टूट गए वो हर बंधन ,
दृष्टा बनकर खुद को जो देखा ।
जिस बंधन से खुद को ,
था मैं जकड़े बैठा ।
नियति एक कर्म भाव की ,
कर्ता उस कर्ता में देखा ।
भाव नही प्रतिफ़ल का कोई ,
मन भाव परे जा कर बैठा ।
दृष्टा बनकर खुद को देखा ।
सब कर्म हुए कार्य भाव से ,
सब कार्य हुए निमित्त भाव से ,
बस जैसा वो कहता बैसा होता ।
कर्म वही है कार्य वही है ,
सर्वथा स्वीकार्य वही है ,
सब उसकी ही माया का पोथा ।
कुंठा कैसी भ्रांति कैसी ,
अशान्त मन क्लांति कैसी ।
दृष्टा है वो सम भाव से ,
सूक्ष्म शरीर हँसता न रोता ।
टूट गए वो हर बंधन ,
दृष्टा बनकर खुद को जो देखा ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@...
दृष्टा बनकर खुद को जो देखा ।
जिस बंधन से खुद को ,
था मैं जकड़े बैठा ।
नियति एक कर्म भाव की ,
कर्ता उस कर्ता में देखा ।
भाव नही प्रतिफ़ल का कोई ,
मन भाव परे जा कर बैठा ।
दृष्टा बनकर खुद को देखा ।
सब कर्म हुए कार्य भाव से ,
सब कार्य हुए निमित्त भाव से ,
बस जैसा वो कहता बैसा होता ।
कर्म वही है कार्य वही है ,
सर्वथा स्वीकार्य वही है ,
सब उसकी ही माया का पोथा ।
कुंठा कैसी भ्रांति कैसी ,
अशान्त मन क्लांति कैसी ।
दृष्टा है वो सम भाव से ,
सूक्ष्म शरीर हँसता न रोता ।
टूट गए वो हर बंधन ,
दृष्टा बनकर खुद को जो देखा ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@...