कुछ खास नहीं कवि पिता की संतान हूँ । ..... निर्दलीय प्रकाशन भोपाल द्वारा बर्ष 2012 में "युवा सृजन धर्मिता अलंकरण" से अलंकृत। जन चेतना साहित्यिक सांस्कृतिक समिति पीलीभीत द्वारा 2017 श्रेष्ठ रचनाकार से सम्मानित कव्य रंगोली त्रैमासिक पत्रिका लखीमपुर खीरी द्वारा साहित्य भूषण सम्मान 2017 से सम्मानित "निश्चल" मन से निश्छल लिखते जाओ । ..... . (रचनाये मौलिक स्वरचित सर्वाधिकार सुरक्षित .)
शनिवार, 14 दिसंबर 2019
गुरुवार, 28 नवंबर 2019
शनिवार, 23 नवंबर 2019
बुधवार, 30 अक्तूबर 2019
छंद
755
कुंडलियां छंद
रात अंधेरी आज की ,
बादल बिजुरी झूर ।
राह निहारे आस में ,
पिया बहुत हैं दूर ।
पिया बहुत हैं दूर ,
कशिश मन में है भारी ।
व्याकुल मन साजनी ,
रात लगत नही न्यारी ।
आओ अब साजना,
ताप अगन बड़ी भारी ।
तप रही ये रातें,
सुध बिसरात है सारी ।
.... विवेक दुबे "निश्चल"@....
डायरी 7
कुंडलियां छंद
रात अंधेरी आज की ,
बादल बिजुरी झूर ।
राह निहारे आस में ,
पिया बहुत हैं दूर ।
पिया बहुत हैं दूर ,
कशिश मन में है भारी ।
व्याकुल मन साजनी ,
रात लगत नही न्यारी ।
आओ अब साजना,
ताप अगन बड़ी भारी ।
तप रही ये रातें,
सुध बिसरात है सारी ।
.... विवेक दुबे "निश्चल"@....
डायरी 7
चल चला चल
754
चल चला चल ।
बढ़ चला चल ।
ले चला चल ।
हौसलों की हलचल ।
ख़्वाब से निकल ।
न आप में ढल ।
बस देखता चल ।
अहसास के पल ।
तब आएगा निकल ।
हर भोर का कल ।
...."निश्चल"@.
डायरी 7
Blog post 30/10/19
चल चला चल ।
बढ़ चला चल ।
ले चला चल ।
हौसलों की हलचल ।
ख़्वाब से निकल ।
न आप में ढल ।
बस देखता चल ।
अहसास के पल ।
तब आएगा निकल ।
हर भोर का कल ।
...."निश्चल"@.
डायरी 7
Blog post 30/10/19
सच्चाई के दाने
753
सच्चाई के दानों से ,
संकल्पों के अंकुर फूटे ।
गढ़ रहा है राष्ट्र नया ,
चलकर नई डगर पर ।
कदम धरे हैं सहज सहज कर ,
पथ पग चिन्हों से पीछे छूटे ।
धर्म वही है जात वही है ।
हर दिन की रात वही है ।
खुले नयन चला लक्ष्य साधकर ,
सत्य मार्ग पर कोई न आँखे मीचे ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@....
डायरी 7
Blog post 30/11/19
सच्चाई के दानों से ,
संकल्पों के अंकुर फूटे ।
गढ़ रहा है राष्ट्र नया ,
चलकर नई डगर पर ।
कदम धरे हैं सहज सहज कर ,
पथ पग चिन्हों से पीछे छूटे ।
धर्म वही है जात वही है ।
हर दिन की रात वही है ।
खुले नयन चला लक्ष्य साधकर ,
सत्य मार्ग पर कोई न आँखे मीचे ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@....
डायरी 7
Blog post 30/11/19
ये बैचेन मन
751
ये बेचैन है मन ,और खामोश निगाहें ।
सांसों की सरगम पे, सिसकती हैं आहें ।
कैसे रहे कब तलक, कोई जिस्म जिंदा ,
मिलती नहीं अब ,जब जमाने से दुआएं ।
चला था सफर ,हसरतों को सिमटे हुए ,
चाहतों के दर्या ,सामने डुबाने को आयें ।
हो गई कातिल मेरी , वफाएं ही मेरी ,
न आ सके काम,जो अरमा थे लुटाए ।
बेचैन रहा खातिर, जिसके हर घड़ी जो,
"निश्चल" वो दर्द दिल, किसको दिखाएं ।
..... विवेक दुबे"निश्चल"@....
डायरी 6
ये बेचैन है मन ,और खामोश निगाहें ।
सांसों की सरगम पे, सिसकती हैं आहें ।
कैसे रहे कब तलक, कोई जिस्म जिंदा ,
मिलती नहीं अब ,जब जमाने से दुआएं ।
चला था सफर ,हसरतों को सिमटे हुए ,
चाहतों के दर्या ,सामने डुबाने को आयें ।
हो गई कातिल मेरी , वफाएं ही मेरी ,
न आ सके काम,जो अरमा थे लुटाए ।
बेचैन रहा खातिर, जिसके हर घड़ी जो,
"निश्चल" वो दर्द दिल, किसको दिखाएं ।
..... विवेक दुबे"निश्चल"@....
डायरी 6
चकित हुआ
चकित हुआ चलकर ,
मोन तले बैठा सन्नाटा ।
आते कल की आशा में,
जीवन कटता ही पाता ।
ज़ीवन के इस पथ पर ,
ज़ीवन एकाकी आता ।
खोता है कुछ पाकर ,
खोकर फिर पा जाता ।
गूंध चला आशाओं को ,
ले अभिलाषाओं की गाथा ।
आश्रयहीन रहा नही कभी ,
देता जाता आश्रय वो दाता ।
..... विवेक दुबे"निश्चल"@....
डायरी 6(138)
Blog post9/6/19
मोन तले बैठा सन्नाटा ।
आते कल की आशा में,
जीवन कटता ही पाता ।
ज़ीवन के इस पथ पर ,
ज़ीवन एकाकी आता ।
खोता है कुछ पाकर ,
खोकर फिर पा जाता ।
गूंध चला आशाओं को ,
ले अभिलाषाओं की गाथा ।
आश्रयहीन रहा नही कभी ,
देता जाता आश्रय वो दाता ।
..... विवेक दुबे"निश्चल"@....
डायरी 6(138)
Blog post9/6/19
मुक्तक 860/861
860
दीपों से देखो अब तम भी हारा है ।
दीपों ने स्वयं को आज उजारा है ।
दूर हुए अँधियारे गहन निशा पथ के ,
स्वयं ने स्वयं को जो दिया सहारा है ।
....विवेक दुबे"निश्चल"@...
861
जल गई बाती दीए में तेल से मिल कर ।
भर गई आभा तम में तन पिघल कर ।
सम्पूर्ण कर गई अर्पण कान्ता स्वयं को ,
राख में मिल गई ललना रात भर जल कर ।
... विवेक दुबे"निश्चल"@...
कान्ता /कामिनी/ललना /स्त्री
दिवाली/ दीपावली
Blog post 30/10/19
दीपों से देखो अब तम भी हारा है ।
दीपों ने स्वयं को आज उजारा है ।
दूर हुए अँधियारे गहन निशा पथ के ,
स्वयं ने स्वयं को जो दिया सहारा है ।
....विवेक दुबे"निश्चल"@...
861
जल गई बाती दीए में तेल से मिल कर ।
भर गई आभा तम में तन पिघल कर ।
सम्पूर्ण कर गई अर्पण कान्ता स्वयं को ,
राख में मिल गई ललना रात भर जल कर ।
... विवेक दुबे"निश्चल"@...
कान्ता /कामिनी/ललना /स्त्री
दिवाली/ दीपावली
Blog post 30/10/19
स्नेही माँ 859
859
स्नेही माँ जग बरदायनी ।
ज्ञानदा धनदा सिद्धिदायनी ।
कण कण रूप तुम्हारा है ।
तम हरतीं प्रभा प्रदायनी ।
... विवेक दुबे"निश्चल"@..
डायरी 3
स्नेही माँ जग बरदायनी ।
ज्ञानदा धनदा सिद्धिदायनी ।
कण कण रूप तुम्हारा है ।
तम हरतीं प्रभा प्रदायनी ।
... विवेक दुबे"निश्चल"@..
डायरी 3
बदल रही है रीते 858
756
बदल रहीं है रीते सारी ,
आज नही कल जैसा है ।
रिश्ते नातों के कागज पर ,
उम्मीदों की रेखा है ।
ढ़लता है दिन धीरे-धीरे ,
आते कल की आशा में ,
पर गहन निशा के आँचल में ,
कल को किसने देखा है ।
.......विवेक दुबे"निश्चल"@....
डायरी 7/3
बदल रहीं है रीते सारी ,
आज नही कल जैसा है ।
रिश्ते नातों के कागज पर ,
उम्मीदों की रेखा है ।
ढ़लता है दिन धीरे-धीरे ,
आते कल की आशा में ,
पर गहन निशा के आँचल में ,
कल को किसने देखा है ।
.......विवेक दुबे"निश्चल"@....
डायरी 7/3
मुक्तक 852/855
852
221 2122×2
इंसान ज़िस्म तेरी , चाहत नही बदलती ।
ईमान रूह मेरी , सोवत नही बदलती ।
करती रही सफ़र , यूँ ही जिंदगी अधूरा ,
ये शौक हैं पुराने , आदत नही बदलती ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@..
853
1222×4
निगाहे सामने जिसके
झुकाता ही रहा अपनी ।
वफ़ाएँ सामने जिसके
दिखाता ही रहा अपनी ।
इंसान ज़िस्म तेरी , चाहत नही बदलती ।
ईमान रूह मेरी , सोवत नही बदलती ।
करती रही सफ़र , यूँ ही जिंदगी अधूरा ,
ये शौक हैं पुराने , आदत नही बदलती ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@..
853
1222×4
निगाहे सामने जिसके
झुकाता ही रहा अपनी ।
वफ़ाएँ सामने जिसके
दिखाता ही रहा अपनी ।
मचलता ही रहा गैरों की
खातिर आब निकाह में ,
यही ईमान ज़िस्म वफ़ा
सजाता ही रहा अपनी ।
..... विवेक दुबे"निश्चल"@..
854
1222×4
निभाने आज मैं कसमें, वफ़ा की फिर चला आया ।
मिलाने खाक में रस्मे ,जफ़ा की फिर चला आया ।
वही दस्तूर है मेरे जहां का, आज भी कायम,
लिए फिर साथ सौगातें,शिफ़ा की फिर चला आया ।
....विवेक दुबे"निश्चल"@...
855
221 2122 ×2
पाता रहे सहारा , इंसान आदमी का ।
होता रहे दुलारा , ईमान आदमी का ।
रंगीन रौशनी से , हो कायनात सारी ,
पाता रहे किनारा , गुमान आदमी का ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@..
खातिर आब निकाह में ,
यही ईमान ज़िस्म वफ़ा
सजाता ही रहा अपनी ।
..... विवेक दुबे"निश्चल"@..
854
1222×4
निभाने आज मैं कसमें, वफ़ा की फिर चला आया ।
मिलाने खाक में रस्मे ,जफ़ा की फिर चला आया ।
वही दस्तूर है मेरे जहां का, आज भी कायम,
लिए फिर साथ सौगातें,शिफ़ा की फिर चला आया ।
....विवेक दुबे"निश्चल"@...
855
221 2122 ×2
पाता रहे सहारा , इंसान आदमी का ।
होता रहे दुलारा , ईमान आदमी का ।
रंगीन रौशनी से , हो कायनात सारी ,
पाता रहे किनारा , गुमान आदमी का ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@..
डायरी 3
मुक्तक 849/851
849
सबको आजमा चुके आज तक ।
बस चुप रहे सब अब आज तक ।
पलते रहे जो ख़ुश ख़्याल दिल मे ,
"निश्चल"रहे मुगालते आज तक ।
....विवेक दुबे"निश्चल"@.....
850
अपने ही अरमानों से अब डर लगता है ।
अपनी ही पहचानों से अब डर लगता है ।
अब आदम जात नही जानी पहचानी सी ,
इंसानों के इमानों से अब डर लगता है ।
....विवेक दुबे"निश्चल"@..
851
अपने अरमानों से अब डर लगता है ।
अपनी पहचानों से अब डर लगता है ।
आदम जात नही जानी पहचानी सी ,
इंसानी इमानों से अब डर लगता है ।
851/a
मात्रा भार16/14
जिसे देश से प्यार रहा है ,
जान लुटाना वो जाने ।
कर के प्रहार हर शत्रु पे ,
ख़ाक मिलाना वो जाने ।
बरसती गोलियां सीमा पर,
ज़िस्म झेलता हो जिन्हें ,
लपेटकर तिरंगा बदन से,
ज़िस्म सजाना वो जाने ।
..... विवेक दुबे"निश्चल"@...
डायरी 3
Blog post 30 /10/19
सबको आजमा चुके आज तक ।
बस चुप रहे सब अब आज तक ।
पलते रहे जो ख़ुश ख़्याल दिल मे ,
"निश्चल"रहे मुगालते आज तक ।
....विवेक दुबे"निश्चल"@.....
850
अपने ही अरमानों से अब डर लगता है ।
अपनी ही पहचानों से अब डर लगता है ।
अब आदम जात नही जानी पहचानी सी ,
इंसानों के इमानों से अब डर लगता है ।
....विवेक दुबे"निश्चल"@..
851
अपने अरमानों से अब डर लगता है ।
अपनी पहचानों से अब डर लगता है ।
आदम जात नही जानी पहचानी सी ,
इंसानी इमानों से अब डर लगता है ।
851/a
मात्रा भार16/14
जिसे देश से प्यार रहा है ,
जान लुटाना वो जाने ।
कर के प्रहार हर शत्रु पे ,
ख़ाक मिलाना वो जाने ।
बरसती गोलियां सीमा पर,
ज़िस्म झेलता हो जिन्हें ,
लपेटकर तिरंगा बदन से,
ज़िस्म सजाना वो जाने ।
..... विवेक दुबे"निश्चल"@...
डायरी 3
Blog post 30 /10/19
मुक्तक 844/848
844
मुश्किलों के हल खोजने होंगे ।
आज के ही कल खोजने होंगे ।
न हारना चुनौतियों के सामने,
हौसलों के पल खोजने होंगे ।
.......
845
मुश्किलों के हल खोजने होंगे ।
आज के भी कल खोजने होंगे ।
न हराना नाकामियों के सामने ,
सम्भाबनाओं के पल खोजने होंगे ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@...
846
हर मुश्किल के हल होंगे ।
आज नही तो कल होंगे ।
इस धूप सुनहरे जीवन में ,
साथी खुशियों के पल होंगे ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@.....
847
रात गई फिर आने को ।
बीती बातें बिसराने को ।
डरकर ज़ीवन जीना कैसे ,
ज़ीवन को जी जाने को ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@...
848
रूह सख़्त मिज़ाज क्यूँ हूँ ।
ज़िस्म पेहरन लिवास क्यूँ हूँ ।
न रहेगा ज़िस्म तू साथ मेरे ,
तो ज़िस्म गुरुर आज क्यूँ हूँ ।
..विवेक दुबे"निश्चल"@...
दायरी3
मुश्किलों के हल खोजने होंगे ।
आज के ही कल खोजने होंगे ।
न हारना चुनौतियों के सामने,
हौसलों के पल खोजने होंगे ।
.......
845
मुश्किलों के हल खोजने होंगे ।
आज के भी कल खोजने होंगे ।
न हराना नाकामियों के सामने ,
सम्भाबनाओं के पल खोजने होंगे ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@...
846
हर मुश्किल के हल होंगे ।
आज नही तो कल होंगे ।
इस धूप सुनहरे जीवन में ,
साथी खुशियों के पल होंगे ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@.....
847
रात गई फिर आने को ।
बीती बातें बिसराने को ।
डरकर ज़ीवन जीना कैसे ,
ज़ीवन को जी जाने को ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@...
848
रूह सख़्त मिज़ाज क्यूँ हूँ ।
ज़िस्म पेहरन लिवास क्यूँ हूँ ।
न रहेगा ज़िस्म तू साथ मेरे ,
तो ज़िस्म गुरुर आज क्यूँ हूँ ।
..विवेक दुबे"निश्चल"@...
दायरी3
मुक्तक 839/843
839
हर नया कल आज सा रहा ।
ख़याल गुंजाइशें तलाशता रहा ।
डूबती उबरती कश्ती हसरतों की ,
दर्या-ए-सफ़र साहिल राबता रहा ।
...
840
मिलता ही रहा दर्या को ,
साथ किनारे का हरदम ।
छोड़ बहता ही चला दर्या ,
हाथ किनारे का हरदम ।
..
841
पाले जो ख्वाब छोड़ चल जरा ।
रुख हवाओं सा मोड़ चल जरा ।
बहता है दर्या किनारे छोड़कर ,
नाता साहिल से तोड़ चल जरा ।
.....
842
रिश्ते नातों के कागज पर ,
उम्मीदों की छोटी सी रेखा है ।
सूरज रंग बदलता धीरे-धीरे,
आते कल को किसने देखा है ।
.......
843
बस एक बार जो तू ठान ले ।
कैसे कहूँ के तू हार मान ले ।
जीत ले तू अपने ही आपको ,
खुद में सारी कायनात जान ले ।
.....
..... विवेक दुबे"निश्चल"@....
डायरी 3
हर नया कल आज सा रहा ।
ख़याल गुंजाइशें तलाशता रहा ।
डूबती उबरती कश्ती हसरतों की ,
दर्या-ए-सफ़र साहिल राबता रहा ।
...
840
मिलता ही रहा दर्या को ,
साथ किनारे का हरदम ।
छोड़ बहता ही चला दर्या ,
हाथ किनारे का हरदम ।
..
841
पाले जो ख्वाब छोड़ चल जरा ।
रुख हवाओं सा मोड़ चल जरा ।
बहता है दर्या किनारे छोड़कर ,
नाता साहिल से तोड़ चल जरा ।
.....
842
रिश्ते नातों के कागज पर ,
उम्मीदों की छोटी सी रेखा है ।
सूरज रंग बदलता धीरे-धीरे,
आते कल को किसने देखा है ।
.......
843
बस एक बार जो तू ठान ले ।
कैसे कहूँ के तू हार मान ले ।
जीत ले तू अपने ही आपको ,
खुद में सारी कायनात जान ले ।
.....
..... विवेक दुबे"निश्चल"@....
डायरी 3
मुक्तक 835/838
835
कुछ फर्ज निभाऊं कैसे ।
कुछ कर्ज चुकाऊं कैसे ।
दौड़ रहा लहुँ जो रग में ,
वो रिश्ते ज़र्द बनाऊं कैसे ।
....
836
कांच का सामान हुआ ।
ज़ज्ब अरमां हैरान हुआ ।
टूटे अरमान के मोती ,
जर्रा जर्रा वीरान हुआ ।
.....
837
हां मुझे जरा वक़्त चाहिये ।
एक मुक़ामिल तख़्त चाहिये ।
बदल सके रिवायतें दुनियाँ ,
फैसला एक सख़्त चाहिये ।
....
838
गुफ़्तगू यूँ बदलती रही ।
निग़ाह नज़्र टलती रही ।
न आया बज़्म में कोई ,
शमा महफ़िल जलती रही ।
... विवेक दुबे"निश्चल"@....
डायरी 3
कुछ फर्ज निभाऊं कैसे ।
कुछ कर्ज चुकाऊं कैसे ।
दौड़ रहा लहुँ जो रग में ,
वो रिश्ते ज़र्द बनाऊं कैसे ।
....
836
कांच का सामान हुआ ।
ज़ज्ब अरमां हैरान हुआ ।
टूटे अरमान के मोती ,
जर्रा जर्रा वीरान हुआ ।
.....
837
हां मुझे जरा वक़्त चाहिये ।
एक मुक़ामिल तख़्त चाहिये ।
बदल सके रिवायतें दुनियाँ ,
फैसला एक सख़्त चाहिये ।
....
838
गुफ़्तगू यूँ बदलती रही ।
निग़ाह नज़्र टलती रही ।
न आया बज़्म में कोई ,
शमा महफ़िल जलती रही ।
... विवेक दुबे"निश्चल"@....
डायरी 3
अपनी फिक्रें
834
अपनी कुछ फिक्रें उलझाये बैठा हूँ ।
घर का सारा सामान फैलाये बैठा हूँ ।
कैसे कह दूँ तू बन जा मेहमान मेरा ,
मैं अपनो की ही ख़ैर मनाये बैठा हूँ ।
....विवेक दुबे"निश्चल"@..
अपनी कुछ फिक्रें उलझाये बैठा हूँ ।
घर का सारा सामान फैलाये बैठा हूँ ।
कैसे कह दूँ तू बन जा मेहमान मेरा ,
मैं अपनो को ही गैर बनाये बैठा हूँ ।
....विवेक दुबे"निश्चल"@..
अपनी कुछ फिक्रें सुलझाने बैठा हूँ ।
घर का सारा सामान सजाने बैठा हूँ ।
कैसे कह दूँ तू आ जा मेहमान बनकर ,
मैं अपनो की ही ख़ैर मनाने बैठा हूँ ।
....विवेक दुबे"निश्चल"@..
डायरी 3.
अपनी कुछ फिक्रें उलझाये बैठा हूँ ।
घर का सारा सामान फैलाये बैठा हूँ ।
कैसे कह दूँ तू बन जा मेहमान मेरा ,
मैं अपनो की ही ख़ैर मनाये बैठा हूँ ।
....विवेक दुबे"निश्चल"@..
अपनी कुछ फिक्रें उलझाये बैठा हूँ ।
घर का सारा सामान फैलाये बैठा हूँ ।
कैसे कह दूँ तू बन जा मेहमान मेरा ,
मैं अपनो को ही गैर बनाये बैठा हूँ ।
....विवेक दुबे"निश्चल"@..
अपनी कुछ फिक्रें सुलझाने बैठा हूँ ।
घर का सारा सामान सजाने बैठा हूँ ।
कैसे कह दूँ तू आ जा मेहमान बनकर ,
मैं अपनो की ही ख़ैर मनाने बैठा हूँ ।
....विवेक दुबे"निश्चल"@..
डायरी 3.
दुर्मिल सबैया
दुर्मिल सवैया
चलती इक रात सदा भरने ,
नभ का आँचल अपने तम से ।
जगती रजनी सजती क्षितिज़ा ,
मिलने चलती अपने नभ से ।
सजता नव रूप निशाकर का,
खिलता भरता तन योवन से ।
घटता बढ़ता नित ही विधु भी,
सजता नभ ही तारक तन से ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@...
डायरी 3
चलती इक रात सदा भरने ,
नभ का आँचल अपने तम से ।
जगती रजनी सजती क्षितिज़ा ,
मिलने चलती अपने नभ से ।
सजता नव रूप निशाकर का,
खिलता भरता तन योवन से ।
घटता बढ़ता नित ही विधु भी,
सजता नभ ही तारक तन से ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@...
डायरी 3
रविवार, 27 अक्तूबर 2019
सदस्यता लें
संदेश (Atom)
कलम चलती है शब्द जागते हैं।
सम्मान पत्र
मान मिला सम्मान मिला। अपनो में स्थान मिला । खिली कलम कमल सी, शब्दों को स्वाभिमान मिला। मेरी यूँ आदतें आदत बनती गई । शब्द जागते...