बुधवार, 23 मई 2018

सजते थे गुलशन

 सजते थे गुलशन आशाओं में ।
 उठती खुशबू अभिलाषाओं में ।

  हिमकण सा जमता वो रक्त, 
  उबला था कभी शिराओं में ।

  लुप्त हुए सभी दिवा स्वप्न , 
 जन मानस की आशाओं से ।

  आई थी लहरें जो सागर की ,
  लौट चली वापस दिशाओं में ।

  प्रभात हुआ था जो स्वर्णिम सा ,
 जा लिपटा संग निशा बाहों में ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@...
Blog post 23/5/18

जीवम ज्ञान

सहसा पसरता मौन नही ,
  मौन के अंदर मौन नही ।
  ध्वनित हुआ एकाकीपन ,
  अंतर् उतरी एक हलचल ।
   जाना तब उस महान को ।
   क्षण भंगुर जीवन ज्ञान को ।
..... विवेक दुबे"निश्चल"@...

इस भूँख का क्या करूं

इस भूँक का क्या करूँ ,
 बढ़ती ही जाती है ।
 सियाही मेरी कलम ने ,
 जितनी उगाली है ।

 हुए सफ़े पर सफ़े,
 स्याह हजारों ।
 सुनहरीयत आना ,
 कभी बाँकी है ।

 लिखकर मिटा न सका ,
 किसी बात को ।
 हर बात में मुझे ,
 जिंदगी नजर आती है ।

  मैं गुनगुनाता हुँ ,
 अपने ही ख्याल को ,
 जिंदगी यूँ मुझे ,
 अक्सर लुभाती है ।

  तिनका नही ,
जो उड़ जाऊँ में,
 मगर हवा ख्याल की ,
 मुझे उड़ाती है ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@...

विदा कहें अलविदा कहें


विदा कहें , अलविदा कहें ।
अपनी साँसों को हम ,
साँसों से कैसे जुदा कहें ।

 विदा कहें अलविदा कहें ,
 अपनी धड़कन को कम ,
 धड़कन से कैसे जुदा कहें ।

विदा कहें अलविदा कहें ।
बिखेर कर मोती यादों के ,
 यादों को कैसे सज़ा कहें ।

 सींचते अश्क़ जिन्हें निगाहों से ,
 निगाहों से उन्हें कैसे जुदा कहें ।
 विदा कहें अलविदा कहें ।

... विवेक दुबे"निश्चल"@..

ज़ज्बात लिखूँ

ज़ज्बात लिखूँ अपने हालात लिखूँ ।
 जिंदगी किस तरह तुझे साथ लिखूँ । 

 डूबकर तन्हाइयों में अक्सर ,
 खुशियों की मुलाक़त लिखूँ ।

 जी रही जिंदगी ख़ातिर जिनके, 
 सपनों के उनकी सौगात लिखूँ ।

  न जीतकर भी अपने हालत से ,
 जीतने के मैं अपने ज़ज्बात लिखूँ ।

 चलता हूँ नमुकम्मिल सा सफर पे ,
 मुकम्मिल सफ़र से हालात लिखूँ ।

 अपने ज़ज्बात लिखूँ हालात लिखूँ ।
 जिंदगी तुझे"निश्चल"विश्वास लिखूँ ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@....

जेठ की तपन

यह जेठ की तपन ।
यह अगन भरा मन ।

 प्रियतम की यादों की,
 शीतल चलत पवन ।
  
  साँसों के अहसासों से ,
  अनु गुंजित यह मन ।

 छूकर यादों की कलियाँ ,
 खिलते यादों के उपवन ।

  तप्त धरा धरती जैसे ,
   वर्षा से होती नम ।

 पायल खनकी यादों की ,
 टपकी वर्षा बूंदे छम छम ।

 यह जेठ की तपन ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@....

बहने की चाहत

बसंत के मौसम में ।
  झड़ते पतझड़ से ।

 झरने वो निर्मल से ।
 झरते जो निर्झर से ।

  भाव जगे उर से ।
  शून्य रहे नभ से ।

चँदा की चितवन में ।
 तारों की झिलमिल से ,

  बहने की चाहत में ,
 "निश्चल" सागर से ।

.... विवेक दुबे"निश्चल@....

ज़ीवन की राहों में

 वो रात बड़ी यह दिन छोटे से ।
 वादों के अहसासों को खोते से ।

        वादों के इस बंजर में ही ,
         यादों को अक्सर बोते से ।

 तप्त नीर नयन सींचे जिनको ,
 कुछ कुम्हलाये अंकुर खोते से ।

         सपनों के रैन बसेरों में ,
         भोर भए तक रहने से ।

   सांझ चली आने के पहले ,
   पग पग चलते ही रहने से ।

            हर सांझ एक नया ठिकाना ,
            फिर नई सहर होने पहले से
   
      बढ़ता चल यूँ ही मंजिल पे ,
      सफ़र तमाम होने पहले से ।

  जीवन की इन राहों में ,
 "निश्चल"नही बिछौने से ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@..

कलम चलती है शब्द जागते हैं।

सम्मान पत्र

  मान मिला सम्मान मिला।  अपनो में स्थान मिला ।  खिली कलम कमल सी,  शब्दों को स्वाभिमान मिला। मेरी यूँ आदतें आदत बनती गई ।  शब्द जागते...