कुछ खास नहीं कवि पिता की संतान हूँ । ..... निर्दलीय प्रकाशन भोपाल द्वारा बर्ष 2012 में "युवा सृजन धर्मिता अलंकरण" से अलंकृत। जन चेतना साहित्यिक सांस्कृतिक समिति पीलीभीत द्वारा 2017 श्रेष्ठ रचनाकार से सम्मानित कव्य रंगोली त्रैमासिक पत्रिका लखीमपुर खीरी द्वारा साहित्य भूषण सम्मान 2017 से सम्मानित "निश्चल" मन से निश्छल लिखते जाओ । ..... . (रचनाये मौलिक स्वरचित सर्वाधिकार सुरक्षित .)
सोमवार, 28 दिसंबर 2015
शुक्रवार, 25 दिसंबर 2015
गुरुवार, 24 दिसंबर 2015
रविवार, 13 दिसंबर 2015
मंगलवार, 8 दिसंबर 2015
मैं जादूगर शब्दों का ...
हाँ मैं जादूगर शब्दों का ।
हाँ मग़र चुप रहता हूँ मैं ।
हाँ मैं कलाकार कलम का ।
हाँ मग़र लिखता नहीं हूँ मैं ।
हाँ सुनता हूँ बाते दुनियां की ।
हाँ पढ़ता हूँ कलम दुनियां की ।
हाँ सुन कर बाते दुनियां की ।
हाँ रह जाता हूँ खामोश ।
हाँ पढ़ कर कलम लोगो की ।
हाँ कलम उठती नहीं मेरी ।
....विवेक...
रविवार, 6 दिसंबर 2015
शब्दों का तम
हर ले तू शब्दों के तम ।
उजियारा भर हर दम ।
थाम कर कलम ,
कर नव सृजन ।
हर पल हर दम ।
उकेर पीड़ाओं को भी ,
जीवन रंग में डुबो कलम ।
हर ले तू शब्दों के तम ।
अवसादों और निराशाओं को ।
छू कर उन अभिलाषाओं को।
आशाओं से खुशियों के भाव बना ।
अपने हृदय मन उदगार उठा।
शब्दों का फिर आकार सजा ।
तू लिखता जा तू लिखता जा ।
हर पल हर क्षण कर बस सृजन ।
हर ले तू शब्दों के तम ।
कर सृजन तू कर सृजन ।
...... विवेक दुबे "निश्चल"@.....
ब्लॉग पोस्ट 10/10/17
शनिवार, 5 दिसंबर 2015
कलम उठती नही
हाँ मैं जादूगर शब्दों का
मग़र चुप रहता हूँ मैं
हाँ मैं कलाकार कलम का
मग़र लिखता नहीं हूँ मैं
सुनता हूँ बाते दुनियां की
पड़ता हूँ लोगों की कलम को
सुन कर बाते दुनियां की
खामोश रह जाता हूँ
पढ़ कर कलम लोगो की
कलम उठती नहीं मेरी
....विवेक®...
खोल किवड़िया मन की
खोजा जाने कहां कहां
मन्दिर मस्ज़िद गुरूद्वारे
खोज खोज सब हारे
बस खोले नही किसी ने
अपने मन के दरवाज़े
खोल किवड़िया मन की
जिसने झांका मन के द्वारे
थम गया तब वहीं वो
न भटका फिर द्वारे द्वारे
जगमग जगमग हो उठे
हृदय मन के अंधियारे
....विवेक®....
बुधवार, 2 दिसंबर 2015
पढ़ने बाले भी मिल जायेंगे
आप लिखते हो दिल से
पढ़ने बाले भी मिल जायेंगे
आज नही तो कल आयेंगे
सौ नही दो आयेंगे
पर जो आयेंगे
सच्चे दिल से आयेंगे
जो अपने कहलायेंगे
....विवेक.....
रविवार, 29 नवंबर 2015
शनिवार, 28 नवंबर 2015
सावधान इन जय चंदों से
...सावधान .....
इनको ही स्वीकार करो
इनकी ही जय जयकार करो
न इनका प्रतिकार करो
तब नहीं कही कोई संकट
बस हो गये सेक्युलर तब सब
सहष्णुता भी सुरक्षित सिर्फ तब
सावधान इन जयचंदो से
बगुला भक्ति के इनके फंडों से
छदम् दिखावा इनका
छल कपट धंधा जिनका
हमने जैसे ही अपना सोचा
क्यों लगा इनको यह खोटा
सहते ही तो आये हैं अब तक
खूब किया छल कपट अब तक
और नहीं अब बस अब बस
....विवेक..
राधिका मन सी प्यासी
राधिका मन सी मैं प्यासी ।
बन कृष्ण सखा की दासी ।
रच जाऊं मन मे ।
बस जाऊं नैनन मे।
मिल जाऊं धड़कन मे ।
छा जाऊं चितवन मे ।
न भेद रहे फिर कोई ।
इस मन मे उस मन मे ।
...विवेक...
सोमवार, 23 नवंबर 2015
बारिश का नजारा
बारिश का नजारा हो ।
खिड़की का सहारा हो ।
एक चाँद हमारा हो ।
एक सितारा तुम्हारा हो ।
दिल ने दिल को हरा हो ।
धरती अंबर हमारा हो ।।
.....विवेक...
रविवार, 22 नवंबर 2015
हाँ वक़्त बदलते देखा है
हाँ वक़्त बदलते देखा है ।
सूरज को ढ़लते देखा है ।
चन्दा को घटते देखा है ।
तारों को गिरते देखा है ।
हाँ वक़्त बदलते देखा है ।
हिमगिरि पिघलते देखा है ।
सावन को जलते देखा है ।
सागर को जमते देखा है ।
नदियां को थमते देखा है ।
हाँ वक़्त बदलते देखा है ।
खुशियों को छिनते देखा है ।
खुदगर्जी का मंजर देखा है ।
अपनों को बदलते देखा है ।
हाँ वक़्त बदलते देखा है ।
नही कोई दस्तूर जहां ,
ऐसा दिल भी देखा है ।
नजरों का वो मंजर देखा है ।
उतरता पीठ में खंजर देखा है ।
हाँ वक़्त बदलते देखा है ।
.....विवेक....
हम है दूव है हरी भरी ...
हम दूव है हरी भरी
जड़ से जम जाते है
नदिया सा न बह पते है
रौंधे जाते है झुक जाते है
फिर उठ जाते है
सूखे भी जो कहीं कभी
शबनम की बूंदों से ही जी जाते है
नदिया सा न बहा पाते है
हम दूव है हरी भरी .....
....विवेक®....
शब्दों की मार .....
देखो यह शब्दों की मार ,
शब्दों से होते शब्दों पर वार ।
उलट पलट कर, पलट उलट कर ,
होते नित नये तीर तैयार ।
व्यंग धनुष पर, भाषा के तरकश से ,
यह तीर करें , नित नये प्रहार ।
कभी शब्द बाण चलें ऐसे ,
मधुवन से पुष्प झड़े जैसे ।
कभी शब्द बाण बने ऐसे ,
सावन की बदली बरसे जैसे ।
कभी काम बाण बन मन हरते ऐसे,
प्रणय मिलन की बेला आई जैसे ।
कभी शब्द बाण ने किया प्रहार,
मन कांप गया, सागर में चढ़ा ज्वार ।
कभी व्यंग धनुष ने संधान किया,
तीक्ष्ण शब्द को कमान किया ।
छोड़ दिया फिर साध लक्ष्य को,
कर अग्नि वर्षा,मन घायल करने को।
यह शब्दों की माया नगरी ,
कभी बिखरी कभी संवरी ।
शब्दों में ही बसती दुनियां ,
हमरी तुम्हरी, तुम्हरी हमरी ।
....विवेक....
शुक्रवार, 30 अक्तूबर 2015
मानव की परिभाषा
मानब की परिभाषा में
मैंने एक दिन
खुद को रख कर देखा
हो गया पानी पानी
जेसे ही खुद को दिल से
मानब कहकर देखा
क्या आये थे करने
क्या कर बेठे
अपने बन
अपनों को ही
छल बेठे
यही सोचता मैं
कौन हूँ मैं
कहा से आया
क्यों आया
मानब हो कर
मानब न बन पाया
....विवेक...
आहट एक और गुलामी की
एक गुलामी की फिर आहट
रहीं नही किसी को आज़ादी की चाहत
ईमान जहा बिकते हों
महंगे सामान इंसान जहा सस्ते हों
हर मजहब के भगबान जहा बिकते हों
मुर्दों की सी बस्ती में
आज़ादी की सजती हर दिन अर्थी हो
केसी आशा क्या अभिलाषा
छाई चारों और निराशा
......विवेक.....
देखो गांधी
देखो कितना बदल गये अब हम गांधी ,
जो थे आदर्श तेरे प्रण प्राण गांधी ।
कुचल रहे उन्हें हम सरेआम गांधी ,
था पिरोया एक माला में सबको गांधी ।
आज हो रहे अपनों के अपनों से संग्राम गांधी ,
यूँ तो हो राष्ट्र पिता तुम गांधी ।
आते बस दो दिन तुम याद गांधी ,
जिन नोटों पर तुम स्थान पाये गांधी ।
बही नोट आज हुए बदनाम गांधी ,
शकुनि की चलें फिर चल रहीं गांधी ।
दाव लग रही द्रोपती हर बार गांधी ,
मचा महाभारत सा फिर संग्राम गांधी ।
एक बार तुम फिर आ जाओ गांधी ,
अपने सपनों को साकार बना जाओ गांधी ।
( बापू के जन्म दिवस कुछ सोचे सब मिल जुल कर )
....विवेक....
गुरुवार, 29 अक्तूबर 2015
नहीं जाना मुझे उन ऊंचाइयों पर
नहीं जाना मुझे
उन ऊंचाइयों पर
नहीं छूना मुझे
वो आकाश
रहूँ इसी धरा
धरातल पर
चाहूँ हर पल
अपनों का साथ
यही मेरा आकाश
....विवेक...
शनिवार, 19 सितंबर 2015
आशाओं के दीप
आशाओं के दीप जलाता हूँ
खुद में खुद खो जाता हूँ
कुछ कह जाता हूँ
भावो में वह जाता हूँ
भावो से भिड जाता हूँ
खुद से खुद टकराता हूँ
मरता हूँ फिर जी जाता हूँ
फिर नई रौशनी पता हूँ
फिर एक दीप जलाता हूँ
आशाओं में फिर खो जाता हूँ
आशाओं से आशाओं के
दीप जलाता हूँ
...विवेक....
मंगलवार, 25 अगस्त 2015
दर्द सीप का
सीप ने जब मोती जाना होगा
दर्द बे इन्तेहाँ सहा होगा
देख मोती की चमक
सीप का दर्द कुछ कम हुआ होगा
क्या मोती ने सीप के दर्द को समझा होगा
मोती तो अंगुली में नगीना बन जड़ा होगा
.....विवेक.....
यूँ मात खा रहे हम
यहीं हम मात खा रहे है
अपनों से ही घात खा रहे है
ख़ंजर एक हाथ में जिनके
उन्हें गले लगा रहे है
करते जो झुक कर प्रणाम
उन पर हम हाथ उठा रहे है
हम क्यों अपना इतिहास
भुलाते जा रहे है
.....विवेक.....
रविवार, 23 अगस्त 2015
अंश माता पिता
माँ सरस्वती की कृपा से,
मुझ में पिता का बो अंश आया है,
मैने अपने आप में पिता जैसा
रचनाकार भी पाया है ,
मुझ पर "नेहदूत" का ,नेह बरसता
माँ सरस्वती की कृपा
मिलती बारम्बार
यही मेरा "सौभाग्य "
माँ मनोरमा की
मनोरम कृपा भी ,
साथ साथ आई है
जिसके कारण सारी दुनियां
बस भाई ही भाई है ,
है माँ बस इतना करना उपकार
मिले जन्म जन्म तक
यही माँ, यही पिता ,
बारम्बार हर बार, बार बार,
हो माँ तेरा उपकार,
.....विवेक...
पिता ...
मनचाहा बरदान मांग लो ।
अनचाहा अभय दान माँग लो ।।
उसके होंठो की मुस्कान माँग लो ।
जीवन का संग्राम माँग लो ।।
सारा पौरुष श्रृंगार माँग लो ।
साँसों से प्राण माँग लो ।।
बस हँसते हँसते हाँ ।
कभी न निकले ना ।।
कुछ ऐसा होता है पिता ,
क्या हम हो सकेंगे कभी कहि ,
अपने इस ईस्वर के आस पास ,,
तब शायद पिता को समझ सकें कुछ हम भी ,,,
...विवेक.....
मेरे पिता ....
बरगद से बिशाल पिता।
हर मुश्क़िल की ढाल पिता ।।
ख़ुश है हर हाल पिता ।
कहे न दिल का हाल पिता ।।
हर मुश्क़िल का संबल पिता ।
निर्बल का आत्मबल पिता ।।
कभी धूप कभी छांब पिता ।
मुश्किल में न खिज़ा पिता ।।
हर मुश्किल से जीता ।
पिता हर दुःख पीता पिता ।।
हलाहल कंठ थामता पिता ।
शिवः सामान नीलकंठ पिता ।।
बस खुशियाँ बाँटता पिता ।
तुम शुभांकर "नेहदूत" पिता ।।
तुम्हे शुभकामनाये, मैं क्या दूँ पिता ।
तेरे चरणों में रहे, सदा मेरा ध्यान पिता ।।
......विवेक...
नीव का पत्थर ....
बने महल और अटारे
मंदिर मस्जिद और गुरुद्वारे
कही ताज महल खड़ा
कही मीनार सर उठा रही
इनमे लगे हर पत्थर को देख
दुनिया दांतों तले अंगुली दवा रही
देख देख करती वाह वाह
क्या कला है ..क्या कोशल है ..
पर .......
देखा न कभी सोचा किसी ने
वो नीब के पत्थर कैसे होंगे
क्या गुजर रही होगी उन पर
किस हाल में होंगे .....
जो दफन हो गए
सदा सदा के लिए
इन उकेरे गए
नक्काशी दार
पत्थरौ की खातिर
आज जिन्हें देख दुनिया
सजदे में झुक जाती है
नीब के पत्थर उस
पत्थर को भुला कर . ..
........... विवेक....
शनिवार, 22 अगस्त 2015
मैं काव्य हूँ
मैं काव्य हूँ ---------
इन शब्दों के बंधन से,मुझे मत बंधो।
भावो के अर्पण से, मुझे मत भींचो।
अर्थो के तर्पण से, मुझेमत सींचो।
काव्य हूँ में ,,,,,,
मुक्त हवा सा निर्झर बहता हूँ ।
कहता हूँ बस कहता हूँ ।
अपनी यादों में जीता हूँ ।
अमृत सुधा ठुकराता हूँ ।
विष हलाहल भी पीता हूँ।
काँटों के पथ पर भी,
हँसते हँसते चलता हूँ ।
फूलो से भी चोटिल होता हूँ ।
काव्य हूँ में बस चलता हूँ ।
चलता ही रहता हूँ ।
काव्य हूँ मै ,,,,,,,
कहता हूँ बस कहता हूँ ।
सत्य उजागर करता हूँ ।
शब्द सार्थक करता हूँ ।
भाव जाग्रत करता हूँ ।
अर्थ निचोड़ा करता हूँ ।
काव्य हूँ मैं बस,
काव्य कहा करता हूँ ।
हाँ काव्य हूँ मैं ,,,..
......विवेक.......
गुरुवार, 13 अगस्त 2015
मातृ भूमि तुझे प्रणाम
हे मातृभूमि तुझे प्रणाम ।
वीर शहीदों से ही हो मेरे काम ।।
मैं भी आ जाऊँ माँ तेरे काम ।
तेरी सीमाओं का रक्त से अपने अभिषेक करूँ ।।
तेरी माटी को अपने शीश धरूँ ।
प्रण प्राणों से हो रक्षा तेरी ऐसा एक काम करूँ ।।
तुझको तकती हर बुरी नजर के सीने में बारूद भरूँ ।
हे मातृ भूमि तुझे प्रणाम करूँ ।।
वीर शहीदों जेसे मैं भी कुछ काम करूँ ।
तेरे कदमो में अपने प्रण प्राण धरूँ ।।
.....जय हिन्द ......
.....विवेक....
अब आजादी 70 के पास
आजादी अब बृद्ध हो रही
70 के पास पहुच रही
पर देखो इसकी नादानी
बच्चों सी आज भी रो रही
ओ आजादी चुप हो जा
न आँसू बहा
शायद तेरी मेरी हम सबकी
नियति यही
वारिस आज तक
कोई मिला नही
जो वारिस बन आया
उसने अपना ही कानून चलाया
न तेरा कुछ हो पाया
न मेरा कुछ हो पाया
.....विवेक...
हे माँ भारती
आतंक के साये में तू सिसक रही माँ।
सुलग रही छाती तेरी धधक रही माँ ।
तेरे वारिसो की रोटियां सिक रही माँ।
आजाद भगत सुभाष फिर जनना होगा माँ।
तब ही कोटि कोटि जन का भला होगा माँ।
आजादी का अर्थ हरा भरा होगा माँ।
.....विवेक...
शुक्रवार, 7 अगस्त 2015
पथिक एकाकी
चलता तू जिस पथ पर ।
पुष्प लगता तू उस पथ पर।
कांटे चुनता तू उस पथ के ।
चुनता पत्थर उस पथ पर ।
कदम कदम सजाता तू ,
सहज सहज पग रखता पथ पर ।
मन्दिर कई बनाता तू ,
वन बाग सजाता तू पथ पर ।
कोई पथिक जो आए कभी ,
कुछ पल बिताए इस पथ पर ।
पा जाये कुछ विश्राम यही ,
सफ़र आसान बने इस पथ पर ।
है फिर भी एकाकी तू ,
चलता अपनी धुन में तू इस पथ पर ।
खोया खोया अपने एकाकीपन में ।
कुछ अपनी कुछ पथ की उलझन में ।
हाँ एकाकी तू , बस एकाकी तू ।
तू अपने इस जीवन पथ पर ।
......विवेक दुबे "विवेक"©....
Blog 17/7/17
पुष्प लगता तू उस पथ पर।
कांटे चुनता तू उस पथ के ।
चुनता पत्थर उस पथ पर ।
कदम कदम सजाता तू ,
सहज सहज पग रखता पथ पर ।
मन्दिर कई बनाता तू ,
वन बाग सजाता तू पथ पर ।
कोई पथिक जो आए कभी ,
कुछ पल बिताए इस पथ पर ।
पा जाये कुछ विश्राम यही ,
सफ़र आसान बने इस पथ पर ।
है फिर भी एकाकी तू ,
चलता अपनी धुन में तू इस पथ पर ।
खोया खोया अपने एकाकीपन में ।
कुछ अपनी कुछ पथ की उलझन में ।
हाँ एकाकी तू , बस एकाकी तू ।
तू अपने इस जीवन पथ पर ।
......विवेक दुबे "विवेक"©....
Blog 17/7/17
सोमवार, 27 जुलाई 2015
माँ
माँ बस नाम ही काफी है
कोई परिभाषा नहीं
माँ तेरे नाम की
तू तो राधा की भी बैसी ही थी
जैसी थी माँ तू श्याम की
.....विवेक...
गुरुवार, 23 जुलाई 2015
नई सुबह
जय पराजय से परे
सदा आगे बढ़ते चलें
अपराजित अनथक
नयी सुबह केआँचल तले
एक आस जगे उत्साह मिले
जीवन को नव आयाम मिलें
....विवेक....
बुधवार, 22 जुलाई 2015
क्यों रोती है माँ
देख क्या होती है माँ ।
बच्चों की खुशियों पर क्यों रोती है माँ ।।
दुनियाँ को ख़ुशी के नजर आये आँसू वो ।।
पर माँ को पल याद आये वो ।
धरा था जिस वक़्त गर्भ में ,
जना था वाजी लगा जान की ।।
नही की परवाह अपने प्राण की ।
सारे पल आज याद आये वो ।।
दुनियाँ को अपने दर्द कैसे बताये वो ।
बस अपनी आँखों से मोती बरसाये वो ।।
यह बात तब और भी गहरी होती है ।
जब वो बेटीओ की माँ होती है ।।
वो ताने याद आते है ,
जो बेटी जनने पर ।
दुनियाँ से बिन माँगे मिल जाते है ,
मिलते ही जाते है ।।
.....विवेक....
मंगलवार, 21 जुलाई 2015
दबा हुआ हूँ अहसासों से
दबा हुआ हूँ अहसासों से ;
कुछ अपनी ही साँसों से ।
हर पल घिसता हूँ पिसता हूँ ...!!
अपनी साँसों से भी डरता हूँ ....!!
न जीता हूँ ; न मरता हूँ .......!!
कुछ ज़िंदा अरमानों के बोझों से ।
जब चलता हूँ फिरता हूँ ....!!
सौ -सौ बार गिरता हूँ , ....!!
फिर उठकर चल पड़ता हूँ ....!!
लड़ता हूँ कर्ज़ों से कुछ फ़र्ज़ों से ।
चलता हूँ ,बस चलता हूँ ....!!
चलता ही रहता हूँ ............!!
अदा नही हुआ जीवन की रस्मों से ।
....विवेक दुबे"निश्चल"@....
रात तो कट जाती है
रात तो कट जाती है।
मौत ही नही आती है ।
आती भी दरवाज़े पर ,
दस्तक देकर चली जाती है ।
रस्में जिम्मेदारियों की और निभा ,
कह जाती , वक़्त अभी बाँकी है ।
पूरी नही लिखी तूने अपनी कहानी ,
आँख हड़बड़ाकर इतने में खुल जाती है ।
एक सिलसिला कल आज और कल का ,
ज़िन्दगी क्या है बात समझ आ जाती है ।
..
हर पल नव सृजन का बस ये सोचकर ,
जिंदगी भी एक लुभाबनी कहानी है ।
जुट जाता है पूरे जोश-ओ-खरोश से ,
ज़िन्दगी की हर रस्म तो निभानी है ।
.
!!...विवेक दुबे"निश्चल"@....!
रविवार, 21 जून 2015
नेहदूत पिता
मनचाहा बरदान मांग लो ।
अनचाहा अभय दान माँग लो ।।
उसके होंठो की मुस्कान माँग लो ।
जीवन का संग्राम माँग लो ।।
सारा पौरुष श्रृंगार माँग लो ।
साँसों से प्राण माँग लो ।।
बस हँसते हँसते हाँ ।
कभी न निकले ना ।।
कुछ ऐसा होता है पिता ,
क्या हम हो सकेंगे कभी कहि ,
अपने इस ईस्वर के आस पास ,,
तब शायद पिता को समझ सकें कुछ हम भी ,,,
...विवेक.....
बुधवार, 3 जून 2015
बदलते परिदृश्य
उसकी बातो से टूट सी गई माँ निचुड़ सी गई माँ
उसने कहा जब लूँगी अपने फ़ैसले मैं खुद अब
ताकती रही शून्य में माँ सोचती रही बहुत कुछ माँ
शयद यह की अब तक जो फैसलें लिये तेरे लिए
क्या गलत थे वो ..
फिर अगले ही पल आँखें की जोर से बंद
गिरी कुछ आँख से बूंदें पानी की
और अपने कामों में थके क़दमों से लग गई माँ
आज बेटी के इस फ़ैसले से
कितनी बूढ़ी लग रही है माँ
सुनकर इस फैसलें को स्तब्ध है
पिता वो कल तक गर्व करता था जो
मैरी संतान है यह दुनियाँ से कहता था जो ...
.....विवेक.....
मंगलवार, 2 जून 2015
क्या होती है माँ
देख क्या होती है माँ
बच्चों की खुशियों पर क्यों रोती है माँ
दूनियाँ को ख़ुशी के नजर आये बो
पर माँ को पल याद आये बो
धरा था जिस वक़्त गर्भ में
जना था वाजी लगा जान की
नही की परवाह अपने प्राण की
सारे पल आज याद आये बो
दूनियाँ अपने दर्द कैसे बताये बो
बस अपनी आँखों से मोती बरसाये बो
यह बात तब और भी गहरी होती है
जब बो बेटिओं की माँ होती है
बो ताने याद आते है
जो बेटी जनने पर
दूनियाँ से बिन माँगे मिल जाते है मिलते ही जाते है
....विवेक...
सोमवार, 18 मई 2015
ज़िन्दगी
जो छूट जाता है
बो सिखाती है
जिन्दगी ....
किताबो के नहीं....
कुछ किस्मत के...
कुछ कर्मो के...
सबक पड़ती है ...
जिन्दगी....
...विवेक...
मन का द्वंद
बिकल्प से संकल्प तक का
छोटा सा सफ़र,,,
इतना आसन नहीं
कदम कदम मन भटकता है
हर फरेव सच सा लगता है
मन का मन से द्वन्द .....
जेसे पंछी पिंजरे में बंद ....
.....विवेक...
कहना पड़ता है
सब बढ़िया है
कहना पड़ता है
अपना हर गम ,,,
खुद ही सहना पड़ता है,,,
कहने को तो बाटने से
बाँट जाते है गम ,,
दिल बहलाने के लिए
यह भी कहना पड़ता है .....
....विवेक....
रविवार, 17 मई 2015
होली की शुभ कामनाये
रंगने की धमकी ना दे, क्या तेरे रंगों से मै डर जाऊँगा |
रंगेगी मुझको तेरे हाथों से, मै भी तो रंग ले कर आऊँगा
कनक कंचनी काया तेरी, चमक रही है ऐसे जो चंदा सी
तेरी इस कंचनी काया को मै, मेरे रंग में रंग जाऊँगा |
होली की शुभकामनाएँ आप को
बेचूँगा
बेचूँगा अब शब्द
तौल तौल कर
अपने जज्बातों से
सीखा अब हमने भी यह ,
सत्ता के गलियारों से ,,,,
देख़ो कैसे लूट रहे ,
मीठी मीठी बातो से ,,
कर रहे भ्रमित ,
चिकने चुपड़े बादो से ,,
छले जा रहे कही ,
मर रहे अन्नदाता हर कही ,,
रंज लेश मात्र नही ,,,
कुछ अब पहुच रहे ,
घड़ियाली आँसू बहाने को ,,,
बेचूँगा अब शब्द तौल तौल कर ...
.....विवेक...
झुका लो पलके
मैं कौन हूँ जमाना तय क्या करेगा ।
मेरा हुनर ही तो मेरा आईना होगा ।।
...
झुका लो पलके अपनी ,
पैरो तले जमीं देखो।
खुश रहो अपने हाल पर,
अपनी ही कमी देखो।
एक दिन जमीं भी,
सितारों से,सजी होगी।
चांद की नजर भी,
जमीं होगी।
उतरेगा सूरज भी,
फलक से जमीं पर ।
कदम चूमने तेरे।
उसकी भी तबियत होगी ।
.....विवेक दुबे "निश्चल"@...
शुक्रवार, 15 मई 2015
असर माँ की दुआओ का
यह माँ की दुआओं का असर है
मुझ पर ,,,,
ज़माने की हर बददुआ बेअसर है
मुझ पर ,,,,
....विवेक...
गुरुवार, 14 मई 2015
माँ
रिश्ते तो दुनियां में है बहुत
हर रिश्ते पर चढ़ी
कही न कही स्वार्थ की
सुनहरी परत
माँ और मित्र सबसे जुदा
निस्वार्थ माँ और मित्र का सिलसिला
.....विवेक......
समझ
समझने से कुछ होता
तो दुनियां बदल जाती यारो
कुछ बदलने के लिए
बहुत कुछ करना होता है यारो
....विवेक..
माँ
धरा सी शांत गगन सी बिशाल
माँ तेरी ममता की न हो सकी पड़ताल
जब भी बरसी शीतल जल बनकर
स्नेह से किया सरोबार
नित नए अंकुर फूटे
खिलाये खुशियो के फूल अपार
देती हो बस देती ही रहती हो
नही कभी इंकार
तुफानो में हिली नहीं
सैलाबो से डिगी नहीं
तेरी आँखों से दुनियां देखी
तेरे मन से जाना इसका हाल
सच झूठ का भेद सिखाया
समझाया क्या अच्छा क्या बेकार
तेरे कदम तले की मिट्टी
मेरे मस्तक का श्रृंगार
यादो में जब जब खोता हूँ
भाबो में बहता हूँ
नमन तुझे ही करता हूँ
ऋण नहीं कह सकता जिसको
बो तो बस है तेरा उपकार
माँ ऐसा मिला मुझे तेरा प्यार
...........विवेक.....
माँ पर बार बार लिखा नही जा सजता जो एक बार लिख जाये बो मिटाया नही जा सकता
बुधवार, 13 मई 2015
संस्कार
शादी और ससुराल
दुनिया के हर मज़हब में
law से चलता है
बस एक हम ही है
जहाँ यह रिश्ता नाता
हमारे संस्कार में पलता है
एक बार जुड़ गए किसी से
बो जन्मो का सा लगता है
नो ऐग्रीमेंट नो कांट्रेक्ट
16 संस्कारो में से एक संस्कार
शुभ विवाह संस्कार
इसीलिए हम सनातन कहलाये
.... विवेक.....
कनक की कविता सपनो का जहां
लेकर में चली जहां,
झिलमिलाते सितारों के साथ;
जाऊ चाँद पर भी में आज,
क्या पूरा होगा ये ख्वाब,
क्या पूरा होगा ये ख्वाब!
है तमन्ना है,
आरजू कोई;
मेरी धडकनों में,
चाहू बस यही,
में तो बस यही ,
झूम इस जहन में;
छू के आसमा ये आज,
कर जाऊं ऐसा कुछ ख़ास,
के क़दमों में हो
सितारे मेरे यार!
सितारे मेरे यार!
उसकी माया
केसी है यह उसकी माया ...
उसने ही सब खेल रचाया...
यह तो बस वो ही जाने
मेने तो बस उस पर दिल हारा
तन मन बारा
.....विवेक.....
सत्य
सत्य कभी छुपता नहीं
समय कभी रुकता नहीं
लाख ओड़ लो झूठ के लवादे
लाख करो चतुराई
सत्य ने समय समय पर
अपनी धाक जमाई
.....विवेक...
संस्कार
शादी और ससुराल
दुनिया के हर मज़हब में
law से चलता है
बस एक हम ही है
जहाँ यह रिश्ता नाता
हमारे संस्कार में पलता है
एक बार जुड़ गए किसी से
बो जन्मो का सा लगता है
नो ऐग्रीमेंट नो कांट्रेक्ट
16 संस्कारो में से एक संस्कार
शुभ विवाह संस्कार
इसीलिए हम सनातन कहलाये
.... विवेक.....
धुलाई
हमने वक़्त के साथ अपने आप को
खूब धोया निचोड़ा
धुप में सुखाया
अच्छे से इस्त्री भी की
बार बार धोया
अच्छे से अच्छे डिटर्जेंट से
कूट कूट पर
पीट पीट कर
पटक पटक कर
दचक दचक कर
पर कोई फायदा नहीं
हर बार हम
जेसे थे बेसे ही रहे
पहले की तरह
बिना धुले बिना इस्त्री किये हुए
कपड़ो की तरह
आज के सभ्य समाज की तरह
झक सफ़ेद पोश न हो सके आज भी हम
.......विवेक......
पानी (जल दिवस)
पानी (जल दिवस)
जिसका अपना कोई बजूद नहीं ।
पानी बिन कोई पर परिपूर्ण नहीं ।
किया गर्म भाप बन उड़ गया ।
किया ठंडा वर्फ में बदल गया ।
जैसा चाहो वैसा ढालो ,
सब में तैयार ।
नहीं कोई इंकार ,
न कोई अहंकार ।
साथ रहने को तैयार ,
दूर जाने से नही इंकार।
मिलाओ मिल गया ,
गर्म करो उड़ गया ।
कुछ ऐसा ही हो
मानव मन का श्रृंगार ।
......विवेक दुबे"निश्चल"@....
सोमवार, 11 मई 2015
आह कवि वाह कवि
कवि एक ऐसा प्राणी ...
जिसको नहीं कोई दूजा काम
यह तो बस होता हे बेलाम ....
जब तक मर्जी सीधा सरपट भागे
जब मन हो तिरछी तिरपट चाल दिखावे
पता नहीं कब दुडकी मारे
जिसकी चाहे उसकी टांगे खिचे
न जाने कब किसको
लपेट लपेट के मारे
ऊँच नीच का भेद मिटावे
भाषा धर्म के दूर करे अंधियारे
नेता और अफसर शाही
सब पर इसने धाक जमाई
हर मुश्किल में यह सामने आया
दुनिया को सच का आईना दिखाया
सबसे पहले यही बोला
ईस्वर अल्लाह जीजस मोला
ओ मानब
क्यों तूने उसको स्वार्थ पर तोला
चलते सदा इसके
व्यंगो के बाण
सत्य की क़टार से
हिम्मत की तलवार से
करता यह बड़े बड़े काम
नहीं कभी इसे विश्राम
फिर भी सब कहते
ओ रे कवि
तुझे नहीं कोई काम .......
.......विवेक....
उसका घर
इसने कहा मेरा खुदा
उसने कहा मेरा god
तुमने कहा मेरा ईस्वर
मैंने पूछा भाई
यह बताओ
यह रहते कहाँ है ?
तीनो ने अंगुलियाँ अपनी अपनी
आसमान की और उठा दी
मैंने फिर पूछा
क्या यह भी हमारी तरह आसमान में
लड़ते रहते है ?
अपने अपने वर्चस्व के लिए ....
सच कहूँ यारो
तीनो की नजरे जमीन को ताक रही थी ...
......विवेक.....
आया बसंत
आया बसंत ...
बिखरा बसंत...
छाया बसंत....
झूम उठी हर डाली डाली...
खिल उठी कलि कलि से ..
सूनी प्यासी डाली डाली ....
भवरों पर योवन छाया. .
फूलो के मदमाते पराग ने बोराया ....
पा कर सुगंध.
हुआ मदमंद....
घूमे डाली डाली .. .
आतुर मिलने को जिस से...
हर कलि...
जो बस अब है खिलने ही बाली ...
धरा हो गई फिर से नव योवना ...
पहनी है केसरिया साड़ी....
सरसों फूली टेसू फूले
फूल रही है डाली डाली
स्वागत को आतुर हो जेसे
अपने सजन के.. .
नई दुल्हन प्यारी प्यारी.....
शुभ बसंत के पर्व पर
आओ हम सब फूलो से ही खिल जाये
भूल सारे दुःख दर्दो को
भवरो सा गुनगुनाये....
खिल कर फूलो से
महके और महकाए
सभी मित्रो को
वसंत उत्सव की बसंती कामनाओ सहित
सादर समर्पित ......
.......विवेक.....
मन बचपन
यादे हो उठी ताज़ा
मन महका बचपन जागा
पुलकित आज मन की फुलवारी
खनके मन के तार
जैसे राग छेड़ते बीणा के तार
जैसे कर के श्रंगार ठुमक चलत एक नार
मन फिर एक बार
आ पंहुचा इस पार
अब सोचे सौ सौ बार
कैसे पहुचूँ अब उस पार
फिर एक बार फिर एक बार ...
.....विवेक...
ओ पुरुष
ओ पुरुष ......
तूने कभी सोचा कौन है तू ?
किस के द्वारा लाया गया ?
किस बजह से तू कहलाया पुरुष
तो सुन आज सत्य को जान जरा
तू भी उसी का अंश है ,
तू उसी से दुनिया में आया है ।
तू उसी की बजह से ,
पुरुष कहलाया है ।
जिसको आज तू ,
दुनिया में आने से पहले ,
गर्भ में ही दफ़न करने तुला है ।
शायद इस डर से ....
तेरे जन्मते ही मेरी नजरे झुक जाएँगी ,
कही कोई सड़क चलता भेड़िया ,
शिकार न बना ले इसको ।
या कोई लालची दानव ,
आग के हवाले न कर दे इसको ।
या फिर कही कोई रहा चलते ,
तेजाब न छिड़क दे इस पर ।
पर कभी सोचा तूने ?
यह सब करता कौन है ?
ओ पुरुष तू बस तू ,
और कोई नाही ।
कुछ इस तरह से नष्ट की ,
कुछ उस तरह से तूने ।
अब बोल तू बचा सकेगा ,
अपने अस्तित्व को ,
आने बाले कल के लिए ।
.....विवेक दुबे" निश्चल"@...
बोलो श्रीमान
नया जमाना
जिसमे दिल का नहीं कोई मुकाम
मतलब की दुनिया सारी
आपनी अपनी लाचारी
अपने मतलब की खातिर
कर रहे जमीर को कुर्वान
सच्चे झूठे का भेद नहीं अब
अब झूठ हुआ सच सामान
माया का चक्कर ऐसा छाया
बिक गए अच्छे अच्छो कै ईमान
डूब गई वफादारी
कत्ल हुए हक और ईमान
क्या मैंने यह सब
सत्य कहा श्रीमान...
......विवेक.....
चहरे
हर चहरे में भगवान ढूंडता हूँ ,,,
दुनिया में ईमान ढूंडता हूँ,,,,
बेंच कर अपनी खुशियाँ
चहरों पर मुस्कान ढूंडता हूँ,,,
....विवेक...
जश्न-ए-ज़िन्दगी
हम जिन्दगी का जश्न ,
कुछ यू मानते रहे ।
वा-अदब भी ,
बे-अदब नजर आते रहे ।
वा-कायदा भी ,
बे-कायदा कहलाते रहे ।
....विवेक दुबे"निश्चल"@..
स्त्री
स्त्री
शक्ति स्वरूपा ,
लक्ष्मी रूपा ।
विद्या दयनी ,
रिद्धि सिद्धि प्रदायनी ।
गौरी बन रचा गणेश ,
सृजन किया अनुपम सृष्टि का ,
मैं ही सृष्टि दिया सन्देश ।
आकांक्षाएँ अभिलाषाएँ तुम ही से ।
स्त्री तुम ही हो सृष्टि का आधार ।
देती हो हर दम देती ही रहती हो,
करती नहीं कभी इंकार ।
जब जब पाप बड़े धरती पर ,
मची हाहाकार ।
तब रूप धरा चंडी का ,
दुष्टों का किया संहार ।
सीता बन राह बनी रघुवर की ,
रावण का हुआ संहार ।
पांचाली बन अहसास कराया ,
स्त्री नहीं है व्यापार।
नष्ट हुआ कुरु बंश ,
जिसने किया नहीं स्त्री का मान ।
तब हो या हो अब ,
तब तब खुशियाँ छाई ,
जब जब तुम्हे मान मिला ।
तब तब जग अंधियारी छाई ,
जब जब अपमान मिला ।
ओ स्त्री तुम ने , बस तुम ने ही ।
भाव समर्पण से ,यह सृष्टि रचाई ।
....विवेक दुबे "निश्चल"@...
ओ माँ
कभी कुछ भी तो न किया
माँ तू ने खुद
अपने बास्ते
जो भी किया बस
मेरे बास्ते
तू ने आसान किये
मेरे हर रास्ते
मेरे गम की परछाई भी
तुझ से घबराई
तू ने अपनी हर ख़ुशी
मुझ पर लुटाई
छोटी सी खरोच भी देख
अपने सारे दर्द भूल गई
मेरी नींद की खातिर
तू सोना भूल गई
मेरे माथे पर बो काजल से चाँद बनाना
लाल सूखी मिर्चो को
आग में जलना
फिर सीने से लगाना
.....विवेक....
मन बचपन
यादे हो उठी ताज़ा
मन महका बचपन जागा
पुलकित आज मन की फुलवारी
खनके मन के तार
जैसे राग छेड़ते बीणा के तार
जैसे कर के श्रंगार ठुमक चलत एक नार
मन फिर एक बार
आ पंहुचा इस पार
अब सोचे सौ सौ बार
कैसे पहुचूँ अब उस पार
फिर एक बार फिर एक बार ...
.....विवेक...
ज़िन्दगी का कैनवास
दर्द को ही तो उकेरेगी ..
जिंदगी के केनवास पर ...
मेरी यह बुझे बुझे ...
रंगों में डूबी कूची ....
.....विवेक....
यह भी ज़िन्दगी
कभी कभी कितनी उदास जिन्दगी.....
अपनों से बहुत दूर होती जिन्दगी....
खुद से ही नाराज जिन्दगी...
गैरो में ख़ुशी तलाशती जिन्दगी??????
....विवेक...
शनिवार, 9 मई 2015
अभियान
वाह आभियान आह आभियान
मेरा देश महान
इस देश में अभियान चलाने की एक फेशन सी है ...
कभी कोई अभियान तो कभी कई ...
सारे अभियान चलते जा रहे है.....
चलते ही जा रहे है ........
बस चलते ही जा रहे है ......
पता ही नहीं आखिर इन्हें जाना कहा है? ..
और कहाँ जा रहे है ......
कुछ तो अभी भी चल रहे है....
कुछ ने अभी2 चलना शुरु किया है...
और भाइयो ....
कुछ तो चलते चलते .....
पता ही नहीं कहाँ चले गए.....
वाह अभियान ....
आह अभियान....
मेरा देश महान ...
.....विवेक....
कैसे छोड़ दूँ शहर अपना
कैसे छोड़ दूँ मै शहर अपना ।
तमन्ना है शहर को अपना बनाने की ।
अभी शहर में अजनबी बहुत है ।
....विवेक....
समझाइस
मटक मटक कर
लट झटक झटक कर
कुछ बल खा कर
कुछ इतरा कर
कुछ शरमा कर
कुछ घवरा कर
कितनी बार कहा
यू न चला करो
लो मुड़ गई सेंडल
आ गई मोंच पैर में....
......... विवेक......
त्याग
खुद को खुद से खो कर
किसी और को जीवन देती
खुशियाँ बाँटती अपार
सार्थक तेरा हर त्याग
नहीं व्यर्थ तनिक भी
नारी तेरा यह त्याग ....
.....विवेक......
कल
सपनो की बात चली
यादो की गांठ खुली
फिर ताज़ा हुए बो बीते पल
जो अपने ही तो थे कल
केसे बीत गए बो पल
कहाँ गुम हुआ बो कल
सपनो ने भी आना छोड़ दिया
जब से उसने मुहँ मोड़ लिया
करके बहाना
कल आने का
अब तक न आये बो
कल कब आता है
अब यह उन्हें समझाए कोई
....विवेक..
माँ
धरा सी शांत गगन सी बिशाल
माँ तेरी ममता की न हो सकी पड़ताल
जब भी बरसी शीतल जल बनकर
स्नेह से किया सरोबार
नित नए अंकुर फूटे
खिलाये खुशियो के फूल अपार
देती हो बस देती ही रहती हो
नही कभी इंकार
तुफानो में हिली नहीं
सैलाबो से डिगी नहीं
तेरी आँखों से दुनियां देखी
तेरे मन से जाना इसका हाल
सच झूठ का भेद सिखाया
समझाया क्या अच्छा क्या बेकार
तेरे कदम तले की मिट्टी
मेरे मस्तक का श्रृंगार
यादो में जब जब खोता हूँ
भाबो में बहता हूँ
नमन तुझे ही करता हूँ
ऋण नहीं कह सकता जिसको
बो तो बस है तेरा उपकार
माँ ऐसा मिला मुझे तेरा प्यार
...........विवेक.......
पहचान
प्रकाशक मिल जाने से क्या ?
पुस्तक छप जाने से क्या ?
पुरुस्कार मिल जाने से क्या ?
मंच पर जगह मिल जाने से क्या ?
न कोई शिकवा न कोई गिला
अपना तो नेट ब्लॉग ही प्रकाशक है
यही लिखने का साधक है
मित्रो के लाइक कमेंट्स पुरुस्कार बने
दिलो के मंच पर आ डटे
सब को बार बार आभार
और क्या चाहिए यार ..
.............विवेक.....
नए कर्ण धार
सत्ता ने बदला भेष
बचा नहीं कुछ शेष
क्रांति ही अब शेष
क्या यही गांधी सुभाष का देश ?
झुठो और मक्कारो को
तनिक भी नहीं क्लेश
राग अलापे बस अपना ही
समझा जैसे खुद ही सारा देश
निगल रहे भारत भूमि को
देखो बहरूपिये का भेष
कल नाचता था
कोई और जमूरा
आज नाचता मदारी
नया जमूरा
यह तो नाचे
पहले बाले से भी तेज़
यह मेरा भारत देश
हाँ यही है भारत देश
नमो नमो नमो नमो
..........विवेक.....
भोजी संग होली
भौजी मारो न नयनो के बाण
घायल मनवा हुई जात है
सूनी होली में आ गये है प्राण
तोहे देख देख हम बौरात है
भोजी जा वर्ष तू यही है
दूर हम से नहीं है
तोहे रंग देहे सरे आम
भौजी मारो न नयनो के बाण
देखत है भैया और महतारी
आज खेलत फ़ाग हम संग भाभी
और झूमे देख देख तेरी मुस्कान
रंग की मारी भर पिचकारी
भोजी बोले मेरे देवर बड़े शैतान
भौजी मारो न नयनो के बाण
ऐसी होली कबहुँ न खेली
भौजी तू तो होली की शान
जो भाई कछु गलती हमारी
माफ़ी देदो भोजी प्यारी
तुम तो भैया की नैयनन् प्यारी
तुम्ही में वस्त वा जेके प्राण
भौजी चलाओ न नयनो के बाण
होली की मस्ती भरी रंग रंगीली रंगीन शुभ कामनाये
........विवेक....
ज़िन्दगी
हाँ नदियाँ सी ही तो है
यह ज़िन्दगी ....
बहना ही जिसकी नियति
कभी शांत
कभी विकराल
कभी इठलाती
कभी बल खाती
यहाँ वहाँ मुड़ जाती
कही सकरी सी धार
कही एक दम विशाल
कुछ ले लिया अपने साथ
कुछ छोड़ दिया किनारो पर
बहती है जो अपने उदगम् से
अपने प्रियतम के
मिलन तक की यात्रा के बीच
और समां जाती है
अपने प्रियतम के आगोश में
अपने आस्तित्व को मिटा कर .......
......विवेक.......
विचार
इजाजत तो नहीं हमें
मनमानी करने की
कोई भी नादानी करने की
पले है संस्कारो में
ढले हे बिचारो में
बस फख्त बात इतनी सी है
कुछ पल ज़िन्दगी
आप दोस्तों के संग
अपने तरीके से
जी लिया करते है
दिल लगी कर लिया करते है
बात मन की
कह दिया करते है
.....विवेक.....
शुक्रवार, 8 मई 2015
चलन ज़माने का
ज़माने का एक यह भी चलन देखा है
मयस्सर नही ढकने मिटटी को
बो कफन देखा है
बचपन बीन कर खता जिसको
बो जूठन देखा है
झांकता योवन फटे कपड़ो से
बो तन देखा है
यह भी है मेरा वतन
हाँ मैंने अपना वतन देखा है
......विवेक....
शुक्रवार, 24 अप्रैल 2015
संस्कार
शादी और ससुराल
दुनिया के हर मज़हब में
law से चलता है
बस एक हम ही है
जहाँ यह रिश्ता नाता
हमारे संस्कार में पलता है
एक बार जुड़ गए किसी से
बो जन्मो का सा लगता है
नो ऐग्रीमेंट नो कांट्रेक्ट
16 संस्कारो में से एक संस्कार
शुभ विवाह संस्कार
इसीलिए हम सनातन कहलाये
.... विवेक.....
जिंदगी यह भी
आज हम जी रहे जो जिंदगी
यह आज भी लाखो करोडो के लिए एक सपना हे
पर
फिर भी हम
और के लिए भागे जा रहे हे ....
संतुष्टि को और की चाहत की बलि चड़ा रहे .. ....
संतोष नहीं तो धन केसा...
संतुष्टि नहीं तो माया केसी...
जितना कमाते हे
अपना घर चलाते हे
2 पैसे बचाते हे
हो जाते हे
पूरे सारे काम
सबके दाता राम
इस से ज्यादा
के चक्कर में उलझे जो
तो भैया
पक्का मानो
होगई नींद हराम
जय जय सीता राम
......विवेक.....
धुलाई
हमने वक़्त के साथ अपने आप को
खूब धोया निचोड़ा
धुप में सुखाया
अच्छे से इस्त्री भी की
बार बार धोया
अच्छे से अच्छे डिटर्जेंट से
कूट कूट पर
पीट पीट कर
पटक पटक कर
दचक दचक कर
पर कोई फायदा नहीं
हर बार हम
जेसे थे बेसे ही रहे
पहले की तरह
बिना धुले बिना इस्त्री किये हुए
कपड़ो की तरह
आज के सभ्य समाज की तरह
झक सफ़ेद पोश न हो सके आज भी हम
.......विवेक......
मैं
"मैं" मै क्या कुछ भी नहीं
जब तक "मैं" मै था
तब तक एकाकी एकांत
भटक रहा था "मै"
अपने "मैं" के साथ
जैसे ही छोड़ा मैंने "मैं" को
तुम तुम्हे लिया साथ
बदल गई दुनियां
बदल गए हालात
जाना तब यह
तुम से ही चलते
जग के सारे काज ....
.........विवेक..............
("मै" मेरा अहम् "तुम" मेरी नम्रता )
सदस्यता लें
संदेश (Atom)
कलम चलती है शब्द जागते हैं।
सम्मान पत्र
मान मिला सम्मान मिला। अपनो में स्थान मिला । खिली कलम कमल सी, शब्दों को स्वाभिमान मिला। मेरी यूँ आदतें आदत बनती गई । शब्द जागते...