गुरुवार, 4 जुलाई 2019

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यथार्थ


मुक्तक 756/760

 756
यहाँ तक लिखूँ वहाँ तक लिखूँ ।
 जमीन से आसमां तक लिखूँ ।
 ये अल्फ़ाज़ है मेरे नज़ाक़त भरे ,
 हाल-ए-हक़ीक़त कहाँ तक लिखूँ ।
     ......
757
मैं यादों को भरमाता रहा ।
खुशियों को आजमाता रहा ।
न ठहरा वक़्त कभी साथ मेरे ,
निशां कदमों पे इठलाता रहा ।
.... ...
758
मैं कुदेरता वक़्त सा रहा ।
लफ्ज़ सँग सख्त सा राह ।
छोड़ता चला पीछे यादों को ,
निग़ाह चश्म मस्त सा रहा ।
.... ...
759
प्रश्न नही वो गया कहाँ पे ।
प्रश्न यही वो आया कहाँ से ।
फेर रहा मन मन के मनके,
माला मोती ड़ोर बंधा कहाँ से।
......
760
जितना इसमें और उसमें अंतर है ।
इतना ही तो बस इसमें अंतर है  ।
प्रभु प्राण बसाये काया भीतर ,
मन करता जिसमें अंतर है ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@.
डायरी 3
Blog post 8/6/19

कलम चलती है शब्द जागते हैं।

सम्मान पत्र

  मान मिला सम्मान मिला।  अपनो में स्थान मिला ।  खिली कलम कमल सी,  शब्दों को स्वाभिमान मिला। मेरी यूँ आदतें आदत बनती गई ।  शब्द जागते...