शनिवार, 15 सितंबर 2018

चल के देखूं जरा

दिल पे अपने हाथ मल के देखूँ जरा ।
जुबां से अपने लफ्ज़ छल के देखूँ जरा ।

रश्म-ए-दुनियाँ निभाता कौन है चला   ,
लफ्ज़-ए-अंजाम मिल के देखूँ जरा ।

पलटता चलूँ मैं किताब तजुर्बों की ,
हिसाब-ए-ज़िंदगी चल के देखूँ जरा ।

कुछ वक़्त के उलझते धागों से ,
ज़ख्म-ए-दिल सिल के देखूँ जरा ।

जी लूँ अपने ही बास्ते कुछ अब तो ,
चमन-ए-दिल खिल के देखूँ जरा ।

 बुत संग सा तो नही हो गया कहीं ,
 अब "निश्चल" चल के देखूँ जरा ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@..

छुपता रहा छुपाता रहा

छुपता रहा , छुपाता रहा ।
आज को युं, बचाता रहा ।
 लगा मुखोटा खुशियों का ,
 हाल अपना दिखता रहा ।

 आता रहा जाता रहा ।
 आब को मिलाता रहा ।
 समंदर से दरिया का ,
 बस इतना नाता रहा ।

 खिलता रहा झडता रहा ।
 उजड़ता रहा बसता रहा ।
 बदलता रहा बागवां भी,
 और गुलशन पलता रहा ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@..

गुरुवार, 13 सितंबर 2018

मुक्तक 518 / 530

518
 चेहरों पे नही नूर सा ।
यह कैसा दस्तूर सा ।
पढ़ते ही रहे नज़्म को ,
अश्क़ भी था रहा दूर सा ।
...518/a
सफ़र से सफ़र का सफ़र ।
 चलता रहा मुख़्तसर सफ़र।
 खोजता रहा किनारों को ,
 दरिया किनारों पर बहकर ।
.. 519
सबकी अपनी अपनी मर्ज़ी है ।
सबका अपना अपना सौदा है ।
 वो भी उनका एक मसौदा था ,
 यह भी इनका एक मसौदा है। 
... 521
बांट दी गर अगर जरा की खुशी जरा ।
क्या कम हुआ तू जरा बता मुझे जरा । 
कहता रहा ग़जल महफ़िल में बैठकर ,
क्युं हर शख्स मुझसे बे-खबर बता जरा ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@....
डायरी 3
522
रिक्त हृदय तप्त धरा सा ।
नैनन सावन बिखरा सा ।
शांत सरोवर "निश्चल" मन
 जल अंबुज छितरा सा ।
... 523
तू खुद को गढ़ कुछ ऐसा ।
 ना हो कुछ ऐसा ना वैसा ।
 पथ नाप रहा कदम कदम ,
 दूर क्षितिज कोना फिर कैसा ।
.. 524
मुक़ाम से मुक़ाम तक ।
  नही कहीं विश्राम तक ।
  चाह नही सितारों की ,
 सफ़र बस आसमान तक ।
...525
सम्हालते रहे हाल से, हालात को ।
जज़्ब कर निग़ाह से ,हर बात को ।
दिल हसरत-ऐ-उजाले लिए हुए ,
 भुलाते रहे हम, हर गुजरी रात को ।

...  विवेक दुबे"निश्चल"@...
डायरी 3

526
अहंकार की हार है ।
 भले नही प्रतिकार है ।
गिरा वो पाषाण धरा ही ,
 बड़ी जोर दिया उछार है ।
....527
हम कुछ नए नारे फिर गढ़ लेंगे ।
हर नाकामी को उनके सर मढ़ देंगे ।
मांगेंगे हिसाब अभी तो उनसे ही ,
 अपना हिसाब जब देंगे तब देंगे।
... 528
इश्क़ का कुछ यूँ मसौदा है ।
के यह ताउम्र का सौदा है ।
उसे पा जाने की चाहत में ,
 खुद ने खुद को खोजा है ।
...(सूफ़ियाना अंदाज)


डायरी 3
 ईस्वर (मेहबूब)
529
तप्त हृदय का सोम है ।
मेरे मेहबूब सा कौन है ।
समाया मन मंदिर भीतर,
देखता मन, दृष्टि मौन है ।
.530
वो मेहबूब का मेहबूब है ।
वो यूँ ही नही मशहूर है  ।
 धड़कता रूह सा ज़िस्म में,
 वो नहीं कभी पल को दूर है  ।

...विवेक दुबे"निश्चल"@..

डायरी 3

मूक्तक 503/517

503
नफा नुक़सान देखते रहे ।
ज़िस्म तिलिस्म खेचते रहे । 
 रूह साँसे तोड़ती रहीं ,
 ज़िस्म रिवाज़ देखते रहे ।

...504
 मैं लिखता चला निग़ाह से ।
 जीत ना सका अपनी चाह से ।
 होता रहा ग़ुम लफ्ज़ लफ्ज़ ,
 गिरते रहे जो क़तरे निग़ाह से ।
...505

यूँ मेरा हुनर हारता रहा ,
मैं आज को बिसारता रहा ।
 रुसवा रहा जमाना मुझसे,
 निग़ाह निग़ाह निहारता रहा ।

... "निश्चल@"..

डायरी 3
506
काल के प्रहार से , कल हारता आज से ।
जीता न आज भी , काल के काल से ।
कर्म के मान से ,   टक़ता रहा भाल पे ।
देता रहा फ़ल , कल काल के काल से ।
..... विवेक दुबे"निश्चल"@..
507
तलाश को तलाशता आदमी ।
वक़्त को वक़्त से हारता आदमी ।
हारता जीतकर हालात से ,
हालात को सँवारता आदमी ।
... "निश्चल"@...
508
एक दिन तो याद कर लें ,
    उस सहोदरा को ।
 गिरते नैनन नीर में भी ,
जिसका हम होंसला हों ।
...
509
बून्द बून्द से मिल जाते है ।
 शब्द सर कंज खिल जाते हैं ।
 खिलकर निश्चल जल पर ,
 निष्छल भाव  लहराते है ।
 ... विवेक दुबे"निश्चल"@..
डायरी 3

510
111   211   211  212
खिल खिला कर छूट अश्रु चला ।
गिर धरा पर टूट अश्रु चला ।
तज दिए सुख नैनन छीर के ,
नयन बिछुड़ ज़ीवन खो चला ।
.... विवेक दुबे "निश्चल"@..
511
  मैं ना वक़्ता हूँ  ,ना ज्ञाता हूँ ।
 कुछ लिख ,ना लिख पता हूँ ।
  मैं बस इतना कह पता हूँ ,
  मैं बस शब्द शब्द प्यासा हूँ  ।
512
 जिंदगी का नाम ही मौज है । 
 उलझने को तो रोज रोज है ।
 डूबता क्यों इतना जिंदगी में,
 किनारा तो तेरा उस और है ।
--
513
चाहता था जीतना मैं वक़्त को ,
हारकर वक़्त से लफ्ज़ उभारा था ।
 इस वक़्त भी लफ्ज़ सहारा है ।
उस वक़्त भी लफ्ज़ सहारा था ।
.... 
... विवेक दुबे"निश्चल"@..
डायरी 3

 514
अंनत उजाले रोशनी से चले ।
गहन तम तले वो क्यों ढ़ले ।
 ये रिक्त सा व्योम भी ,
 आसरा बन ना मिल चले ।
.515
अंकुर फूटे छाया के ।
 कोंपल ऐसे माया के ।
 कोयल जैसे स्वर है ,
 देखो अब कागा के ।
..516
सत्य क्या है के कुछ नही ।
सही क्या है के कुछ नही ।
रहता हूँ मैं यूँ अजनबी सा ,
भुलाता हूँ के कुछ भी नही ।
... 517
 भरोसे पर ,भरोसा कर बैठा ।
  खुद को ,बे-भरोसा कर बैठा ।
  कहता रहा दिल की अपनी ,
   निग़ाह का पोसा कर बैठा ।

...विवेक दुबे"निश्चल"@..
डायरी 3

मुक्तक 503/ 517

503
नफा नुक़सान देखते रहे ।
ज़िस्म तिलिस्म खेचते रहे । 
 रूह साँसे तोड़ती रहीं ,
 ज़िस्म रिवाज़ देखते रहे ।

...504
 मैं लिखता चला निग़ाह से ।
 जीत ना सका अपनी चाह से ।
 होता रहा ग़ुम लफ्ज़ लफ्ज़ ,
 गिरते रहे जो क़तरे निग़ाह से ।
...505

यूँ मेरा हुनर हारता रहा ,
मैं आज को बिसारता रहा ।
 रुसवा रहा जमाना मुझसे,
 निग़ाह निग़ाह निहारता रहा ।

... "निश्चल@"..

डायरी 3
506
काल के प्रहार से , कल हारता आज से ।
जीता न आज भी , काल के काल से ।
कर्म के मान से ,   टक़ता रहा भाल पे ।
देता रहा फ़ल , कल काल के काल से ।
..... विवेक दुबे"निश्चल"@..
507
तलाश को तलाशता आदमी ।
वक़्त को वक़्त से हारता आदमी ।
हारता जीतकर हालात से ,
हालात को सँवारता आदमी ।
... "निश्चल"@...
508
एक दिन तो याद कर लें ,
    उस सहोदरा को ।
 गिरते नैनन नीर में भी ,
जिसका हम होंसला हों ।
...
509
बून्द बून्द से मिल जाते है ।
 शब्द सर कंज खिल जाते हैं ।
 खिलकर निश्चल जल पर ,
 निष्छल भाव  लहराते है ।
 ... विवेक दुबे"निश्चल"@..
डायरी 3

510
111   211   211  212
खिल खिला कर छूट अश्रु चला ।
गिर धरा पर टूट अश्रु चला ।
तज दिए सुख नैनन छीर के ,
नयन बिछुड़ ज़ीवन खो चला ।
.... विवेक दुबे "निश्चल"@..
511
  मैं ना वक़्ता हूँ  ,ना ज्ञाता हूँ ।
 कुछ लिख ,ना लिख पता हूँ ।
  मैं बस इतना कह पता हूँ ,
  मैं बस शब्द शब्द प्यासा हूँ  ।
512
 जिंदगी का नाम ही मौज है । 
 उलझने को तो रोज रोज है ।
 डूबता क्यों इतना जिंदगी में,
 किनारा तो तेरा उस और है ।
--
513
चाहता था जीतना मैं वक़्त को ,
हारकर वक़्त से लफ्ज़ उभारा था ।
 इस वक़्त भी लफ्ज़ सहारा है ।
उस वक़्त भी लफ्ज़ सहारा था ।
.... 
... विवेक दुबे"निश्चल"@..
डायरी 3

 514
अंनत उजाले रोशनी से चले ।
गहन तम तले वो क्यों ढ़ले ।
 ये रिक्त सा व्योम भी ,
 आसरा बन ना मिल चले ।
.515
अंकुर फूटे छाया के ।
 कोंपल ऐसे माया के ।
 कोयल जैसे स्वर है ,
 देखो अब कागा के ।
..516
सत्य क्या है के कुछ नही ।
सही क्या है के कुछ नही ।
रहता हूँ मैं यूँ अजनबी सा ,
भुलाता हूँ के कुछ भी नही ।
... 517
 भरोसे पर ,भरोसा कर बैठा ।
  खुद को ,बे-भरोसा कर बैठा ।
  कहता रहा दिल की अपनी ,
   निग़ाह का पोसा कर बैठा ।

...विवेक दुबे"निश्चल"@..
डायरी 3

मुक्तक 494/502

494
इस संबल के बल पर ही ,
 जीत हिमालय को आते है ।
 गढ़कर कश्ती अरमानों की,
 "निश्चल" सागर से टकराते है ।
... 
495
आप जरा चलकर तो देखो ।
कागज़ सा गलकर तो देखो ।
 बन जाएगा एक बुत कोई ,
 "निश्चल"सा मचलकर देखो ।
.....
496
 चलो कोई तो बहाना मिला ।
 साथियों का सहारा मिला ।
 एक बहाने से ही मिले सभी ,
 बहाने को भी बहाना मिला।

... विवेक दुबे"निश्चल"@..
डायरी 3
497
बहुत खूब कहा,बा-खूब कहा ।
अश्क़ स्याही ने,दुनियाँ दस्तूर कहा ।
 लूटता ही रहा,जमाना अक्सर मुझे ।
 और जमाने को,मैंने मेहबूब कहा ।
... 
 498
इस जाम का कोई अंजाम तो होगा।
 उस शाम का कोई पैगाम तो होगा ।
 शुरू ही हुआ ये सफ़र अभी अभी ,
 रुकना नही कहीं मुक़ाम जो होगा ।
.... 
499
आगम निर्गम से रिक्त हृदय ,
 करता ना कोई प्रतिकार । 
 शांत हृदय पा जाता ,
 अंनत अंतरिक्ष सा बिस्तार ।
 .... 
500
गुजरती गुजर, रही ज़िंदगी ।
 ठहरती ठहर, रही जिंदगी ।
 बदलते कब, अब हालात है,
 मचलती ग़जल, रही जिंदगी ।

  ... विवेक दुबे"निश्चल"@..

डायरी 3
 501
नज़्म अल्फ़ाज़ उसकी,
  सँवार दी जरा जरा ।
  रुख़सार गिरी ज़ुल्फ़ को ,
   यूँ हवा दी जरा जरा ।
..502
स्तनपान दिवस पर दो शब्द

वो भी एक साहित्य सा होगा ।
जो उस आँचल को छुआ होगा ।
जागी होगी ममता नीरव सी ,
 मातृत्व सुख जब जिया होगा ।
... *विवेक दुबे"निश्चल"*@...

डायरी 3

मुक्तक

462
वो जाम सा अंजाम था ।
निग़ाहों से अपनी हैरान था ।
नही था कोई रिंद वो साक़ी,
जिंदगी उसका ही नाम था ।
.... 
463
निगाहों को निग़ाहों से धोका हुआ है ।
ज्यों जागकर भी कोई सोया हुआ है ।
झुकीं हैं निग़ाहें यूँ हर शख़्स की क्युं ,
ज्यों निग़ाहों का निग़ाहों से सौदा हुआ है ।
....
464
चलते रहो साथ हर दम मगर, 
 बातें वफ़ा की किया ना करो ।
 घुटते हों अरमां जहाँ दिल में ,
 वो ज़िंदगी तुम जिया ना करो ।
... 
465
तू चला जिस सफ़र पर 
 उस का मुक़ाम होगा कोई ।
ढल जाए जो शाम कहीं , 
सुबह का अंजाम होगा कोई ।

विवेक दुबे"निश्चल"@...
डायरी 3

सोमवार, 10 सितंबर 2018

छुब्ध हृदय, शंकित मन ।

छुब्ध हृदय, शंकित मन ।
तप्त धरा सा,तापित तन ।

भोली सी इन आँखों से ,
खोता क्यों चंचलपन ।

वांट रहे हैं, जात धर्म को ,
कैसा यह दीवाना पन ।

छुब्ध हृदय, शंकित मन ।
तप्त धरा ,  तापित तन ।

रूठ रही है हवा हवा से ,
सांसों की सांसों में जकड़न ।

ज्वार उठा सागर तट पे ,
सागर की साहिल से अनबन ।

इस नीर भरे अंबर से ,
गिरते रक्त मिले से कण ।

छुब्ध हृदय, शंकित मन ।
तप्त धरा ,  तापित तन ।

भान नही कल का कल सा ,
आज टले , कल आये बन ।

खींचों ना तुम तस्वीरें ऐसी ,
भयभीत रहे जिससे जन ।

छुब्ध हृदय, शंकित मन ।
तप्त धरा ,  तापित तन ।

लाओ गढ़कर कुछ ऐसा ,
चहक उठे ये जन गण मन ।

झुके नहीं भाल हिमालय का,
सागर करता जिसका अर्चन ।

राष्ट्र वही है देश वही है ।
सुखी रहे जिसमे जन जन ।

छुब्ध हृदय, शंकित मन ।
तप्त धरा ,  तापित तन ।

... विवेक दुबे"निश्चल"@..

कलम चलती है शब्द जागते हैं।

सम्मान पत्र

  मान मिला सम्मान मिला।  अपनो में स्थान मिला ।  खिली कलम कमल सी,  शब्दों को स्वाभिमान मिला। मेरी यूँ आदतें आदत बनती गई ।  शब्द जागते...