उसके अल्फ़ाज़ में जिक्र मेरा था ।
ख्यालो में खुशबुओं का डेरा था ।
खोया था अब तलक अँधेरो में ,
आज खुशनुमा मेरा भी सबेरा था ।
....
346
एक यही कमी रही मुझमे ।
आँखों की नमी रही मुझमे ।
कहता जमाना संग के माफ़िक ,
निग़ाह न पढ़ी उसने मुझमे ।
....
347
रात रुकी न दिन ठहरा ।
कैसा ख्वाबों पर पहरा ।
खोज रहा अपने में ही ,
मैं खुद अपना ही चेहरा ।
....
348
नीर नीर नदिया सा तू पीता जा ।
"निश्चल" सागर सा तू जीता जा ।
मचलें खेलें लहरें तेरे दामन में ,
दामन को अपने भिंगोता जा ।
....
349
इंसान को इंसान का चेहरा चाहिए ।
हर चेहरे पर अपना पहरा चाहिए ।
झुकतीं है वो निग़ाह भी अदब से ,
उसकी शान में कुछ अदा चाहिए ।
....
350
लफ़्ज़ लफ्ज़ से अपना अर्थ निकाला सबने ।
मुझको जैसा चाहा बैसा खुद में ढाला सबने ।
बदलती गई शक़्ल-ओ-सूरत हर बार मेरी ,
मानिंद मोम की मुझे पिघला डाला सबने ।
.....
351
रूह सख़्त मिज़ाज क्यूँ हूँ ।
ज़िस्म पेहरन लिवास क्यूँ हूँ ।
न रहेगा ज़िस्म तू साथ मेरे ,
तो ज़िस्म गुरुर आज क्यूँ हूँ ।
...
352
जमाने के रिवाजों से अंजान हम ।
आज भी दुनियाँ में नादान हम ।
रूठता है अक़्सर जमाना हमसे ,
उठाते है बार बार ईमान हम ।
....
353
कुछ खोजतीं निगाहें ।
खामोश सी निगाहें ।
अर्थ सामने बिखरे मेरे ,
शब्द खोजतीं निगाहें ।
...
354
खामोशियाँ भी बोलती होती ।
राज अपने भी खोलती होती ।
बोल उठते खंडहर भी तब ,
निग़ाह जर्रे जर्रे की डोलती होती।
....
355
क़सूर बस इतना ही रहा ।
के मैं बे-क़सूर ही रहा ।
सहता रहा तंज दुनियाँ के ,
दुनियाँ का यही दस्तूर रहा ।
... विवेक दुबे "निश्चल"@..
Blog post 12/5/18
ख्यालो में खुशबुओं का डेरा था ।
खोया था अब तलक अँधेरो में ,
आज खुशनुमा मेरा भी सबेरा था ।
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346
एक यही कमी रही मुझमे ।
आँखों की नमी रही मुझमे ।
कहता जमाना संग के माफ़िक ,
निग़ाह न पढ़ी उसने मुझमे ।
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347
रात रुकी न दिन ठहरा ।
कैसा ख्वाबों पर पहरा ।
खोज रहा अपने में ही ,
मैं खुद अपना ही चेहरा ।
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348
नीर नीर नदिया सा तू पीता जा ।
"निश्चल" सागर सा तू जीता जा ।
मचलें खेलें लहरें तेरे दामन में ,
दामन को अपने भिंगोता जा ।
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349
इंसान को इंसान का चेहरा चाहिए ।
हर चेहरे पर अपना पहरा चाहिए ।
झुकतीं है वो निग़ाह भी अदब से ,
उसकी शान में कुछ अदा चाहिए ।
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350
लफ़्ज़ लफ्ज़ से अपना अर्थ निकाला सबने ।
मुझको जैसा चाहा बैसा खुद में ढाला सबने ।
बदलती गई शक़्ल-ओ-सूरत हर बार मेरी ,
मानिंद मोम की मुझे पिघला डाला सबने ।
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351
रूह सख़्त मिज़ाज क्यूँ हूँ ।
ज़िस्म पेहरन लिवास क्यूँ हूँ ।
न रहेगा ज़िस्म तू साथ मेरे ,
तो ज़िस्म गुरुर आज क्यूँ हूँ ।
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352
जमाने के रिवाजों से अंजान हम ।
आज भी दुनियाँ में नादान हम ।
रूठता है अक़्सर जमाना हमसे ,
उठाते है बार बार ईमान हम ।
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353
कुछ खोजतीं निगाहें ।
खामोश सी निगाहें ।
अर्थ सामने बिखरे मेरे ,
शब्द खोजतीं निगाहें ।
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354
खामोशियाँ भी बोलती होती ।
राज अपने भी खोलती होती ।
बोल उठते खंडहर भी तब ,
निग़ाह जर्रे जर्रे की डोलती होती।
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355
क़सूर बस इतना ही रहा ।
के मैं बे-क़सूर ही रहा ।
सहता रहा तंज दुनियाँ के ,
दुनियाँ का यही दस्तूर रहा ।
... विवेक दुबे "निश्चल"@..
Blog post 12/5/18