शनिवार, 4 अगस्त 2018

कितना संगीन यह जमाना है


कितना संगीन यह जमाना है ।
इसका रंगीन हर फ़साना है ।

     साथ दिल में भी रहकर  ,
     मिल ना पाया कोई ठिकाना है ।

दर्द होते रहे ही मयस्सर  ,
दर्द भी दुआ का दीवाना है।

     जो रूठता रहा वास्ते मेरे  ,
     आज फिर उसे मनाना है ।

छुपाकर अश्क़ अपने मुझे ,
चेहरा हंसी उसे दिखाना है ।

     सिमेटकर मायूसीयाँ अपनी  ,
     नज़्म फिर एक मुझे सुनाना है ।

  तंज देती रही दुनियाँ मुझको ,
   हर तंज से "निश्चल" बेगाना है ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@....
Blog post 4/8/18

शुक्रवार, 3 अगस्त 2018

कमल नम

पुष्प शाख पे जब आता है ।
  कलम मन खिल जाता है ।

  खिलते धीरे धीरे पुष्प कई ,
  चमन गुलशन सज जाता है ।

  खुश होता मन ही मन वो ,
  बागवान अब मुस्काता है ।

  सँग भँवरों की गुंजन के ,
  गीत प्रीत के वो गाता है ।

  छूकर एक एक पुष्प लता को ,
 देखो कितना वो इतराता है ।

पा प्रतिफ़ल अपने श्रम का ,
 वो बागवान अब कहलाता है ।

पुष्प शाख पे जब आता है ।
  कलम मन खिल जाता है ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@....


नैन मिले साजन से

नैन मिले साजन से ।
हिया मन भावन से ।

कोर कटीले पावन से ।
 मादक से सावन से ।
कहते है गुप चुप कुछ ,
 वो अपनी अंखियन से ।

नैन मिले साजन से ,,,

रीत रहे अंखियों से ,
बून्द बून्द बादल से ।
कोर बही श्यामल सी ,
 कजरारे काजल से ।

नैन मिले साजन से ,,,

 बतियाते नैनो से नैना ,
 हिया भए धायल से ।
 झपकें पलकें पल को ,
 खनक उठे पायल से ।

नैन मिले साजन से ,,,

 करते बातें मन की ,
मादक सी चितवन से ।
 हर रहे हिया पिया का ,
 प्रति भरी अंखियन से ।

नैन मिले साजन से ,,,
हिया मन भावन से ,,,,

.... विवेक दुबे"निश्चल"@..


बीज अनोखा

एक बीज अनोखा होगा  ।
गर्भ धरा में सोता होगा   ।
 पा कर ताप गर्भ धरा से  ,
 सृजित प्राण होता होगा  ।

  फिर निष्प्राण काया ने ,
  फिर जीव गढ़ा होगा ।
  साँसों के स्पंदन ने ,
  चेतन आभास भरा होगा ।

  पा स्नेहिल आलिंगन को ,
  फिर आकार गढ़ा होगा ।
   सहकर हर मौसम को ,
   फिर वो वृक्ष बना होगा ।

  अपनी ही शाखों पे  ,
  फिर बीज गढ़ा होगा ।
  बार बार सृस्टि का ,
  यही क्रम चला होगा ।

एक बीज अनोखा होगा  ।
गर्भ धरा में सोता होगा   ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@..
Blog post 3/8/18

बुधवार, 1 अगस्त 2018

मुक्तक

488
सत्य को प्रमाण नही ।
झूठ को इनाम नही ।
निज भाव चलतीं ,
राहों को विश्राम नही ।
489
वो नही कोई गैर था ।
अपनो से ही बैर था ।
 रूठता था मनाने को ,
 चाहतों का  यही फेर था ।
... 
490
जिंदगी तो लौट कर फिर आती है ।
खुशियों को नज़र क्यों लग जाती है ।
....
जुगलबंदी ऐसी ही होती है ।
 बात निग़ाहों से बयां होती है ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@...
डायरी 4
Blog post 1/8/18

मुक्तक

481
संग सा बना सँग आज,
 वक़्त के तक़ाज़े से ।
देखता हर शख़्स मुझे ,
 न देखने के इरादे से ।
.. 482
दर्द मैं बयां करता कैसे ।
 जुदा दिल से करता कैसे ।
 थे संग वो मेरे अपने ही ,
 उन्हें मैं बुत करता कैसे ।
....483
हसरतों के बाजारों में ।
उलफ़्तों के चौराहों में ।
लुटती रही अना ,
उम्र के दोराहों में ।
..484
बा-मोल मैं बे-मोल रहा ।
 इतना ही मेरा तोल रहा ।
 लगता ही रहा भाब मेरा ,
 जुबां जुबां मेरा बोल रहा ।
.... 
485
 पुकार तेरी सुन न सका वो ,
 ख़यालो में तेरे खोया था वो ।
 टूटकर किनारों से वो कोई ,
 एक दरिया सा बहा था वो ।
.... 
486
 पुकारता रहा एक चमन वीरानों से ।
 ग़ुम हुआ क्यूं वो आज पहचानों से ।
 एक हस्ती रही हरदम ही जिसकी , 
 खोजता मंज़िल अपनी अपने निशानों से । 
..... 
487
एक लफ्ज़ वो लिखेगा कभी ।
 एक लफ्ज़ मैं लिखूंगा कभी ।
 जोड़कर मैं लफ्ज़ लफ्ज़ से ,
 एक नज़्म कहूँगा फिर कभी ।
....विवेक दुबे"निश्चल"@...
डायरी 5
Blog post 1/8/18

लक्ष्य उसी ने पाया है

लक्ष्य उसी ने बस पाया है ।
जो आगे आगे चल पाया है ।
 देखो भोर मुहाने पर , 
दिनकर ही पहले आया है ।

 रजनी के दामन में छुपने से पहले ,
 संध्या को भी ललचाया है ।
 दिनकर ही पहले आया है ।

 जो चँदा आता कुछ चलकर ,
 सूरज का हम साया कहलाया है ।
 लक्ष्य उसी ने बस पाया है ।
 जो आगे आगे चल पाया है ।

 पवन चली तरल बन के ,
 खुशबू का झोंका आया है ।
 वो फ़ूल बाद नजर आया है ।
 लक्ष्य उसी ने बस पाया है ।

 अंबर बून्द चली मिलने धरती को ,
 रजः कण ने श्रृंगार उठाया है ।
 गर्भ धरा ने तो फिर पाया है ।
 लक्ष्य उसी ने बस पाया है ।
 आगे आगे जो चल पाया है ।

 ना सोच जरा तनिक विश्राम नही ,
 दिनकर तो हर दिन ही आया  है ।
  ठहर नही चलता चल राहों पर ,
  तूने खुद को क्यों बिसराया है ।

लक्ष्य उसी ने बस पाया है ।
जो आगे आगे चल पाया है ।
 देखो भोर मुहाने पर , 
दिनकर ही पहले आया है ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@...
Blog post 1/8/18
डायरी 5(54)

चौपाई

विधा -- चौपाई छंद

1
तिनका चुनकर नीड़ बनाएँ ।
 दाना चुनकर जीव बढ़ाएँ ।
 पँख पखेरू के जब आएँ ।
 अपने मन के तब हो जाएँ ।

2-
 वो तरु कठोर पर झुक जाता ।
 अपने पुष्पों से लद जाता ।
 खग पँख फैला उड़ ना पाता ।
 सुरभित सुमन छू ना पाता ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@...


मंगलवार, 31 जुलाई 2018

दोहे

रात अंधेरी आज की ,बादल बिजुरी होय ।
राह निहारे आस से , पिया बिसारे मोय ।

प्रियतम नही पास में , मन में गहरी पीर ।
पिया मिलन की आस में ,प्रिया होत अधीर ।


बात सुनाता आपनी , कहता अपनी बात ।
हर पतझड़ के बाद में ,आते नव तरु पात ।

डूबत रवि साँझ सँग,छोड़ धवल प्रकाश ।
नव प्रभा की आस में ,रिक्त रहे आकाश ।
...
बादल बरसी बादली , नीर नीर धरा होय ।
सागर फिर भी ना भरे,सरिता सागर खोय ।

बांट लई सारी धरा , अम्बर न बंटा जाए ।
मानव स्वार्थ से भरा , धरा रही थर्राए ।

रीत नही मन आज तो ,रही न कोई प्रीत ।
जग जीतेगा बाद में , पहले खुद को जीत ।
...
थम गई क्यों रात भी , होत नही अब भोर ।
दिनकर अब कब आएगा , कलरब होगा शोर ।
.
 मोल नही अब जान का , रहा नही अब मोल ।
 संकट है एक प्राण का , संकट की नही तोल ।

पद मिले एक लाभ का ,पेट गला भर जाए ।
घर बैठे ही आप से , धन वर्षा हो जाए ।

 राज कोई ऐसा नही ,न रंक हो न फ़क़ीर ।
 बाँटे दोनों हाथ से ,   मिटत न कोई पीर ।


रूठे थे जो बादरा , भर लाये अब नीर ।
 पुलकित मानस मन भयो ,मिटी धरा की पीर ।

 ताल सरोवर भर रहे , चल उठे जल प्रपात ।
 हर्षित मन वसुधा हुआ ,सजी दुल्हन सी आज ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@..


तम भी हारा है


अब तो तम भी हारा है धुंधले से अंधियारों से ।
सावन भी भींग रहा है शुष्क पड़ी फुहारों से ।

 दिनकर ही हरता है हर दिन अब दिन को ।
 साँझे तडफे अब अपनी ही रात मिलन को ।

आभित नही नव आभा अपने उजियारों से ।
 डरता है मुंसिफ़ अब तो अपने पहरेदारों से ।

 हिलता है मचान खड़ा अपने ही आज सहारों से ।
 देश टूट रहा है कदम कदम जात धर्म के नारों से ।

सत्ता की ख़ातिर खाते कसमें मंदिर मस्ज़िद गुरुद्वारों में ।
नित निज शीश सजाते निज स्वार्थ के ही हारों में।

प्राण गंवाते घाटी में सैनिक गद्दारों की घातों से ।
बहलाते हो तुम कुछ पल को शहीद के नारों से ।

 मस्त हुए सत्ता के मद में सजा रहे नित नए श्रृंगारों को।
पूछो कुछ उस माँ से खोया जिसने अपने लालों को ।

लाज नही तनिक अब भी उलझे बस नारों में ।
कब जाएगा वो जन कश्मीर का अपनी छोड़ी बहारों में ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@..
Blog post 31/7/18
डायरी 5(11)

शेर

ना कर तज़किरा तू ,
 रंज-ओ-मलाल पर ।
छोड़ वक़्त को तू
  वक़्त के ही हाल पर ।
...
वो चाहतों की चाहत,
ना रही कोई मलालत ।
खोजतीं रहीं निगाह ,
मेरी नज़्म-ए-ज़लालत ।
....
मैं लिखता चला निग़ाह से ।
 जीत ना सका अपनी चाह से ।
 होता रहा ग़ुम लफ्ज़ लफ्ज़ ,
 गिरते रहे जो क़तरे निग़ाह से ।

विवेक दुबे"निश्चल"@..

हे महाकाल

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आया सावन ,
 करता शिवार्चन ,
भक्ति भाव से ।

 भोले भंडारी ,
 भरदे झोली खाली ,
 तू त्रिपुरारी ।

  हे महाकाल 
  हे शम्भू विशाल 
  तेरी ही ढाल ।

 मैं हूँ अज्ञानी 
 तू ओघड़ दानी 
 मुझे सम्हाल ।

 शीश झुकाता
 अरदास लगाता 
 एक तू जग दाता ।

 .... विवेक दुबे"निश्चल"@..
Blog post 31/7/18

दोहे

दोहे

अम्बर खोजे बादरा , खोजे धरा आकाश ।
 रितु मिलन की चाह में ,जागे धरती प्यास ।
...... 
सावन के मधु मास में , अधरन मीठे गीत ।
झूला झूले साँवली , मीठी पिया को प्रीत ।
.... 
नीरव सा मन राखियो, नीरव है प्रकाश ।
गहन निशा के जात ही , होता है प्रभात ।
...
रात रहे न दिन रहे,एक गुजरे एक आय ।
सांस चलत है प्राण में,देह लिए लिपटाय ।
....
प्रीत है नही चाह में, कैसी जग की रीत ।
परमारथ की हार से , स्वारथ रहा जीत ।
.....विवेक दुबे"निश्चल"@..
Bolg post 31/7/18

मुखरित अविरल धाराएँ

मुखरित अविरल धाराएँ ,
 आज हिमालय की ।

 टूट रहीं हैं मर्यादाएं ,
 अब मदिरालय सी।

खंडित आज हिमालय,
 विस्मृत जल धाराएँ हैं ।

जीवन की ख़ातिर जीवन को,
  आज भुलाएँ है ।

 दृश्य तम नभ व्योम सी ,
 रिक्त पड़ी अभिलाषाएं है ।

  स्तब्ध श्वांस बस प्राणों में ,
  रक्त हीन सी हुई शिराएँ है ।

ढलते दिनकर सी ,
क्षितिज तले अब आशाएँ है ।

 भोर नही अब दूर तलक ,
 गहन निशा बाँह फैलाए है ।

 दिनकर के ही उजियारों में ,
 दिनकर के ही अब साए है ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@...
Blog post 31/7/18

रविवार, 29 जुलाई 2018

वंदना

हे माँ ज्ञानदा ,हे माँ ज्ञानदा ,
ज्ञान दे माँ , ज्ञान दे माँ ।

 हर तिमिर अज्ञान माँ ।
 दे ज्ञान प्रभा वरदान माँ ।

 है ब्रम्हाणी सकल ब्रम्हांड माँ ,
 भर शब्द सकल भंडार माँ ।

 नित नव लेखनी श्रृंगार माँ ।
 दे वाणी का वरदान माँ ।

 हो दूर तम अभिमान माँ ।
पाऊँ दीप्ती स्वाभिमान माँ

 ज्ञान दे माँ , हे ज्ञानदा माँ ।
....विवेक दुबे"निश्चल"@...

वंदना

 412
प्रचण्ड मुंड नंदनी ।
 असुर शीश खंडनी ।

 महा पाप भंजनी ।
  महा देव वंदनी । 

 सहस्त्र कोटि भानु सम ,
 दिव्य तेज धरणी ।

पाप के विनाश को ,
महामाया रजनी ।

श्वेत वस्त्र धार के ,
 महाज्ञान प्रकाशनी  ।

 नमामि देवी नमोस्तुते ,
 अशेष ज्ञान प्रदायनी ।

..... विवेक दुबे"निश्चल"@..
डायरी 5(1)

एकाकी मैं

चलता मैं जिस पथ पर ।
एकाकी मैं उस पथ पर ।
 नही कहीं विश्राम कोई ,
 संग्रामों से इस पथ पर ।

 चलता मैं अथक निरंतर ,
 जीवन के इस पथ पर ।
 दीप्त रहीं कुछ आशाएँ ,
 मुड़ते जुड़ते हर पथ पर ।

 कुछ कंटक रहो पर भी ,
  पुष्प खिले मोद निरंतर ।
 तब तम साँझ ढ़ले भी ,
 अहसास बना दिनकर ।

  चलता मैं तम से तम तक ,
  तम हरता रहा दिवाकर ।
 अजित रहा जीवन पुष्कर ,
 चलता मैं जीवन पथ पर ।

    चलता मैं जिस पथ पर ।
    एकाकी मैं उस पथ पर ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@...
Blog post 29/7/18
डायरी 5(311

कलम चलती है शब्द जागते हैं।

सम्मान पत्र

  मान मिला सम्मान मिला।  अपनो में स्थान मिला ।  खिली कलम कमल सी,  शब्दों को स्वाभिमान मिला। मेरी यूँ आदतें आदत बनती गई ।  शब्द जागते...