कुछ खास नहीं कवि पिता की संतान हूँ । ..... निर्दलीय प्रकाशन भोपाल द्वारा बर्ष 2012 में "युवा सृजन धर्मिता अलंकरण" से अलंकृत। जन चेतना साहित्यिक सांस्कृतिक समिति पीलीभीत द्वारा 2017 श्रेष्ठ रचनाकार से सम्मानित कव्य रंगोली त्रैमासिक पत्रिका लखीमपुर खीरी द्वारा साहित्य भूषण सम्मान 2017 से सम्मानित "निश्चल" मन से निश्छल लिखते जाओ । ..... . (रचनाये मौलिक स्वरचित सर्वाधिकार सुरक्षित .)
सोमवार, 12 जून 2017
पहचान
अपनों में हो पहचान गैरो में मेरी नही ।
हाँ हूँ मैं आम तासीर खास मेरी नही ।
रह जाऊँ अपनों में कुछ पल याद ,
याद आऊँ ज़माने को चाह मेरी नही ।
दायरा खो बे-दायरा हो जाऊँ ,
यह तबियत होती मेरी नही ।
मेरे अपने ही सहारा हो मेरे ,
गैरो के सहारों की नियत नही ।
रहूँ मशहूर अपनों में ख़ुदा सदा ,
गैर-ओ-निग़ाह शोहरत मंशा मेरी नही ।
..... विवेक दुबे"निश्चल"@ ...
परिंदा
उड़ता है परिंदा आकाश में
संग संग सूर्य के प्रकाश में
उठता है धीरे धीरे ऊपर
मन में भरे एक विश्वास से
नहीं अहम अहंकार कोई
चलता संग हवाओं के निज भाव से
... विवेक ..
बेगुनाही
तेरी बेगुनाही से क्या फर्क पड़ता है ।
सुबूत ही हर गुनाह को गढ़ता है ।
बजह तलाश करो बेगुनाही की ,
ग़ुनाह करने से फर्क़ नही पड़ता है ।
.... विवेक ..
जिंदगी
लम्हा लम्हा गुज़रती ज़िन्दगी ।
क़तरा क़तरा कटती ज़िंदगी ।
हालातों से हारती ज़िंदगी ।
हौंसलों से जीतती ज़िंदगी ।
जीत कर हारती ज़िंदगी ।
हार कर जीतती ज़िंदगी ।
उलझती ज़िंदगी से ज़िंदगी ।
न समझ ज़िंदगी से ज़िंदगी ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@..
ज़ख्म
ज़ीवन के इस पड़ाव पर।
तिनको से बिखराब पर ।
ज़ख्म मिलते हर दिन नए,
कुछ अन सूखे घाव पर ।
चलती फिर नर्म हवा ,
बनता ज़ख्म दोहराब पर ।
सूख न पाया पिछला ही ,
मिलता नया जख़्म घाव पर ।
अभी ज़ख्म था नही भरा ,
मरहम लगाने के भाव पर ,
वो खुरच गए फिर ज़ख्म बही
दे गए ज़ख्म नया घाव पर ।
..... विवेक दुबे "निश्चल"@...
धीर बनो गम्भीर बनो
धीर बनो गम्भीर बनो ।
सागर का तुम नीर बनो ।
लुटती हो मर्यादाएं जब जब ,
द्रोपती का तुम चीर बनो ।
देनी हो प्रेम प्यार की परिभाषा ,
तब तब राधा की पीर बनो ।
धीर बनो गंभीर बनो .....
आते सुख दुःख जब तब ,
सुख की न तासीर बनो ।
दुःख को भी अपना लो ,
सुख की न जागीर बनो ।
पीकर गरल हलाहल सारा ,
अमृत की तुम तासीर बनो ।
धीर बनो गंभीर बनो ,
सागर का तुम नीर बनो ।
..... विवेक "निश्चल"@......
सागर का तुम नीर बनो ।
लुटती हो मर्यादाएं जब जब ,
द्रोपती का तुम चीर बनो ।
देनी हो प्रेम प्यार की परिभाषा ,
तब तब राधा की पीर बनो ।
धीर बनो गंभीर बनो .....
आते सुख दुःख जब तब ,
सुख की न तासीर बनो ।
दुःख को भी अपना लो ,
सुख की न जागीर बनो ।
पीकर गरल हलाहल सारा ,
अमृत की तुम तासीर बनो ।
धीर बनो गंभीर बनो ,
सागर का तुम नीर बनो ।
..... विवेक "निश्चल"@......
हालात
एक विश्वास ही आस है ।
वक़्त वक़्त के साथ है ।।
हँसता हूँ मैं अपने ही हालात से ।
कब तक लड़ूँ अपने ज़ज्बात से ।
हाथ उठते नही अब खैरात में ।
पाकर तंज अपनों के,
बहार हुआ अपनी ही जात से ।
मुझ पर तेरा अहसान सा है ।
तू मुझ अंजान को जानता सा है।
मानता हूँ दूरियाँ बहुत है मगर ,
दिल में तेरे मेरा अरमान सा है ।
चुप रहो ख़ामोश रहो ।
दोषी को निर्दोष कहो ।
असत्य सत्य जो जाए ,
सत्य कैसे तब सिद्ध करो ।
..... विवेक ....
ज़िन्दगी
समझ न सका ज़िंदगी को जो
चलता रहा साथ ज़िंदगी के जो
कभी रुसवाईयाँ कभी ग़म मिले
कभी खुशियों के फूल चमन खिले
क्या कहूँ अब मैं ज़िंदगी तेरे वास्ते
उम्र कट गई तुझे तलाशते तलाशते
..... विवेक ....
चुप रहो ख़ामोश रहो
बिक रहे है बे-भाव अब
बिके नही जो कभी तब
चुप रहो ख़ामोश रहो
दोषी को निर्दोष कहो
असत्य सत्य जो हो जाए
कैसे तब सत्य सिद्ध करो
अंधो को राह दिखाए कौन
बहरों को पाठ पढ़ाए कौन
चलते जो लाठी टेक टेक
उनको मंज़िल पहुँचाए कौन
मस्त हुए सत्ता के प्याले पी
आँख खुली को जगाए कौन
... विवेक ...
पोस्ट 12/6/17
सौदे
जमीं हमारी देश हमारा
भूल हुई जो दिया सहारा
आए थे सौदागर बनकर
छुपे हुए हमलावर दल
कर बैठे सौदे उस ईमान के
लाल हम जिस देश महान के
होकर परतन्त्र ग़ुलाम हुए तब
सदियाँ बीतीं आजादी पाने में
आज़ाद हुए जाकर हम तब
आए फिरंगी फिर भेष बदल कर
सौदे होते कुछ बैसे ही फिर अब
.... विवेक ....
वो
पूछने चला था अंधेरों से वो,
साथ उजालों के तुझे क्या मिला ।
जो समेट कर दामन को अपने ,
उजालों को बिखर जाने दिया ।
.... विवेक ...
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कलम चलती है शब्द जागते हैं।
सम्मान पत्र
मान मिला सम्मान मिला। अपनो में स्थान मिला । खिली कलम कमल सी, शब्दों को स्वाभिमान मिला। मेरी यूँ आदतें आदत बनती गई । शब्द जागते...