दरमियाँ ज़मीं आसमाँ कुछ न होता ।
न बैचेन धरती न आसमाँ ही रोता ।
न दूर क्षितिज मिलन गुमां होता ।
लिपट जमीं के दामन चैन से सोता ।
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अपनी खुशी कहाँ से लाऊँ ।
कदम कदम ठोकर खाऊँ ।
अपनो की दुनियाँ में ही ,
गैरो सा मैं नजर आऊँ ।
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खुद को पुकारा खुद ने ।
खुद को चाहा यूँ खुद ने ।
भुला अदावतें दुनियाँ की ,
खुद को भुलाया खुद ने ।
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मेरी ख़ातिर खुदा से टकराया वो ।
इस तरह नाख़ुदा मुझे बनाया वो ।
पुकारता हूँ उसे हर साँस साँस ।
धड़कता अहसास साँस साँस वो।
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कुछ हम यूँ उनके हवाले रहे ।
निग़ाह नुक़्स निकाले न गए ।
दुआओं के असर उस नज़्र में ,
इल्म ताबीज़ गले डाले न गए ।
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लफ्ज़ वो दुआ सा क्यों लगता है ।
मुझे वो ख़ुदा सा क्यों लगता हैं ।
आता जो गुजरकर दूर से पास मेरे ,
लफ्ज़ वो ठहरा सा क्यों लगता है ।
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खुशी न मिली, रंज के बाजार में ।
लूटते हैं हम , यूँ ही बेकार में ।
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न सजाओ ख़्वाब वफाओ के ।
ख़्वाब मुसाफ़िर नही सुबह के ।
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शिकायत शराफत बनी अब तो ।
अदावत इनायत बनी अब तो ।
मिलते नही मुकाम रास्तो के ,
रास्ते ही मंज़िल बनी अब तो ।
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यह रात संवर जाएगी ।
वफ़ा फिर बिखर जाएगी।
चाँद ढलेगा सुबह तले ,
तमन्ना मन ममोश जाएगी ।
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हवा राख में उड़ा देगी ।
नमी ख़ाक में मिला देगी ।
हो जाएंगे रुख़सत जिस दिन,
दुनियाँ पल में भुला देगी ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@..