शनिवार, 31 मार्च 2018

एक जीवन की खातिर

 जलता सूरज चलता सूरज ।
 उगता सूरज ढ़लता सूरज।
 मिलन निशा तरसा सूरज।
 संध्या सँग भटका सूरज।

 अंबर पर  चलता चँदा।
 पल पल रूप बदलता चँदा।
 ढ़लता  फिर खिलता चँदा।
  छलता बस छलता चँदा।

 क्यों बल खाती धरती।
 साँझ सबेरे भरमाती धरती।
 शीतल तरल सरल कभी,
 क्यों कभी तप जाती धरती।

  प्रश्न घनेरे मिलते हैं ।
 प्रश्न नही क्यों सुलझे हैं।
 एक जीवन की खातिर,
 ज़ीवन में क्यों उलझे हैं।
   ...विवेक दुबे"निश्चल"@....

ख़ुशियों का एक गीत लिखूं

 खुशियों का एक गीत लिखूँ ।
 महकी सी एक प्रीत लिखूँ ।
 रच प्रेम प्यार की परिभाषा , 
 मधुर मिलन की जीत लिखूँ ।

  सहज रहा हूँ शब्द शब्द सा ,
  खुशियों का एक गीत लिखूँ ।
  पा जाने साजन सागर को ,
  बहती नदियाँ की रीत लिखूँ ।

  है जीवन नही सहज इतना ,
  जीवन को एक जीत लिखूँ  ।
  मैं "निश्चल" मन आँगन में ,
  गिरती बूंदों का संगीत लिखूँ ।

... विवेक दुबे"निश्चल"@....

शुक्रवार, 30 मार्च 2018

बिन चेहरों के

   बिन चेहरों के कभी  ,
   पहचान नही होती ।

   यह सरल बहुत जिंदगी  ,
   पर आसान नही होती ।

    रवि बादल में छुपने से ,
    कभी साँझ नही होती ।

    छूकर शिखर हिमालय का ,
     तृष्णा कभी तमाम नही होती ।

     पाता है मंजिल बस वो ही ,
    राहों से पहचान नही होती ।

    चलता है मंजिल की खातिर ,
     निग़ाह मगर आम नही होती ।
        बिन चेहरों के ...
..
.. विवेक दुबे"निश्चल"@...

गुरुवार, 29 मार्च 2018

अहसास

अहसास चाहते ठहराना नही ।
 यह ख़्वाब मेरा साहिल नही ।

 न बह तू मौजों में दरिया की,
 रवानी समन्दर सी यहाँ नही  ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@...



तारा टूटा फ़लक से

मुसाफ़िर हमसे कहा राह पाते है ।
 हम जुगनूं रातों को टिमटिमाते है  ।
   ..
तारा टुटा फ़लक से जमीं नसीब न थी ।
ख़ाक हुआ हवा में मुफ़लिसी केसी थी ।।
..
 फूल सा जो महकता सा रहा है ।
  यूँ वो रिश्ता वा-खूब सा रहा है ।
  ..
अक़्स पर अक़्स चढ़ाया उसने ।
 खुद को बा-खूब सजाया उसने ।
....
दिए जले जो रातों को ,
                  खोजते अहसासों को ।
  जलाकर अपनी बाती ,
                    टटोलते अँधियारों को ।

   ...... विवेक दुबे "निश्चल"@...


जिंदगी भी एक किताब है

ज़िंदगी भी , एक किताब है ।
   दो लाइन का, बस हिसाब है ।
...
कुछ लिखें अपना , कुछ कहें अपना।
 सत्य नही ज़ीवन , ज़ीवन एक सपना।
...
   ज़ीवन की बस , इतनी परिभाषा है। 
    ज़ीवन तो बस , कटता ही जाता है। 
....
पतझड़ नही वसंत हो ज़िंदगी ।
 अन्त नही आरम्भ हो ज़िंदगी ।
---
लाभ हानि के खाते , लिखते सब ।
 लोग नही मिलते ,  बे-मतलब अब ।
---
होता रहता हरदम , कुछ न कुछ।
 वक़्त सीखाता हरदम , कुछ न कुछ।
---
यह सफर विकल्प से , संकल्प तक का ।
 लगता सारा जीवन , सफर दो पग का।
..
तपता रहा उम्र भर , कुंदन सा हो गया ।
 भाया न दुनियाँ को , खुद भी खो गया ।
..
पथिक थक जाएगा ,मंजिल पा जाएगा ।
 छोड़े पद चिन्हों का,इतिहास बनाएगा ।
....
..... विवेक दुबे"निश्चल"@...

वक़्त से वक़्त की बात

यूँ वक़्त से वक़्त की बात चली है ।
 छूटती ज़िंदगी की अधूरी गली है ।

 चले थे जिस सफ़र में राह पे कभी ,
 ये राह फिर उस राह मुड़ चली है ।

 खाई थी शिकस्त वक़्त के हाथों कभी ,
 वक़्त तुझसे शिक़ायत अब भी नही है ।

 वक़्त तो संग दिल भी है बहुत मगर,
 वक़्त को अदावत भी मुझसे नही है ।

 चलता हूँ जिस राह पर अब मैं ,
 वो राह नई मेरी अब भी नही है ।

 हो न हो मुक़ाम कोई इस राह का ,
 मंज़िल तो मैंने आज भी गढ़ि नही है ।

 यूँ वक़्त से वक़्त की ....

....विवेक दुबे निश्चल@...

मंगलवार, 27 मार्च 2018

खर्च का हिसाब कुछ मुक्तक


न यह मन कचोटता है ।
न यह  दिल ममोसता है ।
 चलता था उजालों सँग ,
 साँझ सँग जीवन लौटता है ।

  क्या पाया क्या खोया ,
  हाथ नही अब कुछ ।
  जीवन सँग यादों के ,
 बस यादों में लौटता है ।
 ..... 

लिखकर सवाल पूछता है ।
 हिसाब का हिसाब पूछता है ।
  याद न हुए हिसाब कभी  ,
 जीवन दो का भाग पूछता है।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@..

उस खर्च का हिसाब न रहा ।
 मुझे इतना इख़्तियार रहा ।
 सम्हालता रहा लम्हा लम्हा ,

 बे-इन्तेहाँ वो इंतज़ार रहा
 ..



लिखकर सवाल पूछते है ।
 हिसाब का हिसाब पूछते है ।
 आता नही पहाड़ा हमे ,
 हमसे दो का भाग पूछते है ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@..

सिखाता रहा वो इश्क़ मुझे बार बार ।
 गिरता रहा मैं इश्क़ राह बार बार ।
 टूटता न था दिल उस संग की चोट से ,
 होता रहा अपनी निग़ाह से जार जार ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@...

...

सम्हल तू अपने आप से

  यह ख्वाब सम्हाले सम्हलते नही ।
  कुछ प्रश्न ज़िंदगी के सुलझते नही ।

 जीता हूँ मैं वाखूबी अपने अंदाज में ,
 दुनिया के अंदाज़ से मैं चलता नही ।

 यूँ तो भीड़ बहुत है इस दुनियाँ में ,
 ज़माने की भीड़ संग मैं चलता नही ।

 सम्हल तू खुद ऐ "विवेक" अपने आप से ,
 किसी के सम्हाले  कोई सम्हलता नही ।
   .... विवेक दुबे"निश्चल"@....

यूँ वास्ते ज़िंदगी

ज़िंदगी

 पता ही न चला और ,
 वक़्त गुज़र सा गया ।
 पहर साँझ का कभी,
 सुबह का ठहर सा गया ।
 हँस गया हालात पर ,
 कभी हालात हँस गया ।
 हर हाल में बस ,
 वक़्त गुज़रता ही गया ।
 मैं डूबकर ग़म में ,
 खुशियाँ मनाता गया ।
 यूँ वास्ते ज़िंदगी ,
  खुशियाँ लुटाता गया ।

   ..... विवेक दुबे "विवेक"©..

सोमवार, 26 मार्च 2018

शांत मन

        शांत मन बिश्रान्त मन ।
        क्लांत मन आक्रांत मन ।
 नीरव सा निराम मन  ।
 एक समर संग्राम मन ।
       व्यग्र मन भ्रांत मन ।
       तरंग मन उमंग मन । 
 सजता चलता मन ,
 थकता रुकता मन ।
             दूर तिमिर तक मन ,
            आता फिर जाता मन ।
 दूर प्रकाश भी पाता मन ।
 छूकर भी छू न पाता मन । 
              उलझन में बस मन ।
               तेरा मन मेरा मन ।

 ..... विवेक दुबे"निश्चल"@..

पुलकित मन हो

पुलकित मन हो ,
             हर्षित जीवन हो ।
मानव का मानव को ,
             मानव सा अर्पण हो ।
...
रंग चढ़े न यूँ दिल पे ,
           दिल मिलते मुश्किल से ।
उठती लहरें सागर से ,
               मिलती बूंदे साहिल से ।
 ..
  पीता जो मीठेपन को ,
               खारा वो फिर भी क्यों ।
  रहता वो लहरों सँग ,
                  ठहरा सा वो क्यों ।
...
  मथता अपने अन्तर्मन को ,
          जलधि फिर भी प्यासा क्यों ।
 बाँधे साहिल जिस सागर को,
          साहिल से सागर टकराता क्यों ।
...
बाहर की बयार में ,
                   काव्य थमा प्रबाह से । 
 भाव के प्रतिकार में ,
                    लुप्त हुआ प्रभाव से ।

  ...विवेक दुबे"निश्चल".@...

बून्द चली मिलने तन साजन से

बून्द चली मिलने तन साजन से ।
 बरस उठी बदली बन गगन से ।

आस्तित्व खोजती वो क्षण में ।
  उतर धरा पर ज़ीवन कण में ।

क्षितरी बार बार बिन साजन के ।
 बाँटा जीवन अवनि तन मन में ।

 बहती चली फिर नदिया बन के ।
 मिलने साजन सागर के तन से ।

  लुप्त हुई अपने साजन तन में ।
  जा पहुँची साजन सागर मन मे ।

 बून्द चली मिलने तन साजन से ।
..... विवेक दुबे "निश्चल"©.....
..

सुरमई शाम

सुरमई शाम मखमली उजाले से ।
 निगाहों से निगाहों के हवाले से ।

   बे-खुदी के आलम नजारों में ,
  हालात से खुद को सम्हाले से ।

 निग़ाह में अश्क़ अपने छुपाकर  ,
 आए नजर उजले सितारों से ।

 वो क़तरे शबनम जमीं पे ,
 आरजू अश्क़ की पाले से ।

 हों जज़्ब पहले जमीं में ,
 कदम रौंद क्यों डाले से ।
  क़दम क्यों रौंद डाले से ।
.... विवेक दुबे "निश्चल"@..

उजली साँझ भी

उजली साँझ भी , गुम होते मुक़ाम सी।
चाहते ज़ाम भी, हसरते पैगाम सी ।

 सितारों की चाह भी, चाँद पैगाम सी ।
 सफ़र रोशनी भी , स्याह मुक़ाम सी।

 आहटें कदमों की, खोजतीं निशान सी ।
  हसरतें मुक़ाम की ,रहीं बे-निशान सी ।

  चाहतें इंसान की , काँटे बियावान सी ।
  ज़िंदगी नाम की, लगती बे-अंज़ाम सी ।

  ठौर बस रात की ,भोर नए मुक़ाम सी
   उजली साँझ भी , गुम होते मुक़ाम सी।
.... विवेक दुबे ''निश्चल"@.....


रोशनी साँझ की

 रोशनी साँझ की , 
                    गुम मुक़ाम सी ।
 ठौर बस रात की , 
                भोर नए मुक़ाम सी ।

बसर बस नाम की , 
                    चाँद पैगाम सी ।
 मंजिल उजालों की , 
                   स्याह मुक़ाम सी ।

  चाहत इंसान की , 
                  काँटे बियावान सी ।
 ज़िंदगी नाम की  , 
                   हसरतें पैगाम सी ।

  हसरत मुक़ाम की , 
                  रही बे-अंजाम सी ।
   कदमों की आहटें  ,
                खोजतीं निशान सी ।

.... विवेक दुबे ''निश्चल"@....


गिरह गिरह खोलता मैं

  गिरह गिरह खोलता मैं ।
 लफ्ज़ लफ्ज़ तोलता मैं ।
 खोल जुवां सामने आईने के ,
 खोमोशी से भी बोलता मैं ।

 गिरता रहा निग़ाह में अपनी ।
 अपनो को कुछ न बोलता मैं ।
 लगीं अदावतों की शरारत से  ,
 गाँठो को भी खुला छोड़ता मैं ।

 गिरह गिरह खोलता मैं ।
 गिरह गिरह खोलता मैं ।
 .... विवेक दुबे"निश्चल"@...

अपने क़दम

ठहरा है जो अपने शांत भाव से ,
शांत सरोवर कुछ *कमल* लिए ।

 अभिलाषाएँ कुछ कर पाने की ,
   कुंठाएं नही न चल पाने की ।

 सींच रहा अपने मन आँगन को ,
 अंजुली भर जल वो लिए हुए ।

  टकराएंगी मेरी लहरे मेरे साहिल से ,
 आएगा कोई हलचल का भाव लिए ।

  सहज रहा है वो बूंदे अम्बर की ,  
"निश्चल" से अपने कदम लिए ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@..
 रायसेन

रविवार, 25 मार्च 2018

सोया हूँ ख्वाबो की ख़ातिर

सोया हूँ ख़्वाबों की ख़ातिर ,
मुझे नींद से न जगाना तुम।
         आना हो जो मुझसे मिलने ,
          ख़्वाबों में आ जाना तुम ।

    यह दुनियाँ ,नही हक़ीक़त । 
    यह दुनियां एक फ़साना है  । 
             ठहरा नही यहाँ कभी कोई,
             यहाँ तो आना और जाना है ।

 ख़्वाबों की दुनियाँ ही , सच्ची  झूठी है ।
 यह दुनियां तो     ,   झूठी सी सच्ची है ।

  ख़्वाबों में असल तसल्ली होती है ।
  दुनियां में ,तल्ख़ तसल्ली होती है ।
         ख़्वाबों में ही , हँस रो लेते हम।
         ख़्वाबों में हर बात बयां होती है ।


 इस दुनियां में तो , उसकी मर्ज़ी है ।
 रोने हँसने की,उसकी ख़ुदगर्ज़ी है।
       यहाँ रोते हैं ,      उसकी मर्ज़ी से ,
       हँसने में भी,   उसकी ख़ुदगर्ज़ी है ।
  
  जी न सकें जो ,यहाँ जी ते जी,
   मर कर वो, यहाँ ज़िंदा रहते हैं।
        इस जी ते जी ,मरकर जी ने से,
        ख़्वाबों की दुनियां ,कितनी अच्छी है।

    मौत नहीं जहाँ दूर तलक ,
     ज़िंदगी इनमें बस मिलती है।

    खोया हूँ ख़्वाबों की ख़ातिर,
    मुझे नींद से न जगाना तुम ।
           आना हो जो मुझसे मिलने,
           मेरे ख़्वाबों में आ जाना तुम।

   ....विवेक दुबे"निश्चल"@...

ज़िंदगी को ख़ता कह बैठा

 ख़ातिर शे'र की कता कह बैठा ।
 ज़िंदगी हसीं को ख़ता कह बैठा ।

 उसूल भी नही थे  पुराने कुछ मेरे  ,
 मैं नए रिवाज को पुराना कह बैठा । 

 बैठ कर निग़ाह के सामने उसकी ।
 मैं उस निग़ाह को बेगाना कह बैठा ।

 खोजकर लाया मोती जिस समंदर से  ,
 मैं उस समंदर को दीवाना कह बैठा ।

मयस्सर नही चैन किसी को दुनियाँ में ,
मैं अपनी बेचैनियों को फ़साना कह बैठा ।

नादान रहा मैं अपने ही वास्ते बहुत ,
मेरी नादानियों को जमाना कह बैठा ।

 क़िस्से वफ़ा के सुने हैं बहुत "निश्चल" ,
 मैं फिर भी उसे क्यों बेगाना कह बैठा ।


..... विवेक दुबे"निश्चल"@......
..

सुलझाता प्रश्न ज़िंदगी के


हर एक की एक समस्या है।
हर एक की एक अवस्था है। 
 सुलझा रहा ज़िंदगी के प्रश्नों को,
 सबकी अपनी अपनी व्यस्तता है।

  बून्द बून्द कर दिन कटता है।
  पल प्रति पल कुछ घटता है।
   कुछ बढ़ जाए कि चिंता में,
  जीवन तो घटता ही घटता है।

 दवा उम्र की दुआ हो जाती है ।
 बोतल खाली फ़ना हो जाती है ।

(फ़ना- नष्ट/  लीन होना)
.….विवेक दुबे"निश्चल"@....

खोजता हूँ अपने आप को




वो यूँ दुआ का करम फरमातीं है।
  वद्दुआएँ अब बेरुखी फरमातीं हैं।


अहसान ज़िंदगी का इतना सा मुझ पर ।
करम फ़रमाया हर अहसास का मुझ पर ।


  कैसी अदावत है आज मेहफिल की ।
 खिड़कियाँ खुलती नही अब दिल की।



 खोजता हूँ अपने आप को ,
 आज भी हर मजलिस में ।
 पाता नही अपने आप को ,
  मैं दुनियाँ की मेहफिल में ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@...

वो कैसी घड़ी थी

  ज़िंदगी के सफ़र की ,
   वो कैसी घड़ी थी।

         टिमटिमाते जुगनू ,
         चाँदनी बिखरी पड़ी थी ।

 ज़िंदगी के सफ़र की,
  वो रात भी बड़ी थी ।

           उठा था चिलमन ,
           निग़ाह न मिली थी ।

  ज़िंदगी के सफ़र की,
  वो कशिश बड़ी थी । 

           न ही कोई आरजू ,
          जो सामने खड़ी थी  ।

ज़िंदगी के सफ़र की ,
 वो उलझन बड़ी थी ।

            चला जिस राह पर ,
            उसकी मंज़िल नही थी ।

  ज़िंदगी के सफ़र में यह ,
  राह कैसी मिली थी ।

         पाउँगा न कोई मुक़ाम ,
          मैं जानता हूँ मग़र ।

ज़िंदगी मेरी ,
 सफ़र पे खड़ी थी ।
 सफ़र पे खड़ी थी ......

...... विवेक दुबे "निश्चल"@....

तजुर्वे ज़िंदगी के

तू मेरा हक़ीम हुआ ,
           होंसला-ऐ-यक़ीन हुआ ।
 थामकर नब्ज़ सफ़र-ऐ-ज़िंदगी ,
                  तू मेरा मतीन हुआ ।
(मतीन/निर्धारित/ ठोस)

तलाश-ए-ज़िंदगी में गुम हुआ।
 कुछ यूँ ज़िंदगी का मैं हुआ ।

 अर्श पे अना लिए चलता रहा ।
 गैरत-ऐ-अहसास चुभता रहा ।

तहज़ीब ही हुनर-ए-तमीज़ है ।
 यूँ तो इंसान बहुत बदतमीज है ।

खबर नही के तू बेखबर सा है ।
कदम कदम तू हम सफर सा है।

 समझते हैं समझौता जिसे एक हार है वो ।
 टूटता सामने "निश्चल"जिसके प्यार है वो ।

तपिश मेरी निग़ाह से वो पिघल उठे ।
 ज़ुल्फ़ शाम तले चराग़ हम जल उठे । 

  तेरी हर दुआ , रज़ा खुदा हो जाए ।
 भटकी कश्ती का, तू नाख़ुदा हो जाए।

वो ख़्वाबों के दिन थे ,ख़यालों के दिन थे ।
 जवां बहुत थे , मगर जरा कमसिन थे ।

निग़ाह मिलते ही ,तपिश-ऐ-ज़ज़्वात थे ।
 मोम से हालात थे ,हम आग के साथ थे।

इश्क़ शराब हुआ,नशा बेहिसाब हुआ ।
 मदहोश रिंद , साक़ी बे-ऐतवार हुआ ।

 तक़दीर ही तकदीरें तय किया करती हैं ।
 रास्ते वही मंज़िले बदल दिया करती हैं ।

 दुआ के ताबीज को तरकीब बना लूँ मैं ।
 उस तरकीब से तक़दीर सजा लूँ मैं ।

हम ही कहते हैं तुमसे कुछ अक़्सर ।
 आओ कभी कहो तुम हमसे बेहतर ।

यह खामोशी कैसी ,लफ्ज़ से पोशी कैसी ।
 क्यों रूठे आप से ,रुख से बेरुखी कैसी ।

 देखकर यह हँसी, खुश तुम न  होना।
 रोककर अश्क़ जरा, कुछ तुम कह दो न।

हुनर वो नही ,   जो लेना जाने ।
हुनर वो है ,      जो देना जाने ।

तजुर्बे ज़िंदगी के , ज़िंदगी तजुर्बों की ।
अरमान सो बरस के, ज़िंदगी दो घड़ी की ।

 ... विवेक दुबे"निश्चल"@.....



ज़िंदगी कटती रही अरमां हँसते रहे



 ज़िंदगी कटती रही अरमां हँसते रहे ।
  उम्र गुजरती रही आराम घटते रहे ।
.....
  हालात बयां क्या करें अब आज के ।
 अपने आगाज की सज़ा भुगतते रहे ।
...
न कुछ ठीक रहा ,सब बिगड़ सा चला ।
 हारने भी लगे ,कल जो जीतते ही रहे ।
....
जहां आए थे सुबह , साँझ लौटना पड़ा ।
 सफ़र नही उम्र भर का यह सोचते ही रहे ।
..... विवेक दुबे "निश्चल"@...

कलम चलती है शब्द जागते हैं।

सम्मान पत्र

  मान मिला सम्मान मिला।  अपनो में स्थान मिला ।  खिली कलम कमल सी,  शब्दों को स्वाभिमान मिला। मेरी यूँ आदतें आदत बनती गई ।  शब्द जागते...