शनिवार, 12 मई 2018

मुक्तक 345से 355

 उसके अल्फ़ाज़ में जिक्र मेरा था ।
 ख्यालो में खुशबुओं का डेरा था ।
 खोया था अब तलक अँधेरो में ,
 आज खुशनुमा मेरा भी सबेरा था ।
.... 
346
  एक यही कमी रही मुझमे ।
 आँखों की नमी रही मुझमे ।
 कहता जमाना संग के माफ़िक ,
  निग़ाह न पढ़ी उसने मुझमे ।
....
347
रात रुकी न दिन ठहरा ।
 कैसा ख्वाबों पर पहरा ।
 खोज रहा अपने में ही ,
 मैं खुद अपना ही चेहरा ।
 ....
348
नीर नीर नदिया सा तू पीता जा ।
 "निश्चल" सागर सा तू जीता जा ।
मचलें खेलें लहरें तेरे दामन में ,
 दामन को अपने भिंगोता जा ।
.... 
349
इंसान को इंसान का चेहरा चाहिए ।
 हर चेहरे पर अपना पहरा चाहिए ।
  झुकतीं है वो निग़ाह भी अदब से ,
 उसकी शान में कुछ अदा चाहिए ।
      ....
350
लफ़्ज़ लफ्ज़ से अपना अर्थ निकाला सबने ।
मुझको जैसा चाहा बैसा खुद में ढाला सबने ।
 बदलती गई शक़्ल-ओ-सूरत हर बार मेरी ,
 मानिंद मोम की मुझे पिघला डाला सबने ।
..... 
351
रूह सख़्त मिज़ाज क्यूँ हूँ ।
 ज़िस्म पेहरन लिवास क्यूँ हूँ ।
 न रहेगा ज़िस्म तू साथ मेरे ,
 तो ज़िस्म गुरुर आज क्यूँ हूँ ।
 ...
352
जमाने के रिवाजों से अंजान हम ।
 आज भी दुनियाँ में नादान हम ।
 रूठता है अक़्सर जमाना हमसे ,
 उठाते है बार बार ईमान हम ।
 .... 
353
कुछ खोजतीं निगाहें ।
 खामोश सी निगाहें ।
 अर्थ सामने बिखरे मेरे ,
 शब्द खोजतीं निगाहें ।
...
354
खामोशियाँ भी बोलती होती ।
 राज अपने भी खोलती होती ।
 बोल उठते खंडहर भी तब ,
 निग़ाह जर्रे जर्रे की डोलती होती।
 .... 
355
 क़सूर बस इतना ही रहा ।
 के मैं बे-क़सूर ही रहा ।
 सहता रहा तंज दुनियाँ के ,
 दुनियाँ का यही दस्तूर रहा ।

... विवेक दुबे "निश्चल"@..
Blog post 12/5/18


सूरज की साँझ तले


सूरज की साँझ तले ,
 नया सबेरा गढ़ते है ।
 गिरकर जो फिर उठ ,
 भोर तले चल पड़ते हैं ।

 जीवन पथ के अवसादों से ,
 निर्भीक सदा रहा करते हैं ।
 कंटक पथ पर चलकर जो ,
 नव चेतन सृजन करा करते है ।

धेय्य यही बस बढ़ते रहना ,
 वो विश्राम कहाँ करते हैं ।
 वो सूरज की साँझ तले ,
 फिर नया सबेरा गढ़ते हैं ।

   ..... विवेक दुबे"निश्चल"@..

गुरुवार, 10 मई 2018

अपनी अपनी मर्ज़ी

अपनी अपनी मर्जी  ।
अपना अपना मन  ।

 बदली के छा जाने से ,
 आता नही सावन । 

 धरती भींगे वर्षा बूंदों से ,
 भींगे न फिर भी मन ।

 फूलों के खिल जाने से ,
 खिलता नही गुलशन ।

  तप्त धरा अंगारों सी ,
 शीतल फिर भी रही पवन ।

 मधु मास के आने से ,
 आता नही यौवन ।

  जन्मा जीवन की खातिर ,
  लेकर जन्मों के बंधन ।

 एक राह रुक जाने से ,
  रुका नही जीवन ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@....

कलम चलती है शब्द जागते हैं।

सम्मान पत्र

  मान मिला सम्मान मिला।  अपनो में स्थान मिला ।  खिली कलम कमल सी,  शब्दों को स्वाभिमान मिला। मेरी यूँ आदतें आदत बनती गई ।  शब्द जागते...