शुक्रवार, 15 मई 2015

असर माँ की दुआओ का


यह माँ की दुआओं का असर है
मुझ पर ,,,,
ज़माने की हर बददुआ बेअसर है
मुझ पर ,,,,
....विवेक...

गुरुवार, 14 मई 2015

माँ


रिश्ते तो दुनियां में है बहुत
हर रिश्ते पर चढ़ी
कही न कही स्वार्थ की
सुनहरी परत
माँ और मित्र सबसे जुदा
निस्वार्थ माँ और मित्र का सिलसिला
.....विवेक......

समझ


समझने से कुछ होता
तो दुनियां बदल जाती यारो
कुछ बदलने के लिए
बहुत कुछ करना होता है यारो
....विवेक..

माँ


धरा सी शांत गगन सी बिशाल
माँ तेरी ममता की न हो सकी पड़ताल
जब भी बरसी शीतल जल बनकर
स्नेह से किया सरोबार
नित नए अंकुर फूटे
खिलाये खुशियो के फूल अपार
देती हो बस देती ही रहती हो
नही कभी इंकार
तुफानो में हिली नहीं
सैलाबो से डिगी नहीं
तेरी आँखों से दुनियां देखी
तेरे मन से जाना इसका हाल
सच झूठ का भेद सिखाया
समझाया क्या अच्छा क्या बेकार
तेरे कदम तले की मिट्टी
मेरे मस्तक का श्रृंगार
यादो में जब जब खोता हूँ
भाबो में बहता हूँ
नमन तुझे ही करता हूँ
ऋण नहीं कह सकता जिसको
बो तो बस है तेरा उपकार
माँ ऐसा मिला मुझे तेरा प्यार
...........विवेक.....
माँ पर बार बार लिखा नही जा सजता जो एक बार लिख जाये बो मिटाया नही जा सकता

बुधवार, 13 मई 2015

संस्कार


शादी और ससुराल
दुनिया के हर मज़हब में
law से चलता है
बस एक हम ही है
जहाँ यह रिश्ता नाता
हमारे संस्कार में पलता है
एक बार जुड़ गए किसी से
बो जन्मो का सा लगता है
नो ऐग्रीमेंट नो कांट्रेक्ट
16 संस्कारो में से एक संस्कार
शुभ विवाह संस्कार
इसीलिए हम सनातन कहलाये
.... विवेक.....

कनक की कविता सपनो का जहां


लेकर में चली जहां,
झिलमिलाते सितारों के साथ;
जाऊ  चाँद पर भी में आज,
क्या पूरा होगा ये ख्वाब,
क्या पूरा होगा ये ख्वाब!

है तमन्ना है,
आरजू  कोई;
 मेरी धडकनों में,
चाहू बस यही,
में तो बस यही ,
झूम इस जहन में;
छू के आसमा ये आज,
कर जाऊं ऐसा कुछ ख़ास,
के क़दमों में हो
सितारे मेरे यार!
सितारे मेरे यार!

जश्न


यू तो लोग जिंदगी जीते है जश्न मान कर
पर जिंदगी में जश्न के लिए जगह ही कहा है ?
.....विवेक...

उसकी माया


केसी है यह उसकी माया ...
उसने ही सब खेल रचाया...
यह तो बस वो ही जाने
मेने तो बस उस पर दिल हारा
तन मन बारा
.....विवेक.....

सत्य


सत्य कभी छुपता नहीं
समय कभी रुकता नहीं
लाख ओड़ लो झूठ के लवादे
लाख करो चतुराई
सत्य ने समय समय पर
अपनी धाक जमाई
.....विवेक...

संस्कार


शादी और ससुराल
दुनिया के हर मज़हब में
law से चलता है
बस एक हम ही है
जहाँ यह रिश्ता नाता
हमारे संस्कार में पलता है
एक बार जुड़ गए किसी से
बो जन्मो का सा लगता है
नो ऐग्रीमेंट नो कांट्रेक्ट
16 संस्कारो में से एक संस्कार
शुभ विवाह संस्कार
इसीलिए हम सनातन कहलाये
.... विवेक.....

धुलाई



हमने वक़्त के साथ अपने आप को
खूब धोया निचोड़ा
धुप में सुखाया
अच्छे से इस्त्री भी की
बार बार धोया
अच्छे से अच्छे डिटर्जेंट से
कूट कूट पर
पीट पीट कर
पटक पटक कर
दचक दचक कर
पर कोई फायदा नहीं
हर बार हम
जेसे थे बेसे ही रहे
पहले की तरह
बिना धुले बिना इस्त्री किये हुए
कपड़ो की तरह
आज के सभ्य समाज की तरह
झक सफ़ेद पोश न हो सके आज भी हम
.......विवेक......

पानी (जल दिवस)

        पानी (जल दिवस)

जिसका अपना कोई बजूद नहीं ।
पानी बिन कोई पर परिपूर्ण नहीं ।
 किया गर्म भाप बन उड़ गया ।
 किया ठंडा वर्फ में बदल गया ।

 जैसा चाहो वैसा ढालो ,
                 सब में तैयार ।
 नहीं कोई इंकार ,
                 न कोई अहंकार ।
 साथ रहने को तैयार ,
          दूर जाने से नही इंकार।

मिलाओ मिल गया ,
         गर्म करो उड़ गया ।
कुछ ऐसा ही हो 
      मानव मन का श्रृंगार ।

......विवेक दुबे"निश्चल"@....

सोमवार, 11 मई 2015

आह कवि वाह कवि


कवि एक ऐसा प्राणी ...
जिसको नहीं कोई दूजा काम
यह तो बस होता हे बेलाम ....
जब तक मर्जी सीधा सरपट भागे
जब मन हो तिरछी तिरपट चाल दिखावे
पता नहीं कब दुडकी मारे
जिसकी चाहे उसकी टांगे खिचे
न जाने कब किसको
लपेट लपेट के मारे
ऊँच नीच का भेद मिटावे
भाषा धर्म के दूर करे अंधियारे
नेता और अफसर शाही
सब पर इसने धाक जमाई
हर मुश्किल में यह सामने आया
दुनिया को सच का आईना दिखाया
सबसे पहले यही बोला
ईस्वर अल्लाह जीजस मोला
ओ मानब
क्यों तूने उसको स्वार्थ पर तोला
चलते सदा इसके
व्यंगो के बाण
सत्य की क़टार से
हिम्मत की तलवार से
करता यह बड़े बड़े काम
नहीं कभी इसे विश्राम
फिर भी सब कहते
ओ रे कवि
तुझे नहीं कोई काम .......
.......विवेक....

उसका घर


इसने कहा मेरा खुदा
उसने कहा मेरा god
तुमने कहा मेरा ईस्वर
मैंने पूछा भाई
यह बताओ
यह रहते कहाँ है ?
तीनो ने अंगुलियाँ अपनी अपनी
आसमान की और उठा दी
मैंने फिर पूछा
क्या यह भी हमारी तरह आसमान में
लड़ते रहते है ?
अपने अपने वर्चस्व के लिए ....
सच कहूँ यारो
तीनो की नजरे जमीन को ताक रही थी ...
......विवेक.....

आया बसंत


आया बसंत ...
 बिखरा बसंत...
 छाया बसंत....
झूम उठी हर डाली डाली...
खिल उठी कलि कलि से ..
सूनी प्यासी डाली डाली ....
भवरों पर योवन छाया. .
फूलो के मदमाते पराग ने बोराया ....
पा कर सुगंध.
हुआ मदमंद....
घूमे डाली डाली .. .
आतुर मिलने को जिस से...
हर कलि...
जो बस अब है खिलने ही बाली ...
धरा हो गई फिर से नव योवना ...
पहनी है केसरिया साड़ी....
सरसों फूली टेसू फूले
फूल रही है डाली डाली
स्वागत को आतुर हो जेसे
अपने सजन के.. .
नई दुल्हन प्यारी प्यारी.....
शुभ बसंत के पर्व पर
आओ हम सब फूलो से ही खिल जाये
भूल सारे दुःख दर्दो को
भवरो सा गुनगुनाये....
खिल कर फूलो से
महके और महकाए

सभी मित्रो को
वसंत उत्सव की बसंती कामनाओ सहित
सादर समर्पित ......
.......विवेक.....

मन बचपन


यादे हो उठी ताज़ा
मन महका बचपन जागा
पुलकित आज मन की फुलवारी
खनके मन के तार
जैसे राग छेड़ते बीणा के तार
जैसे कर के श्रंगार ठुमक चलत एक नार
मन फिर एक बार
आ पंहुचा इस पार
अब सोचे सौ सौ बार
कैसे पहुचूँ अब उस पार
फिर एक बार फिर एक बार ...
.....विवेक...

ओ पुरुष

ओ पुरुष ......
तूने कभी सोचा कौन है तू ?
किस के द्वारा लाया गया ?
किस बजह से तू कहलाया पुरुष
तो सुन आज सत्य को जान जरा
तू भी उसी का अंश है ,
तू उसी से दुनिया में आया है ।
तू उसी की बजह से ,
पुरुष कहलाया है ।
जिसको आज तू ,
 दुनिया में आने से पहले , 
 गर्भ में ही दफ़न करने तुला है ।
शायद इस डर से ....
तेरे जन्मते ही मेरी नजरे झुक जाएँगी ,
कही कोई सड़क चलता भेड़िया ,
 शिकार न बना ले इसको ।
या कोई लालची दानव ,
आग के हवाले न कर दे इसको ।
या फिर कही कोई रहा चलते ,
 तेजाब न छिड़क दे इस पर ।
पर कभी सोचा तूने ?
यह सब करता कौन है ?
ओ पुरुष तू बस तू ,
 और कोई नाही ।
कुछ इस तरह से नष्ट की ,
कुछ उस तरह से तूने ।
अब बोल तू बचा सकेगा ,
 अपने अस्तित्व को ,
 आने बाले कल के लिए ।
.....विवेक दुबे" निश्चल"@...


बोलो श्रीमान


नया जमाना
जिसमे दिल का नहीं कोई मुकाम
मतलब की दुनिया सारी
आपनी अपनी लाचारी
अपने मतलब की खातिर
कर रहे जमीर को कुर्वान
सच्चे झूठे का भेद नहीं अब
अब झूठ हुआ सच सामान
माया का चक्कर ऐसा छाया
बिक गए अच्छे अच्छो कै ईमान
डूब गई वफादारी
कत्ल हुए हक और ईमान
क्या मैंने यह सब
सत्य कहा श्रीमान...
......विवेक.....

चहरे


हर चहरे में भगवान ढूंडता हूँ ,,,
दुनिया में ईमान ढूंडता हूँ,,,,
बेंच कर अपनी खुशियाँ
चहरों पर मुस्कान ढूंडता हूँ,,,
....विवेक...

जश्न-ए-ज़िन्दगी



हम जिन्दगी का जश्न ,
 कुछ यू मानते रहे ।
वा-अदब भी ,
बे-अदब नजर आते रहे ।
वा-कायदा भी ,
बे-कायदा कहलाते रहे ।
....विवेक दुबे"निश्चल"@..

स्त्री

स्त्री

शक्ति स्वरूपा ,  
लक्ष्मी रूपा ।
विद्या दयनी , 
रिद्धि सिद्धि प्रदायनी ।
गौरी बन रचा गणेश  ,
सृजन किया अनुपम सृष्टि का ,
मैं ही सृष्टि दिया सन्देश ।

आकांक्षाएँ अभिलाषाएँ तुम ही से ।
 स्त्री तुम ही हो सृष्टि का आधार ।

 देती हो हर दम देती ही रहती हो,
करती नहीं कभी इंकार ।

जब जब पाप बड़े धरती पर ,
मची हाहाकार ।

तब रूप धरा चंडी का ,
दुष्टों का किया संहार ।

सीता बन राह बनी रघुवर की ,
रावण का हुआ संहार ।

पांचाली बन अहसास कराया ,
स्त्री नहीं है व्यापार।

नष्ट हुआ कुरु बंश ,
जिसने किया नहीं स्त्री का मान ।

तब हो या हो अब ,
तब तब खुशियाँ छाई ,
जब जब तुम्हे मान मिला ।


तब तब जग अंधियारी छाई ,
जब जब अपमान मिला ।

   ओ स्त्री तुम ने ,  बस तुम ने ही ।
   भाव समर्पण से ,यह सृष्टि रचाई ।

  ....विवेक दुबे "निश्चल"@...


ओ माँ


कभी कुछ भी तो न किया
माँ तू ने खुद
अपने बास्ते
जो भी किया बस
मेरे बास्ते
तू ने आसान किये
मेरे हर रास्ते
मेरे गम की परछाई भी
तुझ से घबराई
तू ने अपनी हर ख़ुशी
मुझ पर लुटाई
छोटी सी खरोच भी देख
अपने सारे दर्द भूल गई
मेरी नींद की खातिर
तू सोना भूल गई
मेरे माथे पर बो काजल से चाँद बनाना
लाल सूखी मिर्चो को
आग में जलना
फिर सीने से लगाना
.....विवेक....

मन बचपन


यादे हो उठी ताज़ा
मन महका बचपन जागा
पुलकित आज मन की फुलवारी
खनके मन के तार
जैसे राग छेड़ते बीणा के तार
जैसे कर के श्रंगार ठुमक चलत एक नार
मन फिर एक बार
आ पंहुचा इस पार
अब सोचे सौ सौ बार
कैसे पहुचूँ अब उस पार
फिर एक बार फिर एक बार ...
.....विवेक...

ज़िन्दगी का कैनवास


दर्द को ही तो उकेरेगी ..
जिंदगी के केनवास पर ...
मेरी यह बुझे बुझे ...
रंगों में डूबी कूची ....
.....विवेक....

यह भी ज़िन्दगी


कभी कभी कितनी उदास जिन्दगी.....
अपनों से बहुत दूर होती जिन्दगी....
खुद से ही नाराज जिन्दगी...
गैरो में ख़ुशी तलाशती जिन्दगी??????
....विवेक...

कलम चलती है शब्द जागते हैं।

सम्मान पत्र

  मान मिला सम्मान मिला।  अपनो में स्थान मिला ।  खिली कलम कमल सी,  शब्दों को स्वाभिमान मिला। मेरी यूँ आदतें आदत बनती गई ।  शब्द जागते...