शुक्रवार, 9 नवंबर 2018

ठहर जरा

 ठहर जरा, इनायत का इतना करार है ।
 क्युं निग़ाहों को,निग़ाहों का इंतज़ार है ।

है सँग निग़ाह, संग सा सख्त जो ,
क्युं दिल को, उसका इख़्तियार है ।

जला है जो, मेरे वास्ते अंधेरों में ,
क्युं यही उसका, इश्क़ इक़रार है ।

सुखाता रहा , आब आँख में अपनी ,
क्युं करता नही ,दर्द अपना इज़हार है ।

चलता है जो, साथ सख़्त राहों पर ,
क्युं मंजिल का, वो भी तलबगार है ।

लिखता रहा , लफ्ज़ वास्ते जिसके,
क्युं सुनता,वो मुझे मेरे अशआर है ।(दोहे)

करती रही ,  बयां,हालात को सूरत  ,
"निश्चल" नही , चेहरा-ए-असरार है ।(रहस्मय)

... विवेक दुबे"निश्चल"@...




गुरुवार, 8 नवंबर 2018

चलता है पथ अंगारों को लेकर

चलता है पथ अंगारों को लेकर ।
साथ अधूरे कुछ तारों को लेकर ।

गढ़ता है फिर दिनकर दिन को ,
आधे छूटे कुछ वादों को लेकर ।

सहज रहा है नव आशाओं को ,
अपने ही कुछ भारों के लेकर ।

जीत चला है पग पग पथ को ,
जीत तले कुछ हारों को लेकर ।

थकित नही ठहरा कुछ पल को ,
साँझ तले शीत सहारों को लेकर ।

चलना है बस एक नियति यही ,
अपने ताप तले विचारों को लेकर ।

चलता है पथ अंगारों को लेकर ।
साथ अधूरे कुछ तारों को लेकर ।

निश्चल" है फिर भी वो चलता है  ,

 धवल किरण श्रृंगारों को लेकर ।

.. विवेक दुबे"निश्चल"@...

क्युं रिश्तों को अपना बनाते हो ।

क्युं रिश्तों को अपना बनाते हो ।
क्युं दर्द अपना जुबां पर लाते हो ।

बे-वफ़ा रहे है मुसलसल रिश्ते  ,
क्युं रिश्तों से वफ़ा दिखलाते हो ।

 चलते तुम अपनी ही राह पर ,
चौराहों पर घुल मिल जाते हो ।

 मिले आपस मे कुछ कदम को ,
 कुछ साथ फिर ज़ुदा हो जाते हो ।

जाते तुम राह नई मंजिल को ,
तुम राह नई फिर कहलाते हो ।

नही मुक़म्मिल कभी कहीं कोई ,
मंजिल मंजिल रिश्ते गढ़ते जाते हो ।

छूट गया फ़िर पीछे कल को वो ,
आज मुक़ाम नया जो पा जाते हो ।

क्युं रिश्तों को अपना बनाते हो ।
क्युं दर्द अपना जुबां पर लाते हो ।

....विवेक दुबे"निश्चल"@...

बुधवार, 7 नवंबर 2018

दीप तलें अंधियारे रहे

नव वंदनवार लगाते रहे ।
स्वास्तिक द्वार सजाते रहे ।

दीप धरे कुछ द्वारे में ,
दृष्टि पसरे उजियारे रहे ।

नव जीवन की आशा में ,
बुझते दीप बने सहारे रहे ।

बीती गहन निशा धीरे से ,
उज्वल से कुछ भुनसारे रहे ।

प्रखर चेतना चेतन मन की ,
पर दीप तले अंधियारे रहे ।

... विवेक दुबे"निश्चल"@...

मंगलवार, 6 नवंबर 2018

दीप दिवाली के जलकर

दीप दिवाली के जलकर ,
अंधियारे पिघलाते हैं ।

तिमिर समेट तले अपने ,
स्वयं रहित हो जाते हैं ।

देकर उज्वल आभा जगमग ,
एक राह नई फिर दिखलाते हैं ।

दीप दिवाली के जलकर ,
अंधियारे पिघलाते हैं ।

आशाओं की किरणों सँग ,
हर अंधकार पर छा जाते हैं ।

जलकर स्वयं बारबार यूँ हीं ,
ज़ीवन की परिभाषा दे जाते हैं ।

दीप दिवाली के जलकर ,
अंधियारे पिघलाते हैं ।

देकर सकल तरल अपना ,
शेष रहित स्वयं हो जाते है ।

नहीं पराजय कभी कहीं उनकी,
स्व-प्रकाश आभित जो हो जाते है ।

 हर चलते तम अंश अंश का ,
"निश्चल" फिर भी कहलाते हैं ।

दीप दिवाली के जलकर ,
अंधियारे पिघलाते हैं ।

... विवेक दुबे"निश्चल"@...



दीप दीप आज दीप जले हैं

दीप दीप आज दीप जले है ।
अंधियारे प्रकाश तले घुले है ।

तिमिर छुपा दीप दीप तले ,
उजियारों से दीप मिले है ।

हुआ पराजित तम धुति से ,
अधर अधर आज खिले है ।

प्रकाशित क्षिति श्रंगारित तन  ,
अंग अंग गहने सुहाग ढ़ले है ।

रुकी नही कहीं कभी रश्मि ,
उज्वल उजियारे अंनत चले है ।

दीप दीप आज दीप जले है ।
अंधियारे प्रकाश तले घुले है ।

...विवेक दुबे"निश्चल"@...


कलम चलती है शब्द जागते हैं।

सम्मान पत्र

  मान मिला सम्मान मिला।  अपनो में स्थान मिला ।  खिली कलम कमल सी,  शब्दों को स्वाभिमान मिला। मेरी यूँ आदतें आदत बनती गई ।  शब्द जागते...