शुक्रवार, 3 मई 2019

ग़जल 726 एहसास दिलों से

726
(एक मुसल्सल ग़जल)

रास्ते मंजिल-ए-जिंदगी, जो दूर नही होते ।
 ये सफ़र जिंदगी , इतने मजबूर नही होते ।

खोजते नही , रास्ते अपनी मंजिल को ,
जंग-ए-जिंदगी के,ये दस्तूर नही होते ।

साथ मिल जाता गर, कदम खुशियों का ,
ये अश्क़ पहलू-ए-ग़म ,मशहूर नही होते ।

जो बंट जाते रिश्ते भी, जमीं की तरह ,
रिश्ते अदावत के, ये मंजूर नही होते ।

"निश्चल" न करता , यूँ कलम से बगावत  ,
ये अहसास दिलों से, जो काफूर नही होते ।

... विवेक दुबे"निश्चल"@..
डायरी 6(137)

बुधवार, 1 मई 2019

मूक्तक 728/737

 728
गिरा चश्म अश्क़,  हेफ बेमतलब ।
 सिमटी निग़ाह में, सिसकियाँ कही ।
.... ..हैफ़ / अफसोस
.....
729
कहता रहा कुछ सहता रहा ।
वक़्त के तूफ़ां में बहता रहा ।
ठहरा न अश्क़ एक पल को,
आब चश्म सा जो रहता रहा ।
.... ....
730
घटता है जो वो घट जाने दो ।
ज़ीवन ज़ीवन से कट जाने दो ।
हो जायेगा दृष्ट स्पष्ट सभी ,
घुँध जरा सी तुम हट जाने दो ।
.......
731
कैसे समझूँ"निश्चल" बात जरा सी ।
बहती सागर तक सरिता प्यासी ।
छोड़ चली निशि अपने तम को ,
भोर मिले अरुणिमा की साथी ।
.... 
732
 है सब कुछ खेल नसीबों में ।
उलझे फिर भी तरकीबों में ।
सिमट रहे है अब रिश्ते नाते ,
राजा सब मन की जागीरों में।
......
733
राह जिंदगी में इतने ख़म रहे ।
हवा जिधर उधर न हम रहे ।
खिला कर ख़्याल-ऐ-खुशियाँ,
साथ साथ चलते ही गम रहे ।
.... ...
734
क्या खूब तमाशा  , बा-खूब तमाशा है।
पल पल बढ़कर जीवन,घटता जाता है।
ख़बर नही पल को , अगले ही पल की ,
हरी-भरी फिर भी ,  कल की आशा है।
      ........
735
बदलते रहे दर-ओ-दीवार भी ।
टूटते रहे कुछ इख़्तियार भी ।
 एक चाहत-ए-गुल की ख़ातिर ,
करते ही रहे कुछ इक़रार भी ।
.... ....
736
बदले जा रहे है, दर-ओ-दीवार अब तो ।
टूटते आ रहे है, कुछ इख़्तियार अब तो ।
एक चाहत-ऐ-चमन-ओ-अमन की ख़ातिर ,
करते ही जा रहे है, गुल इक़रार अब तो ।
.... ....
737
वक़्त ही वक़्त को ,हालात से ठेलता है ।
आज ये कौन,आँख मिचौली खेलता है ।
बहा आब क़तरा ,दरिया से समंदर तक ,
ठोकरे यह ज़िस्म, तन्हा तन्हा झेलता है ।

      .... विवेक दुबे"निश्चल"@.....
डायरी 3

मुक्तक 722 /727

722
वो हादसे हालात के ।
न-मुक़म्मिल ख्यालात के ।
शबनम को तरसी चाँदनी ,
ज़िस्म अधूरे रात के ।
.....
723
ज़ज्बात मचल जाने दो ।
शबनम पिघल जाने दो ।
एक ख़्वाब की ख़ातिर,
रात को सम्हल जाने दो ।
......
724
मचलते है ज़ज्बात, मचल जाने दो ।
पिघलती है शबनम, पिघल जाने दो ।
फिर एक हसीन ख़्वाब की ख़ातिर ,
ढ़लती सी रात को , सम्हल जाने दो ।
......
725
ये जिंदगी हसीन है ।
तजुर्बा ही जहीन है ।
 हक़ीक़त-ऐ-आसमां पे ,
 ख़्वाब की जमीन है ।
......
726
ये जिंदगी हसीन है ।
तजुर्बा ही जहीन है ।
 ख़्वाब के आसमां पे ,
 हक़ीक़त-ऐ-जमीन है ।
....
727
  मैं दर्द बयां कैसे कर दूँ ।
  दिल दर्द ज़ुदा कैसे कर दूँ  ।
  है ये संग मेरे अपने ही ,
  मैं उन्हें बुत कैसे कर दूँ ।

....विवेक दुबे"निश्चल"@..
डायरी 3

मुक्तक 716/721

716
हारूँ इतनी तो मेरी सदा नही ।
ठहरा कुछ पल पर थका नही ।
चलता हूँ पथ पे सतत निरन्तर ,
 पर मंजिल से कोई ख़ता नही ।
  ... 
717
रहा बिफल कहाँ ।
 मिला सुफल कहाँ ।
 कर्म बने आभूषण ,
  मैं सतत चला जहाँ ।
......
718
एक सपना भोर सा ,
नही कोई और सा ।
अंनत अंतर् मन में ,
विस्तृत सृष्टि छोर सा ।
.....
719
किसे क्या मिला ।
मुझे क्या मिला ।
वक़्त की छांव में ,
वक़्त से क्या गिला ।
... ..
720
पाषाण हृदय, रजः सम तन ।
रिक्त सम्बेदना,अहंकार मन ।
अहमं तले चलता चिंतन ,
भटके कस्तूरी मृग वन वन ।
......
721
पता नही क्या लिखता सा ।
निग़ाह तले न टिकता सा ।
 दूर रही ख़ामोश निगाहें ,
द्रवित अन्तर्मन मिटता सा ।
... विवेक दुबे"निश्चल"@...
डायरी 3

मुक्तक 716/721

716
हारूँ इतनी तो मेरी सदा नही ।
ठहरा कुछ पल पर थका नही ।
चलता हूँ पथ पे सतत निरन्तर ,
 पर मंजिल से कोई ख़ता नही ।
  ... 
717
रहा बिफल कहाँ ।
 मिला सुफल कहाँ ।
 कर्म बने आभूषण ,
  मैं सतत चला जहाँ ।
......
718
एक सपना भोर सा ,
नही कोई और सा ।
अंनत अंतर् मन में ,
विस्तृत सृष्टि छोर सा ।
.....
719
किसे क्या मिला ।
मुझे क्या मिला ।
वक़्त की छांव में ,
वक़्त से क्या गिला ।
... ..
720
पाषाण हृदय, रजः सम तन ।
रिक्त सम्बेदना,अहंकार मन ।
अहमं तले चलता चिंतन ,
भटके कस्तूरी मृग वन वन ।
......
721
पता नही क्या लिखता सा ।
निग़ाह तले न टिकता सा ।
 दूर रही ख़ामोश निगाहें ,
द्रवित अन्तर्मन मिटता सा ।
... विवेक दुबे"निश्चल"@...
डायरी 3

मुक्तक 711/715

711
एक यही भाग्य का टोटा है ।
शब्दों ने शब्दों को रोका है ।
लिखता मन हर धड़कन को ।
अश्कों को पलकों ने सोखा है ।
.....विवेक दुबे"निश्चल"@....
712
कलम चली दीवानो सी ।
मोहताज रही पहचानों की ।
 पीछे पीछे छोड़ चली ,
 छाँया अपने निशानों की ।
... विवेक दुबे"निश्चल"@..
713
मुस्कुराने की भी एक बजा चाहिए ।
नज़्र-ओ-निग़ाह की अदा चाहिए ।
कैसे रहे कायम बात पर अपनी ,
हर अंदाज़ की एक फ़िज़ा चाहिए ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@...
714
फिर नए प्रश्न से , होती यारी ।
फिर नए जश्न की,  है तैयारी ।
राह गढ़ी मंज़िल ने, जाने कैसी ,
भटक रही यहाँ वहाँ, ख़ुद्दारी ।

.....विवेक दुबे"निश्चल"@...
715
झूँठ चला  पनघट की और ।
लेकर वादों की सतरंगी डोर ।
धर मन भावन गाघर सिर पर ,
फिर जा पहुंचा पनघट की छोर ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@...

डायरी 3

कलम चलती है शब्द जागते हैं।

सम्मान पत्र

  मान मिला सम्मान मिला।  अपनो में स्थान मिला ।  खिली कलम कमल सी,  शब्दों को स्वाभिमान मिला। मेरी यूँ आदतें आदत बनती गई ।  शब्द जागते...