शनिवार, 9 मई 2015

अभियान


वाह आभियान आह आभियान
मेरा देश महान
इस देश में अभियान चलाने की एक फेशन सी है ...
कभी कोई अभियान तो कभी कई ...
सारे अभियान चलते जा रहे है.....
चलते ही जा रहे है ........
बस चलते ही जा रहे है ......
पता ही नहीं आखिर इन्हें जाना कहा है? ..
और कहाँ जा रहे है ......
कुछ तो अभी भी चल रहे है....
कुछ ने अभी2 चलना शुरु किया है...
और भाइयो ....
कुछ तो चलते चलते .....
पता ही नहीं कहाँ चले गए.....
वाह अभियान ....
आह अभियान....
मेरा देश महान ...
.....विवेक....

कैसे छोड़ दूँ शहर अपना


कैसे छोड़ दूँ मै शहर अपना ।
तमन्ना है शहर को अपना बनाने की  ।
 अभी शहर में अजनबी बहुत है ।
....विवेक....
 

समझाइस


मटक मटक कर
लट झटक झटक कर
कुछ बल खा कर
कुछ इतरा कर
कुछ शरमा कर
कुछ घवरा कर
कितनी बार कहा
यू न चला करो
लो मुड़ गई सेंडल
आ गई मोंच पैर में....
......... विवेक......

त्याग


खुद को खुद से खो कर
किसी और को जीवन देती
खुशियाँ बाँटती अपार
सार्थक तेरा हर त्याग
नहीं व्यर्थ तनिक भी
नारी तेरा यह त्याग ....
.....विवेक......

कल


सपनो की बात चली
यादो की गांठ खुली
फिर ताज़ा हुए बो बीते पल
जो अपने ही तो थे कल
केसे बीत गए बो पल
कहाँ गुम हुआ बो कल
सपनो ने भी आना छोड़ दिया
जब से उसने मुहँ मोड़ लिया
करके बहाना
कल आने का
अब तक न आये बो
कल कब आता है
अब यह उन्हें समझाए कोई
....विवेक..

माँ


धरा सी शांत गगन सी बिशाल
माँ तेरी ममता की न हो सकी पड़ताल
जब भी बरसी शीतल जल बनकर
स्नेह से किया सरोबार
नित नए अंकुर फूटे
खिलाये खुशियो के फूल अपार
देती हो बस देती ही रहती हो
नही कभी इंकार
तुफानो में हिली नहीं
सैलाबो से डिगी नहीं
तेरी आँखों से दुनियां देखी
तेरे मन से जाना इसका हाल
सच झूठ का भेद सिखाया
समझाया क्या अच्छा क्या बेकार
तेरे कदम तले की मिट्टी
मेरे मस्तक का श्रृंगार
यादो में जब जब खोता हूँ
भाबो में बहता हूँ
नमन तुझे ही करता हूँ
ऋण नहीं कह सकता जिसको
बो तो बस है तेरा उपकार
माँ ऐसा मिला मुझे तेरा प्यार
...........विवेक.......

पहचान


प्रकाशक मिल जाने से क्या ?
पुस्तक छप जाने से क्या ?
पुरुस्कार मिल जाने से क्या ?
मंच पर जगह मिल जाने से क्या ?
न कोई शिकवा न कोई गिला
अपना तो नेट ब्लॉग ही प्रकाशक है
यही लिखने का साधक है
मित्रो के लाइक कमेंट्स पुरुस्कार बने
दिलो के मंच पर आ डटे
सब को बार बार आभार
और क्या चाहिए यार ..
.............विवेक.....

नए कर्ण धार


सत्ता ने बदला भेष
बचा नहीं कुछ शेष
क्रांति ही अब शेष
क्या यही गांधी सुभाष का देश ?
झुठो और मक्कारो को
तनिक भी नहीं क्लेश
राग अलापे बस अपना ही
समझा जैसे खुद ही सारा देश
निगल रहे भारत भूमि को
देखो बहरूपिये का भेष
कल नाचता था
कोई और जमूरा
आज नाचता मदारी
नया जमूरा
यह तो नाचे
पहले बाले से भी तेज़
यह मेरा भारत देश
हाँ यही है भारत देश
नमो नमो नमो नमो
..........विवेक.....

भोजी संग होली


भौजी मारो न नयनो के बाण
घायल मनवा हुई जात है
सूनी होली में आ गये है प्राण
तोहे देख देख हम बौरात है
भोजी जा वर्ष तू यही है
दूर हम से नहीं है
तोहे रंग देहे सरे आम
भौजी मारो न नयनो के बाण
देखत है भैया और महतारी
आज खेलत फ़ाग हम संग भाभी
और झूमे देख देख तेरी मुस्कान
रंग की मारी भर पिचकारी
भोजी बोले मेरे देवर बड़े शैतान
भौजी मारो न नयनो के बाण
ऐसी होली कबहुँ न खेली
भौजी तू तो होली की शान
जो भाई कछु गलती हमारी
माफ़ी देदो भोजी प्यारी
तुम तो भैया की नैयनन् प्यारी
तुम्ही में वस्त वा जेके प्राण
भौजी चलाओ न नयनो के बाण
होली की मस्ती भरी रंग रंगीली रंगीन शुभ कामनाये
........विवेक....

ज़िन्दगी


हाँ नदियाँ सी ही तो है
यह ज़िन्दगी ....
बहना ही जिसकी नियति
कभी शांत
कभी विकराल
कभी इठलाती
कभी बल खाती
यहाँ वहाँ मुड़ जाती
कही सकरी सी धार
कही एक दम विशाल
कुछ ले लिया अपने साथ
कुछ छोड़ दिया किनारो पर
बहती है जो अपने उदगम् से
अपने प्रियतम के
मिलन तक की यात्रा के बीच
और समां जाती है
अपने प्रियतम के आगोश में
अपने आस्तित्व को मिटा कर .......
......विवेक.......

विचार


इजाजत तो नहीं हमें
मनमानी करने की
कोई भी नादानी करने की
पले है संस्कारो में
ढले हे बिचारो में
बस फख्त बात इतनी सी है
कुछ पल ज़िन्दगी
आप दोस्तों के संग
अपने तरीके से
जी लिया करते है
दिल लगी कर लिया करते है
बात मन की
कह दिया करते है
.....विवेक.....

शुक्रवार, 8 मई 2015

चलन ज़माने का


ज़माने का एक यह भी चलन देखा है
मयस्सर नही ढकने मिटटी को
बो कफन देखा है
बचपन बीन कर खता जिसको
बो जूठन देखा है
झांकता योवन फटे कपड़ो से
बो तन देखा है
यह भी है मेरा वतन
हाँ मैंने अपना वतन देखा है  
......विवेक....


कलम चलती है शब्द जागते हैं।

सम्मान पत्र

  मान मिला सम्मान मिला।  अपनो में स्थान मिला ।  खिली कलम कमल सी,  शब्दों को स्वाभिमान मिला। मेरी यूँ आदतें आदत बनती गई ।  शब्द जागते...