूख मिटे तो मिटे कैसे ,
  टुकड़े रोटी के निवाले हुए ।

  .... विवेक दुबे"निश्चल"@...


न सुर है न ताल है

न सुर है न ताल है ।
 जिंदगी बेजार है ।
  बदला सा आज,
  हर किरदार है ।

  लिखी कहानी तब ,
  अपने हाथों से ।
  लिखता कोई और ,
 अब उपसंहार है ।

  बस हार ही हार है ।
  जीत का प्रतिकार है ।
 ... विवेक दुबे"निश्चल"@...

आज राजनीति के कमान से


 आज राजनीति के कमान से ,
 जात,मज़हब तीर हटाने होंगे ।
  
 राष्ट्र बचाना होगा इंसान जगाने होंगे ।

 चलते एक राह,एक ही पथ सब ,
  कदम कदम आज मिलाने होंगे ।

  मुड़ते अपने अपने  कदमों को ,
  राष्ट्र भक्ति राहों पर लाने होंगे ।

  राष्ट्र बचाना होगा,इंसान जगाने होंगे।

   ..... विवेक दुबे"निश्चल"@...

चुनाव समर

मन्दिर मस्जिद आरक्षण की ,
 यह कैसी लाचारी है ।
 राष्ट्र , समाज ,जाति  पर ,
 अब भी राजनीति ही भारी है ।

निकट चुनाव चले आते , 
 तब याद हमारी आती है ।
  वोटों के व्यापार में ,
 पिसती जनता बेचारी है ।

   होते बन्द , जन रंगे लहु से ,
   जलती होली की लाचारी है ।
   काट रहे अपने अपनों को ,
   सत्ता की कैसी सौदेदारी है ।

      मुद्दों से भटकी सत्ता ,
      गद्दी भी व्यापारी है ।
    धर्म ,जात की आड़ लिए ,
   चुनाव समर की तैयारी है ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@...

सभ्य समाज मे

इस सभ्य समाज में ,
लुटती फिर नारी है ।
 धृत राष्ट्र के राज में ,
  दुर्योधन फिर भारी है ।
.... 
  चलतीं चालें शकुनी की,
   धर्मराज की लाचारी है ।
  नजर झुकी बिदुर की ,
  आँख भीष्म ने चुराई है ।
.....
   धर्मराज के प्यादों ने ही  ,
    नारी की लाज़ उतारी है ।
  आते नही अब मुरलीधर भी 
  आत्म दाह को चली नारी है ।

..... विवेक दुबे"निश्चल"@....

   

बंजारे सा

वो गाता है बंजारे सा ,गलियों में चौबारों में ।
छा जाता है सावन सा ,मन मस्त बहारों में ।

 रात भले ही तन्हा हो, दिन कटता राहो में ।
 गीत बांटती यादें उसकी, दर्द नही आहों में ।

 वो गाता है गीत सदा , बस खुशियों के ही ,
 उसकी आहें हरदम ,छुपी रहीं निगाहों में ।

 वो जीता औरों की,  खुशियों की ख़ातिर ।
 दर्द समेटे अपने ,    अपनी ही बाहों में ।

 वो गाता है बंजारे सा....
..... विवेक दुबे"निश्चल"@..

उसकी ग़जल

पढ़कर उसकी ग़जल को ,
 कुछ गुनगुना गया मैं ।

 एक पल को उसकी ,
 निगाहों में आ गया मैं ।

 सख़्त लहजे थे उनके,
 तल्ख़ लफ्ज़ पा गया मैं ।

  रिंद तो न था मैं मगर ,
  साक़ी को भा गया मैं ।

  हट गए नक़ाब निगाहों के ,
  नज़्र तीर खा गया मैं ।

  ख़ामोश रहा उसकी,
  मासूमियत की ख़ातिर ।

  हँस कर उससे ,
  सज़ा पा गया मैं ।
  
  ....विवेक दुबे"निश्चल"@..

शमा जली

 शमा जली अंधेरों की कमी है।
 देखें हवा किधर को चली है ।

 दिए आईने ने हमे सहारे हैं।
 हुए जब आईने के हवाले हैं ।
  सहारा दे सच के दामन का,
 झूठ के सारे नक़ाब उतारे हैं।

 झूठ सच कुछ भी नही।
 सब ख़्याल हैं ख़यालों के ।
 शमा लड़ी हवा से उजालों तक ,
  अब हवा तेरे हवाले है ।

  .....  दुबे विवेक"निश्चल"@...

तुम आते बस एक बार

तुम आते बस एक बार ,
 देता मैं अपमान बिसार ।
               तुम मेरे प्राण अपार ,
               स्पंदित प्राणों के तार ।
 अनुरागित उन्माद राग ,
 छिड़ जाता बसंत राग ।
                 तुम आते बस एक बार ।
 मन खिलते पुष्प अपार ,
 छा जाती प्रणय बयार ।
              बहती अविरल अश्रु धार ,
              धुल जाता अपमान विषाद ।
 देता मैं सर्वस्व तुम पर वार ,
 न होता कोई अपमान विराग ।
              तुम आते बस एक बार  ।
  .... विवेक दुबे "निश्चल"@....

भीड़ बहुत थी

भीड़ बहुत थी पास मेरे ,
  मुस्कुराने बालों की ।
  मेरी हर शिकस्त पर ,
  जश्न मनाने बालों की ।

  जो भी आया पास मेरे ,
 अपना दिल बहलाने को ।
 मुस्कुरा कर मुझ पर ,
 यूँ अपना बनाने को ।
.... विवेक दुबे©..

स्वप्न सलोने

 स्वप्न सलोने , जागे कुछ सोए से ,
 यादों के बदल , खोए खोए से ।

 पोर नयन तन , कुछ मोती ढलके ,
 कुछ हँसते से,  कुछ रोए रोए से ।

 जीत लिया सब , जिसकी खातिर ,
 उसकी ही ख़ातिर , हार पिरोए से ।

  सँग सबेरे उठ , फिर चलना होगा ,
 रात अँधेरी , आँखे भर रोए रोए से ।
 .... विवेक दुबे "निश्चल"@....

समय कटता जाता है

 समय कटता जाता है ,
 बचपन लौटकर आता है।
             इस तरह यूँ गुजरा वक़्त,
             लौटकर फिर यूँ आता है।
 सीखा अँगुली पकड़ चलना,
 मुझसे जो इस दुनियाँ में ।
      वो आज दुनियाँ के सँग ,
       मुझे चलना सिखाता है।
             ..विवेक दुबे"निश्चल"@...

बीत गया तन

बीत गया तन ।
 रीत गया मन 
ज्यों ज्यों बीता ,
बचपन बचपन ।
.
 तन की तन से अनबन ।
 मन की मन से उलझन ।
ज्यों ज्यों बीता ,
 बचपन बचपन ।
 .
ग़ुम हुआ कुछ यूँ ।
 वो नटखट तन मन ।
ज्यों ज्यों बीता ,
बचपन बचपन ।
 ........ विवेक दुबे "निश्चल"@ ..

रीत राग में उलझा मन

रीत राग में उलझा मन ।
 भोग विलास में लिपटा तन ।

 प्रेम प्यार से उलझा मन ।
 रूप श्रंगार में लिपटा तन ।

 मन से मन की उलझन ।
 तन से तन की अनबन ।

 कैसे साधें तन मन को ,
 हो जाएँ हरि दर्शन ।
   .... विवेक दुबे"निश्चल"@...

हाँ वक़्त बदलते देखा है

हाँ वक़्त बदलते देखा है ।
सूरज को ढ़लते देखा है ।
        चन्दा को घटते देखा है ।
        तारों को गिरते देखा है ।

 हाँ वक़्त बदलते देखा है ।

 हिमगिरि को गलते देखा है ।
 सावन को जलते देखा है ।
          सागर को जमते देखा है ।
          नदियाँ को थमते देखा है ।

 हाँ वक़्त बदलते देखा है ।

 खुशियों को छिनते देखा है ।
 नजरों ने वो मंजर देखा है ।
        पीठ में उतरा खंजर देखा है ।
        खुदगर्जी का मंजर देखा है ।

हाँ वक़्त बदलते देखा है ।

 नही कोई दस्तूर जहाँ , 
 पुजता है स्वार्थ वहाँ।
 आपको की बस्ती में,
 ऐसा मन मंदिर देखा है।

 हाँ वक़्त बदलते देखा है ।
    ....विवेक दुबे"निश्चल"@...



ख़्याल आया

बेठे बेठे यह ख्याल आया ।
 भाषा बनाई जिसने ,
 उसने यह 'क्यों' क्यों बनाया ।

 सीधी बात पूछो तो ,
 जवाब क्यों आया ।

जो पूछा उल्टा ,
 तो भी क्यों ,
 सामने आया ।

  कुछ न कर पाया तो ,
 क्यों न कर पाया ।

 कुछ कर पाया तो ,
 क्यों कर पाया ।

 अब सोचूं यह मैं ,
  ' क्यों' पर विचार क्यों आया ।
    .....विवेक दुबे"निश्चल"@..

मिले तेरे मुक़द्दर से सब

 मिले तेरे मुक़द्दार से सब तुझे ।
 मिला न जो मेरे मुक़द्दार से मुझे ।

अबसर को मौका-ऐ-असर बनाओ ।
 याद रखो खुद को दुनिया भुलाओ ।

 खुद को बार बार क्यों भूलता है वो ।
 पल पल दिल-ऐ-हाल लिखता है जो।


         ... विवेक दुबे"निश्चल"@....

यह लव ख़ामोश क्यों

यह लव ख़ामोश क्यों ।
 यूँ चाँद निग़ाह पोश क्यों ।
               हुस्न तर है चाँदनी में ,
              चाँद से ऐतराज़ क्यों ।
  उतरी शबनम जमीं पर ,
   निगाहों से बरसात क्यों ।
                चाँद है दामन में तेरे ,
                 सितारों की चाह क्यों ।
  तर हुआ तसब्बुर में ,
  निगाह-ऐ-नक़ाब क्यों ।
               बिखरी खुशबू इश्क़ की,
                ज़ुल्फ़ों में गुलाब क्यों ।
   .....विवेक दुबे"निश्चल"@.....

सोया न सुबह की चाह में

      सोया न मैं सुबह की चाह में,
     इरादे कुछ और थे हालात के । 
     मैं क्या दूँ   तुझे तेरे वास्ते ,
     सो गए सितारे मेरे रात के ।

 कहकर संग दिल पुकारा उसने मुझे ।
 बुझते ही शमा मोम से मेरे हालत थे । 

 सूखा है दरिया आज भी जस का तस ,
 मेरे अश्क़ आज भी तो मेरे ही पास थे ।

 न लड़ा आज तक खुद ही खुद से ,
 जीतने के ज़ज्बात न मेरे पास थे । 

 दूर आवाज़ जाती तो जाती कैसे,
 पास मेरे ही तो मेरे ख्यालात थे ।

 चलता रहा न गिरने की ख़ातिर ,
  "निश्चल" कदमों के मेरे माप थे ।
  ..... विवेक दुबे "निश्चल"@..
गोष्ठी 17/1/18

गुम हुआ तन्हाई में

ग़ुम हुआ आज तन्हाई में जो ,
कल फिर महफ़िल में चमकेगा ।

 छाई रात अँधेरी अमावस की ,
 चाँद रात आफ़ताब फिर चमकेगा ।

   शबनम भी होगी साथ साथ ,
  सितारों का दिल भी मचलेगा ।

 होंगे जवां अरमां फिर सारे ,
 आफ़ताब फिर चमकेगा ।

 उठेंगी निगाहें आसमां पर जमाने की ,
 बदलियों से आफ़ताब जब निकलेगा  ।

  ख़त्म होंगे यह अँधेरे भी एक दिन ,
 आफ़ताब आसमां पे फिर चमकेगा ।
   ..... विवेक दुबे "निश्चल"@...

वो लफ़्ज़ कुछ यूँ बोलते थे

वो लफ़्ज़ कुछ यूँ बोलते थे ।
 आहों के समंदर डोलते थे ।

 आते थे तूफ़ां किनारों तक ,
 टकरा साहिल को तोलते थे ।

 ख़ामोश रहे किनारे हर बार ही,
 तूफ़ां दर्द साहिल का बोलते थे ।

 मुड़ते थे जब दरिया में अपने,
 निशां अपने साहिल पे छोड़ते थे ।

  ..... विवेक दुबे"निश्चल"@ ..

भटक अपने हालात से

 भटका अपने हालात में ।
 खोया अपने आप में।
  
          हार ही गया क्यों मैं ,
          हर जीत के बाद में ।

       वाद करता यही मैं ।
       प्रतिवाद के बाद में ।

               हारता ही क्यों हूँ ।
               जीतता न आप में ।
          .... विवेक दुबे"निश्चल"@...

तपिश निग़ाह से

 तपिश  निग़ाह से पिघल उठे जो ।
 शाम तले चराग़ हम जल उठे जो। 

 मैं भूलता नही इस अंदाज को ।
 तुम चुपके से आते ख़्वाब जो ।

 लौट आना है एक दिन बून्द तुझे ,
 छोड़ा था समंदर-ऐ-अहसास जो ।

 चमकता है आसमाँ पे सितारा नाज से ,
 जमीं पे आएगा एक दिन हो ख़ाक जो।

 टूटता है क्यों टूटकर दुनियाँ के तानो से ,
 भरेगी दुनियाँ बाहों में वक़्त आएगा जो। 

सुकूँ न खोज तू और कि निगाहों से ,
 सुकूँ तुझे आएगा देखेगा आइना जो ।

  क्यों अक़्स किसी और का बजूद में ,
  बजूद तो बस यही"निश्चल" मैं हूँ जो ।


... विवेक दुबे"निश्चल"@...


क्यों जज़्बात खो गए ,

क्यों जज़्बात खो गए ,
 क्यों यह हालत हो गए ।

 डूब कर निगाहों में  ,
 निगाहों के पार हो गए ।

     ज़ख्म गहरा न था कोई,
     दर्द क्यों बे-राज हो गए ।

  चिपट रोया न था दामन से,
  तर क्यों दामन आज हो गए ।

   फ़िसलती रही रेत बन्द मुट्ठी से ,
  क्यों वक़्त में सुराख हो गए ।
  
  हँसता है जमाना गैर की ख़ातिर,
"निश्चल"खुद क्यों लाचार हो गए ।
..... विवेक दुबे"निश्चल"@.....

ऐसा वर दो राधेय

  मुझको ऐसा वर दो राधेय,
  अहंकार को हर लो राधेय ।
   स-विनय रहूँ सदा ही मैं,
   प्रतिकार को हर लो राधेय ।

       चल जाऊँ सत्य पथ पर, 
       ऐसा पथ गढ़ दो राधेय ।
       याद रहो तुम मुझे सदा ,
       एकाकी कर दो राधेय ।
      
 इस सँसार समर में ,     
 तुझको बिसारकर भी,
 न बिसरा पाऊँ कभी , 
 कृपा इतनी कर दो राधेय ।
            ....विवेक दुबे"निश्चल"@.....

हे माँ ज्ञानदा

   हे माँ ज्ञानदा ज्ञान दो ,
   शब्दों का वरदान दो ।
   दूर रहूँ अभिमान से ,
  लेखन का स्वाभिमान दो ।
  -------
  हे माँ ज्ञानदा ऐसा वर दो ।
  हृदय ज्ञान प्रकाश भर दो ।
   निवास कलम में कर लो  ।
   शब्दों में आशीष भर दो।
 ------------------------------------
  सत्य पर चलता जाऊँ ।
  सत्य से मैं न घबराऊँ ।
  लिख जाऊँ मैं कुछ ऐसा ।
  शब्द अमर सा हो जाऊँ ।
      .... विवेक दुबे "निश्चल"©..

सोमवार, 9 अप्रैल 2018

पढ़ता जो नजर सा

पढ़ता जो नजर सा ,लफ्ज़ रूठ जाते ।
 पढ़ता जो लफ्ज़ सा ,इशारे रूठ जाते ।
 किताब खुली खुली बन्द सा जो मगर ।
  सफ़े सफ़े पर चिलमन सा क्यु असर ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@...

 निगाह ने छुआ तुझको  ।
 महसूस क्या हुआ तुझको ।
 जज़्ब कर उस अस्र अक़्स को ,
   जो कहूँ मैं दुआ तुझको ।

 अस्र - समय
डायरी

समा रहा वर्तमान

  समा रहा है वर्तमान  ,
  अतीत के वर्तन  में ।
  भरता नही अतीत  ,
  रीतते वर्तमान जल से ।

   तप्त शिलाएं वर्तमान की,
   ठंडी होतीं अतीत हिमकण से ।
   चलता उजास सँग तपते तपते ,
  साँझ जीत रही फिर दिनकर से ।

  
  ..... विवेक दुबे"निश्चल"@..

खूब अंदाज़


     खूब अंदाज़ रूठने मनाने का ।
     दिल जलाकर दिल लगाने का ।

    कहते वो रोएंगे न तेरे सामने हम ,
   बहाना तन्हाई में आँसू बहाने का ।

    हारकर अपने ही रंज से वो ,
   ढूंढता बहाना खुशी न पाने का ।

   रंगीनियाँ है तेरी महफ़िल में बहुत ,
   बहाना मेरी महफ़िल में न आने का ।

    रुख़सत हुआ कहकर वो दर से मेरे,
    इंतज़ार करना तू मेरे न आने का ।

   संज़ीदगी से चला वो सफ़र पर ,
   इरादा न था मंजिल न पाने का ।

   मैं दरिया हूँ बह जाऊँगा धीरे धीरे ,
  "निश्चल'' ख़्याल समंदर हो जाने का ।

..... विवेक दुबे"निश्चल"@....

धूप विरह की

यह धूप विरह की ,
 श्यामल तन करती ।
  नयन विलोकत गोरी ,
   प्रियतम मन हरती ।
  
  हृदय सेज विराजे साजन ,
   सजनी स्वप्न सलोने गढ़ती ।
  उड़ जा रे कागा मुंडेर से ,
 यादों में रात नही अब कटती ।

  आ जाएं अब साजन मेरे ,
   नयन से आस बरसती ।
   जेठ मास की तप्त धरा ,
    धरती भी वर्षा को तरसी ।
     
    यह धूप बिरह की ,....
   ... विवेक दुबे"निश्चल"@....

नारी

तू ही गंगा तू ही यमुना ,
 तू ही सीता सावित्री है ।

 तू आती है चंडी बन ,
 जग विप्पति जब आती है।

 तू ही जननी बन ,
 सृजन आधार सजाती है ।

  सैगन्ध तेरे आँचल की ,
  हर शपथ दिलाती है ।

 नारी तू ही 
   माँ कहलाती है ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@..

ममता माँ की

 ममता जब जब भी जागी थी ।
 माता की टपकी छाती थी ।

 दे शीतल छाँया आँचल की ,
 माँ सारी रात जागी थी । 
   
  देख कर अपलक निगाहों से ,
  गंगा यमुना अबतारी थी ।
  
  स्तब्ध श्वास थी साँसों में ,
  अपनी श्वासों भी वारी थीं ।

   ..... विवेक दुबे ©.....
  
ब्लॉग पोस्ट 28/9/17
डायरी 1

आँचल की वो छाँव

आँचल की वो छाँव घनी थी।
 दुनियाँ में पहचान मिली थी ।
 छुप जाता तब तब उस आँचल में,
 जब जब दुनियाँ अंजान लगी थी।

 उस आँचल की छोटी सी परिधि से ,
 इस दुनियाँ की परिधि बड़ी नही थी।
  हो जाता "निश्चल" निश्चिन्त सुरक्षित ।
  उस ममता के आँचल में चैन बड़ी थी।

.....विवेक दुबे "निश्चल"@....

कलम चलती है शब्द जागते हैं।

सम्मान पत्र

  मान मिला सम्मान मिला।  अपनो में स्थान मिला ।  खिली कलम कमल सी,  शब्दों को स्वाभिमान मिला। मेरी यूँ आदतें आदत बनती गई ।  शब्द जागते...