देखो यह शब्दों की मार ,
शब्दों से होते शब्दों पर वार ।
उलट पलट कर, पलट उलट कर ,
होते नित नये तीर तैयार ।
व्यंग धनुष पर, भाषा के तरकश से ,
यह तीर करें , नित नये प्रहार ।
कभी शब्द बाण चलें ऐसे ,
मधुवन से पुष्प झड़े जैसे ।
कभी शब्द बाण बने ऐसे ,
सावन की बदली बरसे जैसे ।
कभी काम बाण बन मन हरते ऐसे,
प्रणय मिलन की बेला आई जैसे ।
कभी शब्द बाण ने किया प्रहार,
मन कांप गया, सागर में चढ़ा ज्वार ।
कभी व्यंग धनुष ने संधान किया,
तीक्ष्ण शब्द को कमान किया ।
छोड़ दिया फिर साध लक्ष्य को,
कर अग्नि वर्षा,मन घायल करने को।
यह शब्दों की माया नगरी ,
कभी बिखरी कभी संवरी ।
शब्दों में ही बसती दुनियां ,
हमरी तुम्हरी, तुम्हरी हमरी ।
....विवेक....