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तम छाया है ,दूर तलक नहीं कहीं छाँया है ।
अपनी ही आभा से दिनकर भी भरमाया है ।
अब ये कैसी टीस उभरती मन में मन की ,
इस मन ने जब मन से ही धोका खाया है ।
पथिक पग छूट रहे पथ पर चलते चलते ,
वो चिन्ह सभी पीछे छोड़ चला आया है ।
इन राहो पर राहों की ही अभिलाषा में ,
चौराहों ने इस राही को भी बहकाया है ।
वो चलता है मंजिल की एक आस लिए ,
चलकर क्षितिज तले जो चलता आया है ।
सजता है भोर तले रवि संध्या से मिलने ,
पर साथ निशा तक वो कब चल पाया है ।
"निश्चल"तट छूकर बहता नीर नदी का ,
तटनी ने तट को हरदम ही बहलाया है ।
... विवेक दुबे"निश्चल"@...
डायरी 6(111)
तम छाया है ,दूर तलक नहीं कहीं छाँया है ।
अपनी ही आभा से दिनकर भी भरमाया है ।
अब ये कैसी टीस उभरती मन में मन की ,
इस मन ने जब मन से ही धोका खाया है ।
पथिक पग छूट रहे पथ पर चलते चलते ,
वो चिन्ह सभी पीछे छोड़ चला आया है ।
इन राहो पर राहों की ही अभिलाषा में ,
चौराहों ने इस राही को भी बहकाया है ।
वो चलता है मंजिल की एक आस लिए ,
चलकर क्षितिज तले जो चलता आया है ।
सजता है भोर तले रवि संध्या से मिलने ,
पर साथ निशा तक वो कब चल पाया है ।
"निश्चल"तट छूकर बहता नीर नदी का ,
तटनी ने तट को हरदम ही बहलाया है ।
... विवेक दुबे"निश्चल"@...
डायरी 6(111)