703
दर्प घटा । (कम)
मान बढ़ा ।
क्षोभ छटा ।
ध्यान घटा ।(घटना)
.. विवेक दुबे"निश्चल"@..
704
स्वयं को स्वयं मान रहा ।
इतना ही अभिमान रहा ।
गढ़ चला इरादे सदियों के ,
दो पल का जो मेहमान रहा ।
..... विवेक दुबे"निश्चल"@...
705
ज़ीवन भी डरता ज़ीवन से ।
मन ही हरता परिवर्तन से ।
टूटे टांके कुछ आशाओं के ,
उधड़ा ताना अपनी सीवन से ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@...
706
सूरज सा तू चलता चल ।
ताप तले तू जलता चल ।
पा जाये जग उजियारा ,
भोर भरे तू खिलता चल ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@...
707
लिखता रहा मैं , खुद ही नजर में ।
छुपता रहा मैं ,दुनिया की नजर में ।
सिमेटता रहा मैं , ज़ज्बात जमाने के ,
विखेरता रहा दर्द , अपनी नज़र में ।
....विवेक दुबे"निश्चल"@...
708
क्यों खुशियों को आग लगाऊं ।
क्यों कलम तले फिर तप जाऊं ।
कह सुनकर बातें जज़्बातों की ,
क्यों अहसासों में झुलसा जाऊं ।
.......विवेक दुबे"निश्चल"@...
709
तज अहंकार के अहमं को ।
कर अभिभूत हृदय स्वयं को ।
मुक्त हृदय अब चलता मैं ,
उठ स्वार्थ संकुचित घेरे से ।
साथ शेष सृष्टि सम्बंध राग ,
झंकृत हो हृदय बीणा तार ।
शांत चित्त आलोकित मन ,
स्पंदन सत्यं शिवं सुंदरम ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@..
710
डमरू घनाक्षरी
शिल्प- 8,8,8,8,
(बिना मात्रा के 4चरण प्रति चरण 32 वर्ण)
तल तक चल कर ,मचल लहर पर ।
सकल सहज कर ,डट मत तट पर ।
जब चल हटकर , उधर ठहर कर ।
तब जल भरकर ,सजल नयन कर ।
नभ जल भरकर ,बरसत रज पर ।
सहजत हर कण , धरकर तन पर ।
नयन सजल कर ,मन दरसन कर ।
जनम सफल कर, भगवत भजकर ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@...
डायरी 3