गुरुवार, 18 अप्रैल 2019

जीवन

683

एक रजः कण यूँ तो अपूर्ण रहा ।
पर स्वयं में स्वयं वो परिपूर्ण रहा ।

 घूणित द्रव्यमान अंतर् में जिसके ,
 अंतर्मन ब्रह्मांड एक सम्पूर्ण रहा ।

 करता जो हरदम श्रम क्षमता से ,
 स्थिर केंद्र गतिमान वो घूर्ण रहा ।

थकित नही जो नियति नियम से ,
जीवन एक वो ही तो पूर्ण रहा ।

   .... विवेक दुबे"निश्चल"@...

 डायरी 6(93)

रविवार, 14 अप्रैल 2019

मुक्तक 703/710

703
दर्प घटा । (कम) 
 मान बढ़ा ।
 क्षोभ छटा ।
 ध्यान घटा ।(घटना)
.. विवेक दुबे"निश्चल"@..

704
स्वयं को स्वयं मान रहा ।
इतना ही अभिमान रहा ।
गढ़ चला इरादे सदियों के ,
दो पल का जो मेहमान रहा ।
..... विवेक दुबे"निश्चल"@...
705
ज़ीवन भी डरता ज़ीवन से ।
मन ही हरता परिवर्तन से ।
टूटे टांके कुछ आशाओं के ,
उधड़ा ताना अपनी सीवन से ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@...
706
सूरज सा तू चलता चल ।
ताप तले तू जलता चल ।
पा जाये जग उजियारा ,
भोर भरे तू खिलता चल ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@...

707
लिखता रहा मैं , खुद ही नजर में ।
छुपता रहा मैं ,दुनिया की नजर में ।
सिमेटता रहा मैं , ज़ज्बात जमाने के ,
विखेरता रहा दर्द , अपनी नज़र में ।
....विवेक दुबे"निश्चल"@...

708
क्यों खुशियों को आग लगाऊं ।
क्यों कलम तले फिर तप जाऊं ।
कह सुनकर बातें जज़्बातों की ,
क्यों अहसासों में झुलसा जाऊं ।
.......विवेक दुबे"निश्चल"@...
709
तज अहंकार के अहमं को ।
कर अभिभूत हृदय स्वयं को ।

मुक्त हृदय अब चलता मैं ,
उठ स्वार्थ संकुचित घेरे से ।

 साथ शेष सृष्टि सम्बंध राग ,
 झंकृत हो हृदय बीणा तार ।

 शांत चित्त आलोकित मन ,
 स्पंदन सत्यं शिवं सुंदरम ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@..

710

डमरू घनाक्षरी
शिल्प- 8,8,8,8,
(बिना मात्रा के 4चरण प्रति चरण 32 वर्ण)


तल तक चल कर ,मचल लहर पर ।
 सकल सहज कर ,डट मत तट पर ।

 जब चल हटकर ,  उधर ठहर कर ।
 तब जल भरकर ,सजल नयन कर ।


नभ जल भरकर ,बरसत रज पर ।
सहजत हर कण  , धरकर तन पर ।

नयन सजल कर ,मन दरसन कर ।
जनम सफल कर, भगवत भजकर ।


.... विवेक दुबे"निश्चल"@...

डायरी 3

मुक्तक 697/702

697
संघर्षो से जो पाया व्यर्थ न जाये कभी ।
खुद को दुनियाँ में खोया न जाये कभी ।
जीत चलो तिमिर तले हर उजियारे को ,
उजियारों को तम में ढाला न जाये कभी ।
....विवेक दुबे"निश्चल"@...
698
मेरे मुस्कुराने की बजह न रही ।
महफिलों में अब अदा न रही ।
ख़ामोश से रहे वो परिंदे सभी ,
मौसम-ऐ-गुल  फ़िज़ा न रही ।
... 
699
फिर ख़ामोश से सभी है ।
जाने क्या रही कमी है ।
यूँ तो असमां है नजर में ,
पैर तले दो गज जमीं है ।
.... 
700
एक मुसलसल, सिलसिला रहा ।
अल्फ़ाज़ लफ्ज़ का, सिला रहा ।
फैरता रहा नजर ,जो शराफत से ,
वो जाने कैसा एक , गिला रहा ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@..


701
 वक़्त की जाने कैसी ये शरारत है ।
आज निग़ाहों को नही मलालत है ।

उजड़ते है घर तूफ़ान से परिंदों के ,
अपनो को नही अपनों की चाहत है ।

है रौनकें जिनसे उसके मयकदे की,
वो साक़ी करती  रिंदो की ज़लालत है ।
.... 
702
फिर दस्तक तूफ़ान से पहले, खामोशी की ।
एक अदा इम्तेहान से पहले, बुत पोशी की ।

जबां है फ़िर मयकदा, एक रात के वास्ते ,
है हर निग़ाह साक़ी-ऐ-रिंद , मदहोशी की ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@...
डायरी 3

मुक्तक 690/696

690

कह गया बात वो, 
           ईमान से ईमान की ।
नही कोई जात, 
           इंसान की पहचान की ।
बदलता है रंग , 
          अक्सर खुदगर्ज़ी के वो ,
है नही फ़िक़्र उसे , 
          क्यों उस जहान की ।
-----
691

यूँ बदलता रंगत , इंसान गया ।
जो बदलता  , अहसान गया ।

रह गया दौर  ,   ख़ुदगर्ज़ी का ,
क्यूँ जात इंसां से,  ईमान गया ।
.... 
692

इस दौर-ऐ-जफ़ा में,
    तुम वफ़ा कहाँ से लाओगे ।

तिज़ारत-ऐ-जहां में,
       तुम सफ़ा कहाँ से लाओगे ।

घुला है ज़हर ,
    आब-ओ-हवा में,अब इस क़दर ,

इस क़ायम दुनियाँ में, 
        तुम शफ़ा कहाँ से लाओगे ।

जफ़ा/अन्याय
सफ़ा/साफ/पवित्र
शफ़ा/स्वस्थ
.....
693

न मैं किसी को समझ सका ।
न ही कोई मुझे समझ सका ।
न खरीद सका मैं किसी को ,
न ही मैं कहीं बिक सका ।
-----
694

जिंदगी संजीद रही ।
 यूँ अपनी ईद रही ।

बदले हालात अस्र से ,
वक़्त की ताकीद रही ।
......
संजीदा/गम्भीर शांत
ताक़ीद/आग्रह

695
है मेरी गुरु सी वो ।
सुधारती है त्रुटि वो ।
सिखा रीत ज़ीवन की ,
सदा संवारती है वो ।
..
696
हाँ , नही कहना सीख लो ।
स्व को , स्वयं से खींच लो ।
"निश्चल" चलो निज भाव से,
  आत्म निवेदित रीत लो ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@...
डायरी 3

मुक्तक 686/689

686
चल चला चल मचल चल ,
रंगों की छटा सा बदल चल ।
न रहे रिक्त कही भी कोई,
बूंद बूंद सा तू पिघल चल ।
.......
687
मैं लिख गया कुछ ।
वक़्त सँग टिक गया कुछ ।
चाहतों की हसरत में ,
अश्क़ पलकों पे रुक गया कुछ ।
... ...
688
कुछ यक़ी के परिंदे ।
कुछ ख़ौफ़ के दरिंदे ।
उम्र चली  तन्हा सी ,
ले हालात के चरिंदे ।
... 
689
कोई कभी हम से ख़ुसूस कर ले ।
लम्हा लम्हा हमे महसूस कर ले ।
कह गए नज़्म शाम-ऐ-महफ़िल में ,
साक़ी-ऐ-रिंद ज़ज्बात ख़ुलूस कर ले ।

.... विवेक दुबे "निश्चल"@...

ख़ुलूस /निश्छलता/ सच्चाई

खुसूसियत/ विशेषता/मेल/सौहार्द।




मुक्तक 685

/685
वासना सो जाती है ,
  तब प्रेम उभरता है ।
 कान्हा मन मधुवन में ,
  फिर रास को ठहरता है ।
.... 
ध्यान क्या है ।
विचार क्या हैं ।
ध्यान शिवतत्त्व ।
विचार वासना ।

विचार शून्यता ,
वासना की समाप्ति ।
शांत चित्त ,
शिव सी भक्ति ।
........

वासना ही तो समाप्त होती है ।
तभी शिवत्व की उत्पत्ति होती है ।
-----
वहम जला, अहम जला ,
जला असत्य का फूंस ।
ज्वाला छूती नभ को ,
सत्य प्रह्लाद सा पूत ।

... विवेक दुबे"निश्चल"@...
डायरी 6 (126)

मुक्तक 681/684

681
मेरा पता यही ,के- मैं बे-पता नही ।
हूँ जरा ग़ुम, मैं मगर गुमशुदा नही ।
न खोजना भीड़ में, तुम दुनियाँ की ,
रखना याद दिल में, मैं मिलूँ वहीं ।
......
682
मैं आईने सा हुनर, पा, न पाया ।
जो सामने आया, दिखा, न पाया ।
मैं छुपाता रहा, अक़्स, दुनियाँ के ,
मैं ख़ुद को ख़ुद में, छिपा, न पाया ।
....
683
शाम-ऐ-महफ़िल अधूरी सी रही ।
नज़्र-ऐ-शिरक़त जरूरी सी रही ।
पढ़ता रहा नज़्म बड़े अदब से,
लफ्ज़-ऐ-रियाज दूरी सी रही ।
... ..
684
तू चला चल आसमां तक जमीं से ।
है नहीं राह तेरी यहीं तक यहीं से ।
लिखकर सितारों से हसीं पैगाम ,
जीत ले तू हर मुक़ाम जिंदगी से ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@....
डायरी 3

मुक्तक 676/680

676
गढ़ आस प्रकाश की , 
भोर तले तू आज सी ।
मिट जायें छायाएँ सारी,
जोत जले विश्वास की ।
..... ..
677
ये इश्क़ यूँ गहरा हुआ ।
दर्द निग़ाहों पे ठहरा हुआ ।
हसरतों के असमां पर ,
चाहतों का पहरा हुआ ।
......
678
रीत रहा मन धीरे धीरे ।
बीत रहा तन धीरे धीरे ।
एक सागर की चाहत में ,
सरिता बहती तीरे तीरे ।
......
679
क्युं एक सवाल रहा ।
नज़्र का मलाल रहा ।
लिखता रहा वक़्त को ,
हश्र का न ख़्याल रहा ।
.... 
680

कुछ बांधे बंधन ।
कुछ काटे बंधन ।

जीवन की आशा में,
दग्ध हृदय तपता तन ।

एक साँझ तले ,
मिलता जीवन ।

 तरुवर की छाँया में ,
 शीतल उर "निश्चल"मन ।

..... विवेक दुबे"निश्चल"@..

(तरुवर-- परमात्मा ब्रम्ह उर -- हृदय)

डायरी 3

मुक्तक 671/675

671
 एक ठहरा हुआ असर सा ।
 भागते से , इस शहर सा ।
 कुछ जीतने की चाहत में ,
 चाहतों पे , एक कहर सा ।

672
  वक़्त का कुछ कर्ज़  सा ।
  रहा कही क्यों फ़र्ज़  सा ।
  बदलता ही रहा हर घड़ी ,
  बस रहा इतना ही हर्ज़ सा
.... 
673
क्यों किसी को , ख़ास कहा जाए ।
दिल-ओ-जाँ , पास कहा जाए ।
बदलता है ,करवटें वक़्त भी तो ,
रात को क्यों न , आस कहा जाए ।
...
674
कहाँ कौन पढ़ रहा है किसको ।
यहाँ कौन गढ़ रहा है किसको ।
एक सैलाब है यह वक़्त का ,
जो डुबोने बढ़ रहा है जिसको ।
... 
675
 लोग पढ़ते रहे यूँ ही ।
आह भरते रहे यूँ ही ।
डूबे हर्फ़ हर्फ़ अश्क़ में ,
दरिया बहते रहे यूँ ही ।

....विवेक दुबे"निश्चल"@...
डायरी 3

मुक्तक 665/670

665

हालात लिखा करता हूँ ।
       असरात लिखा करता हूँ ।

बिखेरकर अल्फ़ाज़ अपने ,
         ज़ज्बात लिखा करता हूँ ।
.---
666
जूझता रहा मैं ,
               हालात के हादसों से ।

गुजरता रहा मैं ,
             वक़्त के रास्तों से ।

कहाँ किसे कहुँ ,
           मैं मंजिल अपनी ,

बा-वास्ता रहा मैं ,
          खुदगर्ज वास्तो से ।
-----
667

लिखता रहा खत,
            ख़्वाब ख़यालों से ।

पैगाम-ए-इश्क़ ,
         जिंदगी के सवालों से ।

पलटता रहा मैं ,
            जिल्द किताबों की ,

मिलते नही होंसलें ,
             कुछ मिसालों से ।
-----
668

 वक़्त बड़ा कमज़र्फ हुआ है ।
           जफ़ा भरा हर्फ़ हर्फ़ हुआ है ।

  घुट रहे है अरमान सीनों में ,
            ये सर्द दर्द अब वर्फ़ हुआ है ।
---
669
आँख मूंदने से रात नही होती ।
        झूंठे की कोई साख नही होती ।

 उड़ान कितनी भी हो ऊँची ,
          आसमान में सुराख नही होती ।
---
670
कुछ कतरन है दिन की ।
           रीते रीते से बर्तन सी ।

रीत रहे दिन खाली खाली ,
           रातें है उतरे यौवन सी ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@...

डायरी 6(59)

जफ़ा/ जुल्म 
कमज़र्फ/ ओछा /कमीना

   Blog post 10/11/18

मुक्तक 665/670

665

हालात लिखा करता हूँ ।
       असरात लिखा करता हूँ ।

बिखेरकर अल्फ़ाज़ अपने ,
         ज़ज्बात लिखा करता हूँ ।
.---
666
जूझता रहा मैं ,
               हालात के हादसों से ।

गुजरता रहा मैं ,
             वक़्त के रास्तों से ।

कहाँ किसे कहुँ ,
           मैं मंजिल अपनी ,

बा-वास्ता रहा मैं ,
          खुदगर्ज वास्तो से ।
-----
667

लिखता रहा खत,
            ख़्वाब ख़यालों से ।

पैगाम-ए-इश्क़ ,
         जिंदगी के सवालों से ।

पलटता रहा मैं ,
            जिल्द किताबों की ,

मिलते नही होंसलें ,
             कुछ मिसालों से ।
-----
668

 वक़्त बड़ा कमज़र्फ हुआ है ।
           जफ़ा भरा हर्फ़ हर्फ़ हुआ है ।

  घुट रहे है अरमान सीनों में ,
            ये सर्द दर्द अब वर्फ़ हुआ है ।
---
669
आँख मूंदने से रात नही होती ।
        झूंठे की कोई साख नही होती ।

 उड़ान कितनी भी हो ऊँची ,
          आसमान में सुराख नही होती ।
---
670
कुछ कतरन है दिन की ।
           रीते रीते से बर्तन सी ।

रीत रहे दिन खाली खाली ,
           रातें है उतरे यौवन सी ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@...

डायरी 6(59)

जफ़ा/ जुल्म 
कमज़र्फ/ ओछा /कमीना

   Blog post 10/11/18

मुक्तक 659/664

659
असमां भी रुकता है ।
दूर क्षितिज झुकता है ।
कर गुजरने की चाहत में ,
झुककर फिर उठता है ।
.....
660
साँझ तले झुकता है ।
असमां भी थकता है ।
फिर सँवरने की चाह में ,
भोर मिले फिर उठता है ।
..
661
 हर रिश्ता सर्द बड़ा है ।
साँस साँस दर्द भरा है ।
मुड़ती ज़ीवन राहों में , 
सामने फ़र्ज़ खड़ा है ।
....
662
राह जिंदगी ,मुड़ती है कभी कभी ।
आते है साफ़ नज़र , जभी सभी ।
खुलतीं है निगाहें , एक मासूम सी ,
"निश्चल"आते नये जिकर तभी सभी ।
.... 
663
जिंदगी कुछ यूँ उम्दा है ।
अश्क़ पलको पे जिंदा है ।
मचलता है पोर किनारों पे ,
डूबता साहिल पे तन्हा है ।
.... 
664

जिंदगी कुछ यूँ संजीदा है ।
अश्क़ पलको पे पोशीदा है ।
मचलता ख़ुश्क किनारों पर ,
डूबता साहिल पे जरीदा है ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@...

संजीदा /गंभीर /समझदार
पोशीदा /ढंका हुआ/गुप्त/छिपाया हुआ
जरीदा/तन्हा

मुक्तक 655/658

655
मैं तिनका ,  न सूखता  न डूबता रहा।
साथ किनारों के, तैरता बजूद सा रहा।
बहता ही रहा ,हालात के साथ हरदम ,
मैं वक़्त के थपेड़ों से ही, जूझता रहा ।
.....
 656
शिनाख़्त करता अगर , ज़ख्म जो तीरों की ।
उजड़ती ईमान नियत ,अपनो के जमीरों की ।
 हँसता ही रहा ,सहता ही रहा हर पीर को , 
कुछ ऐसी थी ,तासीर वफ़ा उन नजीरों की ।
...
वफ़ा/निष्ठा नज़ीर/उदहारण
....
667
जिंदगी रंग बदल के , आई कभी हँसाने को ।
आया रंग बदल के ,जमाना कभी रुलाने को ।
हर नज़्म में ,करता रहा बयां हालात वक़्त से ,
सुनता रहा वक़्त , खमोशी से हर फ़साने को ।
.... 
658
घटता रहा वो कुछ ,  जो घटा ही नही ।
दिखता रहा वो कुछ, जो दिखा ही नही ।
कह गया वो हर बात , बस बात बात में ,
लिखता रहा वो कुछ, जो लिखा ही नही ।
   ...

लिख गया वो हर बात, बस बात बात में ,

कहता रहा वो कुछ , जो कहा ही नही ।
.......
  .... विवेक दुबे"निश्चल"@...
डायरी 3

मुक्तक 649/654

649
एक मुसलसल, सिलसिला चाहिए ।
अल्फ़ाज़ लफ्ज़ का, सिला चाहिए  ।
 फेर ले नजर कोई   ,   शराफत से ,
 ऐसी कोई भी , नही गिला चाहिए ।
.
गिला/निंदा/ उलाहना
...
650
हार कर भी न हार हो ।
रिश्तों का यूँ व्यवहार हो ।
 मिलते रहे बे-मोल ही ,
न कही कोई व्यापार हो ।
....
651

जीवन का ऐसा ताना है ।
उधड़ा सा हर बाना है ।
 सहज रहा तार तार को ,
पोर पोर ख़ुद को पाना है ।
...
 सहज चल तार तार को ,
पोर पोर खुद को जाना है ।
....
652
 मैं झुकता गया दूब सा ।
 मैं तमाशा रहा खूब सा ।
 है निग़ाहों में तल्खियाँ ,
 यूँ तो हूँ मैं मेहबूब सा ।
....
653
रिश्तों की यही निशानी है ।
बनती बिगड़ती कहानी है ।
तोल रहे कुछ , मोल से ,
बीत रही ये जिंदगानी है ।
... 
654
हो गई रंगीन दुनियाँ,
 यूँ निग़ाहों के सामने ।

रंग बदल, गुजरते गये,
 लोग निग़ाहों के सामने । 

... विवेक दुबे"निश्चल"@....

डायरी 3

मुक्तक643/648

643
मैं कुछ अब लिखूँ कैसे।
ऐसे लिखूँ या लिखूँ बैसे ।
घायल है पग पायल से ,
थिरकन सँग टिकूँ कैसे ।
...
644
अल्फ़ाज़ , कलम पिरोता गया ।
पाकर कुछ , कुछ खोता गया ।
कहकर बात , वक़्त से वक़्त की ,
यूँ बे-वक़्त , वक़्त का होता गया ।
....
645
वो क्यों पहचान सा बना है ।
जो दुश्मन जान सा बना है ।
सुनाता है वो किस्से अपने ,
वो क्यों  गुमान सा बना है ।
...
646

 जीत चल फिर आज से ।
संग्राम कर फिर आज से ।
साहस गढ़ तू संकल्प का ,
पुरुषार्थ भर फिर आज से ।
....
 647
जीत है कभी हार है ।
ज़िंदगी एक सिंगार है ।
बंधी प्रीत की डोर से ,
यह नही प्रतिकार है ।
....
648
वो पहचान अधूरी है ।
जिसमे पहचान जरूरी है ।
उबला न सागर जल से ,
समा रहा वर्षा पूरी है ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@.....


मुक्तक 638/642

638
रख जरा तू सामने आईने अपने ।
तू पूछ जरा खुद से मायने अपने ।
पाएगा खुद में ही खुद आपको ,
अपनी निगाहों के सामने अपने ।
....
639
अश्क़ निग़ाहों में क्यों इश्क़ पलता है ।
  चाँद क्यों रात के दामन में मचलता है ।
  गिरता है क़तरा शबनम का जमीं जो ,
  क्यों जमाना कदम रौंद उसे चलता है ।
....
640

 मांगना नही तु ,अपना दिया ।
 भूल जा देकर तु ,कभी दिया ।
 फैलता है उजाला,जलता दिया ।
 जो दिया बहुत ,उसने दिया ।
.....
641
मंज़िल का कोई पता नही ।
 मैं राहों पे पर थका नही ।
चलता चला राह पथिक मैं ,
राहों से मेरी कोई ख़ता नही ।
....
642
मुक़ाम से मुक़ाम गढ़े चलो ।
पथिक बढे चलो बढ़े चलो ।
रात से साथ के सिंगार से ,
नित नवल भोर मढ़े चलो ।

... विवेक दुबे "निश्चल"@..


डायरी 6

कलम चलती है शब्द जागते हैं।

सम्मान पत्र

  मान मिला सम्मान मिला।  अपनो में स्थान मिला ।  खिली कलम कमल सी,  शब्दों को स्वाभिमान मिला। मेरी यूँ आदतें आदत बनती गई ।  शब्द जागते...