गुरुवार, 23 मार्च 2017

जर जर काया उसकी

जर जर काया उसकी फिर भी ,
बहता रक्त शिराओं मे ।
दौड़ रहीं हैं साँसे ,
ज़रा ज़िन्दगी का जुड़ता नाता काया मे ।
चुप्पी साधे तकती कुछ न कुछ,
खोजा करतीं खामोश शून्य निगाहों मे ।
 क्या खोया है क्या पाया है,
 याद नही अब कुछ यादों मे ।
उसकी काया जर जर फिर भी ..
साध लिया मौन है अब ,साधक जैसे ,
बोल नही है अब होंठों में ।
 छोड़ रहीं हैं संग त्वचा ,
 जोश नही अब जोड़ों में ।
उसकी काया जर जर फिर भी ,...
क्या खोया क्या पाया
क्या लाया क्या ले जाएगा
 इसका कोई शोक नहीं।
बैठा है अबोध सरीखा
 खुद का भी अब बोध नहीं।
 सो जाएगा कब चिर निंद्रा मे ,
  उस पल का भी खेद नहीं।
हो जाएगा तब पूर्ण ब्रम्ह सा ,
शायद बस अब इंतज़ार यही ।
 उसकी काया जर जर फिर भी ,....
..... विवेक .....
मेरी पूज्य सासू माँ





वो


देता रहा शह बिसात पर
 खाता रहा वो मात पर
 होकर दूर उजालों से
 चमकता रहा वो आकाश पर
 ...... विवेक ...



भूख


भूख दौलत की बढ़ती ही गई भूख रोटी की घटती गई ।
 रोटी की फ़िक्र में जो दौलत कमाने निकला था कभी ।।
  ....... विवेक .....







अपने


बिन छायाँ के विश्राम नही होते ।
 बिन आशीषों के काम नही होते ।
 न हो हाथ पीठ पर अपनों का ,
 तो विजयी समर संग्राम नही होते ।
    ,...... विवेक ......

चुनावी होली


----- होली की शुभ कामनाएं चुनावी परिदृष्य मे ------
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खूब चढ़े थे रंग फ़ागुन के
 चुनावो के इस मौसम मे ।
था हर कोई वादों की भंग घोल रहा ।
 था हर कोई भर भर पेल रहा ।
कोई रंग डाले रंग विरंगे नारों के ।
कोई खेले तंज भरे गुब्बारों से ।
थी सबकी मस्ती अपनी अपनी ।
 अब कोई चूर हुआ विजय उन्मादों मे ।
कोई लस्त पड़ा थके हुए हुरियारों मे ।
कोई दो रंग एक संग घोल रहा ।
वोटर तेरा अब नही कोई मोल रहा ।
    ....... विवेक .....

नोट बन्दी


तुम तो कहते थे फंडिंग रुक जाएगी ।
 आतंक की सुइयाँ थम जाएँगी ।
 आतंक की जड़ अब कट जाएगी ।
 पर अब तो वो अंदर तक घुस आए है ।
पैसिंजर ट्रेन मे ब्लास्ट कराए है ।
 घर अंदर हथियारों के भण्डार लगाए है ।
हम तीन अंगुलियाँ मोड़ अपनी और एक तुम्हे दिखा ।
एक यही सवाल उठाए हैं यह कैसे अच्छे दिन आए हैं ।
     ........ *विवेक* ......


ढपली अपनी अपनी


परिंदे को परिंदे की पहचान है
 चहुँ और मच रहा घमासान है
 कतर रहे पर एक दूजे के
 बनती इससे ही इनकी शान है
  .
 बजाते सब ढपली अपनी अपनी
 न सुर है न कोई ताल है
  भूल रहे सभ्य सभ्यता सब अपनी
 फिर भी खुद को खुद पर नाज़ है
.
 कहते जीत रहे है बस हम ही
 गंजों को अपने नाखूनों पर नाज़ है
 जैसा मातृ भूमि का था कल
 बैस ही मातृ भूमि का आज है
  ......विवेक....

कलम चलती है शब्द जागते हैं।

सम्मान पत्र

  मान मिला सम्मान मिला।  अपनो में स्थान मिला ।  खिली कलम कमल सी,  शब्दों को स्वाभिमान मिला। मेरी यूँ आदतें आदत बनती गई ।  शब्द जागते...