बुधवार, 6 मार्च 2019

मुक्तक 667a

667A

दर्द मेरे दिल का ,
  निग़ाह में असर नही रखता ।

शाम-ए-महफ़िल में,
 वो मेरा जिकर नही रखता ।

... 
दर्द मेरे दिल का ,
  निग़ाह में नजर चाहिए।

शाम-ए-महफ़िल में, 
    मेरा भी जिकर चाहिए ।

... विवेक दुबे"निश्चल"@.
डायरी 3

हर कोई खुद में ही , खुश रहा है ।


हर कोई खुद में ही , खुश रहा है ।
हर कोई इतना ही , कुछ रहा है ।

हँसती हैं निगाहें , सामने दुनियाँ के ,
अश्क़ अश्क़ , पलकों में छुप रहा है ।

गुजरता वक़्त के साथ, नज़्र फेरकर ,
गैरों सा ही तो हर ,सुख दुख रहा है ।

जो जला शामों में, सहर के वास्ते ,
भोर तले वो , चराग़ भी बुझ रहा है ।

 निकला शान से, अपने उजाले लेकर ,
 वो आफ़ताब, शाम दामन में छुप रहा है ।

  गढ़ता रहा , हर नज़्म शिद्दत से वो ,
"निश्चल" बुत सा , पर हर लफ्ज़ रहा है ।

.....विवेक दुबे"निश्चल"@..
डायरी 6(128)

ज़िस्म जुबां लफ्ज़ संग न था

ज़िस्म जुबां लफ्ज़ संग न था ।
 हुस्न जुबां निग़ाह तंग न था ।

 मचलता था दरिया आगोश में,
 अशआर ग़जल बे-रंग न था ।

कह गया बात मुसलसल वो ,
नज़्म कहने का उसे ढंग न था ।

बिखरे थे जो अल्फ़ाज़ सभी ,
वो कोई हालात-ए-जंग न था ।

जलती रही शमा ख़ुद आप ही ,
जलने को साथ कोई पतंग न था ।

 ख़ामोश थे सभी महफ़िल में ,
"निश्चल" कही कोई उमंग न था ।

... विवेक दुबे"निश्चल"@....
डायरी 6(127)

मन राम रटे (तिलका छंद)

तिलका छंद
112 112

मन राम रटे ।
हर पाप घटे ।
प्रभु ध्यान करें ।
मन पीर हरें ।

             रम ले सज ले ।
             भज ले पगले ।
             कब कौन सुखी ।
             सब मौन दुःखी ।

दिन रात यहीं ।
हरि साथ यहीं ।
जय ज्योत भरी ।
बस बोल हरी ।

           पल तो कल सा ।
           करता छल सा ।
           जप राम हरे ।
          तब आज भरे ।

मन राम रटे ।
हर पाप घटे ।

       ... विवेक दुबे"निश्चल"@..
डायरी 6(126)

रविवार, 3 मार्च 2019

मुक्तक 631/637

631
हर्फ़ हर्फ़ जिंदा ना रहे ।
इतना वो शर्मिंदा रहे ।
कह गए हालात-ए-हक़ीक़त,
इंसान मगर संजीदा ना रहे ।
...
632
यह कैसे कल की चाहत है ।
 आज लम्हा लम्हा घातक है ।
उठ रहे हैं तूफ़ान खामोशी के ,
साहिल पे नही कोई आहट है ।
.....
633
शेष नही कही समर्पण है ।
मन कोने में टूटा दर्पण है ।
आश्रयहीन अभिलाषाएं ,
अश्रु नीर नयनो से अर्पण है ।
......
634
क्यों आग लगी अमन को मेरे ।
क्यों दाग लगे चमन को मेरे ।
गद्दार हुए साजिश में शामिल ,
क्यों ज़ख्म मिले वतन को मेरे ।
......
635

2122    1212    22 
शान में देश की बता दें हम ।
जान ये देश पे लुटा दें हम ।
आँख कोई उठाये जो देश पर,
घूल में अब उसे मिला दें हम ।
.... 
636

2122 1212 22

शान में देश की बता देंगे ।
जान ये मुल्क पे लुटा देंगे ।
आँख कोई उठाये जो हम पर ,
घूल  में   हम  उसे  मिला देंगे ।
.... 
637

झूठ सदा हारे जीते बस सच्चाई ।
सौहार्द तले चलें मिल भाई भाई 
अमन घुले माँ तेरी इस माटी में ,
सौगंध यही बस माता की खाई ।

... विवेक दुबे"निश्चल"@....

मुक्तक 626/630

626

सफ़र इन राहों पर अनन्त विस्तार सा ।
 मिलता हर मोड़ पर जीवन श्रृंगार सा ।
 मिलता पथ मन उपवन तपन ढ़ले ही ,
 हर्षित पथ तृष्णाओं के तिरस्कार सा ।
   .....
627

हर हाल बे-हाल कचोटते रहे ।
कुछ ख़ुश ख़याल खोजते रहे ।
चलते रहे सफ़र जिंदगी के ,
ये हाल दिल  मगर रोज से रहे ।
.. ....
628
एक उम्र की तलाश सी ।
एक अधूरी सी आस सी ।
गुजरता रहा उम्र कारवां,
साथ लिए हसरत प्यास सी
.....
629

खुद को खुद में खोता है ।
ज़ीवन तो एक धोखा है ।
जीवन ने ज़ीवन की ख़ातिर,
खुद को खुद में रोका है ।
...
630

जीत नही कहीं , न ही हार कही ,
जीवन में मिलता, आकार नया है ।
आज रुका नही , कल साथ नही ,

यही नियति का , नित सिंगार नया है ।
631

रख जरा तू सामने आईने अपने ।
तू पूछ जरा खुद से मायने अपने ।


... विवेक दुबे"निश्चल"@..



मुक्तक 620/625

620
दुनियाँ कमतर ही आँकती रही।
चुभते तिनके से आँख सी रही ।

 फैलते रहे दरिया से किनारे पे  ,
 दुनियाँ इतनी ही साथ सी रही ।
.... 
621
मुझे समझने के लिए, फ़िकर चाहिए ।
निग़ाह नज़्र में ,  आब जिकर चाहिए ।

न समझ हो कुछ , समझने के लिए , 
फक़त दिल , इतना ही असर चाहिए ।
..
622
इस वक़्त से नही कुछ भला है ।
नहीं इस वक़्त से कुछ भला है ।

गुजरता रहा हाल हर हालात से ,
मेरे सवाल का ज़वाब ये मिला है ।
...
623
कुछ दिन की कतरन है ।
सब रीते से ही बर्तन है ।

रीते से दिन खाली खाली ,
रातों का उतरा यौवन है ।
.... 
624

दिल की  यूँ झोली भर लो ।
खुशियों की बोली कर लो ।

       डूबकर खुशी के समंदर में ,
      जिंदगी कुछ होली कर लो ।
    ... ...
625
कुछ फैसले किताबो से ।
कुछ फैसले मिज़ाज़ो से ।

बदल कर मिजाज अपना,
झुकते रहे जो सहारों से ।

... विवेक दुबे"निश्चल"@....
डायरी 3

मुक्तक 606/619

606
मत कर तू शक़ उसके वुजूद पर ।
कायम है जहां जिसके खुलूस पर ।
खुलूस /सच्चाई

607.....

नियत नियति निरंतर,
काल तले दिन करता अंतर ।
कर्ता हर्ता सृष्टि का ,
महाकाल शिव शंकर ।

608.. ...

जो अजब है गजब है ।
वो ही तो एक रब है ।
है नही कहीं कुछ भी ,
और एक वो ही सब है ।

609.......

सृष्टि के कण कण में,
 ईस्वर का भान होता है ।
 न हो मन में अभिमान ,
 तभी यह ज्ञान होता है ।

 चला आता है चला जाता है ,
 घरौंदे बदल कर ,
  देह के भीतर यह जीव भी ,
   तो मेहमान होता है ।

610......

 तुम देखो कुछ इस तरह ।
 जुस्तजू न रहे जिस तरह ।
 न रहे याद फ़रियाद भी कोई ,
 उठे हाथ दुआ  कुछ उस तरह ।

 611......

हाँ मैं कुछ लिख न सका ।
वक़्त के साथ टिक न सका 
बैठा रहा शाम सड़क पर ,
हालात हाथ बिक न सका ।

612.....

थोड़ा सा आशीष चाहिए ।
अपनो से सीख चाहिए ।
नही चाहता मैं कुछ भी ,
बस इतनी ही भीख चाहिए ।

613.......

सिमट रहे शब्द सब , 
   खो रहीं परिभाषाएं ।
रात गुजारी नैनो में , 
   भोर तले अलसाई आशाएँ ।
....
614

आया तू जिसे जीत कर ।
आज तू उसे अतीत कर ।
भूल जा गुजरे कल को ।
बस तू खुशी व्यतीत कर ।
 ..
615
कुछ कब होता है ।
कुछ कब होना है ।

छूट रहे कुछ प्रश्नों में ,
एक प्रश्न यही संजोना है ।

गूढ़ नही कुछ कोई ,
रजः को रजः पे सोना है ।
-----
616
हे अज्ञान ज्ञान के बासी ।
तू खोज रहा मथुरा काशी ।
तुझे श्याम मिलेंगे मन भीतर ,
तेरा मन देखे जिसकी झांकी ।
....
617
एक धूल धरा बिछौना सा ।
कुछ पाना कुछ खोना सा ।
अपने ही तापों में तपकर ,
निखरा वो कंचन सोना सा ।
....
618

जो पिघलता चला है ।
वही तो बदलता चला है ।
तपकर ताप में अपने ही ,
काँच भी फौलाद में ढला है ।
.... 
619

कर्ज़ कोई माफ करता है ।
कोई खैरात हाथ भरता है ।
जाने कैसा है यह सबेरा ,
दिन उजाला रात गढ़ता है ।

... विवेक दुबे"निश्चल"@.....

डायरी 3

मुक्तक 601/605

601
अन्तस् का  उजास है ।
रीती सी       प्यास है ।
चित्त विलोके अन्तर्मन,
हृदय अनन्त आकाश है ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@...

602
समझ आये न आये चाहे किसी को ।
समझना तो है मगर ज़िन्दगी को ।
भूलता चला चल कल के साथ को,
जो आज है करता चल कल उसी को ।
.....विवेक दुबे"निश्चल"@..

603
मन ने फिर कुछ आज लिखा है ।

जाने क्या फिर आज लिखा है ।
शब्द तले फिर शब्द टिका है ।
अर्थो के एक शान्त सरोवर मे,
अभिव्यक्ति का सलिल भरा है ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@...
604

2122 1212 22

चाह से होंसला खिला होगा ।
जो मुसाफ़िर जहां चला होगा ।
रोकता चाह चाह के वास्ते ,
चाँद भी अस्र तले मिला होगा ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@....

605

2122 1212 22

चाह से होंसला मिला होगा ।
जो मुसाफ़िर जहां चला होगा ।
रोकता राह चाह के वास्ते ,
चाँद भी हिज्र तले ढला होगा ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@....

डायरी 3

मुक्तक 595/600

595
सफ़र फिर ख़ामोश रहा ।
 इतना ही पर होश रहा ।
 कदम धरे गिन गिन कर ,
 रिश्तों में हर जोश रहा ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@...
596

जितना मैं मगरूर रहा ।
उतना खुद से दूर रहा ।
नफ़रत के प्याले भरकर ,
मदहोशी में मैं चूर रहा ।

....विवेक दुबे"निश्चल"@...
597

कलम थम सी गई है ।
स्याही जम सी गई है ।
एक गुबार है वक़्त का ,
चाहत *खम* सी गई है ।
    ..."निश्चल"@...
                  *खम/घुमाव*
598

बे-वक़्त बे-करार दिल ।
तूफ़ां से टकराता साहिल ।
छोड़ती किनारा दरिया में कश्ती ,
नाख़ुदा हुआ जो हांसिल ।
       ..."निश्चल"@...
599

फ़ासला-ए-मंज़िल बेहिसाब हो ।
 होंसला मगर लाजवाब हो।
 तू जीतकर ख़ुद को ख़ुद से ,
   ख़ुद का ही तू शहज़ाद हो ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@....
600
 तुम देखो कुछ इस तरह ।
 जुस्तजू न रहे जिस तरह ।

 न रहे याद फ़रियाद भी कोई ,
 हाथ दुआ उठे कुछ उस तरह ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@...
डायरी 3

कलम चलती है शब्द जागते हैं।

सम्मान पत्र

  मान मिला सम्मान मिला।  अपनो में स्थान मिला ।  खिली कलम कमल सी,  शब्दों को स्वाभिमान मिला। मेरी यूँ आदतें आदत बनती गई ।  शब्द जागते...