गुरुवार, 5 अप्रैल 2018

गंगा

पतित पावनी निर्मल गंगा ।
मोक्ष दायनी उज्वल गंगा ।
उतर स्वर्ग आई धरा पर ,
शिव शीश धारणी माँ गंगा ।

जैसी तब बहती थी गंगा ।
रही नही अब वैसी गंगा ।
हिमगिरि से गंगा सागर तक ,
कल कल बहती माँ गंगा ।

सिकुड़ रही अब माँ गंगा ।
हो रही क्रुद्ध अब माँ गंगा।
और न कर प्रदूषित मुझे ,
बार बार चेताती माँ गंगा ।

छोड़ती वापस गन्दगी धरा पर ।
रौद्र रूप दिखती माँ गंगा ।
हो जाती प्रलयकारी सी ,
कहती रहने दो मुझे माँ गंगा ।
….. विवेक दुबे "निश्चल"©…..

नवधा भक्ति

  भक्ति के नौ प्रकार,
  कहें शास्त्र स-उपकार।
    श्रवण,कीर्तन,स्मरण,
               पाद सेवन,वंदन,
                    दास्य,साख्य,आत्मनिवेदन।
 सब नवधा भक्ति प्रकार ।

 1 श्रवण कर श्रद्धा सहित,
    अतृप्त निरन्तर मन भाव।

      2  
         कीर्तन कर मन मग्न भाव से,
          कर हरि लीला का गुण गान ।

  3 
    स्मरण कर हर पल प्रभु का,
    कर उसकी शक्ति महात्म्य विचार।

            4 
               आश्रय ले प्रभु चरणों मे,
               पाद सेवन सर्वस्य मान।

 5
      अर्चन कर मन वचन कर्म से,
      पवित्र भाव से प्रभु चरण पखार।

          6 
             वंदन सदा कर तू परमेश्वर का,
             कण कण प्रभु छवि निहार ।

7
    दास्य रहो सदा परमेश्वर के ,
   कृतार्थ भाव से मानो उपकार।

  8
     साख्य भाव से साझा समझ के,
    पाप पुण्य समर्पित निवेदित पुकार।

 9 
   आत्मनिवेदित मन से प्रभु चरणों मे,
    मिल परम् सत्ता से कर एकाकार।

           पा जाएगा तब तू हरि दर्शन,
          जन्म हुआ सार्थक साकार ।

    .....  विवेक दुबे"निश्चल"©....

बुधवार, 4 अप्रैल 2018

वहम

वहम सा पाला मुझको ।
 निगाहों में ढाला मुझको ।
 अपनों की महफ़िल में ,
 गैर बता डाला मुझको ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@...


मुक्तक 2

तस्वीर भी       बोलती होती ।
 सीरत भी       खोलती होती ।
 न छुपते राज-ऐ-दिल कोई ,
 हर राज तस्वीर खोलती होती ।
.....
बात एक यही चुभती रही ।
निग़ाह एक वो झुकती रही ।
 तपिश न थी शबनम में कोई ,
 पर रात भर वो घुलती रही ।
.... 

मामला न था जीत का न हार का ।
 सवाल था बस एक इक़रार का ।
 रखे ज़वाब सारे सामने मैंने उसके ,
सवाल रहा फिर भी इख़्तियार का ।
.....

बार बार आजमाया उसने ।
 ख़ुदा नजर आया जिसमे ।
 बस रंज रहा इस बात का  ,
  नजरों से न गिराया उसने ।
   ... 
झाँकता रहा आईने में अपने ।
 बुनता रहा सुनहरे से सपने ।
 सजते आँख में मोती कुछ ,
 ढलक ज़मीं टूटते से सपने ।
 ...

लफ्ज़ वो दुआ सा क्यों लगता है ।
   मुझे वो ख़ुदा सा क्यों लगता हैं ।
    आता जो गुजर दूर से पास मेरे ,
  लफ्ज़ वो ठहरा सा क्यों लगता है ।
....

चलते जाना तू चलते जाना ।
पतझड़ में भी फूल खिलाना ।
 राह कठिन इस ज़ीवन वन की,
 ज़ीवन वन गुम हो न जाना ।
  ... 

शिकायत शराफत बनी अब तो ।
 अदावत इनायत बनी अब तो ।
 मिलते नही मुकाम रास्तो के ,
 रास्ते ही मंज़िल बनी अब तो ।
    ..
चलते जाना तू चलते जाना ।
पतझड़ में भी फूल खिलाना ।
 राह कठिन इस जीवन वन की,
 ज़ीवन वन गुम हो न जाना ।
  ... 
वक़्त ...
तू मुझसे,कब तक जीतेगा ।
 एक दिन तो ,तू भी रीतेगा ।
 समा काल के,गरल गाल में ,
 एक दिन तो ,तू भी बीतेगा ।
 ... 

  सफ़र-ऐ-तलाश हम ही ।
  सफर-ऐ-मुक़ाम हम ही ।
 रख निगाहों को आईने में,
  ख़्वाब-ऐ-ख़्याल हम ही ।
.... 
कुछ तो है जिस की पर्दा दारी है ।
 सबकी अपनी एक लाचारी है ।
 फांसले हैं फ़क़त दिलो में अपने ,
  यूँ तो दुनियाँ से अपनी यारी है ।
... 


  मोल न रहा मेरा कुछ इस तरह ।
 बेमोल कहा उसने कुछ जिस तरह ।
.
         ....विवेक दुबे"निश्चल"@..

मुक्तक


दरमियाँ ज़मीं आसमाँ कुछ न होता ।
न बैचेन धरती न आसमाँ ही रोता ।
 न  दूर क्षितिज मिलन गुमां होता ।
 लिपट जमीं के दामन चैन से सोता ।
...
 अपनी खुशी कहाँ से लाऊँ ।
  कदम कदम ठोकर खाऊँ ।
   अपनो की दुनियाँ में ही ,
    गैरो सा मैं  नजर आऊँ ।
 ...
खुद को पुकारा खुद ने ।
 खुद को चाहा यूँ खुद ने ।
 भुला अदावतें दुनियाँ की ,
 खुद को भुलाया खुद ने ।
.....
मेरी ख़ातिर खुदा से टकराया वो ।
 इस तरह नाख़ुदा मुझे बनाया वो ।
पुकारता हूँ उसे हर साँस साँस ।
 धड़कता अहसास साँस साँस वो।
....
कुछ हम यूँ उनके हवाले रहे ।
निग़ाह नुक़्स निकाले न गए ।
 दुआओं के असर उस नज़्र में ,
 इल्म ताबीज़ गले डाले न गए ।
 ...
  लफ्ज़ वो दुआ सा क्यों लगता है ।
  मुझे वो ख़ुदा सा क्यों लगता हैं ।
  आता जो गुजरकर दूर से पास मेरे ,
  लफ्ज़ वो ठहरा सा क्यों लगता है ।
....
खुशी न मिली, रंज के बाजार में ।
 लूटते हैं हम ,   यूँ ही बेकार में ।
....
 न सजाओ ख़्वाब वफाओ के ।
 ख़्वाब मुसाफ़िर नही सुबह के ।
 ...
शिकायत शराफत बनी अब तो ।
 अदावत इनायत बनी अब तो ।
 मिलते नही मुकाम रास्तो के ,
 रास्ते ही मंज़िल बनी अब तो ।
....
 यह रात संवर जाएगी ।
 वफ़ा फिर बिखर जाएगी।
 चाँद ढलेगा सुबह तले ,
 तमन्ना मन ममोश जाएगी ।
....
हवा राख में उड़ा देगी ।
 नमी ख़ाक में मिला देगी ।
 हो जाएंगे रुख़सत जिस दिन,
 दुनियाँ पल में भुला देगी ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@..

कयामत लाते

 कयामत लाते अल्फ़ाज़ से ।
 जुल्म इनायत के ऐतवार से ।

  रूठकर बैठा नाख़ुदा ,
   कश्ती की पतवार से ।

  साहिल भी बुत हुआ ,
   मौजों के इंकार से ।

  वो चाहत थी कैसी ,
  उसके इक़रार से ।

   चलता रहा सफ़र ,
   होंसला इख़्तियार से।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@
..

"निश्चल" जलधि मचल रहा था

साया मचल रहा था ।
ज़िस्म पिघल रहा था ।

        शबनम की चाह में ,
         चाँद जल रहा था ।

  टूटा सितारा आसमाँ से ,
  ज़मीं को मचल रहा था । 

          वो हालात थे जाने कैसे ,
         वक़्त वक़्त को छल रहा था ।

  परछाइयाँ भी अब तो ,
   सूरज निगल रहा था ।

             वो रात थी घनेरी , 
             साया भी गुल रहा था ।
             
    समंदर था साहिल की चाह में ,
   "निश्चल" जलधि बदल रहा था ।

 .... विवेक दुबे"निश्चल"@....
      रायसेन (म. प्र.)

तमस के गलियारे

भाव खो गए भाबों में।
 वादे भूले सब यादों में ।
            हर रिश्ता तो     अब ,
            बिकता है बाज़ारों में। 

 चकाचोंध की इस दुनियाँ में ।
 होता है सब कुछ अँधियारों में ।
          सूरज भी अब तो अक़्सर, 
         सोता है तमस के गलियारों में ।

               .... विवेक दुबे"निश्चल"@ ...

कुछ बातें

 कुछ बातें बंद लिफाफों में।
 कुछ अनसुलझे वादों में।
            उलट पलट कर देखा मैंने ,
            तारों सँग अंधियारी रातों में।
 ..... 
 भाव खो गए भाबों में।
 वादे भूले सब यादों में ।
             हर रिश्ता तो     अब ,
              बिकता है बाज़ारों में। 

     चकाचोंध की इस दुनियाँ में ।
    होता सब कुछ अँधियारों में ।
           सूरज भी अब तो अक़्सर, 
          सोता है तम के गलियारों में ।

...विवेक दुबे "निश्चल"©...

नाम कमाती बेटियां

दुनियाँ में, नाम भी,कमातीं बेटीयाँ ।
बेटों से,. आंगे भी , जातीं बेटियाँ ।
करतीं हैं, तन भी , मन भी अर्पण ,
बेटा जनने में, जान लगातीं बेटियाँ ।

फिर भी …..

क्यों सिसकतीं हैं ,
 बेटियाँ आज भी,
  गर्भ के अंधकारों में ?

          क्यों नहीं मिलती ,
          जगह आज भी ,
           कोख के दुलारों में ?

क्यों मारी जातीं ,
कोख़ में आज भी,
तीखे औजारों से ?

             क्यों मिलतीं हैं ,
           सिसकियाँ आज भी ,
           माँ की आवाजों में ?

.. विवेक दुबे “निश्चल”@…

बेटी

 यक्ष प्रश्न खड़ा है , यह एक आज भी ।
 लगती क्यों बेटी , भार सी आज भी ।
 प्यासी है क्यों बेटी , ममता दुलार की ,
 देखी जाती क्यों,प्रतिकार सी आज भी ।

 चुभती शूल बेटी को , क्यों आज भी ,
 अपनो से ही , बार बार तृसकार की ।
  मारी जाती है बार बार , जो कोख़ में ,
 जो रचती हैं , चेतना इस संसार की ।
 ..... विवेक दुबे"निश्छल"@....


मंगलवार, 3 अप्रैल 2018

हालात से हयात जूझती

हालात से हयात जूझती ।
 वक़्त से सवाल पूछती ।

            चली आज तक जिस सफ़र  ,
            उस सफ़र का हिसाब पूछती ।

  रहेंगे यह हालत कब तलक,
 उन हालात की मियाद पूछती ।

           ख़ामोश रही जुबां उम्र सारी ,
           उस खामोशी के राज पूछती ।

 साँझ किनारे मुक़ाम  नही ,
 सुबह अपना अंजाम पूछती ।

      .... विवेक दुबे"निश्चल"@...

उसने जो देखा

  
 उसने जो देखा निग़ाह से ।
 सब छिन गया जुबां से ।
  
            ख़ामोश हुए अल्फ़ाज़ भी ,
            होकर ख़ामोश निग़ाह के । 

  बे-लफ्ज़ हुआ रिंद भी ,
 आकर उस मयकदा से ।

             न थी नज़्र मय फिर भी ,
             मदहोश हुआ निग़ाह से ।

  
खेलकर जज़्बात से भी ,
 इख़्तियार थे वो वफ़ा से ।

              उसने जो देखा निग़ाह से ।
              सब छिन गया जुबां से ।

   .... विवेक दुबे"निश्चल"@....
  
  

   

वो अनबोली बोली

  वो अनबोली बोली थी 
   वो नयनों की बोली थी ।

          श्यामल सांझ घटा जो ,
          सँग गगन के डोली थी । 

  लरज रही शान्त पवन से ,
   अधरों को न खोली थी ।

         कोमल प्रीत मिलन की ,
        कूक हृदय तन डोली थी ।

  निहार रही तप्त धरा ,
  अँखियाँ बदली ने न खोली थी ।

         गिरतीं कुछ नेह बूंद धरा पर,
         धरती की फैली झोली थी ।

वो अनबोली बोली थी ।

..... विवेक दुबे"निश्चल"@..

बिन चहरों के

   बिन चेहरों के कभी  ,
   पहचान नही होती ।

          यह सरल बहुत जिंदगी  ,
          पर आसान नही होती ।

    रवि बादल में छुपने से ,
    कभी साँझ नही होती ।

           छूकर शिखर हिमालय का ,
          तृष्णा कभी तमाम नही होती ।

     पाता है मंजिल बस वो ही ,
    राहों से पहचान नही होती ।

          चलता है मंजिल की खातिर ,
           निग़ाह मगर आम नही होती ।

        बिन चेहरों के ...

        .. विवेक दुबे"निश्चल"@..

तिनका तिनका

 तिनका तिनका सा बिखरता है ।
 झोंका हवा पास से गुजरता है ।

   सहता कौन सच के प्रहार को ,
   सच आज नश्तर सा चुभता है ।

  गुजार  कर लहरों से कश्ती ,
  मौजों की चोट नाख़ुदा समझता है ।

.......विवेक दुबे"निश्चल"@....
.

मासूमियत

मासूमियत खोजता यहां वहां 
 वो खो गई आज जाने कहाँ ।

                ढोये बोझ किताबों के ।
                लाले पड़े रोजगारों के ।

 मासूम मगर बहुत है आज भी ।
 भागता  रोटी के पीछे आज भी ।

              रोता नही है आज बस अब ।
              अश्क़ पी भूख मिटाता है अब ।

 अबोध नही रहा वक़्त के साथ आज ।
 पढ़ा लिखा नोजवान है वो अब आज ।

          ....विवेक दुबे"निश्चल"@....

ठीक नही अब कुछ

     ठीक नही अब सब कुछ।
       बिगड़ चला अब कुछ कुछ ।
        जीतता ही रहा लड़कर जो,
        थक हार चला अब कुछ कुछ ।
....
      आये थे जहाँ सुबह ,
       साँझ वहाँ से लौटना ।
       सफ़र न था उम्र भर का ,
       तू न यह जरा सोचना ।
  ....


  ....विवेक दुबे "निश्चल"@..

सत्ता आई

सत्ता पाई ।
 इच्छा आई ।
 मद छाया ।
 होश गवाया ।

 जान बै चेन ।
 उन्हें चैन ।
  रातें काली ।
 दिन काले ।

 भूखे पेट ।
 सूखे खेत ।
 बातों की पंगत ।
 बस खाओ भगत ।

 निकालो न खोट ।
 दो गुपचुप वोट ।
 हम हैं मदहोश ।
 फिर भी होश ।

नही ,   हैं बेहाल ,
 आज के , हाल ।
 देखो आज इनके ,
 आंकड़ों का कमाल ।

  .... विवेक दुबे"निश्चल"@..

  

रोशम उजाले न हुए

मेरी तीरगी-ऐ-रोशन उजाले न हुए ।
 सम्हले हुए हालात सम्हाले न हुए ।

 छोड़ गए वो दामन लम्हा लम्हा ,
 वो अश्क़ आँख के निवाले न हुए ।

  ख़ामोश है अब आज लव ये भी ,
 तबस्सुम के जिनको सहारे न हुए ।

 रहा न रंज भी पास अब कोई ,
 जो ग़म के हम हवाले न हुए ।

  छुपता नही रोशनी की ख़ातिर ,
  यह अँधेरे ही मेरे पुराने न हए ।

  गुमां न था मुझे ऐतवार पर मेरे ,
  हालात मगर  मेरे दीवाने न हुए ।

 सम्हले हुए हालात सम्हाले न हुए ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@...

सफल न हो सका

 सफ़ल न हो सका मैं हालात से ।
 लिपटा रहा विफ़लता के दाग से ।

  जीत न सका जंग अल्फ़ाज़ की ,
  हारता ही रहा मैं अपनी जात से ।

 दिखाते जो आईना मुझे अक़्सर ,
 दूर हैं क्यों निग़ाह-ऐ-ऐतवार से ।
  
 छुपा कर रंजिशें दिल में अपने ,
 मिलते रहे वो बड़े आदाब से ।

  रंज न कर कोई तू ऐ "निश्चल" ,
   हारते अपने अपनों के वार से ।

 .... विवेक दुबे"निश्चल"@...

न रहा कोई शक़

शुबह रही न रहा कोई शक ।
भींगा जिससे था लफ्ज़ लफ्ज़ ।

 क़तरे न थे वो शबनम के , 
 अंजान था जिनसे हर शख़्स ।

  लिखता रहा ज़ज्बात वो अपने ,
 डुबा कलम अपने अश्क़ अश्क़ ।

 .... विवेक दुबे"निश्चल"@..

बंजारों सी यादें

धडकनों को कसकातीं यदों।
 यह बंजारों सी मेरी यादें ।

 रात  साथ ख़्वाबों के ,
 सुबह बिसर जाती यादें ।

 रात तले फिर आतीं यादें ,
 मेरी यादों से टकरातीं यादें ।

 आतीं फिर आ जातीं यादें ,
 आकर फिर जातीं आतीं यादें ।

 यह बंजारों सी मेरी यादें ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@..
.

यह नजरिये की बात है

   यह नजरिये की बात है ।
    सुबह आती रात बाद है ।

    खोजते चाँदनी सितारों में ,
    चाँद होता क्यूँ दाग़दार है ।
     ..
  रोशन रहे उजाले  सभी के लिए ,
  अंधेरों का कोई क्यूँ राजदार है ।

  चली थी हवा घटाओं के लिए ।
 चरागों को बुझाने में नहीं हाथ है ।

  छूटा साहिल मौजों की चाह में ,
  डुबाने में साहिल नहीं साथ है ।

   न जा दूर मौजों में दरिया की,
   समंदर भी अब यहीं पास है ।

  रहा बे-निग़ाह निग़ाह में रहकर ,
  "निश्चल'' जमाने का यही राज है ।

   ... विवेक दुबे"निश्चल"@...

झुक गया


झुक गया , ईमान से खुदा ।
 बस दिल में ,ईमान तो मिला ।
  
   लफ्ज़ उगलता है बुत भी ,
  बस दिल से, निग़ाह तो मिला । 

    चलता है संग साथ भी ,
    बस दिल से , राह तो बना ।

   देगा राह दरिया भी ,
   बस दिल से ,साहिल तो जा ।

 बुझाते हैं प्यास अश्क भी,
 बस दिल से , नज़्म तो गा ।

   मिलता है मुक़ाम सभी को ,
  बस दिल से,"निश्चल" चलता जा ।

..... विवेक दुबे"निश्चल"@.....
  

जय राम

...जय सिया राम ...

हे अंजनी सुत महावीर बलशाली ।
तुम्हरी महिमा न जाए बखानी।
 राम नाम नित सुमिरण जो कीजे ,
 तुम्हरी कृपा ता पर जाए न टारी।
..

राम नाम के जाप से बजरंगी होय प्रसन्न ।
 तुलसी रट लगाई राम की हनुमत आए तुरन्त ।
  ....विवेक दुबे "निश्चल"@...
.

आता नही मुड़कर

ठहर गई वो क़लम ,
                    खूब कह कर ।
 ख़ामोश हुआ शीशा ,
                   ज्यों टूटकर कर ।
 लफ्ज़ आते नही पास,
                   जुस्तजू बन कर ।
 कहता है वक़्त गुजरा ,
                 याद मुझे क्यूँ कर ।
 चल आज के साथ ,
                 क्या करेगा मुझे जी कर । 
 गुजरना मेरी फ़ितरत है,
                आता नही मैं मुड़कर ।

      ..विवेक दुबे"निश्चल"@....

स्त्री

आई स्त्री हर युग मे,
 राह बताने को ।
 अपने को ,
 दांव लगाने को ।
 देश बचाने को ,
 समाज बचाने को ।
 हार गए जहाँ ,
 पुरूष सभी ।
 तैयार मिली तब,
 अबला सबला,
 बन जाने को ।
 आई स्त्री हर युग में,
राह बताने को ।
... विवेक दुबे "निश्चल"@....

तू ही निर्मल


तू ही निर्मल ,
                    तू ही पवन ,
  तू ही गंगाजल ,
                 ऐसा माता तेरा आँचल।

तेरा रक्त शिराओं से ,
                     अमृत वक्ष धार बहे।
    माता तेरे आँचल मे ही
                     नित्य कलाओं से चँद्र बड़े ।

 तेरे वक्षों से जो सुधा बहे,
            दुनियाँ उसको सौगन्ध कहे ।
 तेरे पावन स्नेह स्पर्श से,
                  त्रिदेव भी अभिभूत भए ।

 मेरी अँखियाँ तेरी अँखियाँ,
                 मेरी निंदिया तेरी निंदिया ।
  सुध-बुध खोती मेरी खातिर,
                        मेरे कष्टों से न दूर रहे ।

  जगत विधाता भी बस ,
                      माँ को ही सम्पूर्ण कहें ।
     ...... विवेक दुबे"निश्चल"@...........

दर्द माँ सहती है

जब भी दुनियाँ,
 मुझे सताती है ।
 माँ तू तब आज भी ,
 पास मेरे चली आती है ।

 आता है नजर पीठ पर ,
   हाथ तेरा मुझे  ,
   आज भी तू  ,
 यूँ होंसला बढ़ाती है ।

 डरता नही ज़माने से,
  तेरी आहट  ,
 कदम से कदम मिलाती है ।

 जीतता हूँ , हर जंग दुनियाँ से ,
 तेरे नाम की ,
 ताक़त मुझे जिताती है ।

 माँ आज भी,...
 ... विवेक दुबे "निश्चल"@...


जब भी दुनियाँ मुझे सताती है

जब भी दुनियाँ,
 मुझे सताती है ।
 माँ तू तब आज भी ,
 पास मेरे चली आती है ।

 आता है नजर पीठ पर ,
   हाथ तेरा मुझे  ,
   आज भी तू  ,
 यूँ होंसला बढ़ाती है ।

 डरता नही ज़माने से,
  तेरी आहट  ,
 कदम से कदम मिलाती है ।

 जीतता हूँ , हर जंग दुनियाँ से ,
 तेरे नाम की ,
 ताक़त मुझे जिताती है ।

 माँ आज भी,...
 ... विवेक दुबे "निश्चल"@...

दमकता पौरुष

काल के कपाल पे , मृत्यु के भाल पे ।
 जन्म के श्रृंगार से , जीव के दुलार से ।
 जीतता आप से , जीवन की ढाल से ।
 हारता न हार से , जीत के प्रतिकार से । 
 सृष्टि के स्वीकार से , अनन्त काल से ।
 जीवन चलता नित , नए रूप श्रृंगार से ।
 घटता बढ़ता प्रति दिन ,चँद्र सी चाल से ।
 दमकता पौरुष ,भानू सा जीवन भाल पे ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@...

रविवार, 1 अप्रैल 2018

कुछ पन्ने जीवन के

कुछ पन्ने जीवन के यहाँ हैं ।
 कुछ पन्ने ज़ीवन के वहाँ हैं ।
 लिख गया वो हर पल को,
 जीवन जाने कहाँ कहाँ है ।
          अब वो जर जर ज़रा है ।
          पतझड़ से पत्ता झड़ा है ।
         यूँ धरा पर आन पड़ा है ।
         रौंदता जिसे सारा जहां है ।
 वो भी कभी एक मिसाल था ।
 वो वट वृक्ष घना विशाल था ।
 रूठती उसकी अब धरा है ।
 सूखता सा वो धरा खड़ा है ।
         जकड़े थीं जो जड़ें जिसे,
         छोड़ती हैं वो अब उसे ।
        घेरती ज़रा जरा जरा है ।
        वो धरा पर अब धरा है ।
  साथ कल था अभिमान के,
 आज अभिमान भी तजा है ।
  बेचैन है मिलने को राख में ,
  धरा पर पड़ी शुष्क ज़रा है ।
        ...विवेक दुबे"निश्चल"© ...

भोला बचपन

बन्द हुए आज किताबों में ।
आते भी नही अब ख़्वाबों में ।
भोले बचपन के वो छूटे नाते । 
 मिलते हैं अब बस यादों में ।

  भोर भए चिड़ियों सँग ,
  जेठ मास के उजियारों में,
  माघ मास के जाड़ो में ,
   बंद हुए लिहाफों में ।

 भोले बचपन की एक कहानी थी ।

 दीवानी सी परियों की रानी सी ।
 शादी रचती राजा और रानी सी ।
 भोले पन मन की वो अभिलाषा ।
 ज्ञात नही  शादी की  परिभाषा ।

 कितने वो भोले भाले पल ,
 रूठे खुश होते अगले पल ।
 गुड़िया की शादी होती थी ।
 गुड्डे से  ब्याही  होती थी  ।

आती वो खुद सज धज कर ,
जो गुड़िया अपनी लाई होती थी ।
मैं भी खूब अकड़ रहा होता ,
 क्योकि गुड्डा तो मेरा होता ।

 धूम धाम से फिर शादी होती।
 दुल्हन जैसी वो शरमाई होती ।
 मैं भी खूब अकड़ रहा होता ।
 गुड्डा जो हाथ पकड़ रहा होता ।

जाना अब खुद ब्याहे हम तब ,
 यह शादी आखिर क्या होती ।
 उस भोलेपन की डौली उठती ,
 नव जीवन की तैयारी होती ।

 छोड़ भोले पन के पीहर को ,
 गुड़िया गुड्डे सँग इस जीवन के,
 कपट महल में आ बस जाती ।
 अब न बो मुस्कुराते न इतराते ,
 "निश्चल"भाव से साथ निभाते ।

 उस भोले बचपन के ,
 छूटे नाते भोले पन से ।
 मिलते न वो नाते अब,
 दूल्हा रूठा दुल्हन से ।

 देखूँ दर्पण अब भी बनठन के ।
 जुड़ा हुआ हूँ यूँ बचपन से ।
  यह झुर्रियाँ नही उम्र की,
 यह अनबन भोले बचपन से ।

....विवेक दुबे"निश्चल"@.....




बृद्ध की व्यथा


 व्यथा उस अंतिम पड़ाव की ।
 चाह जिन्हें अपनो के चाह की। 
 कर हवन सारा यौवन तन,
 स्वप्न सलोनी हर बात की । 

  अभिलाषा बस संतानों की ,
  सुगम प्रगति की राहों की ।
  लगा दांव पर सब कुछ ,
  जीवन की नही परवाह की ।

 बीत गया तन आया चौथा पन,
 एक दृष्टि बची बस आस की ।
 बिसार दिया उस को अब, 
 भूले सब माया उस त्याग की ।

  शायद वो नियति थी इनके कल की ,
  एक यह नियति है इनके आज की ।
   चिंता है बस अब तो उनको ,
    उनके कल आते श्राद्ध की ।

  .....विवेक दुबे"निश्चल"@...

छोड़ चला था धीरे धीरे

उसको छोड़ चला था धीरे से वो    ।
 जिसके साथ न कोई बहाना था ।
 
 करे प्रायश्चित अनचाही भूलों का ,
 अब शूल उसे बस चढ़ जाना था ।

 रीता था वो अन्तर्मन से धीरे धीरे ,
  बाहर मन उसको  बिसराना था ।

 लगता पल भर में मिथ्या सब ,
 खोज सत्य उसे अब लाना था । 

 यक्ष प्रश्न बना खड़ा था जीवन ,
 हल स्वयं से जिसका पाना था ।

उसको छोड़ चला था धीरे से वो  ,
 जिसके साथ न कोई बहाना था ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@....
Blog post 1/4/18

अब तो आँख भी

 अब तो आँख आँख नीर बहाती है ।
 ग़म के बादल से छाई अँधियारी है ।

टूट रहीं है सीमा पर डोरे जीवन की ,
 दुश्मन की गोली चुपके से आ जाती है ।

 राख हुए सपने यौवन मन के ,
 डिग्री को दीमक खा जाती है ।

 अहं भाव के मकड़ जाल में ,
मंदिर मस्ज़िद उलझीं बेचारी हैं ।

 लिपट रहे अँधियारे उजियारों से ,
 अपनो की अपनो से सौदेदारी है ।

  गहन निशा हर दिन कुंठाओं की  ,
  दिनकर को भी ढँक जाती है ।

 राह नही सूझे कोई अब तो  ,
 राहें राहों में उलझी जाती हैं ।

 तारा भी न चमके भुंसारे का ,
 निशा गहन की ऐसी सरदारी है ।


 अब तो आँख आँख  ...

 ..... विवेक दुबे"निश्चल"@...

वक़्त चलता इंसान का

वक़्त चलता है इंसान का ।
 आता है कभी भगवान सा ।
 मंजिल चली आती चलकर,
 लगता जीवन आसान सा ।


 आता है कभी शैतान सा ।
 हर सहारा भी बे-काम सा ।
  छूटता सहारा बीच राह में ,
   गुम होता हर मुक़ाम सा ।

वक़्त चलता है इंसान का ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@...

जीवन का संग्राम

 भाव लिए अखण्ड डूबा कंठ कंठ ।
  गीत लिखे प्रीत के बिखरे खंड खंड। 

 नीर बहा श्याम सा नैनन अभिराम सा, 
 गीत की हर प्रीत के पूर्ण विराम सा ।

  जागा भाव कलम के विश्राम का ।
 अंत यही जीवन के हर संग्राम का ।

 जीवन के हर संग्राम का .....!!
  ... विवेक दुबे"निश्चल"@ ....

जीवन की गलियां

भटका चलते चलते ज़ीवन की गलियों में।
खोज रहा खुद को मैं मन की गलियों में।
 जटिल बड़ी भूल भुलैया इस ज़ीवन की ,
 कैसे गुजरुँ जीवन की उलझी गलियों में।

 प्रश्न यही एक आता हर चौराहे पर,
 कब तक गुजरुँ फिर इन गलियों में ।
 आता जाता फिर मुड़ मुड़ जाता ,
 आंत हीन जीवन की गलियों में।
     भटका चलते चलते...

..."विवेक दुबे"निश्चल"@..

कलम चलती है शब्द जागते हैं।

सम्मान पत्र

  मान मिला सम्मान मिला।  अपनो में स्थान मिला ।  खिली कलम कमल सी,  शब्दों को स्वाभिमान मिला। मेरी यूँ आदतें आदत बनती गई ।  शब्द जागते...