रविवार, 31 दिसंबर 2017

सच्चे प्रयास

प्राप्त सब सच्चे प्रयास से ।
उन्नति है मेहनत के हाथ में ।
हारते हैं वो जो चलते नहीं,
मंज़िल आती चलने के बाद में। 

    न हारना अपना हौंसला तू कभी,
  चातक, जीता है दो बूंद की आस में।
 आती है जीतकर किरण भोर की ,
  हराकर अंधेरों को रात के बाद में ।
 .....
 क्या जाने गुलाब खुशबू की तासीर  ।
 खिलता आया है जो औरों के लिए।
    साहिल को ही सागर हाँसिल है ।
    जो सहता सागर की हलचल है 
.... 
 उम्र के इस पड़ाव पर।
  इश्क़ के अलाव पर।
  सिकतीं यादें प्यार की,
  अहसास के कड़ाव पर ।
  .... 

आशा के सागर से दो बूंद चुरा लाओ ।
 आओ तुम भी साहिल पर आ जाओ ।
 लकीरें मुक्कदर की बदलती नहीं।
फिर भी लोग तक़दीर गड़ा करते हैं ।
 ....
सिमट रही कला काव्य की ,
विषय नही व्यापक कोई । 
डूबे सब अपने आप में, 
देश सुध नही पावत कोई ।
 ..
 जिंदगी को तरसते सब
 वफ़ा को तड़फते सब 
  चहरे छिपाए सब अपने 
  नक़ाब में घूमते आज सब
 ...
  निश्चल एक आस है ।
   आस ही प्रभात है ।
           चलते रहें यूँ ही हम,
            जीवन एक प्रयास है ।
 ... 
  
  उसकी वेदना बड़ी भारी थी ।
   जिसकी भूख एक लाचारी थी ।
   बीनता था जूठन वो बचपन , 
   और निगाहें उसकी आभारी थीं ।

 आये थे जहाँ साँझ को,
 है वहाँ से अब लौटना ।
 सफ़र न था उम्र भर का ,
   तू न जरा यह सोचना ।
  ....
अर्चन बंदन वो गठबंधन शब्दों में।
 प्रणय मिलन वो शब्दों का शब्दों में ।

 भावों के धूंघट में  नव दुल्हन से ,
  हर काव्य रचा एक नव चिंतन में ।

शब्द बिके अब सत्ता के गलियारों से ।
 कैसे ढूँढे अब सूरज को उजियारों में ।

कलम दरवान बनी दरवारों की ,
 चलती है सिक्कों की टंकारों में ,


 हिस्से हैं जो जगते इतिहासों के ,
  मिलें नही अब सोती साँसों में ।

  सिद्ध साधना वो आवाज़ों की ,
  सुफल नही अब प्रयासों में ।

    शब्द बिके अब सत्ता के गलियारों में ।
    कैसे ढूँढे अब सूरज को उजियारों में ।
   -----       ----     -----
जो हिस्सा है इतिहास का । 
नही था वो कल आज सा ।
 साधना थी वो शब्दों की,
 नही था वो प्रयास आज सा । 
... *विवेक दुबे "निश्चल''*©..
...
   खोया अपने आप में 
 उलझा कुछ हालात में 
 मिज़ाज़ कुछ नरम गरम
 खोजता मर्ज-ऐ-इलाज़ मैं 
  ....
 ठीक नही अब कुछ
 बिगड़ चला अब कुछ 
 जीता था लड़कर जो
 थक हार चला अब कुछ 
  ...
 लिखता था जो हालात को ।
 कहता था जो ज़ज्बात को।
 बदलता गया समय सँग सब ,
 बदल उसने भी अपने आप को ।
 .....
 मन विश्वास हो स्नेहिल आस हो ।
 तपती रेत भी शीतल आभास हो ।
 जीत लें कदम दुनियाँ को तब,
 हृदय मन्दिर प्रभु कृपा प्रसाद हो  ।
 ....
 जिंदगी मिली जरा जरा ।
 जी  लें हम जरा जरा ।
 बाँट लें ग़म जरा जरा।
 बाँट दें ख़ुशी जरा जरा ।

  .... "निश्चल" *विवेक*©...

हालात

क़ुदरत के सन्नाटे थे ।
 हालात के आहाते थे ।
 चलता चाँद जमीं संग ,
  दूरियों के पैमाने थे ।
........
लिखता था जो हालात को ।
 कहता था जो ज़ज्बात को।
 बदलता गया समय सँग सब ,
 बदला उसने भी अपने आप को ।
....
हँसता हूँ मैं अपने ही हालात से  ।
 कब तक लड़ूँ अपने ज़ज्बात से ।
पाकर तंज अपनों के ,
बहार हुआ अपनी ही जात से ।
  ....  
दर्द आँखों से पिया करते है
 दर्द होंठों पर सिया करते है 
 कलम उठती है हर बार और
 खुशियाँ ही बयां किया करते है
   ...
लाख छुपाया ज़माने से अपने आप को ।
 पर चेहरा बयां कर गया मेरे हालात को ।
  सोचा निगाहें झुका कर ख़ामोश रहूँ ,
  सिलवटें उजागर कर गईं हर बात को ।
   .... 
 एक दर्द बयाँ होता है तेरी बात से ।
हारता है क्यों तू वक़्त के हालात से ।
 वो भी गुजर गया यह भी गुज़र जाएगा ।
 बच न सका कोई वक़्त के इन हाथ से ।
 ठहर जरा सब्र कर अपने हालात पे ,
 संवरेगा फिर वक़्त तुझे अपने ही हाथ से ।
 तपता है गुलशन है मौसम के मिज़ाज़ों से ,
 सजाता है फिर बही अपनी ठंडी फ़ुहारों से ।
 ..... विवेक दुबे "निश्चल".....

सबक जिंदगी के

..... सबक ज़िन्दगी के...

जो छूट जाता है ।
वो सिखाती है ।
जिन्दगी ......
किताबो के नहीं ।
कुछ किस्मत के ।
कुछ कर्मो के ।
सबक पढ़ाती है ।
जिन्दगी ....

 अभी कुछ घंटो की दूरी है।
 इस वर्ष की संध्या नही डूबी है।
...विवेक दुबे "निश्चल" ...

शनिवार, 30 दिसंबर 2017

इतिहास लिखें

 इतिहास लिखें न हम कल का।
 इतिहास लिखें हम कल का।
 राह बदल दें हम सरिता की,
  सत्य लिखें हम पल पल का।
  ...
 सत्य की सुगंध हो, होंसले बुलंद हों।
 जीत लें असत्य सभी,इतना सा द्वंद हो ।
 ....
 सीखता है वो अपनी हर भूल से।
 खिलता फूल मिट्टी की धूल से।
  .... 
 बिकती है कलम भी,
 सत्ता के गलियारों में ।
 जय चंद समाये है ,
इन पहरे दारों में ।
 बाँट दिए है दिल से दिल,
 इनके जज़्बाती नारों ने ।
 घात लगा हमले होते, 
 सीमा के पहरे दारों पे। 
 देश नही दुनियाँ दिखती,
 इनको अपने यारों में।
 भूख बेवसी बेकारी सब,
 मिट रही बस नारों से ।
  बिकती है कलम भी,
 सत्ता के गलियारों में।
  .... "निश्चल" विवेक  दुबे..

शाश्वत सत्य

शाश्वत सत्य यही,
विधि विधान यही ।
 मिलता मान सम्मान,
 होता अपमान यहीं।
  इस काव्य विधा के मधुवन में,
 असल नक़ल की पहचान नही।
 ...
 संत चले अब सत्ता पथ पर।
ऊँट बैठे जाने किस करवट।।
  ...
 विषय है शोध का,स्वर खो रहा विरोध  का।
 पुतला था ठोस सा,हो रहा क्यों मोम सा ।
.....
 इतिहास लिखें न हम कल का।
 इतिहास लिखें हम कल का।
 राह बदल दें हम सरिता की,
  सत्य लिखें हम पल पल का।
  ...
 सत्य की सुगंध हो, होंसले बुलंद हों।
 जीत लें असत्य सभी,इतना सा द्वंद हो ।
 ....
 सीखता है वो अपनी हर भूल से।
 खिलता फूल मिट्टी की धूल से।
  .... "निश्चल" विवेक दुबे...

उड़ान

उड़ना चाहो आप जो, 
 पँख दियो फैलाए ।
पँख नही हों उधार के, 
 पँख अपने लगाए । 
 ....
 जीत है कभी हार है ।
 जिंदगी एक श्रृंगार है ।
 बंधी प्रीत की डोर से,
 यह नही प्रतिकार है ।
   ..... 
 ज़िंदगी जब भी तेरा ख्याल आता है ।
 यूँ अहसास बनकर तू पास आता है।
 जीता हूँ यूँ कुछ पल जिंदगी के मैं ,
  जिंदगी कभी तुझे मेरा ख्याल आता है ।
 .... 
शिकायतें
कोई खरीदता ही नहीं 
 सोचा मुफ्त में दे दूँ इन्हें
 मुफ़्त में लेता नहीं कोई 
 सहेजता हूँ अब खुद ही इन्हें।
   .... 
 मिलता नहीं हमें हम सा कोई ,
 यह बेदर्द दुनियाँ ज़ालिम बड़ी है।
...."निश्चल" विवेक दुबे..

समय

हाँ समय बदलते देखा है ।
सूरज को ढ़लते देखा है ।
 चन्दा को घटते देखा है ।
 तारों को गिरते देखा है ।
 हाँ समय बदलते देखा है ।
 हिमगिरि पिघलते देखा है ।
 सावन को जलते देखा है ।
 सागर को जमते देखा है ।
 नदियां को थमते देखा है ।
 हाँ समय बदलते देखा है ।
 खुशियों को छिनते देखा है ।
 खुदगर्जी का मंजर देखा है ।
 अपनों को बदलते देखा है ।
 हाँ समय बदलते देखा है ।
 नही कोई दस्तूर जहां , 
  ऐसा दिल भी देखा है । 
 नजरों का वो मंजर देखा है ।
 उतरता पीठ में खंजर देखा है ।
 हाँ समय बदलते देखा है ।
...."निश्चल" विवेक दुबे..

मुड़ जातीं हैं धाराएँ

मुड़ जाती हैं धाराएं भी ,
 टकराकर पत्थरों से ।
 बदल जाती है ज़िंदगी भी,
 मिलकर अनजाने अपनों से। ।
 .....
 सफ़र ज़रा मुश्किल था ।
 वो पत्थर नही मंज़िल था ।
 निशां न थे कहीं क़दमों के ,
 हौंसला फिर भी हाँसिल था ।
 .... 
वादों के शूलों से ज़ख्म क़ुदरते हैं ।
 वो कुछ यूँ मेरे जख्म उकेरते हैं।
 ....

मानस की सहना नियति , सहती अत्याचार ।
 चुप रहती सहती सतत,करे नहीं प्रतिकार ।।
 ....."निश्चल"विवेक दुबे...

चाँद

एक आस है उस चाँद की तलाश है ।
 एक प्यास है यह चाँद ही अहसास है ।
        ....
 वो इठलाता है आसमां पे ।
 एक चाँद है जो आसमां पे ।
 उतरता नहीं कभी जमीं पे ।
  शर्माता है क्यों सुबह से ।
  ..
आया चंद्र पूर्व के छोर से ।
  देखूँ मैं साजन की ओट से ।
   बाँध अँखियन के पोर से ।
   मन हृदय विश्वास डोर से ।

चौथ चंद्र खिला है ,
 निखरा निखरा है ।
 एक चंद्र गगन में ,
 एक मन आँगन में।
  जीती है जिसको वो,
  पल पल प्रतिपल में।
   श्रृंगारित तन मन से,
   प्रण प्राण प्रियतम के । 
     देखत रूप पिया का,
    चंद्र गगन अँखियन से।
 ...."निश्चल" विवेक दुबे...

जीवन संगनी तू

...... जीवन संगनी  ....

   रागनी तू अनुगामनी तू।
   राग तू अनुरागनी तू ।
               चारणी तू सहचारणी तू।
               शुभ तू शुभगामनी तू।
  नैया तू पतवार तू ।
  सागर तू किनार तू ।
               प्रणय प्रेम फुहार तू ।
               प्रकृति सा आधार तू ।              
 प्रीत का प्रसाद तू ।
 सुखद सा प्रकाश तू ।     
             खुशियों का आकाश तू।
            "विवेक"का विश्वास तू ।
 ...."निश्चल" विवेक दुबे...

व्यवस्था

   *ॐ* हृदय रखिए ,
 *ॐ* करे शुभ काज ।
 *ॐ* श्रीगणेश है,
 *ॐ* शिव सरकार ।
  .....।

 नैतिकता पढ़ी कभी किताबों में ।
  नैतिकता मिलती नही बाज़ारों में ।
  सुनते आए किस्से बड़े सयानों से,
  यह मिलती घर आँगन चौवरो में ।
  ...... 
 बून्द चली मिलने सागर तन से ।
 बरस उठी बदली बन गगन से ।
 क्षितरी बार बार बिन साजन के ।
 बहती चली फिर नदिया बन के ।
 एक दिन *बून्द प्यार की* जा पहुँची ,
 मिलने साजन सागर के तन से ।
....... 
 तन्हा वक़्त छीन रहा बहुत कुछ ।
 हँसी लेकर वक़्त दे रहा सब कुछ ।
  .....
राह चलत कभी ऐसा भी हो जात ।
 *तनु* सो सरल मित्र मिल जात।
 करत सदा सम्मान हृदय मन से ,
 जो गहरी हृदय मन पैठ जमात ।
  .....
 वो लालसा बड़ी न्यारी जागी थी ।
 सौंपी अपने घर की चाबी थी ।
 लालच में आकर हमने जिसको ।
 उसने ही की चोरों की सरदारी थी ।
  ....
जीवन रेखा रेल भी हारी है ।
 यह जाने कैसी लाचारी है ।
 हो रही बे-पटरी बेचारी है ।
 राजशाही व्यवस्था पर भारी है ।
....."निश्चल" विवेक दुबे..

सपने

  सपनो का सत्य कैसा।
 सत्य को डर कैसा ।
 चल निडर डगर पर,
 देखें होता है असर कैसा।
 ....
  देखना न सपने कभी ।
  सपने सच होते नही ।
 चल डगर पर कर्म की,
 कर्म निष्फ़ल होते नही ।

वो भी आस पुरानी है ।
प्यास अब बेमानी है ।
  कुछ अपने सपनो सँग 
 मृग मरीचिका सी जिंदगानी है।
...."निश्चल" विवेक...

 .

कलम

हम नही जानते तारीख़ 
स्याही संग क्या कहती है ।
 जानते इतना वो अपना 
रास्ता ख़ुद तय करती है ।
 स्याही क़लम सँग 
चलती है चल पड़ती है ।
 तारीखें लिख तारीखें 
बदल दिया करती है ।
.....
            दिल जब भर आता है,
           आँखों में सैलाब आता है ।
           कलम उठती है हाथ में
           शब्दों से तूफ़ान आता है ।।
...



                कवि देखता दुनिया को,
                 दुनिया की नजर से ।
                 कवि को देखती दुनिया,
                  सिर्फ अपनी नजर से ।।
                    ...विवेक दुबे...

      .

वो लालसा

वो लालसा बड़ी न्यारी जागी थी ।
 सौंपी अपने घर की चाबी थी ।
 लालच में आकर हमने जिसको ।
 उसने ही की चोरों की सरदारी थी ।
  ....
कर सांठ गांठ अपनो से वो।
 खेले अपनो के सपनो से वो ।
 दिखा मधुर दिवा स्वप्न सलोने ,
 कहते हमसे अपना होने को वो ।
  ....
जो जीतता है वो इतिहास लिखता है।
 सत्य इतिहास यूँ ही बार बार मिटता है।
 तोड़ता है कलम कानून फैसले के बाद,
 जो दिखता है कानून तो वो ही लिखता है ।
   ....
राजनीति के पटल पर,
आज कुछ नया हो गया।
 न बन सका जो पति कभी,
 आज देश का पिता हो गया ।
   ....
सह रहे सहते आये है।
सह लेंगे सहते जाएंगे ।
 हँसकर जख्म मिटायेंगे,
 ज़ख्म नये पाते जाएंगे ।
...
न जाने कैसा वक़्त हो गया।
 हर जुमला जात पे ठहर गया।
  जंग ज़ुबानी तलवार से पैनी,
 चुनाव मैदान-ऐ- जंग हो गया ।
  हो रहीं पार हदें आज सारी ,
  जुमला विकास कहीं खो गया ।
  भूख सत्ता की है बड़ी भारी,
  भूँखा तो भूखा ही सो गया । 
     ......
हो जाए कुछ तक़रार कर लें थोड़ी राजनीत आज ।
 शब्दों को पकड़ें लपक लपक तोड़ें मरोड़ें झपट झपट।
 मौसम छाया चुनाव का मत की उड़ी फुहार ।
  आरोपों की हो बरसात जीतें या हो जाए हार ।
  ...
कानून सोता रहा देश रोता रहा ।
 सुनाया फरमान जैसे कोई अहसान ।
बुझी  मेहनतकश की चूलें की आँच ।
 सफेद पोश पर न आई आँच । 
 आया सारा धन धना धन वापस ,
 मलते रह गए वो अपने हाथ ।
 काला भी हो गया सफेद सभी ।
पाई उच्चता ओर भी  उच्च ने।
 मध्यम की छीनी बिछौने से खाट 
 निम्न धसा धरातल में 
 दो रोटी को करता दो दो हाथ ।
 अच्छे दिन की एक अच्छी वो शुरुवात ।
   .... 
नालायक भी लायक हो गए।
 पनीर पकौड़े पालक हो गए । 
 राजनीत के ऐसे हालत हो गए ।
 धर्म जाति में सब खो गए। 
  .....
   विरोधाभास ही तो शेष है ।
   अब बचा नही कुछ विशेष है।
   अच्छे दिन की आस में ,
   तड़फता सारा आज देश है ।
        ... विवेक दुबे .....

तुम हुँकार भरो

गरजो तुम हुँकार भरो ।
सिंहो सा तुम नाद करो ।
 झुका नही कभी हिमालय ,
 जाओ शँख नाद करो ।
  
 हवन हुए बलि वेदी पर , 
 सदियों से हम ।
पहले तुम भारत का ,
जाओ  इतिहास पढों  ।

 झुकें नही कट जाएँगे, 
माता की तो लाज बचाएंगे ।
 पृथ्वी पोरस प्रताप शिवा , 
हम बन जाएंगे ।

 रूप धरेगी जब नारी चंडी सा,
 तीनों लोक थर्राएँगे ।
  होगा शँख नाद अर्जुन सा ,
 कृष्ण सारथी बन जाएंगे ।

 झुके नही भारत वासी ,
 सबक सभी को सिखलायेंगे ।
 मातृ भूमि के रक्षा यज्ञ में ,
 यज्ञ हवि से स्वाहा हो जाएंगे ।
  ....... विवेक दुबे ......©...

कुछ प्रश्न

प्रश्न उनका हमसे ...
 सपनों का भारत कैसा हो ? 

 एक प्रश्न हमारा उनसे ...

 देख सकें स्वप्न यामनी संग,
    बैसा आज सबेरा तो हो  ।
.....

जो मिट रहा है उसे सम्हालो पहले ।
 अन्न दाता को       बचा लो पहले ।
 अनिष्ट के संकेत     साफ साफ हैं ।
  पहले वो ......       फिर आप हैं ।
.....
आज महंगाई बनी डायन है ।
 खाली थाली सूना आँगन है ।
 बुझे बुझे दिये दीवाली के ,
 सूना सूना अब सावन है ।
  टूट रहे स्वप्न सितारों जैसे,
  चन्दा से भी अनबन है ।
  भोर तले सूरज ऐसा ,
 जैसे करता संध्या बंदन है ।
  निशा अंधियारी ऐसी छाई,
 दिखती नही प्रभात किरण है ।
 मंहगाई के बोझ तले दबे ऐसे ,
  महँगा जीवन मरण सरल है ।
.....
फेंको तुम औद्योगिक कचरा खूब नदी समन्दर में ।
 कहते हो गणपति विसर्जन करना है घर अंदर में ।
 फैलता है प्रदूषण कुछ मूर्तियों के विसर्जन से ,
 क्या अमृत घुला है उद्योगों के कचरा उत्सर्जन में ।
   .... 
किसान कर रहे आत्महत्या , चढ़ा इतना ब्याज है ।
 हैरान है अन्नदाता आसमां से भी अब गिरती गाज है ।
 हर दिन होतीं बेपटरी रेलें तनिक नही अहसास है  
ला रहे बुलेट ट्रेन वो ,इस पर उन पर नाज है । 
  घूम घूम रहे हम दुनियाँ भर में,नही तनिक भी लाज है । 
 40 हज़ार हैं पुनर्वास के इंतज़ार में अब भी ,
 सरदार सरोवर पर होता जश्न-ऐ-आगाज़ आज है ।
  सत्ता के मद में आती नही तनिक भी लाज़ है ।

विवेक दुबे "विवेक".......

अपनी माटी अपना देश

उस माटी में मिल जाओ
 उस पानी में घुल जाओ 
 न भटको दूर कभी न जाओ 
 जिस माटी पानी से पोषण पाओ 
  .... 

शेष नहीं अब आज समर्पण,
होता है कुछ शर्तों पर गठबंधन ।
 रिश्ते नाते सूखे तिनकों से ,
एक चिंगारी से जलता घर आँगन ।
   ...
 आओ मिलकर गीत बनाएँ
 शब्दों से कुछ संगीत सजाएँ 
 हो जाए थोड़ी सी हाँ या न 
 अहसासों को आभास बनाएं 
....
बंट गए हम धर्म और जात में।
 ईस्वर तो एक है हर किताब में।
   .... 

हालातो की हसरत एक यह भी है ।
 कुछ सवालों के जवाब जरूरी भी हैं ।
 यकीं है मुझे तुझ पे यकीं करो मुझ पे भी ,
 जीतता है सच क्यों हालात से डरते हो ।
   ...
  .... विवेक दुबे "विवेक"©रायसेन .......

वीर जवान तुम्हे नमन

गुरुवार, 25 फ़रवरी 2016
शत्रु का संहार करो


नही तनिक भी मेरी परवाह करो
 शत्रु आ छुपे जब मेरे पीछे तब
तुम पहले मुझ पर ही प्रहार करो
 करो करो बस शत्रु का संहार करो
--
रविवार, 14 फ़रवरी 2016
नमन नमन तुम्हें नमन

( वीर जवान तुम्हे अर्पित श्रद्धा सुमन)
.......
नहीं चली थी कोई गोली
फिर भी
वो सुहागन विधवा हो ली
खोया माँ ने लाल
अनाथ हुआ नौनिहाल
.
पूछो पूछो उनसे एक सवाल
अपनी सुख सुविधा पर
खूब लुटाते हो
अपने लिए हर सुख सुबिधा जुटाते हो
.....
माँ के इन सच्चे बेटों को
तुम क्या इतना कर पाते हो
जो आज भी जुगाड़ से
अपने हथियार चलाते हैं
.....
सज़ल नयन करते नमन
मेरे यह श्रद्धा सुमन
अर्पित करता मैं श्रद्धांजलि
नमन नमन कोटिशः नमन
....
सिंगर चले सँवर चले ।
माथे बाँध कफ़न चले ।
मातृ भूमि के रण बाँके ,
युद्ध समर संग्राम चले ।
विश्व शांति के रक्षक ।
सर्वजन हिताय के पक्षक ।
विश्व शांति की खातिर ,
काँधे संगीन तान चले ।
ले हाथों में जान चले ।
युद्ध समर संग्राम चले ।
…. 
सिंदूर उजड़ते , सूनी राखी ।
 सूनी कोख , छाया की लाचारी ।
 कुटिल नीतियाँ सत्ता की ।
 सैनिक की छाती गोली खाती ।
 .... विवेक दुबे रायसेन © .....



शुक्रवार, 29 दिसंबर 2017

कड़े फैसले

गुरुवार, 7 जनवरी 2016
कड़े फैसले

आज कड़े फैसले लेने होंगे,
कुछ अनचाहे निर्णय लेने होंगे।
करते जो छद्म वार ,बार बार हम पर ।
मांद में घुस कर, वो भेड़िये खदेड़ने होंगे ।
आज कड़े फैसले .....
 अब न समझो ,न समझाओ।
 अब तो ,आर पार हो जाओ।
 जाकर दुश्मन के द्वार,
 ईंट से ईंट बजा आओ।
 आज कड़े....
 कितना खोयें अब हम,
 अपनी माँ के लालों को।
 कितना पोछें और सिंदूर हम,
 अपनी बहनों के भालों से।
 सूनी आँखे ,सुना बचपन,
 ढूंढ रही पापा आएंगे कल।
 देखो उस अबोध बच्ची को,
 कांधा देती शहीद पिता की अर्थी को।
 आज कड़े ....
यूं चाय पान से कोई माना होता ।
तब धनुष राम ने न ताना होता ।
चक्र कृष्ण ने भांजा होता ।
बन जाओ राम कृष्ण तुम भी।
 जागो अब भी ,चेतो अब भी देर नहीं
 उठा धनुष चढ़ा प्रत्यंचा, दे टंकार कहो ,
 दुश्मन तेरी अब खैर नहीं ।
 आज कड़े फैसले लेने होंगे ....
    ...."निश्चल" विवेक दुबे.........



दुबे विवेक पर 12:24 am
साझा करें

किस किस के बक़ाब उतारोगे

किस किस के नक़ाब उतारोगे ।
 अपनों को ही गैरत से मारोगे ।
 लगा मुखोटे बैठे सिंहासन पर ,
 तुम अपनों से ही फिर हारोगे ।
   
..... 

राजनीत की कमान से मज़हब के तीर हटाना होगा ।
 राष्ट्र बचाना होगा मानबता को जगाना होगा ।। 
 चलते सब एक राह एक ही पथ पर ।
 पग से पग पग पग मिलाना होगा ।
 मुड़ती अपनी अपनी हर राहों को ।
 राष्ट्र भक्ति के चौराहे से मिलना होगा ।
  राष्ट्र बचाना होगा मानबता को जगाना होगा ।।
   ..

एक गुलामी की फिर आहट 
रहीं नही किसी को आज़ादी की चाहत
ईमान जहा बिकते हों 
महंगे सामान इंसान जहा सस्ते हों
हर मजहब के भगबान जहा बिकते हों
मुर्दों की सी बस्ती में
आज़ादी की सजती हर दिन अर्थी हो 
केसी आशा क्या अभिलाषा 
छाई चारों और निराशा
      .
हे माँ भारती

आतंक के साये में तू सिसक रही माँ।
सुलग रही छाती तेरी धधक रही माँ ।
तेरे वारिसो की रोटियां सिक रही माँ।
आजाद भगत सुभाष फिर जनना होगा माँ।
तब ही कोटि कोटि जन का भला होगा माँ।
 आजादी का अर्थ हरा भरा होगा माँ।
     .
मातृ भूमि तुझे प्रणाम

हे मातृभूमि तुझे प्रणाम ।
वीर शहीदों से ही हो मेरे काम ।।
मैं भी आ जाऊँ माँ तेरे काम ।
तेरी सीमाओं का रक्त से अपने अभिषेक करूँ ।।
तेरी माटी को अपने शीश धरूँ ।
प्रण प्राणों से हो रक्षा तेरी ऐसा एक काम करूँ ।।
तुझको तकती हर बुरी नजर के सीने में बारूद भरूँ ।
हे मातृ भूमि तुझे प्रणाम करूँ ।।
वीर शहीदों जेसे मैं भी कुछ काम करूँ ।
 तेरे कदमो में अपने प्रण प्राण धरूँ ।।
       .....जय हिन्द ......
         ....."निश्चल" विवेक दुबे.....

स्वार्थ की नितियाँ

स्वार्थ की नीतियों तले ,
 दब गए सारे परमार्थ ।
 खाते फूँक फूँक कर,
 हम अब वासी भात ।
.
शेष नही अब आज समर्पण,
होता है कुछ शर्तों पर गठबंधन ।
 रिश्ते नाते सूखे तिनको से ,
एक चिंगारी से जलता घर आँगन ।
   ..
तेल देखो तेल की धार देखो ।
 साँस साँस में व्यापार देखो ।
  बचा नही रक्त शिराओं में ,
 डूबी नैया किनार देखो ।
.
सियासत की बिसात पर ।
  चलते चाल हर बात पर  
  प्यादों की क्या बात करें ,
  राजा भी लगते दाव पर ।
   ..
जब जब हमने मुद्दे उठाये।
तब तब सबके हित आड़े आये ।
 समझे न सब हमें या ,
 हम सबको समझ न पाये।
.
मानवता हुई तार तार ऐसे ।
 दनाब ने श्रंगार किया जैसे ।
  सूर्पनखा खरदूषण घूम रहे वन वन,
 राम नही अब त्रेता जैसे ।
 प्रतिकार करें तो कैसे ।
  ..... "निश्चल" विवेक दुबे ....
      

बुधवार, 27 दिसंबर 2017

हसरतें देतीं रहीं दस्तक

हसरतें देतीं रहीं दिल में दस्तक ।
समंदर का सफ़र रहा समंदर तक।

 मचलीं मौजें अरमान की कभी,
 बिखरीं साहिल पे बिखरने तक । 

 गुजरी ज़िंदगी अपने अंदाज़ में।
 गुजर गई ज़िंदगी गुजरने तक । 

 हारता न था जो कभी हालात से,
 लड़ता रहा खुद से वो जीतने तक।

 ज़श्न मनाएँ क्या जीत का वो,
 उम्र गुजर गई जब जीतने तक।

समंदर का सफ़र रहा समंदर तक।
...."निश्चल" विवेक दुबे...


तिमिर से तम का सफर

तिमिर से तम का सफ़र करता रहा ।
 उजालों से जाने क्यों मैं डरता रहा ।
 देख कर रुसवाईयाँ ज़माने की ,
 सफ़र "निश्चल" तन्हा करता रहा 
   .... "निश्चल" विवेक दुबे...




शनिवार, 23 दिसंबर 2017

कुछ ख्याल


हराकर उम्र को शौक पाले थे, बड़े शौक से ।
 बुझ गए चिराग़ लड़ न सके,अंधेरों के दौर से।

दिए आईने ने हमे सहारे हैं।
 हुए आईने के जब हवाले हैं ।
  सहारा दे सच के दामन का,
 झूठ के सारे नक़ाब उतारे हैं।

झूठ कुछ भी नही।
 सच कुछ भी नही।
 सब ख़्याल हैं ख़यालों के,
  रब के सिवा कुछ भी नही।

शमा जली अंधेरों की कमी है।
 देखें हवा किधर को चली है।
  
झूठ कुछ भी नही।
 सच कुछ भी नही।
 सब ख़्याल हैं ख़यालों के,
  रब के सिवा कुछ भी नही।


  छूटता है कुछ छूट जाने दो ।
 रूठता है कोई रुठ जाने दो ।
 बहुत सहेजा मैंने रिश्तों को ,
  अब तो कुछ जी जाने दो ।

  ..... "निश्चल" दुबे विवेक ...

पौष मास के जाड़े


यह पौष मास के जाड़े।
यह अलसाए से भुंसारे।
      
  निकल पड़ा वो चौराहों पर,
  सोचे प्रुभ कुछ जुगत भिड़ा दे।

   मिल जाए कोई काम कहीं,
   अपने पेट की आग बुझा ले।

 मौसम कभी कोई असर नही ,
 गर्मी वर्षा चाहे हो यह जाड़े ।

 भाव बेदना शून्य हुई उसकी ऐसे,
 जैसे हिम कण से पाला पड़ जावे।

 मिल जाए कुछ अन्न उसे ,
 झट से अपने उदर उतारे ।

 हो जाए तन मन चेतन ,
 फिर क्या गर्मी क्या जाड़े ।

...."निश्चल" विवेक दुबे..

शब्द बिके सत्ता के गलियारों से



आज शब्द बिके सत्ता के गलियारों में ।
आज कैसे ढूँढे सूरज को उजियारों में ।

अर्चन बंदन वो गठबंधन शब्दों सा ।
 प्रणय मिलन वो शब्दों से शब्दों का ।

 भावों के धूंघट में शब्द दुल्हन सा ,
  हर काव्य रचा एक नव चिंतन का ।

 कलम दरवान बनी दरवारों की ,
 चलती है सिक्कों की टंकारों में ,

जो हिस्सा है इतिहास का । 
नही था वो कल आज सा ।
 साधना थी वो शब्दों की,
 नही था वो प्रयास आज सा । 
... *विवेक दुबे "निश्चल''*©...

उजाला


उजाला जब भी चला है,
 अंधेरों ने छला है 
 रोशनी की चाह में ,
सूरज तो जला ही जला है ।
  .... "निश्चल" विवेक दुबे ©....


राम नही तो क्या होगा


प्रहार नही होगा तो क्या होगा ।
 जीवित इतिहास नही तो क्या होगा ।
 समझो गौरव को भारत के तुम ,
 अवध में श्री राम नही तो क्या होगा ।
  ...."निश्चल"विवेक...

सियासत की बिसात

सियासत की बिसात पर ।
  चलते चाल हर बात पर ।
  प्यादों की क्या बात करें ,
  राजा भी लगते दाव पर ।
   .... 


 राजनीति की कमान से,
 मज़हब के तीर हटाना होगा ।
 राष्ट्र बचाना होगा ,
 मानबता को जगाना होगा ।। 
 चलते सब एक राह एक ही पथ पर ,
 पग से पग मिलाना होगा ।
 मुड़ती अपनी अपनी हर राहों को ,
 राष्ट्र भक्ति के चौराहे पर लाना होगा ।
  राष्ट्र बचाना होगा ,
   मानबता को जगाना होगा ।।
   ..... विवेक दुबे"निश्चल"@....

चलता मैं तपती राहों पे


कदम तले काँटे बिखरे मखमल के ।
आघातों से जख्म मिले हल्के हल्के ।

 चलता हूँ निर्जन मरु वन में मैं,
 धोखे बार बार मधु वन के मिलते । 

 हारी नही अभी जिंदगी फिर भी, 
 घूँट हलाहल के घूँट घूँट मिलते ।

 चलता मैं पथिक तपती राहों पर,
 वृक्ष घने हरे भरे नही अब मिलते ।

   .... ...... विवेक दुबे"निश्चल"@ ....

भूख की पीड़ा


विषय ... भूख की पीड़ा


1-
   वेदना उसकी बड़ी भारी थी ।
   भूख जिसकी एक लाचारी थी ।
   बीनता था जूठन वो बचपन , 
   और निगाहें उसकी आभारी थीं ।

2-
 भूख दौलत की बढ़ती गई,भूख रोटी की घटती गई ।
 रोटी की फ़िक्र में जो ,कमाने निकला था कभी ।।
3
 कलम चली है बस कुछ ही शब्दों पर ,
लेखन को शब्दों में न बाँध सके कोई ।
 कलम पीड़ा भूखी सदा शब्दों   की ,
  शब्दों से पार पा सके न कभी कोई ।

4
भूख नही तो जग न होता ।
 तब कोई रिश्ता न होता ।
 हर रिश्ता जन्मा पीड़ा से,
 पीड़ा से मन भूखा होता ।

 5
 भूख नही तो पीड़ा कैसी ।
  हर रिश्ता हर दौलत कैसी ।
   जगती है भूख जब मन मे,
  तब रुकने की चाहत कैसी ।

6
 चलता है तू *निश्चल* भाव से,
 फिर मन यह पीड़ा है कैसे।
  भूख जो न होती शब्दों की ,
 फिर यह कलम उठती कैसे ।
  
7
भूख रहे अधरन पे ,प्यास रहे मन मे ।
 कलम कहे सब कुछ,बहुत कम शब्दन में ।।
  
  .... विवेक दुबे "निश्चल''....

दो मुक्तक


  देखता हूँ निग़ाह भर उसे।
   एक वो है नज़र मिलता नही।
    तूफ़ां मैं कहूँ उसे कैसे,
    साहिल से वो टकराता नही।
...  "निश्चल" विवेक  ...

हसरतों का समंदर है ।
 तूफ़ां जिसके अंदर हैं।
 निग़ाह उठा देख तो सही,
  निग़ाह तेरी मुंतज़र है।
 ..."निश्चल" विवेक...

नाखून


विषय- नाखून


कुछ ज़ख्म कुदेरता मैं ।
 नाखूनों से घेरता मैं।
 उस रिसते मवाद को ,
 नाखूनों पर फेरता मैं।

    नाखूनों में पशुता साथ लिए अपनी,
    धर्म जात की,लकीरें खिंचता मैं। 
    नख डुबाता पुराने ज़ख्म में फिर ,
     नाखूनों को जतन से सींचता मैं।

  बटवारे के जख्म नासूर बने,
  इन नाखूनों के अहसान बड़े।
    काटता नही कभी इन्हें में,
     यही तो मेरे हथियार बने। 

  ...."निश्चल" विवेक दुबे...

नाखूनों से तो अब चरित्र उधेड़े जाते हैं।
 गोरी चमड़ी तो सफेद उजाले खा जाते हैं। 
 भरते दम अधम आश्रमो के अंदर,
 बाबा भी अब भोगी कहलाते हैं।
   करते श्रंगार अनछुए यौवन का ।
 कौमार्य गुरु दक्षिणा में पाते हैं।
  इंद्रप्रस्थ की नाक तले देखो,
 भोग आश्रम खुल जाते हैं।
...."निश्चल"विवेक ....

शुक्रवार, 22 दिसंबर 2017

क़तरा क़तरा ज़िन्दगी

 क़तरा क़तरा ज़िंदगी ,
तनहा तनहा ज़िंदगी   ।
ख़ुशियों से सरोबार ज़िंदगी ,
ग़म के समन्दर में डूबती ज़िंदगी ।

 फेर के जाल में उलझी ज़िंदगी ,
जाल फ़रेब से दूर ज़िंदगी ।
अपने में ही सिमटती ज़िंदगी ,
अपनों के पास आती ज़िंदगी ।

सबसे दूर जाती ज़िंदगी ,
सब के पास आती ज़िंदगी ।
अपमान से शर्मशार ज़िंदगी ,
सम्मान से सर उठती ज़िंदगी ।

हर रंग में रंगी ज़िंदगी ,
कटती है ज़िंदगी ।
फिर वापस न आने के ,
अहसास दिलाती ज़िंदगी ।
....विवेक दुबे"निश्चल"@.....

लौट आया मैं

लौट आया मैं अब अपने ही शहर में।
अज़नबी सा हूं मग़र अपने ही शहर में ।।
सुबह भी अचरज से घूरती मुझे ।
वो अब कोई गैर मानती मुझे ।।
शाम भी तार्रुफ़ से देखती मुझे ।
वो भी अज़नबी अब जानती मुझे ।।
 हवाएं भी पता पूछती हैं मुझसे मेरा।
परिंदे कहें अज़नबी कौन है बता जरा ।।
खोजता हूं उन राहों को ।
 फैलाऊ जहा अपनी बांहों को ।।
खोजूं मैं दर-ब-दर उन चाहों को ।
समेटने खोल दें जो अपनी बाँहों को ।।
 लौट आया हूं मैं अब अपने ही शहर में ।
 अज़नबी सा हूं मग़र अपने ही शहर में ।।
        .....विवेक......

आजाओ घनश्याम


तू आया तब था ।
नष्ट हुआ सा जब सब था ।
तू तो तब सब सुधार गया था ।
न भय न भृष्टाचार रहा था ।
तू ने पाप व्यभिचार मार दिया था ।
 गीता से सब को तब तार गया था ।
समय बदला युग बदला ।
आये फिर दानब लेने बदला ।
आज फिर मचा कोहराम ।
बही कंस बकासुर पूतना कौरव ।
करते अत्याचार सरे आम ।
धरती कांपी अम्बर डोला ।
हुआ त्रस्त हर इंसान ।
 बहुत हुआ पाप अनाचार ।
अब तो आ जाओ तुम ।
 धनश्याम ....
 ...विवेक...

राधिका


राधिका मन सी मैं प्यासी
बन कृष्ण सखा की दासी
रच जाऊं मन मे
बस जाऊं नैनन मे
मिल जाऊं धड़कन मे
 छा जाऊं चितवन मे
 न भेद रहे फिर कोई
 इस मन मे उस मन मे 
    ...विवेक...


कलम चलती है शब्द जागते हैं।

सम्मान पत्र

  मान मिला सम्मान मिला।  अपनो में स्थान मिला ।  खिली कलम कमल सी,  शब्दों को स्वाभिमान मिला। मेरी यूँ आदतें आदत बनती गई ।  शब्द जागते...