सोमवार, 3 दिसंबर 2018

इतना ही कर्ज़ रहा ।

इतना ही कर्ज़ रहा ।
के मैं बे-अर्ज़ रहा ।

      निभाता रहा रिश्ते ,
      यह मेरा फ़र्ज रहा ।
.. 
बदलता रहा तासीर ,
यह कैसा मर्ज़ रहा ।

       आया नही नज़र जो ,
       अश्क़ निग़ाह दर्ज रहा ।

हर ख़ुशी की ख़ातिर ,
हंसता एक दर्द रहा ।

  हर एक मुब्तसिम लब ,
  असर बड़ा सर्द रहा ।

... विवेक दुबे"निश्चल"@...

तबस्सुम/मुब्तसिम/मुस्कान
डायरी 6(55)

महदूद रहे कुछ ख़्याल ख़्वाब से ।

महदूद रहे कुछ ख़्याल ख़्वाब से ।
लिपटे रहे अल्फ़ाज़ किताब से ।

सिमेटकर हाल लफ्ज़ अपना ,
सुनते रहे हर सवाल अदाब से ।

उठेगी नज़र नज़्म दाद की खातिर ,
मजबूर रही मगर जुबां ज़वाब से ।

कहने को बहुत कुछ रहा पास मेरे ,
कहते रहे गज़ल पर वो बड़े रुआब से ।

अल्फ़ाज़ में सवाल जो करती रही ,
सिमटी रही निग़ाह वो नक़ाब से ।

रहे लफ्ज़ जवां ग़जल की खातिर ,
रही दूर एक नज़्म मगर शवाब से ।

महदूद रहे कुछ ख़्याल ख़्वाब से ।
लिपटे रहे अल्फ़ाज़ किताब से ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@...

(महदूद-सीमित)
डायरी 6(54)




रजः को रजः पे सोना है ।

 सबकी अपनी अपनी व्यथा है ।
ये जीवन एक तार्किक कथा है ।

    रिक्त रहा कुछ मन मौन धरा है ।
    एक तन उजला व्योम भरा है ।

रंग रंग से हर रंग सटा है ।
जीवन रंगों की रंगीन लता है ।

    है रंग अधूरी कही कोई छटा है । 
    हम जाने कैसे कौन रंग घटा है ।

कब कुछ क्या होता है ।
कुछ क्या कब होना है ।

छूट रहे कुछ प्रश्नों में ,
एक प्रश्न यही संजोना है ।

गूढ़ नही कही कुछ कोई ,
रजः को रजः पे सोना है ।

... विवेक दुबे"निश्चल"@..

डायरी 6(53)

अल्फ़ाज़ के रहे यूँ असर ।

 अल्फ़ाज़ के रहे यूँ असर ।
  मायने रहे क्युं बे-असर ।

     रात सर्द स्याह असरात की ,
    होती नही क्युं अब सहर ।

छोड़कर बुनियाद अपनी ,
मकां आज क्युं रहे बिखर ।

     चलते रहे एक राह पर ,
     रहे रिश्ते पर तितर बितर ।


....विवेक दुबे"निश्चल"@....
डायरी 6(51)

दो नयन मिलें हो , जब दर्पन से ।

 कुछ तो रस निकले,  उस मंथन से ।
 शब्द चुने है जो मन ,  अन्तर्मन से ।

 एक मुस्कान खिले , उन अधरों पर ,
 दो नयन मिलें हो  ,   जब दर्पन से ।
..--------
  मन रिक्त रहे न , कुछ मौन से ।
  कुछ ताने न हों , उजले व्योम से 

  रंग रहें नही अधूरे , कुछ वानो के ,
  न सोचे हम , रंग भरें अब कौन से ।
...-------
 हमे मिले कुछ ऊंचा , असमान से ।
 हो जुदा कुछ जो , इस जहान से ।

एक पहचान हो , कल अपनी ,
अपने ही छोड़े , कदम निशान से ।

उठते रहे हाथ , हरदम ही शान से ,
हर दुआ में मेरे  , इस ईमान  से ।

... विवेक दुबे"निश्चल"@..




रिक्त रहे कुछ मन मौन से ।
एक ताने उजले व्योम से ।

हैं रंग अधूरे कुछ वाने के ,
मैं रंग भरूँ अब कौन से । 
.


कलम चलती है शब्द जागते हैं।

सम्मान पत्र

  मान मिला सम्मान मिला।  अपनो में स्थान मिला ।  खिली कलम कमल सी,  शब्दों को स्वाभिमान मिला। मेरी यूँ आदतें आदत बनती गई ।  शब्द जागते...