शनिवार, 30 सितंबर 2017

तन्हाई


तन्हाई की वहाँ कमी नही थी।
 पलकों पे नमी जरा नही थी ।
 हँसता था वो अपने आप पे,
 वक़्त से बड़ी तन्हाई नही थी।
  .....विवेक दुबे....

नदियाँ


वादियाँ वीरान हैं ।
 मच रहा घमासान है ।
 इंसान के भेष में,
 आया शैतान है ।

 मानवता परेशान है ।
 खामोश इंसान है ।
 छल बल के दाम पे,
 बिक रहा ईमान है ।

 पाखंड बलवान है ।
 साधू ही हैवान है ।
 लुटता लाज श्रद्धा की,
 हर्ता मान के प्राण है।

  देखकर सब कुछ ,
  चुप है विधाता भी।
 शायद कलयुग का,
  उसे भी भान है ।
 .....विवेक दुबे©......

वक़्त की राहें

छूट गए थे जो वक़्त की राहों में ।
 मिल बैठे वो वक़्त के चैराहों पे ।

 तारे चमके जग मग अँधियारों में ,
 चन्दा डूबा भोर संग उजियारों में ।

 देखो रात चाँदनी सोई कैसे,
 अब सूरज की तपती बाहों में ।

 सूरज भी डूब चला है अब ,
 शान्त निशा की छाँओं में ।

 खोज रहा ज़ीवन जिसको ,
 मिलता वो ज़ीवन की राहों में ।

 साथ निशा के बस चलता जा ,
 उजियारे मिलते तम की आहों में ।

 छूट गए थे जो वक़्त की राहों में  ।

  .......विवेक दुबे" निश्चल"@....

पाखंड



  पाखंड / भक्ति

उसके वो भक्त बड़े बोले थे ।
उसे आस्था से ईस्वर बोले थे ।
 करते नतमस्तक दंड प्रणाम,
 भक्ति के सारे स्वर घोले थे ।

  लुटते रहे आस्था के नाम पर ।
  समर्पित रहे अपने भगवान पर ।
  अटल हिमालय से खड़े रहे ,
 अपने ईस्वर वाणी वाण पर ।
 
   वो छद्मवेशी नही भोला था ।
  भक्तो के मन पाखंड घोला था ,
  आस्था भक्ति की आड़ में,
 पहने पाखंड का वो चोला था ।

 .....विवेक दुबे.....
 

हँसी रिश्तों में


  रिश्तों में  यह हँसी बड़ी चीज है ।
 बिके बिना खरीदती हर चीज है  ।
 .

ख़यालों के लिए ही सही।
 दिल बहलाने के लिए सही।
झूठ को सच मान एक पल को,
 कड़वा सच झुठलाने को सही।

  अधूरा ही जीना होता है
  कब कौन पूरा होता है ।
   क्या खोया क्या पाया तूने ,
   कोई पूछने न आया होता है ।

 कुछ पल फिर सवार लो।
 जिंदगी को फिर पुकार लो।
 जीते रहे इल्ज़ामों को लिए,
 एक इल्ज़ाम और उधर लो ।


 

..... विवेक दुबे " निश्चल"@   .....

बी एच यू


हो रहे चीर हरण अब भी,
 सिंहासन बिराजे धर्मराज।
बरसी लाठी वी.एच. यू. में,
 जब धर्म की है सरकार।
 आरोप लगाते थे ,
  कल तक जिन पर ।
 अब आज जाएँ ,
  वो किनके पास ।
  सबकुछ चलता ,
  जस का तस,
 आज भी वही,
 ढाँक के तीन पात ।
...... विवेक दुबे....

जरा अवस्था


...वो जरा अवस्था...
        -----------------
वो जर जर सूखी आँखे,
 डूबी गुजरी यादों में ।
 वो जर जर रूखी चमड़ी,
  गुजरी यादों में उधड़ी ।
 वो जर जर ह्रदय स्पंदन,
 यादों का करता वन्दन।
 वो जर जर रक्त शिराओं में,
 थमता सा गुजरी आहों में।
 वो जर जर साँसे साँसों में,
 बस इतना ही नाता साँसों से ।
  ..... विवेक दुबे....©

अपनी बुराई


अपनी बुराइयों को हर वर्ष नापते हम ।
 उसी हिसाब से रावण को देते ऊंचाई हम ।
  बढ़ती ही रहतीं है हर वर्ष बुराइयाँ हमारी,
 फिर कैसे कर पाएं ऊंचाई रावण की कम ।

  ज्यों ज्यों घटें बुराइयाँ मानव की ।
 त्यों त्यों हो जाये रावण भी कम ।
 करता नही मग़र कोई राम से कर्म  ।
 करते हैं हर वर्ष यह बातें आप हम ।
  ....विवेक दुबे©...

रावण


मरता रावण साल दर साल।
 जलता रावण साल दर साल ।
होता नही क्यों यह  ख़त्म ,
 हैं क्यों यह इतना विशाल ।

        शायद यह पाता बल फिर उनसे,
        आश्रय पा रहा है    यह जिनसे,
       बस पुतले ही      जलते इसके ।
       करते इसको जो          स्वाहा ,

 आते नेता जीतने जितने ,
 कृत्य समाते इसके उनमे।
 घूमे फिर यह वेष बदल ,
 सँग नेता अपने दल बल ।

         एक को मारें जन मानस राम ,
        दूजा ओढ़े फिर रावण परिधान।
       मानस ने मानस में जब भी राम चुना ,
        त्याग राम को उस मानस ने ,
        रावण का अभिमान चुना ।

  छोड़ शरीर रावण ने नया रूप धरा।
  निरंकुश मेघनाथ कुम्भकर्ण पर हाथ धरे ।
  संकट में है    आज भी धरा ,
 कैसे अब धरती की लाज बचे।
 

         मरें न रावण जब तक इनके मन से,
        तब तक रावण साल दर साल जले ।
         पा कर ऊर्जा फिर इनसे हुँकार भरे ।
         साल दर साल बस रावण यूँ ही जले ।
            ..... विवेक दुबे °© ...


विजय दशमी


-------- विजय दशमी की मंगल बधाई सहित   ------

 छाया अधर्म का अंधकार था।
  धरा पर बढ़ा बहुत भार था।
  आए तब श्री हरि धरा पर,
  लिया मनुज अवतार था ।

         जीतकर।    आसुरी शक्ति को,
          दानवता का किया विनाश था।
           सुखाया     उसकी नाभि को ,
            जिसका अमृत आधार था ।

वेशक वो रावण था महा ज्ञानी ,
  पर वो रावण था अभिमानी ।
 समझाया भ्रात विभीषण ने,
 भार्या मन्दोदरी की भी न मानी।

       हुआ बिनाश उसके समूलकुल का,
       कैसा था वो    अभिमानी ज्ञानी ।
      अभिमान का हश्र यही देती सन्देश,
      रावण वध की        यही कहानी ।
 
  ....... विवेक दुबे ©....

गुरुवार, 28 सितंबर 2017

फैला था दूर तलक


फैला था दूर तलक वो,
 कुछ बिखरा बिखरा सा ।
  यादों का सामान लिए ,
 कुछ चिथड़ा चिथड़ा सा ।

 दूर निशा नभ में श्यामल सी ,
  यादों के आंगन में काजल सी ।
  बैठा आस लिए उजियारों की,
 फिर नव प्रभात के तारों की  ।

  आएगा दिनकर फिर दमकेगा ।
  नक्षत्र जगत में फिर चमकेगा ।
 यह घोर निशा ही अंत नही ,
 दिनकर तो कल फिर निकलेगा ।
  ....विवेक दुबे...©





माँ


ममता जब जब जागी थी ।
 माता की टपकी छाती थी ।
 दे शीतल छांया आँचल की ,
 माता सारी रात जागी थी ।

  देख अपलक निगाहों से ,
  गंगा यमुना अबतारी थी ।
  स्तब्ध श्वास थी साँसों में ,
  अपनी श्वासों से हरी थी ।

   ..... विवेक दुबे ......©




जय माँ


गरजो तुम हुँकार भरो ।
सिंहो सा तुम नाद करो ।
 झुका नही कभी हिमालय ,
 जाओ शँख नाद करो ।
 
 हवन हुए बलि वेदी पर ,
 सदियों से हम ।
पहले तुम भारत का ,
जाओ  इतिहास पढो  ।

 झुकें नही कट जाएँगे,
माता की तो लाज बचाएंगे ।
 पृथ्वी पोरस प्रताप शिवा ,
हम बन जाएंगे ।

 रूप धरेगी जब नारी चंडी सा,
 तीनो लोक थर्राएँगे ।
  होगा शँख नाद अर्जुन सा ,
 कृष्ण सारथी बन जाएंगे ।

 झुके नही भारत वासी ,
 सबक सभी को सिखलायेंगे ।
 मातृ भूमि के रक्षा यज्ञ में ,
 यज्ञ हवि से स्वाहा हो जाएंगे ।
  ....... विवेक दुबे ......©

हालात


 दर्द है जो बयाँ होता है तेरी बातो से ।
हारता है क्यों वक़्त के इन हालातों से ।
 वो भी गुजर गया यह भी गुज़र जाएगा ।
 बच न सका कोई वक़्त के इन हाथों से ।
 ठहर जरा सब्र कर अपने हालातों पे ,
 संवरेगा फिर वक़्त अपने ही हाथों से ।
 उजडता है गुलशन मौसम के मिज़ाज़ों से ,
 सजाता है फिर बही अपनी ठंडी फ़ुहारों से ।
......विवेक दुबे©......
ब्लॉग पोस्ट 28/9/17

वक़्त


वक़्त बड़ा हुनरदार है ।
सबसे बड़ा किरदार है। 
 करता है हिसाब सबका,
 रखता नही कभी उधार है ।
  ....विवेक दुबे....


वक़्त बड़ा बेरहम है ।
 करता हर ग़म कम है ।
 जीतता है उसे बड़े प्यार से,
 जो ग़म में जिया करता है ।
.....विवेक दुबे...


तन्हाई की वहाँ कमी नही थी।
 *पलकों पे नमी* जरा नही थी ।
 हँसता था वो अपने आप पे,
 वक़्त से बड़ी तन्हाई नही थी।


चला आखरी साँस तक,
 लड़ता गया हालात से ।
 शतरंज की चालों में ,
 प्यादे को औकात क्या ।


          ....... विवेक दुबे©.....

माँ


               *माँ*


     *माँ तो नाम निराला है* ।
     *माँ ही जग उजियारा है* ।
     *माँ ही भक्ति माँ ही शक्ति*,
     *माँ ने ही जन्म सँवारा है* ।


*क्या माँगूं मैं माँ तुमसे* ।
*बिन माँगे मिलता तुमसे* ।
 *शीश झुका तेरे चरणन में*,
 *अभय दान मिलता तुमसे* ।



प्रमाण न देह का न जान का ।
 प्रमाण पिता न भगवान का ।
  प्रमाण बस उस एक जान का।
  जना जिसने अपनी जान सा ।

      वह बस  माँ और माँ

  जननी जो जनती अपनी कोख से।
  आए नही हम किसी और लोक से।
  .

दूर अंधकार को दिनकर का  प्रकाश हो ।
 दूर हो तिमिर तारों से जगमग आकाश हो।
 माता तुमसे हर मानव की यही अरदास हो ।
 ऐसा यह पावन नवरात्रि का त्यौहार हो ।
  .
 जिससे ऋतु चलतीं मौसम चलता ।
 नव सृजन सा प्रकृति क्रम चलता ।
 करें प्रथम आवाहन उस शक्ति का ,
 जिससे सकल ब्रह्मांड निकलता ।






  ..... *विवेक दुबे* ©....
25/9/2017

खोजो खुशी


खोजो खुशी अपने आप मे ।
 बस हँस दो अपने हालात पे।
 भुलाकर दुनियाँ की ठोकरें ,
 विश्वास करो अपने आप पे।
  ...... विवेक दुबे....

पाखंड


वादियाँ वीरान हैं ।
 मच रहा घमासान है ।
 इंसान के भेष में,
 आया शैतान है ।

 मानवता परेशान है ।
 खामोश इंसान है ।
 छल बल के दाम पे,
 बिक रहा ईमान है ।

 पाखंड बलवान है ।
 साधू ही हैवान है ।
 लुटता लाज श्रद्धा की,
 हर्ता मान के प्राण है।

  देखकर सब कुछ ,
  चुप है विधाता भी।
 शायद कलयुग का,
  उसे भी भान है ।

 .....विवेक दुबे©......

बुधवार, 27 सितंबर 2017

निश्चल मन


चलता मैं "निश्चल" होकर ।
 पाता कुछ कुछ खोकर ।
 गिरता गिरकर उठ जाता ,
 खाकर मैं बार बार ठोकर ।
  ....विवेक दुबे "निश्चल"...

यह राज न जाने हैं ऐसे कैसे

यह राज न जाने हैं ऐसे कैसे ।
 कोई न जान सका है ऐसे कैसे ।

 इस पड़ाव से उस पड़ाव तक,
 मानव तू आ पहुँचा ऐसे कैसे ।

 चलता था तू तो बस ,
 अपनी आशाओं को ले के ।

 हार गया पर तू तो ,
 अपनी इच्छाओं को ले के।

 जीत सका न अब तक तू ,
 देता आया उस शक्ति को धोखे।

 नाप लिए चन्दा सूरज तूने ,
 जाएँ न पर तुझसे रोके से रोके ।

 राज यह न जाने हैं ऐसे कैसे ।
..... विवेक दुबे"निश्चल"@..

यह मन


यह शांत मन यह निशांत मन।
 छुपाता बहुत कुछ जानता मन।

 यह ज्ञान मन यह विज्ञान मन ।
  जानता बहुत कुछ नादान मन ।

  यह अंबर मन यह गगन  मन ।
  उठता बहुत झुक जाता मन।

   यह नीर मन यह निर्मल मन ।
 थमता बहुत बह जाता मन ।

 यह निस्तब्ध मन यह स्तब्ध मन।
 चुप रहकर कुछ कह जाता मन।

 यह हर्षित मन यह पुलकित मन।
 आनंदित हो नीर बहाता मन ।

 यह आशा मन यह अभिलाषा मन ।
 ख़ुश हो मन ममोश रह जाता मन ।
 .....विवेक दुबे"निश्चल"@....

कलम चलती है शब्द जागते हैं।

सम्मान पत्र

  मान मिला सम्मान मिला।  अपनो में स्थान मिला ।  खिली कलम कमल सी,  शब्दों को स्वाभिमान मिला। मेरी यूँ आदतें आदत बनती गई ।  शब्द जागते...