शुक्रवार, 30 अक्तूबर 2015

मानव की परिभाषा



मानब की परिभाषा में
  मैंने एक दिन
 खुद को रख कर देखा
 हो गया पानी पानी
 जेसे ही खुद को दिल से
  मानब कहकर देखा
  क्या आये थे करने
 क्या कर बेठे
 अपने बन
 अपनों को ही
 छल बेठे
 यही सोचता मैं
 कौन हूँ मैं
 कहा से आया
  क्यों आया
 मानब हो कर
 मानब न बन पाया
     ....विवेक...

आहट एक और गुलामी की


एक गुलामी की फिर आहट
रहीं नही किसी को आज़ादी की चाहत
ईमान जहा बिकते हों
महंगे सामान इंसान जहा सस्ते हों
हर मजहब के भगबान जहा बिकते हों
मुर्दों की सी बस्ती में
आज़ादी की सजती हर दिन अर्थी हो
केसी आशा क्या अभिलाषा
छाई चारों और निराशा  
 ......विवेक.....


देखो गांधी


देखो कितना बदल गये अब हम गांधी ,
जो थे आदर्श तेरे प्रण प्राण गांधी ।
 कुचल रहे उन्हें हम सरेआम गांधी ,
था पिरोया एक माला में सबको गांधी ।
आज हो रहे अपनों के अपनों से संग्राम गांधी ,
 यूँ तो हो राष्ट्र पिता तुम गांधी ।
आते बस दो दिन तुम याद गांधी ,
जिन नोटों पर तुम स्थान पाये गांधी ।
 बही नोट आज हुए बदनाम गांधी ,
शकुनि की चलें फिर चल रहीं गांधी ।
दाव लग रही द्रोपती हर बार गांधी ,
 मचा महाभारत सा फिर संग्राम गांधी ।
 एक बार तुम फिर आ जाओ गांधी ,
  अपने सपनों को साकार बना जाओ गांधी ।
   
   ( बापू के जन्म दिवस कुछ सोचे सब मिल जुल कर )
              ....विवेक....

गुरुवार, 29 अक्तूबर 2015

नहीं जाना मुझे उन ऊंचाइयों पर


नहीं जाना मुझे
              उन ऊंचाइयों पर
 नहीं छूना मुझे
                   वो आकाश
 रहूँ इसी धरा
                    धरातल पर
चाहूँ हर पल
                 अपनों का साथ
 यही मेरा आकाश

          ....विवेक...

कलम चलती है शब्द जागते हैं।

सम्मान पत्र

  मान मिला सम्मान मिला।  अपनो में स्थान मिला ।  खिली कलम कमल सी,  शब्दों को स्वाभिमान मिला। मेरी यूँ आदतें आदत बनती गई ।  शब्द जागते...