बुधवार, 2 जनवरी 2019

तम छाया है ,

700

तम छाया है ,दूर तलक नहीं कहीं छाँया है ।
अपनी ही आभा से दिनकर भी भरमाया है ।
अब ये कैसी टीस उभरती मन में मन की ,
इस मन ने जब मन से ही धोका खाया है ।

पथिक पग छूट रहे पथ पर चलते चलते ,
वो चिन्ह सभी पीछे छोड़ चला आया है ।

 इन राहो पर राहों की ही अभिलाषा में ,
 चौराहों ने इस राही को भी बहकाया है ।

 वो चलता है मंजिल की एक आस लिए ,
चलकर क्षितिज तले जो चलता आया है ।

सजता है भोर तले रवि संध्या से मिलने ,
पर साथ निशा तक वो कब चल पाया है ।

"निश्चल"तट छूकर बहता नीर नदी का ,
 तटनी ने तट को हरदम ही बहलाया है ।

... विवेक दुबे"निश्चल"@...
डायरी 6(111)

ईमान भी अब आज हाँफता है ।

699

ईमान भी अब आज हाँफता है ।
मैं कैसे कहुँ के मुझे आस्था है ।

 है नहीं कहीं चौराहे फिर भी ,
 बदलता सा हर एक रास्ता है ।

तंग सा रहा ईमान भी ईमान से ,
 सच रहा आज क्युं बे-वास्ता है ।

 स्याह से मेरे शहर के उजलों में ,
 फ़िक़्र दिल अपनी तलाशता है ।

ख़ामोश निग़ाहों से देखता चलूँ ,
"निश्चल" इतना ही रहा वास्ता है ।

   .... विवेक दुबे"निश्चल"@..
डायरी 6(110)

कैसे रहे आज युं , ज़िंदा कहीं कोई ।

698

कैसे रहे आज युं ,  ज़िंदा कहीं कोई ।
है नही आज क्युं , शर्मिदा कहीं कोई ।

यूँ रहा मुक़म्मल,आसमां वास्ते उसके ,
है नही आजाद ,पर परिंदा कहीं कोई। 

बैचेन रहा चैन ,  टूटते आज के लिये ,
शुकूँ ढूंढता शहर ,वाशिंदा कहीं कोई ।

लुटती है आबरू, ज़िस्म ओ ईमान की ,
है नही नज़्र निग़ाह, दरिंदा कहीं कोई ।

छीनकर उजाले,  स्याह ले कर चले ,
देख रहा खमोश, चुनिंदा कही कोई ।

होती ही रही बसर, जिंदगी ज़िस्म से ,
करता रहा फ़र्ज़ हर्ज़, कारिंदा कहीं कोई ।

लिखता रहा जज्वात, जिस किताब में,
 नादान ले गया वो, पुलिंदा कही कोई ।

 हो न सका कायल, जहां मेरे उसूलों का ,
"निश्चल"क्युं करता रहा,निंदा कहीं कोई ।

..... विवेक दुबे"निश्चल"@....
डायरी 6(109)


टकराता साहिल से , तूफ़ां अक्सर क्यूँ है ।

697

2    2 2  1 ,  2  2   2 1 ,  2 2    21
टकराता साहिल से , तूफ़ां अक्सर क्यूँ है ।
आजमाता हालात,ख़ामोश मुक़द्दर क्यूँ है  ।

बहता है दरिया ,जो सैलाब के लिबास में ,
सिमेटता दामन में, आखिर समंदर क्यूँ है ।

गिरता शाख से, पत्ता जमीं की खातिर ,
ग़ुम होता फिर, कही वो उड़कर क्यूँ है।

 खिलते है लफ्ज़ कलम, फूल की तरह ,
 अल्फ़ाज़ जुबां , आते बिखरकर क्यूँ है ।

वो कहता रहा,शाम-ए-ग़जल दीवाने सा ,
असरात लफ्ज़ रहे ,मगर मुख़्तसर क्यूँ हैं ।(संक्षिप्त)

पिरोकर हर्फ़ हर्फ़ , हक़ीक़त-ए-हालात में ,
समझता वो नादां , आपको कमतर क्यूँ है ।

झुक जाता हरदम ,सामने शिद्दत से उसके ,
"निश्चल"उस संग का,होंसला मयस्सर क्यूँ हैं ।
 .... विवेक दुबे"निश्चल"@....



देता रहा जो मुझे दुआ कोई ।

694
देता रहा जो मुझे दुआ कोई ।
है उसकी जुबां में दवा कोई ।

रहे देखता जो नम निग़ाहों से ,
कैसे कहुँ मैं है के ख़फ़ा कोई ।

करता रहा सौदे अपनी वफ़ा के,
नज़्र मिलती हो जैसे शफ़ा कोई ।

तिज़ारत-ए-जिंदगी सफ़र में ,
मुक़म्मिल है ये नफ़ा कोई ।

मैं रह गया पीछे चलते चलते,
इंतज़ार में हरदम रुका कोई ।

 कहता रहा मैं ठहर तो तू जरा ,
"निश्चल"नही कभी वो थका कोई ।


.... विवेक दुबे"निश्चल"@....

शफ़ा/तंदरुस्ती आरोग्य
डायरी 6(105)

मुक्तक

679
तपते निर्जन में एक छाँव बना देना ।
आते जाते को एक ठाँव बना देना ।
भटके न कोई राही दुर्गम राहो पर ,
चलकर पथ पर तू पाँव बना देना ।
....680
ख़बर को ख़बर की ख़बर नही कोई ।
असर को असर का असर नही कोई ।
टूटे न होंसला ये मगर चलते चलते  ,
मंजिल का रास्ते पे जिकर नही कोई ।
....681
न कुछ गलत न कुछ कभी सही ।
रह गया सभी सब यही का यही ।
जीतता है तू क्यूँ इस जहान को ,
ये ज़िस्म भी तो साथ जाता नही ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@...
डायरी 3

आता कोई

678

उठाकर संग निगाहो,
            में सामने आते है ।(आता कोई )

भरकर आब आंखों में ,
             फिर मुस्कुराते है ।(आता कोई)

मैं कैसे कहुँ के दर्द नही ,
              दिल में मेरे वास्ते ,

दास्तां दुआ की सुनाकर ,
                 अपना बनाते है ।(आता कोई)

... विवेक दुबे"निश्चल"@...
डायरी 3

मुक्तक

672
तू रंजिशों का मलाल न कर ।
दुनियाँ को बेमिशाल न कर ।
चलता चल तू अपनी धुन में ,
इन रास्तों का तू ख्याल न कर ।
...673
है नही अहसान दुनियाँ में ।
 क्या यही ईमान दुनियाँ में ।
 करता इरादे मुक़म्मिल जो ,
 है वो भी मेहमान दुनियाँ में ।
....674
हम जो भी यहाँ पे लिखेगें ।
क्या वो निग़ाह से दिखेगें ।
न बिखेर सितारे ज़ज्बात के,
वो टूटकर फ़लक से गिरेगें ।
....675
रुक गया मुसाफ़िर चलते चलते ।
ढल ही गया जो दिन ढ़लते ढ़लते ।
रह गये क्यूँ फांसले चंद कदमों के,
क्यूँ रह गई मंजिल मिलते मिलते ।
....676
कहता रहा जमाना वाह क्या बात है ।
दुनियाँ से बस इतना ही रहा साथ है ।
चलता रहा चाँद सितारों को लेकर ,
यूँ गुजरती रही "निश्चल"स्याह रात है ।
.... 677
ग़ुम हुए साये भी यहाँ इस कदर ।
पराया सा लगता है अपना शहर ।
है नही आब आँख में अब कोई ,
बेअसर सा हुआ हर निग़ाह असर ।

...विवेक दुबे"निश्चल"@..
डायरी 3

सोमवार, 31 दिसंबर 2018

इतना ही बस शेष रहे

वेश रहे न अबशेष रहे ।
इतना ही बस शेष रहे ।

बीते कल से पल का ,
हृदय नही कलेश रहे ।

शेष रहे न विशेष रहे ।
इतना ही आशेष रहे ।

रीत राग बंधन न कोई ,
अन्तर्मन से महेश रहे ।

जय रहे न जयेश रहे ।
चित्त विनय प्रवेश रहे ।

जय पराजय तजकर ,
निश्चल वो दिनेश रहे ।

... विवेक दुबे"निश्चल"@...

क्यों स्वीकार करते है

हम ये नव वर्ष क्यों स्वीकार करते हैं ।
गोरे प्रहार का क्यों त्योहार करते है ।

ठिठुरता है जहां जहाँ एक और जाड़े में ,
वहां उत्सव सा  क्यों व्यवहार करते है ।

गुजरने दो जरा दो माह जाड़ों के ।
बसंत की आती ही बाहरो के ।

होगी पुलकित सृष्टि शृंगारित धरा ।
तब रूप योवन धरा ने धरा ।

करे स्वागत तब नव बसंत का ।
नव क्रम चले फिर इस अंनत का ।

तब मनाये नव वर्ष उल्लास से ।
बढ़ चले फिर पुलकित आस से ।

माँ शारदे को नमन करें ।
शक्ति से हम जीवन भरें ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@...

कुछ कहुँ अब मैं भी तेरे वास्ते ।


कुछ कहुँ अब मैं भी तेरे वास्ते ।
अब साथ नही है तू मेरे रास्ते ।

थम गया तू क्युं दिन गिनकर ।
दे चला अब अपना दिनकर ।

मैं चलूँगा कल उसे साथ लेकर ।
ठहर यही अलविदा साथ लेकर ।

होंगी यादें तेरी शख़्त कुछ बेहतर  ।
कल तक तूने दी थी मेरी कहकर ।

चलूँगा यादें अब दिल में रखकर ।
बन सके आज कल से भी बेहतर ।
... निश्चल....
डायरी 6(104)

बस साथ यहीं तक

बस साथ यहीं तक,
    रिन्दों से रिन्दों का ।

खाली मयख़ाना साक़ी ,
       फिर बाशिंदों का ।

आते है सब बस ,
    एक रात बिताने को ,

रहा नहीं कहीं ठिकाना ,
     एक कभी परिंदों का ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@...
डायरी 6(103)

गुजर गया जो वो जाने दो ।

गुजर गया जो वो जाने दो ।
नव आगंतुक को आने दो ।

टीस रहे न कोई मन में ,
एक जशन नया मनाने दो ।

गुजरे से आधे किस्सों से ,
फिर रिस्ता नया बनाने दो ।

नेह नयन के सागर से ,
प्रीत सीप चुन लाने दो ।

बैर भाव को तज कर ,
प्रेम राग गीत गाने दो ।

नये बरस की छांव तले ,
नव पल सुखद बिताने दो ।

धूप सुनहरे जीवन में ,
जीवन को बिसराने दो ।

आने दो आकर जाने दो ,
"निश्चल"चल कहलाने दो।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@..
डायरी 6(102)

कर चली अब पार अठारा वो ।

कर चली अब पार अठारा वो ।
उन्नीस में अब कोई सहारा हो ।

कदम पड़े है योवन आँगन में ,
पग पग राह कोई निहारा हो ।

जो छोड़ चली अब पीहर को ,
ज्यों साजन ने उसे पुकारा हो ।

रूप शृंगारित मादक योवन तन ,
मकरंद मद अंग अंग उतारा हो ।

... विवेक दुबे"निश्चल"@...
डायरी 6(101)

*नव आयाम मिलें नूतन वर्ष तले*

= *नव आयाम मिलें नूतन वर्ष तले* =

गीत ग़जल छंदो की हमजोली  ।
ये मन भावन सी काव्य रंगोली ।

सहज रही है आँचल में अपने ,
गंगा यमुनी घाट घाट की बोली ।

निर्मल नीर शब्द तरल से बहते ,
अर्पण करते भावों की झोली ।

 पृष्ठ खुलें जब काव्य रंगोली के ,
भान मिले हृदय किताब खोली ।

शृंगारित पृष्ठ पृष्ठ नव चिंतन से ,
ज्यों सजती नव दुल्हन की डोली ।

यही प्रार्थना करें कामना यही सदा ,
सृजित रहे सृजक जगत की टोली ।

काव्य सृजक खिलें हुरियारों से ,
नित खेलें काव्य विधा सँग होली  ।

प्रयास गढ़े नित चित्त नीरज ने ,
नव अरु रश्मि शतदल संजोली ।

नव आयाम मिले नूतन वर्ष तले ,
"निश्चल"खूब खिले काव्य रंगोली ।

   ... विवेक दुबे"निश्चल"@....
डायरी 6100)



बरस बीत गया बातों बातों में ।

688
बरस बीत गया बातों बातों में ।
दिन बने पल मुलाकातों में ।

 चाहत में मंजिल की अपनी अपनी  ,
 बढ़ते रहे कदम राह बरस साथों में ।

नव भोर तले फिर मिल कर ,
शोहरत मुराद भरें मुरादों में ।

कामना यही हृदय से इस बरस की,
हुनर बढ़ता ही रहे आपके हाथों में ।

मिल सफलता के गले नित नई ,
चाँदनी खिलती रहे आपकी रातों में ।

रहें जगमग दिन उजाले भोर के ,
न मिलें कांटे आपको पथों में ।

भाव खिले शब्द तले मिलकर ,
शारदे बिराजें आपकी तूलिका इरादों में ।
(समसि)
एक कामना यही हमारी सदा "निश्चल"
कदम पड़े आपके उन्नति के द्वारों में 

.... विवेक दुबे"निश्चल"@...
डायरी 6(99)

कलम चलती है शब्द जागते हैं।

सम्मान पत्र

  मान मिला सम्मान मिला।  अपनो में स्थान मिला ।  खिली कलम कमल सी,  शब्दों को स्वाभिमान मिला। मेरी यूँ आदतें आदत बनती गई ।  शब्द जागते...