शनिवार, 14 जुलाई 2018

छूट गए वो हर बंधन

 टूट गए वो हर बंधन ,
 दृष्टा बनकर खुद को जो देखा । 

 जिस बंधन से खुद को ,
  था मैं जकड़े बैठा ।

 नियति एक कर्म भाव की ,
 कर्ता उस कर्ता में देखा ।

 भाव नही प्रतिफ़ल का कोई ,
 मन भाव परे जा कर बैठा ।

 दृष्टा बनकर खुद को देखा ।

 सब कर्म हुए कार्य भाव से ,
 सब कार्य हुए निमित्त भाव से ,
 बस जैसा वो कहता बैसा होता ।


 कर्म वही है कार्य वही है ,
 सर्वथा स्वीकार्य वही है ,
 सब उसकी ही माया का पोथा ।

 कुंठा कैसी भ्रांति कैसी ,
 अशान्त मन क्लांति कैसी ।

 दृष्टा है वो सम भाव से ,
 सूक्ष्म शरीर हँसता न रोता ।

 टूट गए वो हर बंधन ,
 दृष्टा बनकर खुद को जो देखा ।

  .... विवेक दुबे"निश्चल"@...

नैना नैनन के प्यासे

नैना नैनन के प्यासे ।
 अधर अधरन के प्यासे ।

प्रीतम की इन यादों में ,
स्पंदन साँसों के साजे ।

 आ जाएं प्रीतम मोरे ,
 भा जाऊँ मैं मन में ।

 ये मन भागे ,
 मन के आंगे ।

 राह तकी है जन्मों से ,
 जन्म जाने कितने आंगे ।

 पा जाऊँ एक छवि प्रीतम की ,
 खो जाऊँ मैं बस प्रीतम में ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@..

हर मुश्किल हल होगी


  हर मुश्किल हल होगी । 
  आज नही तो कल होगी ।

  चलता चल तू राह पथिक ,
  राह छोर पे मंजिल होगी ।

   न हार कभी इन राहों से , 
   कोशिश कदम सफ़ल होगी ।

 पग धरता चल अंगारों पे ,
 पग तले धरा शीतल होगी ।

 झुक जाएगा अम्बर भी,
 एक दिन पुरुषार्थ तले तेरे ।

  तेरे कदमों की  उसको भी,   
   एक दिन चाहत होगी ।

 हर मुश्किल हल होगी ।
आज नही तो कल होगी ।

..... विवेक दुबे"निश्चल"@..... 

चलना ही तो जीवन है

कम शब्दों को लिखकर मैं ,
गहरे भाव सजाता हूँ ।

     खोजा करता हस्ति अपनी ,
     दिनकर सँग चलता जाता हूँ ।

 साँझ तले दिनकर छुपता ,
 अँधियारो में मैं खो जाता हूँ ।

       उजियारों से थककर मैं ,
      अंधियारों में थकान मिटाता हूँ ।

 हर रात निशा के आँचल में ,
 मैं जीवन फिर पा जाता हूँ ।

        सहज रही स्याह निशा मुझको ,
       अपनी छाया से भी छुप जाता हूँ ।

हार नही मानूँगा फिर भी मैं ,
खुद को अहसास दिलाता हूँ ।

     कभी हार नही कभी जीत नही ,
     जीवन में बस इतना ही तो पाता हूँ ।

   चलना ही तो जीवन है ,
  "निश्चल" चलता ही जाता हूँ ।

..... विवेक दुबे"निश्चल"@...

इतना होता हूँ क्युं

इतना होता हुँ क्युं मैं,जमाने का दीवाना ।
अपने ही अंदाज़ से,चलाना चाहे जमाना ।

 ठूंसकर अल्फ़ाज़ अपने को मेरे मुहँ में ,
 कहता है मुझसे ,अब तू इन्हें गुनगुना ।

वो मतला ना ही मक़ता ही रहा कोई ,
जो चाहा था मैंने आप खुद को सुनना ।

 गुनगुनाया था मैंने जिसे अपने वास्ते ।
 न चाहा था कभी ज़माने को सुनाना ।

 कहती दुनियाँ कुछ कहो अपने अंदाज़ में ।
बनाती है मेरे अंदाज़ से फिर एक फ़साना ।

 "निश्चल" न रह सका मैं अपने वास्ते ,
 करता रहा जमाना यूँ मुझे बेगाना ।

 .... विवेक दुबे"निश्चल"@...

एक ग़जल कहूँ या न कहुं

आज एक ग़जल कहूँ या न कहुँ ।
 तुझे खिलता कमल कहूँ या न कहुँ ।

चाहत-ए-जिंदगी की ख़ातिर ,
दिल-ए-दख़ल कहूँ या न कहुँ ।

 बहता दरिया तोड़कर किनारों को ,
 उसे आज समंदर कहूँ या न कहुँ ।

 छूटता ही रहा एक लफ्ज़ कहीं कोई ,
 उस सफ़े को सफ़ा कहूँ या न कहुँ ।

 जीता न वो मेरी हार के वास्ते ,
 उस जीत को हार कहूँ या न कहुँ ।

चलते रहे जो क़दम मेरे साथ से ,
उस अदा को वफ़ा कहूँ या न कहुँ ।

रह गया तख़ल्लुस जिस ग़जल में मेरा ,
उसे मैं मुकम्मिल ग़जल कहूँ या न कहुँ ।

..... विवेक दुबे"निश्चल"@...

शुक्रवार, 13 जुलाई 2018

आदमी ग़जल



काफ़िया --- आर
 रदीफ़  ----- हैं

आदमी आदमी के गुनहगार हैं ।
 आदमी आज यूँ भी वफ़ादार हैं ।

है नही मुरब्बत दिल मे कोई  ,
इस जहां में सभी आज बे-जार हैं ।

वा-बस्ता साथ में है सभी आज भी,
बीच सब के हुए सिर्फ इक़रार हैं ।

हो रहे हैं ख़ुश वो अपने दांव पर ,
मानते है जिन्हें जीत वो हार हैं ।

जीतने के लिए खेलकर दांव को ,
हार से आदमी के युं इक़रार हैं ।

जीतेगें अब नही तो अब वो ,
"निश्चल" के क्युं आज इख़्तियार हैं ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@......

ग़जल

एक प्रयास ग़जल का

काफ़िया --- आर
 रदीफ़  ----- है 
बह्र ------212×4

आदमी आदमी का गुनहगार है ।
आदमियत हुई आज शर्मसार है ।

है नहीं मुरब्बत दिल में कोई  ,
इस जहां में सभी आज बे-जार है ।

वा-बस्ता साथ में है सभी आज भी,
बीच सब के हुआ सिर्फ इक़रार है ।

हो रहे हैं ख़ुश वो अपने दांव पर ,
मानते हैं जिसे जीत वो हार है ।

जीतने के लिए खेलकर दांव को ,
हार से आदमी का यूं इक़रार है ।

जीतेगा अब नहीं तो अब वो ,
"निश्चल" को क्यूं आज इख़्तियार है ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@.....

गुरुवार, 12 जुलाई 2018

एक साँझ सदा ढ़लती

रात तले शबनम ढ़लती ।
 क़तरा बन कर  चलती ।

मचल जमीं के दामन में ,
जर्रा जमीं जा मिलती ।

 ज़ीवन की साँसों में भी ,
 एक बात यही मिलती ।

 भोर खिले उजियारों की,
 एक साँझ सदा ढ़लती ।

पा जाने की आशा से ,

 ढ़लती और निकलती ।

   एक रात सुबह संग ,
 "निश्चल" निश्चित मिलती ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@....

दोहे 24 से 26

24
नयन समाये हैं साजन, मन बन आस चकोर ।
 दूर देश प्रियवर है,मन तड़फत बिन तोर ।
25
 सजनी साधे बड़ी आस,अंतर मन भरी प्यास ।
 डोले मन पिया मिलन, राह तके भरे नयन ।
26
 आओ प्रियवर देर भई, साँझ भई भोर गई।
 रजनी सँग चँदा आया, तूने मोहे बिसराया ।
   ..... विवेक दुबे "निश्चल"..

दोहे 20 से 23

 20
 धैर्य धरा से सीखिए,नील गगन से विस्तार।
  सागर सा मन रखिए, गहरे सोच विचार।।
 21
धैर्य हितेषी आपका,व्याकुलता की काट।
धैर्य कभी न खोइए,लाख विपत्ति आए ।।
22
धैर्य ध्वजा धर्म की ,    धैर्य धर्म की लाज ।
धैर्य धारण जो करे, होय सफल हर काज ।
23
धैर्य कभी न हारिये , धैर्य धर्म की आड़।
धैर्य धरे जो मानवा , पुरुषोत्तम हो जाय ।।
 ..... विवेक दुबे"निश्चल""....

दोहे 17 से 19

17
क्रोध कबहुँ न कीजिए , क्रोध पतन का मूल ।
 क्रोध जो उपजे आपमे, नष्ट होय बुद्धि समूल ।
18
रस रहे न स्वाद रहे , बिन मौसम जो फ़ल आए ।
 बिन मौसम की बादरी,  नीर भरे उड़ जाए । 
 19
 उड़ जा कागा मुँडेर से , दे पिया  सन्देशा जाए ।
 कहियो तोरी याद में , नैन  सरिता हो जाए । 

  
.... विवेक दुबे"निश्चल"@...

दोहे 14 से 16

14
राधा बड़ है भागनी, नटखट है घनश्याम।
 बाजत कान्हा बाँसुरी, स्वर बोलें राधा नाम।
15
लालच लालसा चोरी,स्वार्थ बंधी सब डोरी ।
 छोड़ स्वार्थ हो जाए दुनियाँ कोरी की कोरी ।
16
 रच निस्वार्थ भाव से जीवन फिर तू अपना ,
 खेल श्याम सँग प्रेम प्रीत की तू तब होरी ।
  ..... विवेक दुबे"निश्चल"©.......

3 दोहे

एक प्रयास दोहे लेखन

11
नभ सूना बदली बिना ,
 भू को जा की आस ।
  तू सागर से नीर ला ,
 मिटे धरा की प्यास ।
12
सागर चुप हो देखता ,
 भरत न  बदली पेट ।
 नयना रोत किसान के ,
  भरे न बदली पेट ।
13
 ना जागे यदि नींद से , 
  मिट जाएगा अंश ।
  सहजा नही यदि वृक्ष को ,  
  नहीं बचेगा वंश ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@...


दोहे 5 से 10

6
समय कबहुँ न टालिए, समय न वापस आए ।
बीती बात बिसारिए, बीत गया सो बिता जाए ।
7
रात बड़ी है साँवली ,लेत प्रभा की ओट ।
आपने बिस्तार से,वा आपन को है खोत।
8
दिनकर ही दिन चढ़त है,दिनकर ही ढल जाए ।
यौवन जो काट के,  ज़रा गले लिपटाए ।
9
सहना मानस की नियति,सहती अत्याचार।
 बैठी है चुपचाप से, करे नहीं प्रतिकार।।

10
 सहना नियति मानस की, सहती अत्याचार ।
 इच्छा न प्रतिकार की, बैठी बस चुप चाप ।
 . .... विवेक दुबे"निश्चल"@...
डायरी 5

दोहे 1से5

1
गूढ़ ज्ञान नाही बूझिए , ज्ञान बडा उलझाए ।
सरल ज्ञान के भान से,राम हृदय मिल जाए ।
2
राम चरण की चाकरी,चित्त नही विश्राम।
कृपा करें राम जी, पूरन हों सब काम।
3
भक्त शिरोमणि आप,सुनते सबकी।अरदास।
 राम कृपा रहे अधूरी ,जो त्यागे राम दास ।
4
राम नाम के जाप से बजरंगी होय प्रसन्न ।
 तुलसी रट लगाई राम की हनुमत आए तुरन्त ।
5
 काव्य रचो निज भाव सो , गहरी पैठ बनाए ।
पाठक के पढ़ते ही जो , हृदय जान समाए ।

 .... विवेक दुबे"निश्चल"@...

कुछ मुक्तक 438/444

438
लज़्ज़ता छोड़ निर्लज़्ज़ता ओढ़ी ।
शर्म हया भी रही नही जरा थोड़ी ।
 रहे नही शिष्ट आचरण अब कुछ ,
 अहंकार की चुनर कुछ ऐसी ओढ़ी ।
....
439
  आइनों से खुद को मैं छुपाता रहा ।
बस अक़्स उसको मैं दिखाता रहा ।
छुपाकर सलवटें अपने चेहरे की ,
 आइनों से निग़ाह मैं मिलाता रहा ।
....
 440
किस्मत के खेल खिलाती है जिंदगी ।
किताबों में नही वो दिखती है जिंदगी ।
चलने की चाह में ही हर दम  ,
दुनियाँ की ठोकरें खिलाती है जिंदगी ।
......
441
 वो संग जो आज भी मौन थे ।
निगाहों में उनकी कुछ बोल थे ।
 कहते थे वक़्त के सितम को ,
 हर ज़ुल्म ही जिनके मोल थे ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@..
442
  समंदर आँखों का नम था ।
 काजल आँखों का कम था ।
उठे थे तूफ़ां उस दरिया मैं ,
 होंसला साहिल बे-दम था ।
.... 
443
आज इंसान ग़ुम हो रहा है ।
 इतना मज़लूम हो रहा है ।
खा रहे वो कसमें ईमान की ,
 यूँ ईमान का खूं हो रहा है ।
 ..... 

444
काश वक़्त से मशविरा हुआ होता ।
आज वो मेरा नाख़ुदा न हुआ होता ।
न डूबती कश्ती यूँ किनारों पर ,
एक साहिल भी मेरा हुआ होता ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@.
डायरी 3

कलम चलती है शब्द जागते हैं।

सम्मान पत्र

  मान मिला सम्मान मिला।  अपनो में स्थान मिला ।  खिली कलम कमल सी,  शब्दों को स्वाभिमान मिला। मेरी यूँ आदतें आदत बनती गई ।  शब्द जागते...