कुछ खास नहीं कवि पिता की संतान हूँ । ..... निर्दलीय प्रकाशन भोपाल द्वारा बर्ष 2012 में "युवा सृजन धर्मिता अलंकरण" से अलंकृत। जन चेतना साहित्यिक सांस्कृतिक समिति पीलीभीत द्वारा 2017 श्रेष्ठ रचनाकार से सम्मानित कव्य रंगोली त्रैमासिक पत्रिका लखीमपुर खीरी द्वारा साहित्य भूषण सम्मान 2017 से सम्मानित "निश्चल" मन से निश्छल लिखते जाओ । ..... . (रचनाये मौलिक स्वरचित सर्वाधिकार सुरक्षित .)
बुधवार, 21 फ़रवरी 2018
रास्ते बिन मुक़ाम थे
वो रास्ते बिन मुक़ाम थे ।
जो खत बिन पैगाम थे ।
वो थे पास आज भी ,
जो लिफ़ाफ़े बिन नाम थे ।
जो सींचते थे गुलशन को ,
वो बागवां भी न-ईमान थे ।
कुछ टूटे हुए मकान से ,
उजड़े हुए अरमान थे ।
न थे टूटने के कोई निशां ,
बस कदमों के निशान थे ।
न था कोई वुजूद दुनियाँ में ,
"निश्चल" इतनी ही पहचान थे ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@...
मंगलवार, 20 फ़रवरी 2018
तकाजे उम्र के
कुछ तकाजे उम्र के ।
कुछ इरादे उम्र के ।
कुछ वादे ता-उम्र के ।
कुछ वे-वादे न-उम्र के ।
कुछ सफ़े अधूरे ,
किताब-ऐ-ज़िल्द के ।
जुड़े कुछ शेर गलत ,
काफ़िया-ऐ-ग़जल के ।
न हो रास्ता बदल ,
चला चल साथ चल ।
मुसाफ़िर हम सभी ,
एक ही मंज़िल के ।
.... विवेक दुबे "निश्चल"@....
कुछ इरादे उम्र के ।
कुछ वादे ता-उम्र के ।
कुछ वे-वादे न-उम्र के ।
कुछ सफ़े अधूरे ,
किताब-ऐ-ज़िल्द के ।
जुड़े कुछ शेर गलत ,
काफ़िया-ऐ-ग़जल के ।
न हो रास्ता बदल ,
चला चल साथ चल ।
मुसाफ़िर हम सभी ,
एक ही मंज़िल के ।
.... विवेक दुबे "निश्चल"@....
यादों की जंजीरे
यादों की जंजीरों से जकड़कर मुझे।
तुम भूल जाने का हक़ न दो मुझे ।
फैली है खुश्बू-ऐ-चमन दूर तक,
गुलशन का तसब्बुर न दो मुझे ।
आया हूँ झोंका हवा का बस यूँ ही,
खुशबू-ऐ-गुलशन नाम न दो मुझे ।
मुसाफ़िर हूँ गुजर जाऊँगा शहर से तेरे ,
अपने वाशिन्दों में यूँ जगह न दो मुझे ।
कहता है कैद परिंदा मुझसे ।
"निश्चल" छूने दो आसमाँ मुझे ।
..... विवेक दुबे"निश्चल"@....
समय बस मौन है
समय बस मौन है ।
समय तो द्रोण है ।
दिखाता समय पर,
साथ तेरे कौन है ।
देता परीक्षा एक लव्य भी,
पर प्रश्न अर्जुन सा कोन है ।
धरा था शीश धरा पर जिसने,
कर्ण पर परशु क्यों मौन हैं ।
एक चीख पर आए गिरधारी ,
कृष्णा सखा कृष्ण सा अब कौन है।
....विवेक दुबे"निश्चल"@....
समय तो द्रोण है ।
दिखाता समय पर,
साथ तेरे कौन है ।
देता परीक्षा एक लव्य भी,
पर प्रश्न अर्जुन सा कोन है ।
धरा था शीश धरा पर जिसने,
कर्ण पर परशु क्यों मौन हैं ।
एक चीख पर आए गिरधारी ,
कृष्णा सखा कृष्ण सा अब कौन है।
....विवेक दुबे"निश्चल"@....
चलता रहा बस यूँ ही
कहा कुछ नही कह गया बस यूँ ही ।
लिखा कुछ नही लिख गया बस यूँ ही ।
शायरी हो न सकी कभी फ़िक्र बन्दी में ,
हर शेर निकला दिल से बस यूँ ही ।
न चाहा था डूबना इस समंदर में कभी ,
मगर डूबकर उभर न सका बस यूँ ही ।
आईने तो टंगे है घर की हर दिवार पर मेरी ,
आईने से निग़ाह मिला न सका बस यूँ ही ।
गुमाँ बहुत था कामयाबियों पर मुझे मेरी,
नाकामयाबियों को झुठला न सका बस यूँ ही ।
चलता रहा ता-ज़िंदगी तलाश-ऐ-मंज़िल में ,
"निश्चल" मंज़िल न पा सका बस यूँ ही ।
..... विवेक दुबे"निश्चल"@...
बस यूँ ही
खुशियाँ तलाशने से मिल जातीं अगर ।
हो जाता पूरा तलाश का यह सफर ।
भटकते रहे शहर दर शहर यूँ ही ।
खटकते रहे निग़ाह दर निग़ाह यूँ ही ।
मिलते रहे वेबजह ग़म बस यूँ ही ।
तलाशते रहे हम खुशियाँ बस यूँ ही ।
..... विवेक दुबे"निश्चल"@ .........
हो जाता पूरा तलाश का यह सफर ।
भटकते रहे शहर दर शहर यूँ ही ।
खटकते रहे निग़ाह दर निग़ाह यूँ ही ।
मिलते रहे वेबजह ग़म बस यूँ ही ।
तलाशते रहे हम खुशियाँ बस यूँ ही ।
..... विवेक दुबे"निश्चल"@ .........
उर को आँगन
दावे बड़े बड़े, वास्तविकता कुछ और है ।
पर मेरा, एक यह भी तो, सच और है ।
लाऊँ कहाँ से वो मन ,
न हो जो मन बे-मन ।
सपनो के सौदागर सँग,
यह कैसी अनबन ।
रूखी रोटी रूखे तन ,
सन्नाटे से घिरता आँगन ।
ख़ामोश खड़ा दलहानो में ,
सूना चौका , रीते सारे बर्तन ।
पीकर अश्रु घूँट आशाओं के,
कैसे ठंडी हो ,यह उर की अगन ।
..... विवेक दुबे"निश्चल"@ ...
पर मेरा, एक यह भी तो, सच और है ।
लाऊँ कहाँ से वो मन ,
न हो जो मन बे-मन ।
सपनो के सौदागर सँग,
यह कैसी अनबन ।
रूखी रोटी रूखे तन ,
सन्नाटे से घिरता आँगन ।
ख़ामोश खड़ा दलहानो में ,
सूना चौका , रीते सारे बर्तन ।
पीकर अश्रु घूँट आशाओं के,
कैसे ठंडी हो ,यह उर की अगन ।
..... विवेक दुबे"निश्चल"@ ...
सोमवार, 19 फ़रवरी 2018
व्यथा अन्नदाता की
--- अन्नदाता किसान की व्यथा---
----------------------------------------
रोता हुआ धरती का टुकड़ा बंजर प्यासा खेत ।
नही कोई आशा कैसे भरूँ परिवार का पेट ।
चला परदेश भरने अपने परिवार का पेट ।
छोड़ किसानी मजदूरी करने की ठानी ।
लो उठ गय दाना पानी धरती हुई बेगानी ।
वो आ गया परदेश धर मजदूर का भेष ।
हाय री किस्मत नही सर छुपाने यहाँ छत ।
खड़ा सड़क किनारे आंसू बहते झर झर ।
देखे पीछे मुड कर बच्चे बोले बाबा कुछ तो कर ।
तभी माँ आगे आई मज़बूरी पति की न सह पाई ।
कुछ न सूझा उसको , उसने बेंचा खुद को तब ।
हुआ छत का इंतज़ाम , पेट में लिया अन्न ने बिश्राम ।
बच्चे सो गए खुश हो कर , बोले इतना बस ।
माँ बाबा हम क्या करते , गाँव में रहकर ।
...विवेक दुबे"निश्चल"@...
----------------------------------------
रोता हुआ धरती का टुकड़ा बंजर प्यासा खेत ।
नही कोई आशा कैसे भरूँ परिवार का पेट ।
चला परदेश भरने अपने परिवार का पेट ।
छोड़ किसानी मजदूरी करने की ठानी ।
लो उठ गय दाना पानी धरती हुई बेगानी ।
वो आ गया परदेश धर मजदूर का भेष ।
हाय री किस्मत नही सर छुपाने यहाँ छत ।
खड़ा सड़क किनारे आंसू बहते झर झर ।
देखे पीछे मुड कर बच्चे बोले बाबा कुछ तो कर ।
तभी माँ आगे आई मज़बूरी पति की न सह पाई ।
कुछ न सूझा उसको , उसने बेंचा खुद को तब ।
हुआ छत का इंतज़ाम , पेट में लिया अन्न ने बिश्राम ।
बच्चे सो गए खुश हो कर , बोले इतना बस ।
माँ बाबा हम क्या करते , गाँव में रहकर ।
...विवेक दुबे"निश्चल"@...
प्रश्न उनका हमसे
प्रश्न उनका हमसे ...
सपनों का भारत कैसा हो ?
एक प्रश्न हमारा उनसे ...
देख सकें स्वप्न यामनी संग,
बैसा आज सबेरा तो हो ।
वो बातें थीं बस बातों की ।
आजादी थी बस नारों सी ।
बसन्त की रातें भी अब ,
पोष की सर्द रातों सी ।
स्वार्थ की नीतियों तले ,
दब गई सारे परमार्थ सी।
खाते फूँक फूँक कर,
हम अब वासी भात सी।
फेंको तुम औद्योगिक कचरा ,
खूब नदी समन्दर में ।
कहते हो गणपति विसर्जन,
करना है घर अंदर में ।
फैलता है प्रदूषण कुछ ,
मूर्तियों के विसर्जन से ,
क्या अमृत घुला है ,
उद्योगों के उत्सर्जन में ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@..
सपनों का भारत कैसा हो ?
एक प्रश्न हमारा उनसे ...
देख सकें स्वप्न यामनी संग,
बैसा आज सबेरा तो हो ।
वो बातें थीं बस बातों की ।
आजादी थी बस नारों सी ।
बसन्त की रातें भी अब ,
पोष की सर्द रातों सी ।
स्वार्थ की नीतियों तले ,
दब गई सारे परमार्थ सी।
खाते फूँक फूँक कर,
हम अब वासी भात सी।
फेंको तुम औद्योगिक कचरा ,
खूब नदी समन्दर में ।
कहते हो गणपति विसर्जन,
करना है घर अंदर में ।
फैलता है प्रदूषण कुछ ,
मूर्तियों के विसर्जन से ,
क्या अमृत घुला है ,
उद्योगों के उत्सर्जन में ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@..
वादों की सौगात
करते थे जो अच्छे दिन की बात ।
दिखलाते थे जो दिन में भी ख़्वाब ।
बीते दिन गुजरी रात बस इंतज़ार ,
गप्पो के सरताज गप्पो के सरताज ।
परोस रहे वो सजा सजा कर थाल ,
मीठे वादों की मीठी केसरिया भात ।
सज रही सेज सी फिर वो टूटी खाट ,
वादों और नारों से फिर गूंजा आकाश ।
होतीं फिर बही आज , लंबी लंबी बात ,
बनाते कल सुन्हेरा,जो बना सके न आज ।
देखो भर भर थैला लाए वो सौगात ,
बाँट रहे है खुले दिलों से वो ज़ज़्वात ।
आने बाले है शायद फिर ,
अब एक और आम चुनाव ।
... विवेक दुबे "निश्चल"@...
दिखलाते थे जो दिन में भी ख़्वाब ।
बीते दिन गुजरी रात बस इंतज़ार ,
गप्पो के सरताज गप्पो के सरताज ।
परोस रहे वो सजा सजा कर थाल ,
मीठे वादों की मीठी केसरिया भात ।
सज रही सेज सी फिर वो टूटी खाट ,
वादों और नारों से फिर गूंजा आकाश ।
होतीं फिर बही आज , लंबी लंबी बात ,
बनाते कल सुन्हेरा,जो बना सके न आज ।
देखो भर भर थैला लाए वो सौगात ,
बाँट रहे है खुले दिलों से वो ज़ज़्वात ।
आने बाले है शायद फिर ,
अब एक और आम चुनाव ।
... विवेक दुबे "निश्चल"@...
पढ़ना लिखना छोड़ दिया मैंने
--पढ़ना लिखना छोड़ा मैंने---
___________________________
हाँ पढ़ना लिखना छोड़ दिया मैंने
पढ़ें लिखों को पीछे छोड़ दिया मैंने
बहुत कुछ सीख लिया मैंने
बहुत पढ़ा था मेरा भाई,
बहना ने भी की खूब पढ़ाई ।
बाबा ने लगा दाव सारी पूंजी लुटाई
धूल खा रही डिग्रियां सारी,
न पाया कोई पद सरकारी ।
मजदूरी करे कैसे,
डिग्रियां आड़े आये रोड़े जेसे ।
बहना भी भटकी इधर उधर ,
नही मिला कोई पद पर ।
बेटी की उम्र हो रही ,
माँ बीमार पड़ी सोच सोच कर ।
सो बिन सोचे समझे ब्याह रचाया,
बहना के चौका चूल्हा हिस्से आया ।
तब ठाना मैंने मुझे कुछ कर जाना है अपना घर परिवार बचाना है ।
सीख लिए तब मैंने दाव राजनीति के ।
पढ़े लिखों को एक झटके में पीछे छोड़ा ।
बाबा भाई बहन को सिक्कों से तौला।
बच्चों को भी तैयार किया है ,
राजनीति का हरफ़नमौला ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@....
रायसेन म.प्
___________________________
हाँ पढ़ना लिखना छोड़ दिया मैंने
पढ़ें लिखों को पीछे छोड़ दिया मैंने
बहुत कुछ सीख लिया मैंने
बहुत पढ़ा था मेरा भाई,
बहना ने भी की खूब पढ़ाई ।
बाबा ने लगा दाव सारी पूंजी लुटाई
धूल खा रही डिग्रियां सारी,
न पाया कोई पद सरकारी ।
मजदूरी करे कैसे,
डिग्रियां आड़े आये रोड़े जेसे ।
बहना भी भटकी इधर उधर ,
नही मिला कोई पद पर ।
बेटी की उम्र हो रही ,
माँ बीमार पड़ी सोच सोच कर ।
सो बिन सोचे समझे ब्याह रचाया,
बहना के चौका चूल्हा हिस्से आया ।
तब ठाना मैंने मुझे कुछ कर जाना है अपना घर परिवार बचाना है ।
सीख लिए तब मैंने दाव राजनीति के ।
पढ़े लिखों को एक झटके में पीछे छोड़ा ।
बाबा भाई बहन को सिक्कों से तौला।
बच्चों को भी तैयार किया है ,
राजनीति का हरफ़नमौला ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@....
रायसेन म.प्
पकोड़ा बेचा जाए
आओ पकौड़ा बेचा जाए ।
आओ पकौड़ा बेचा जाए ।
अच्छे दिन को तैल लगकर ,
अब बेसन को फैंटा जाए ।
ढेर लगे डिग्रियों के ,
व्यर्थ न फैंका जाए ।
धर तले अँगीठी के ,
कुछ तो सेंका जाए ।
आओ पकौड़ा बेचा जाए ।
काम आएंगी कुछ तो ,
पैसा बाप ब्यर्थ न जाए ।
क्या पाओगे धन पाकर,
धन से पेट भरा न जाए ।
तलो पकौड़े तैल लगाकर ,
बिकें बिकें जो बच जाए ।
खाएँ जिनको घर लाकर ,
मुफत पेट भर जाए ।
आओ पकौड़ा बेचा जाए ।
.....
करता था वो वादे तब बड़ा बड़ा ।
नही नौकरियाँ ,कृषक भी है थका ।
देने को पास उनके कुछ नही बचा ,
चला मैं तो पकोड़े बेंचने चला ।
....विवेक दुबे©..
आओ पकौड़ा बेचा जाए ।
अच्छे दिन को तैल लगकर ,
अब बेसन को फैंटा जाए ।
ढेर लगे डिग्रियों के ,
व्यर्थ न फैंका जाए ।
धर तले अँगीठी के ,
कुछ तो सेंका जाए ।
आओ पकौड़ा बेचा जाए ।
काम आएंगी कुछ तो ,
पैसा बाप ब्यर्थ न जाए ।
क्या पाओगे धन पाकर,
धन से पेट भरा न जाए ।
तलो पकौड़े तैल लगाकर ,
बिकें बिकें जो बच जाए ।
खाएँ जिनको घर लाकर ,
मुफत पेट भर जाए ।
आओ पकौड़ा बेचा जाए ।
.....
करता था वो वादे तब बड़ा बड़ा ।
नही नौकरियाँ ,कृषक भी है थका ।
देने को पास उनके कुछ नही बचा ,
चला मैं तो पकोड़े बेंचने चला ।
....विवेक दुबे©..
टटोलते अँधियारों को
दिए जले जो रातों को ,
खोजते अहसासों को ।
जलाकर अपनी बाती ,
टटोलते अँधियारों को ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"..@
खोजते अहसासों को ।
जलाकर अपनी बाती ,
टटोलते अँधियारों को ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"..@
अपनो की इस भीड़ में
अपनो की इस भीड़ में ,
तन्हा नही कभी कोई ।
कमी इस बात की,
के,अपना चुना नही कोई ।
....विवेक दुबे"निश्चल"@..
आशाओं के दीप
आशाओं के दीप जलाता हूँ ।
खुद में खुद खो जाता हूँ ।
कुछ कह जाता हूँ ।
भावो में बह जाता हूँ ।
भावो से भिड जाता हूँ ।
खुद से खुद टकराता हूँ ।
मरता हूँ फिर जी जाता हूँ ।
फिर नई रौशनी पता हूँ ।
फिर एक दीप जलाता हूँ ।
आशाओं में फिर खो जाता हूँ ।
आशाओं से आशाओं के ,
दीप जलाता हूँ ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"©....
खुद में खुद खो जाता हूँ ।
कुछ कह जाता हूँ ।
भावो में बह जाता हूँ ।
भावो से भिड जाता हूँ ।
खुद से खुद टकराता हूँ ।
मरता हूँ फिर जी जाता हूँ ।
फिर नई रौशनी पता हूँ ।
फिर एक दीप जलाता हूँ ।
आशाओं में फिर खो जाता हूँ ।
आशाओं से आशाओं के ,
दीप जलाता हूँ ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"©....
टाँग
विषय रचना -- टाँग
मुक्त छन्द...
देखा उसने कुछ निशानों में ।
अटका भटका तहखानों में ।
लग जाए कुछ हाथ मेरे भी
टंगड़ी मारी टूटे मर्तबानों में ।
हाथ लगी न फूटी पाई ।
टूटी टाँग चाल गवाई ।
खर्च हुई गाँठ की पाई पाई।
पड़ा रहा हफ़्तों चार पाई।
सोचे पड़ा पड़ा चार पाई।
मैं बातों में क्यों आया भाई।
क्यों मैंने उस को मोहर लगाई,
अब तो राम दुहाई राम दुहाई।
लड़ते हैं बस अब तो सब ।
खींच तान की छिड़ी लड़ाई।
चादर मिला न मिली रजाई ,
अच्छे दिन की भली चलाई ।
....विवेक दुबे "निश्चल"©...
मुक्त छन्द...
देखा उसने कुछ निशानों में ।
अटका भटका तहखानों में ।
लग जाए कुछ हाथ मेरे भी
टंगड़ी मारी टूटे मर्तबानों में ।
हाथ लगी न फूटी पाई ।
टूटी टाँग चाल गवाई ।
खर्च हुई गाँठ की पाई पाई।
पड़ा रहा हफ़्तों चार पाई।
सोचे पड़ा पड़ा चार पाई।
मैं बातों में क्यों आया भाई।
क्यों मैंने उस को मोहर लगाई,
अब तो राम दुहाई राम दुहाई।
लड़ते हैं बस अब तो सब ।
खींच तान की छिड़ी लड़ाई।
चादर मिला न मिली रजाई ,
अच्छे दिन की भली चलाई ।
....विवेक दुबे "निश्चल"©...
चाँद
एक आस है उस चाँद की तलाश है ।
एक प्यास है यह चाँद ही अहसास है ।
....
वो इठलाता है आसमां पे ।
एक चाँद है जो आसमां पे ।
उतरता नहीं कभी जमीं पे ।
शर्माता है क्यों सुबह से ।
..
आया चंद्र पूर्व के छोर से ।
देखूँ मैं साजन की ओट से ।
बाँध अँखियन के पोर से ।
मन हृदय विश्वास डोर से ।
चौथ चंद्र खिला है ,
निखरा निखरा है ।
एक चंद्र गगन में ,
एक मन आँगन में।
जीती है जिसको वो,
पल पल प्रतिपल में।
श्रृंगारित तन मन से,
प्रण प्राण प्रियतम के ।
देखत रूप पिया का,
चंद्र गगन अँखियन से।
.....विवेक दुबे"निश्चल"©...
एक प्यास है यह चाँद ही अहसास है ।
....
वो इठलाता है आसमां पे ।
एक चाँद है जो आसमां पे ।
उतरता नहीं कभी जमीं पे ।
शर्माता है क्यों सुबह से ।
..
आया चंद्र पूर्व के छोर से ।
देखूँ मैं साजन की ओट से ।
बाँध अँखियन के पोर से ।
मन हृदय विश्वास डोर से ।
चौथ चंद्र खिला है ,
निखरा निखरा है ।
एक चंद्र गगन में ,
एक मन आँगन में।
जीती है जिसको वो,
पल पल प्रतिपल में।
श्रृंगारित तन मन से,
प्रण प्राण प्रियतम के ।
देखत रूप पिया का,
चंद्र गगन अँखियन से।
.....विवेक दुबे"निश्चल"©...
यह प्रश्न बड़ा है ?
यह प्रश्न है बड़ा
जीता रहा सारी ज़िंदगी ,
देह से आत्मा के लिए लड़ा ।
हार गई हर बार देह ही ,
आत्मा लिए यक्ष फिर हँसा ।
खोजता है फिर नया बसेरा ,
यक्ष आत्मा लिए हाथ में ।
बनाकर फिर एक देह नई
सौंपता आत्मा के हाथ में ।
यही क्रम सृष्टि आधार बना
मिलन आत्मा देह से सँसार बना ।
..... विवेक दुबे"निश्चल"@..
जीता रहा सारी ज़िंदगी ,
देह से आत्मा के लिए लड़ा ।
हार गई हर बार देह ही ,
आत्मा लिए यक्ष फिर हँसा ।
खोजता है फिर नया बसेरा ,
यक्ष आत्मा लिए हाथ में ।
बनाकर फिर एक देह नई
सौंपता आत्मा के हाथ में ।
यही क्रम सृष्टि आधार बना
मिलन आत्मा देह से सँसार बना ।
..... विवेक दुबे"निश्चल"@..
धैर्य धरा से सीखिए
धैर्य धरा से सीखिए,नील गगन से विस्तार।
सागर सा मन रखिए, गहरे सोच विचार।।
धैर्य हितेषी आपका,व्याकुलता की काट।
धैर्य कभी न खोइए,लाख विपत्ति आए ।।
धैर्य ध्वजा धर्म की , धैर्य धर्म की लाज ।
धैर्य धारण जो करे, होय सफल हर काज ।।
धैर्य कभी न हारिये , धैर्य धर्म की आड़।
धैर्य धरे जो मानवा , पुरुषोत्तम हो जाय ।।
..... विवेक दुबे"निश्चल""........
वो नाराज़ है निग़ाह से
वो नाराज है निग़ाह से।
या गुस्ताख़ी कोई मेरी ।
नामालूम जिस अंदाज़ से,
निग़ाह उसने ने जो फेरी ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"..@
या गुस्ताख़ी कोई मेरी ।
नामालूम जिस अंदाज़ से,
निग़ाह उसने ने जो फेरी ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"..@
रविवार, 18 फ़रवरी 2018
आस पिया मिलन की
तपिश गुनगुनी धूप की ,
अहसासों के आँचल ।
गुलाबी सुबह सबेरे ,
बस एक ठंडी छाँव ।
वो यादों के गाँव ,
छूटे बिसराते ठाँव ।
वो थके कदम ,
यह *"निश्चल"* मन ।
यह साँसों की डोर ,
वो धुँधली सी भोर ।
बस यादें प्रीतम की ,
आस पिया मिलन की ।
बस इतनी ही धुन ,
मन मन की सुन ।
बंधन इस तन के ,
छूटे कैसे मन तन से ।
.... विवेक दुबे "निश्चल"@..
अहसासों के आँचल ।
गुलाबी सुबह सबेरे ,
बस एक ठंडी छाँव ।
वो यादों के गाँव ,
छूटे बिसराते ठाँव ।
वो थके कदम ,
यह *"निश्चल"* मन ।
यह साँसों की डोर ,
वो धुँधली सी भोर ।
बस यादें प्रीतम की ,
आस पिया मिलन की ।
बस इतनी ही धुन ,
मन मन की सुन ।
बंधन इस तन के ,
छूटे कैसे मन तन से ।
.... विवेक दुबे "निश्चल"@..
सदस्यता लें
संदेश (Atom)
कलम चलती है शब्द जागते हैं।
सम्मान पत्र
मान मिला सम्मान मिला। अपनो में स्थान मिला । खिली कलम कमल सी, शब्दों को स्वाभिमान मिला। मेरी यूँ आदतें आदत बनती गई । शब्द जागते...