शनिवार, 21 जुलाई 2018

सायली छंद

410
सायली छंद 

कलि 
अनखिली थी 
 मसल गया वो
 हवस का
 दरिंदा ।

पुजारी 
सत्ता के
बैठे खामोशी से
बस पिसती 
जनता 

पुजारी 
राम के
लाते राम राज्य
पर रावण
 भारी 

पूजन
मंचों पर 
 कन्या चरणों का
 लुट रही
 नारी 

अनाचार
बढ़ रहे 
दिन प्रति दिन
और निरीह
 सरकार

 हितैसी
 स्वार्थ के 
 ख़ातिर वोटों की
 बस करते
 व्यापार 

... विवेक दुबे"निश्चल"@.

सायली छंद

409
उन्मुक्त
 आकाश में ,
रिक्त कुछ आकांक्षाएं ।
  भटक रहीं  
  इच्छाएं ।
.... 
वक़्त
गुजरता गया
हालात बदलता गया
 मैं क्यों 
 "निश्चल"
.... 
वक़्त
गुजरता गया
हालात बदलता गया
 बदला नहीं 
 "निश्चल"

.... विवेक दुबे"निश्चल"@....

दुआ ,
 मिलने की ,
क्यों पिघलती नही  
 सोचकर सोचता ,
 यही ।

पैमाना ,
 कैसा है ।
 इन दूरियों का ,
 बदलता नही ,
 कभी ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@..

सायली छंद

 408
सायली छंद

नोट
बदल गए 
पर न आया
काला धन 
 बहार

 जमा 
स्विस बैंक 
 हो गया दूना 
 वाह री
 सरकार

 वादे
 छाए थे
अच्छे दिन के
 सावन सा
 इंतज़ार

.... विवेक दुबे"निश्चल"@..


 न्योछावर
सीमा पर 
सीमा के पहरेदार 
ठोके ताल
 सरकार 

 जान
हथेली पर 
मरने को तैयार 
 माता के 
 पहरेदार 

माता 
मांग रही 
सत्ता सिनो से 
 लालों का 
 प्रतिकार 

हाथ 
खोल दो
अब लालो के 
 आरपार हो
 जाए 
.... विवेक दुबे"निश्चल"@. ..

सायली छंद

407
सायली छंद


वक़्त 
बदलता है
बदल जाने दो 
फिर बदलेगा
बदलकर

वो
आदमी भी
ठोकरें खाता है 
जो चलता
सम्हलकर
....विवेक दुबे"निश्चल"@.

सायली छंद

406
सायली छंद

चाहत
अम्बर की 
 धरती होने की 
  धुंधली साँझ 
   सजाती ।

 चाहत 
 धरती की 
 अम्बर होने की 
 भोर उजाला 
  लाती ।

 सितारे 
चँचल से 
पर "निश्चल" से
दूर गगन
 खड़े ।
  
साँझ 
का झुरमुट 
 चाँद की आस 
  एक अधूरी
 प्यास
..विवेक दुबे"निश्चल"@...


सायली छंद

406
सायली छंद

चाहत
अम्बर की 
 धरती होने की 
  धुंधली साँझ 
   सजाती ।

 चाहत 
 धरती की 
 अम्बर होने की 
 भोर उजाला 
  लाती ।

 सितारे 
चँचल से 
पर "निश्चल" से
दूर गगन
 खड़े ।
  
साँझ 
का झुरमुट 
 चाँद की आस 
  एक अधूरी
 प्यास

वो जर जर काया

405
मत्तगयन्द सवैया छंद

   वो जर जर काया उसकी , 
  फिर भी शिरा रक्त धार बही है ।

  दौड़ रहीं है साँसे उसकी ,
 नाता काया संग जोड़ रहीं है ।

चुप्पी साधें तकतीं कुछ न कुछ ,
 शून्य निगाहें खोज रहीं है ।

याद नहीं अब कुछ यादों में, 
उसको कोई बोध नही है ।

 मौन साध लिया है साधक जैसे, 
होंठो पे अब बोल नहीं है ।

क्या खोया क्या पाया है ,
इसका भी अब शोक नही है ।

सो जाएगा कब चिर निंद्रा में ,
उस पल का भी खेद नही है ।

हो जाएगा तब पूर्ण ब्रम्ह सा, 
उसको इंतज़ार यही है ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"..

आज मुखोटा होता है

जीने से पहले मरने का सौदा होता है ।
हर चेहरे पर आज मुखोटा होता है ।

सूख रहीं कलकल धाराएं रिश्तों की ,
रिश्तों में अब स्वार्थ सलोना होता है ।

चलते अब बस सँग साथ बही ,
जिनको लाभ पिरोना होता है ।

 भोर मिले मतलब की छाँव तले ,
 साँझ कहीं कहीं बिछौना होता है ।

हर चेहरे पर आज मुखोटा होता है ।

परमारथ के शील सरोबार में ,
स्वारथ कलश डुबोना होता है ।

 रिश्तों में रिश्तों की अचकन से ,
 रिश्तों का स्वार्थ निचोना होता है ।

 क्यों शीतल पड़ते रिश्तों में ,
 तप्त बदन डुबोना होता है ।

हर चेहरे पर आज मुखोटा होता है ।

..... विवेक दुबे"निश्चल"@...

मेरी डायरी

मेरी डायरी

मेरी किताबों के कुछ उखड़े उखड़े  पन्ने।
लफ्ज़ लिखे थे जिन कर कुछ नन्हे नन्हे ।

करते थे बातें वो मुझसे अपनी ,
आते थे अक्सर जो मुझसे मिलने ।

 बीत गया जो बीत रहा जो ,
 कल आएगा जो उसको सिलने ।

 सहलाते बड़े जतन से वो मुझको ,
 आते थे जब वो मुझसे मिलने ।

 रचकर बसकर मेरी आँखों में ,
 लगते स्वप्न सलोने से वो खिलने ।

 वक़्त बड़ा ही निरिह रहा है ,
 नही किसी का मीत रहा है ।

 निगल लिया उसने भी उनको ,
 बन्द किए थीं जिसको उनकी जिल्दें ।

मेरी किताबों के कुछ उखड़े उखड़े पन्ने।
लफ्ज़ लिखे थे जिन कर कुछ नन्हे नन्हे ।

..... विवेक दुबे"निश्चल"@.....

ना ही कोई सुनता

ना ही कोई सुनता है ।
ना ही कोई पढ़ता है ।

 फिर भी यह मन ,
शब्द भाव गढ़ता है ।

  जीता प्रेम पिपासा में ,
 आलिंगन को बढता है ।

 छूकर शब्दों से शब्दों को ,
प्रणय निवेदन सा करता है ।

 पहचानी राहों पर अंजानो सा ,
"निश्चल" बस चल पड़ता है ।

 नही कोई सुनता है ।
 ना ही कोई ......
.... विवेक दुबे"निश्चल"@....
Blog post 21/7/18

शुक्रवार, 20 जुलाई 2018

चाहत ही मचलतीं रही

एक चाहत ही मचलती रही ।
जिंदगी भी रंग बदलती रही ।

झुकाकर वो निग़ाह राह से ,
 हर बार ही निकलती रही ।

 खुश गवारीयों के मौसम में ,
 शबनम फूल फिसलती रही ।

 आकर जमीं के दमन में ,
 कदमों तले कुचलती रही ।

 न चली साँझ साथ रात के ,
 किस्मत क्युं खिसलती रही ।

 खो गया सितार वो भोर का ,
 भोर तले रात दहलती रही ।

 "निश्चल" के हर अंदाज़ से ,
  निग़ाह क्युं मचलती रही ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@..
Blog post 20/7/18

मुक्तक 457

457
झोंके शीतल अहसास भरे होते है ।
तेज हवाओं के अंधड़ से होते है ।
 उभरीं  जो दिल के अहसासों से ,
उन तस्वीरों के रंग सुनहरे होते है ।
.....
458
खोज न सका मैं उस प्रकाश को ।
दिखाता जो मुझे मेरे आकाश को ।
तलाश में चला सूरज मंजिलों की ,
 बिखेर कर अपनी ही आभास को ।

... विवेक दुबे"निश्चल"@...
डायरी 3

मुक्तक 453

453
पत्थर जब पिघलते है ।
 लावा बन कर चलते है ।
थर्राती है तब धरती भी,
 ज्वालामुखी निकलते है ।
 ...
454
फौलाद बना जिस पत्थर से ,
वो पत्थर भी पिघला होगा ।
 उसकी ही जलती सांसो में ,
  "निश्चल" फौलाद मिला होगा ।
... 
455
अपनी परवाह छोड़ जरा । 
लापरवाह हो के देख जरा ।
 खुल जाएंगे सारे बंधन ,
 उसमे खुद को देख जरा ।
.... 
456
कदम कदम कुछ खोता है ।
सपनो का कैसा धोखा है ।
रिक्त नही पर मैं रीत रहा ,
 धरा मन मन कुछ वोता है ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@....
डायरी 3

मुक्तक 445

445
जिंदगी सवालों सी ।
 उलझी जवाबों सी ।
  डूबकर किनारों पे ,
 छूटते किनारों सी ।
...446
उतरकर अपने ही आप में ।
 करता खुद से ही बात मैं ।
 जीत न सका जज़्बात को ,
 हारता दिल के ही हाथ मैं ।
.... 
447
सवाल एक यही अच्छा था ।
वो बे-सवाल ही सच्चा था ।
 चलते रहे ख़ामोश राहों पे ,
वो राहगर निग़ाह सच्चा था
...
448
छुपी हुई दिल में एक निशानी है ।
बैसे अपनी तो पहचान पुरानी है ।
मिलती है राहें कहीं चौराहों पर , 
 पहचानों की भी यही कहानी है ।
....
449
ना हर्ष रहे ना संताप रहे ।
बस मैं नही आप रहे ।
 मोह नही नियति बंधन से ,
 जीवन का इतना माप रहे ।
...
450
सरल सदा ही तरल होता है।
बहता सा ही कल होता है।
मिल जाता जो सागर में ,
 सफ़ल वहाँ सफर होता है।
....

451
  मन में एक आस है ।
 हृदय भरा विश्वास है ।
 दो गज़ भले जमीं मेरी ,
 सर पर पूरा आकाश है ।
..
452
शब्द शब्द अर्थ सजी है कविता ।
अपरिचित सी परिचित है कविता ।
गूढ़ भाव मौन गढ़ चलती है ।
"निश्चल" सचल चित्त है कविता ।
..
.... विवेक दुबे"निश्चल"@...

मुक्तक 436

436
वो कुछ यूँ छल रहा है ।
कहता वक़्त बदल रहा है ।
 दिवा स्वप्न दिखला कर ,
 आगे आगे चल रहा है ।
 437
होती पतझड़ उम्मीदों की 
बसन्त मौसम खल रहा है ।
 पोष मास के जाड़ों में ,
हिमगिर भी पिघल रहा है ।
438
लज़्ज़ता छोड़ निर्लज़्ज़ता ओढ़ी ।
शर्म हया भी रही नही जरा थोड़ी ।
 रहे नही शिष्ट आचरण अब कुछ ,
 अहंकार की चुनर कुछ ऐसी ओढ़ी ।
....
439
किस्मत के खेल खिलाती है जिंदगी ।
किताबों में नही वो दिखती है जिंदगी ।
चलने की चाह में ही हर दम  ,
दुनियाँ की ठोकरें खिलाती है जिंदगी ।
......
440
आज इंसान ग़ुम हो रहा है ।
 इतना मज़लूम हो रहा है ।
खा रहे वो कसमें ईमान की ,
 यूँ ईमान का खूं हो रहा है ।
.... विवेक दुबे "निश्चल"@..
डायरी 3

बुधवार, 18 जुलाई 2018

वक़्त पड़े गुरवत के

वक़्त पड़े गुरवत के ।
दिन बने फुरसत के ।

  कैसी बे-रूखी ये  ,
 तंज मिले हसरत के ।

 छूट कर किनारों से ,
 सफर रहे मोहलत के ।

 हार कर हलातों से ,
 किस्से बने किस्मत के ।

  वक़्त नही साथ जिनके ,
 मोहताज़ रहे शोहरत के ।

"निश्चल" कायम खुद्दारी से ,
  यही खज़ाने दौलत के ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@..

कांच के सामान से

काँच के समान से ।
खाली से मकान से ।

 ज़िंदगी की राहों पे ,
 छूटे कुछ निशान से ।

 चलते रहे हम दिन भर ,
 अपनी राहों से अंजान से ।

 बह रहा दरिया वक़्त का ,
 उठते थमते तूफ़ान से ।

 टूटकर शाख से फूल कोई ,
 दूर हुआ अपनी पहचान से ।

  वो हिमालय खड़ा है "निश्चल"
 आज भी अपनी शान से ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@...

नभ गरजे

विषय तुलातुम
 मुक्त छंद रचना 

नभ गरजे मेघ महा भयंकर ।
ज्यों तांडव करते अभ्यंकर ।
नाद तलातुम मची धरा पर ,
कम्पित चंद्र विस्मृत दिनकर ।

 उड़ते तृण पवन संग जैसे ।
 डोल रही अविनि कुछ ऐसे ,
 थल ही जल जल ही थल है ,
 समा रहे आपस मे कुछ ऐसे ।

  ब्रम्हांड हिला प्रलय मचा है ।
  महादेव ने रौद्र रूप रखा है ।
 महादेव आज महा तांडव करते ,
 महादेव ने संहारक रूप रखा है ।

 ..... विवेक दुबे"निश्चल"@....

सम्भावनाओं की बाती से

 सम्भावनाओं की बाती से ,
आशाओं के दीप जलाता हूँ ।

हरतीं किरणे कुछ अंधकार को  ,
 पर दीप तले तिमिर ही पाता हूँ ।

 ठहरा नही कभी कहीं उजियारा , 
 उजियारों में भी अंधियारा पाता हूँ ।

 अंधियारों से मैं लड़कर अक़्सर ,
 रात ढ़ले उजियारों तक आता हूँ ।

 यश अपयश से सदा परे चला मैं 
व्यवधानों को आसान बनाता हूँ ।

 निश्चल रहें यही हैं बस मंज़िल मेरी ,
 "निश्चल" रहकर भी चलता जाता हूँ ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@....



एक लफ्ज़ निगाहों से बुनकर

एक लफ्ज़ निगाहों से सुन कर ।
एक ख़्वाब हंसीं सा बुनकर ।
ओढ़कर चादर ख़यालों की ,
चलता रहा साथ मेरे दिन भर ।

 आया एक मुक़ाम फिर कोई ,
 साँझ तले खो गया दिन कर ।
 चाहतें थीं उसकी और कोई ,
 समझ सका न मैं मुख़्तसर ।

ग़ुम हुआ अंधेरों में मैं भी कहीं ,
खोज सका न ठिकाना सहर भर ।
चाहत में बस एक मंजिल की ,
चलता ही रहा मेरा यह सफर ।

एक लफ्ज़ निगाहों से सुनकर ।
..... विवेक दुबे"निश्चल"@....

कांच का सामान कोई

काँच सा समान कोई ।
खाली सा मकान कोई ।

 ज़िंदगी की राहों पे ,
  छूटा निशान कोई ।

  चलता रहा  दिन भर ,
  राहों से अंजान कोई।

 बहता दरिया वक़्त का ,
 उठता थमता तूफ़ान कोई।

 टूटता फ़ूल शाख से ,
 खोता पहचान कोई ।

  खड़ा है हिमालय "निश्चल"
   है और नही शान कोई।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@...

दिन बड़ा फुरसत का

दिन बना फुरसत का ।
वक़्त बड़ा गुरवत का ।

 बे-रूखी है ये कैसी   ,
 तंज मिला हसरत का ।

 छूटकर अपने किनारों से ,
 सफर रहा शोहरत का ।

 हार कर हालातों से ,
 किस्सा बना किस्मत का ।

  साथ नही वक़्त उसके ,
 मोहताज़ रहा मोहलत का ।

"निश्चल" कायम खुद्दारी से ,
  यही खज़ाना दौलत का ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@..

पिता

सुख की छांया सौंप सदा ही,
 जेठ धूप से तपे पिता ।
कंटक पथ सी राहों में ,
नर्म बिछौने से बिछे पिता ।

जी कर अपने ही संतापों में , 
धैर्य सदा ही देते ।
 टकराकर हर संकट से ,
 संकट सारे हर लेते ।

 मेरे एक सुख की ख़ातिर,
 संघर्षों से सजे पिता ।
बांट प्रसाद में सुख अपने,
 सारे सुख तजे पिता ।

सपने जब वो कुछ गढ़ लेते,
 सजल नयन भर लेते ,
मेरे एक सपने की ख़ातिर ,
अपने सपने तज देते ।

सींच रहे अमृत रस ,
कंठ हलाहल थाम पिता ।
सुख की छांया सौंप सदा ही ,
जेठ धूप से तपे पिता ।

 चाह नही कोई फिर भी,
  वो ना चाहें कैसे ,
जीते जिसकी ख़ातिर वो,
 पा जाए वो कुछ कैसे ।

बस एक सोच यही है,
 लगन यही है ।
जीवन का उनके ,
एक मुक़ाम यही है ।

रहकर "निश्चल" चलते ,
राहों पर गतिमान पिता ।
तोड़ तोड़कर तारे अम्बर से ,
झोली मेरी भरें पिता ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@...

वो दुनियाँ को

वो दुनियाँ को समझता न था ।
वो राहों    से भटकता न था ।

 क़ैद सा अपनी ही बंदिशों में ,
 वो खुद को  सहजता न था।

   ठहर कर एक ख़ुशी के वास्ते ,
  दुनियाँ के रंज से सिमटता न था ।

 जो चला मंजिल के वास्ते ,
 वो राह से पलटता न था ।

   ज़ुदा अश्क़ निग़ाह से ,
   जमीं पे बिखरता न था ।

 कैसा दौर था जिंदगी का "निश्चल" ,
 वक़्त मुफलिसी का बदलता न था ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@...

जिंदगी सवालों सी

जिंदगी सवालों सी ।
 उलझी जवाबों सी ।
        डूबकर किनारों पे ,
         छूटते सहारों सी ।

  अपने ही गुलशन में ,
  रूठती बहारों सी ।
        जिंदगी सवालों सी ।
       उलझी जवाबों सी ।

 रात की हसरत में ,
 दिन के दुलारों सी ।
        जिंदगी सवालों सी ।
        उलझी जवाबों सी ।

 रूठता है कब कोई ,
 नही कोई हिसाबों सी ।
      जिंदगी सवालों सी ।
      उलझी जवाबों सी ।

  चलता है ख़ातिर अपने ,
   राह है गुवारों सी ।
         जिंदगी सवालों सी ,
          उलझी जवाबों सी ।

"निश्चल" सितारा वो ,
 निग़ाह में हजारों सी ।
       जिंदगी सवालों सी ,
        उलझी जवाबों सी ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@....



एक विस्तृत नभ सम

एक विस्तृत नभ सम ।
 भू धरा धरित रजः सम ।
         आश्रयहीन अभिलाषाएं ।
        नभ विचरित पँख फैलाएं ।
निःश्वास प्राण सांसों में ।
लम्पित लता बांसों में ।
         बस आशाएँ अभिलाषाएं ।
         ओर छोर न पा पाएं ।
   मन निर्बाध विचारों में ।
  जीवन के सहज किनारों में ।
   
          एक विस्तृत नभ सम ।
          भू धरा धरित रजः सम ।

   जब शशि गगन में आए ।
    निशि तरुणी रूप सजाए ।
          विधु भरता बाहों में ।
          विखरें दृग कण आहों में ।     
   प्रफुल्लित धरा शिराएं ।
    तृण कण जीवन पाएं ।
            नव चेतन प्राणों में ।
            चलता दिनकर राहों में ।

    एक विस्तृत नभ सम ।
    भू धरा धरित रजः सम ।
            
  .. विवेक दुबे"निश्चल"@...

तुझ सक्षम को स्वयं संजोना होगा


 तुझ सक्षम को स्वयं संजोना होगा ।
 तब सा-आकार स्वप्न सलोना होगा ।
 इस अंबर का भी एक कोना होगा ।

कुंठित अभिलाषाएं धूमिल आशाएं ,
अपने ही साहस जल से धोना होगा ।
 इस अंबर का भी एक कोना होगा ।

 रचकर निज प्रण प्राण सांसों में ,
 निज को निज में ही खोना होगा ।
इस अंबर का भी एक कोना होगा ।

 रीत रहे न प्रीत रहे कोई मन में ,
 मन को मन का ही होना होगा ।
इस अंबर का भी एक कोना होगा ।

 स्व को स्वयं से तजकर तुझको ,
 निज स्वयं तुझे बिलोना होगा ।
इस अंबर का भी एक कोना होगा ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@...

तसल्ली देना कोई उन से सीख ले


तसल्ली देना कोई उन से सीख ले ।
प्यार की भाषा कोई उन से सीख ले ।

 है नही इश्क़ किसी से यूँ तो उनको ,
 इश्क़ क्या है कोई उन से सीख ले ।
..
क्युं करते नही वो वफ़ा किसी से ,
वफ़ा क्या है कोई उनसे सीख ले ।

चले नहीं वो कभी राह-ए-मोहब्बत ,
तन्हाई क्या है कोई उनसे सीख ले ।

क्युं सहजे कुछ क़तरे अश्क़ के ,
दर्द क्या है कोई उनसे सीख लें ।

क्युं रौनक नही उस निग़ाह में कोई ,
आब क्या है कोई उनसे सीख ले ।

क्युं लिखता ही रहा है वो "निश्चल"
 क़ता क्या है कोई उनसे सीख लें 

 ..... विवेक दुबे"निश्चल"@..

कलम चलती है शब्द जागते हैं।

सम्मान पत्र

  मान मिला सम्मान मिला।  अपनो में स्थान मिला ।  खिली कलम कमल सी,  शब्दों को स्वाभिमान मिला। मेरी यूँ आदतें आदत बनती गई ।  शब्द जागते...