बुधवार, 30 अक्तूबर 2019

छंद

755
कुंडलियां छंद

रात अंधेरी आज की ,
       बादल बिजुरी झूर ।
 राह निहारे आस में , 
         पिया बहुत हैं दूर  ।

पिया बहुत हैं दूर ,
        कशिश मन में है भारी ।
 व्याकुल मन साजनी ,
          रात लगत नही न्यारी ।

आओ अब साजना, 
     ताप अगन बड़ी भारी ।
  तप रही ये रातें, 
         सुध बिसरात है सारी ।

.... विवेक दुबे "निश्चल"@....
डायरी 7

चल चला चल

754


चल चला चल ।
बढ़ चला चल ।
 ले चला चल ।
हौसलों की हलचल ।
ख़्वाब से निकल ।
न आप में ढल ।
बस देखता चल । 
अहसास के पल ।
 तब आएगा निकल ।
हर भोर का कल ।
...."निश्चल"@.
डायरी 7
Blog post 30/10/19

सच्चाई के दाने

753
 सच्चाई के दानों से ,
 संकल्पों के अंकुर फूटे ।

  गढ़ रहा है राष्ट्र नया ,
चलकर नई डगर पर ।

कदम धरे हैं सहज सहज कर ,
पथ पग चिन्हों से पीछे छूटे ।

धर्म वही है जात वही है ।
हर दिन की रात वही है ।

खुले नयन चला लक्ष्य साधकर ,
सत्य मार्ग पर कोई न आँखे मीचे ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@....
डायरी 7
Blog post 30/11/19

ये बैचेन मन

 751



ये बेचैन है मन ,और खामोश निगाहें ।
सांसों की सरगम पे, सिसकती हैं आहें ।

कैसे रहे कब तलक, कोई जिस्म जिंदा ,
मिलती नहीं अब ,जब जमाने से दुआएं ।

चला था सफर ,हसरतों को सिमटे हुए ,
चाहतों के दर्या ,सामने डुबाने को आयें ।

 हो गई कातिल मेरी , वफाएं ही मेरी ,
 न आ सके काम,जो अरमा थे लुटाए ।

 बेचैन रहा खातिर, जिसके हर घड़ी जो,
 "निश्चल" वो दर्द दिल,  किसको दिखाएं ।

..... विवेक दुबे"निश्चल"@....
डायरी 6

चकित हुआ

 चकित हुआ चलकर ,
 मोन तले बैठा सन्नाटा ।

 आते कल की आशा में,
 जीवन कटता ही पाता ।

  ज़ीवन के इस पथ पर ,
  ज़ीवन एकाकी आता ।

 खोता है कुछ पाकर ,
 खोकर फिर पा जाता ।

 गूंध चला आशाओं को ,
 ले अभिलाषाओं की गाथा ।

 आश्रयहीन रहा नही कभी ,
  देता जाता आश्रय वो दाता ।

..... विवेक दुबे"निश्चल"@....
डायरी 6(138)
Blog post9/6/19

मुक्तक 860/861

860
दीपों से देखो अब तम भी हारा है ।
दीपों ने स्वयं को आज उजारा है ।
दूर हुए अँधियारे गहन निशा पथ के  ,
स्वयं ने स्वयं को जो दिया सहारा है ।
....विवेक दुबे"निश्चल"@...
861
जल गई बाती दीए में तेल से मिल कर ।
भर गई आभा तम में तन पिघल कर ।
 सम्पूर्ण कर गई अर्पण कान्ता स्वयं को ,
 राख में मिल गई ललना रात भर जल कर ।
   ... विवेक दुबे"निश्चल"@...

कान्ता /कामिनी/ललना /स्त्री

दिवाली/ दीपावली
Blog post 30/10/19

स्नेही माँ 859

  859
स्नेही माँ जग बरदायनी ।
  ज्ञानदा धनदा सिद्धिदायनी ।
  कण कण रूप तुम्हारा है ।
  तम हरतीं प्रभा प्रदायनी ।
   ... विवेक दुबे"निश्चल"@..
डायरी 3

बदल रही है रीते 858

756
 बदल रहीं है रीते सारी ,
आज नही कल जैसा है ।

रिश्ते नातों के कागज पर ,
 उम्मीदों की रेखा है ।

 ढ़लता है दिन धीरे-धीरे ,
  आते कल की आशा में ,

 पर गहन निशा के आँचल में ,
 कल को किसने देखा है ।

.......विवेक दुबे"निश्चल"@....
डायरी 7/3


मुक्तक 852/855

852
221 2122×2
इंसान ज़िस्म तेरी , चाहत नही बदलती ।
ईमान रूह मेरी , सोवत नही बदलती ।
करती रही सफ़र , यूँ ही जिंदगी अधूरा ,
ये शौक हैं पुराने , आदत नही बदलती ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@..
853
1222×4
निगाहे सामने जिसके
    झुकाता ही रहा अपनी ।
वफ़ाएँ सामने जिसके
      दिखाता ही रहा अपनी ।
मचलता ही रहा गैरों की    
        खातिर आब निकाह में ,
यही ईमान ज़िस्म वफ़ा
        सजाता ही रहा अपनी ।
..... विवेक दुबे"निश्चल"@..
854
1222×4
निभाने आज मैं कसमें, वफ़ा की फिर चला आया ।
मिलाने खाक में रस्मे ,जफ़ा की फिर चला आया ।
वही दस्तूर है मेरे जहां का, आज भी कायम,
लिए फिर साथ सौगातें,शिफ़ा की फिर चला आया ।
....विवेक दुबे"निश्चल"@...
855
221 2122 ×2
पाता रहे सहारा , इंसान आदमी का ।
होता रहे दुलारा , ईमान आदमी का ।
रंगीन रौशनी से ,  हो कायनात सारी  ,
पाता रहे किनारा , गुमान आदमी का ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@..
डायरी 3

मुक्तक 849/851

849
सबको आजमा चुके आज तक ।
बस चुप रहे सब अब आज तक ।
पलते रहे जो ख़ुश ख़्याल दिल मे ,
"निश्चल"रहे मुगालते आज तक ।
....विवेक दुबे"निश्चल"@.....

850
अपने ही अरमानों से अब डर लगता है ।
अपनी ही पहचानों से अब डर लगता है ।
 अब आदम जात नही जानी पहचानी सी ,
 इंसानों के इमानों से अब डर लगता है ।
....विवेक दुबे"निश्चल"@..

851
अपने अरमानों से अब डर लगता है ।
अपनी पहचानों से अब डर लगता है ।
 आदम जात नही जानी पहचानी सी ,
 इंसानी इमानों से अब डर लगता है ।

851/a
मात्रा भार16/14

जिसे देश से प्यार रहा है , 
   जान लुटाना वो जाने ।

कर के प्रहार हर शत्रु पे , 
  ख़ाक मिलाना वो जाने ।

 बरसती गोलियां सीमा पर, 
  ज़िस्म झेलता हो जिन्हें , 

लपेटकर तिरंगा बदन से,
 ज़िस्म सजाना वो जाने ।

..... विवेक दुबे"निश्चल"@...

डायरी 3
Blog post 30 /10/19

मुक्तक 844/848

 844
 मुश्किलों के हल खोजने होंगे ।
  आज के ही कल खोजने होंगे ।
  न हारना चुनौतियों के सामने,
  हौसलों के पल खोजने होंगे ।
  .......
845
 मुश्किलों के हल खोजने होंगे ।
आज के भी कल खोजने होंगे ।
 न हराना नाकामियों के सामने ,
 सम्भाबनाओं के पल खोजने होंगे ।
  .... विवेक दुबे"निश्चल"@...
846
हर मुश्किल के हल होंगे ।
आज नही तो कल होंगे ।
इस धूप सुनहरे जीवन में ,
साथी खुशियों के पल होंगे ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@.....

847
रात गई फिर आने को ।
 बीती बातें बिसराने को ।
 डरकर ज़ीवन जीना कैसे ,
 ज़ीवन को जी जाने को ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@...
848

रूह सख़्त मिज़ाज क्यूँ हूँ ।
 ज़िस्म पेहरन लिवास क्यूँ हूँ ।
 न रहेगा ज़िस्म तू साथ मेरे ,
 तो ज़िस्म गुरुर आज क्यूँ हूँ ।
 ..विवेक दुबे"निश्चल"@...

दायरी3

मुक्तक 839/843

839
हर नया कल आज सा रहा  ।
 ख़याल गुंजाइशें तलाशता रहा ।
 डूबती उबरती कश्ती हसरतों की ,
 दर्या-ए-सफ़र साहिल राबता रहा ।
...
840
मिलता ही रहा दर्या को ,
 साथ किनारे का हरदम ।
छोड़ बहता ही चला दर्या ,
 हाथ किनारे का हरदम ।
..
841
पाले जो ख्वाब छोड़ चल जरा ।
रुख हवाओं सा मोड़ चल जरा ।
बहता है दर्या किनारे छोड़कर ,
नाता साहिल से तोड़ चल जरा ।
.....
 842
रिश्ते नातों के कागज पर ,
 उम्मीदों की छोटी सी रेखा है ।
 सूरज रंग बदलता धीरे-धीरे,
 आते कल को किसने देखा है ।
.......
843
बस एक बार जो तू ठान ले ।
 कैसे कहूँ के तू हार मान ले ।
जीत ले तू अपने ही आपको ,
 खुद में सारी कायनात जान ले ।
..... 


..... विवेक दुबे"निश्चल"@....
डायरी 3

मुक्तक 835/838

835
 कुछ फर्ज निभाऊं कैसे ।
 कुछ कर्ज चुकाऊं कैसे ।
 दौड़ रहा लहुँ जो रग में ,
 वो रिश्ते ज़र्द बनाऊं कैसे ।
....
836
कांच का सामान हुआ ।
 ज़ज्ब अरमां हैरान हुआ ।
   टूटे अरमान के मोती ,
   जर्रा जर्रा वीरान हुआ ।
 .....
837
हां मुझे जरा वक़्त चाहिये ।
एक मुक़ामिल तख़्त चाहिये ।

बदल सके रिवायतें दुनियाँ ,
फैसला एक सख़्त चाहिये ।
....
838
गुफ़्तगू यूँ बदलती रही ।
निग़ाह नज़्र टलती रही ।
न आया बज़्म में कोई ,
शमा महफ़िल जलती रही ।
... विवेक दुबे"निश्चल"@....
डायरी 3

अपनी फिक्रें

834
अपनी कुछ फिक्रें उलझाये बैठा हूँ ।
घर का सारा सामान फैलाये बैठा हूँ ।
कैसे कह दूँ तू बन जा मेहमान मेरा ,
मैं अपनो की ही ख़ैर मनाये बैठा हूँ ।

....विवेक दुबे"निश्चल"@..

अपनी कुछ फिक्रें उलझाये बैठा हूँ ।
घर का सारा सामान फैलाये बैठा हूँ ।
कैसे कह दूँ तू बन जा मेहमान मेरा ,
मैं अपनो को ही गैर बनाये बैठा हूँ ।

....विवेक दुबे"निश्चल"@..

अपनी कुछ फिक्रें सुलझाने बैठा हूँ ।
घर का सारा सामान सजाने बैठा हूँ ।
कैसे कह दूँ तू आ जा मेहमान बनकर ,
मैं अपनो की ही ख़ैर मनाने बैठा हूँ ।

....विवेक दुबे"निश्चल"@..
डायरी 3.

दुर्मिल सबैया

दुर्मिल सवैया

चलती इक रात सदा भरने  ,
नभ का आँचल अपने तम से ।

जगती रजनी सजती क्षितिज़ा ,
मिलने चलती अपने नभ से ।

सजता नव रूप निशाकर का,
खिलता भरता तन योवन से ।

घटता बढ़ता नित ही विधु भी,
सजता नभ ही तारक तन से  ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@...
डायरी 3

रविवार, 27 अक्तूबर 2019

एक दीप जलाते है


शुभ दीपावली







आज चलो एक दीप जलाते हैं ।
तम अन्तर्मन आज मिटाते है ।

दीप्त करें स्वयं स्वयं को ,
स्व-कान्ति स्वयं जागते है ।

रिक्त रहे न मन कोना कोई ,
मन कण कण दमकाते हैं ।

 स्वयं चेतन रश्मि से ,
अहम अंधकार मिटाते हैं ।

आज चलो एक दीप जलाते हैं ।
तम अन्तर्मन आज मिटाते है ।

.... विवेक दुबे" निश्चल"@...

कलम चलती है शब्द जागते हैं।

सम्मान पत्र

  मान मिला सम्मान मिला।  अपनो में स्थान मिला ।  खिली कलम कमल सी,  शब्दों को स्वाभिमान मिला। मेरी यूँ आदतें आदत बनती गई ।  शब्द जागते...