शनिवार, 8 सितंबर 2018

जलधमाला छंद

*जलधरमाला छंद*

विधान~
[मगण भगण सगण मगण]
(222   211  112  222)
12 वर्ण,4 चरण,यति 4,8
दो-दो चरण समतुकांत]


आता जाता हर दिन ही राहों में ।
खोता जाता मन मन की बातों में ।
 रोकें राहें कुछ अहसासों से ये ।
मीठा नाता कुछ कुछ वादों से ये ।
..

... विवेक दुबे"निश्चल"@...

492
 आओ यारा घुन एक कोई गाओ ।
 यारा मेरे सुख मय बातें लाओ ।
 रातें बीतें खुश खुश साथी आओ ।
 यादों का है मधुवन आ भी जाओ ।


डायरी 3/5

रूप माला छंद

रूप माला छंद
विधान:~
           24 मात्रा 14,10मात्रा पर यति चरणान्त 21
4चरण क्रमागत 2-2चरण समतुकांत

आ जाओ फिर मधुसूदन ,
                  पुकारें सब आज ।
प्रकटो धरा फिर से तुम,
                 रखने धरम लाज ।
अनाथ भये सभी भू पर ,
                 बस तुम एक नाथ ।
चीर बढ़ाओ कृष्णा का ,
                बन सखा से साथ ।
... विवेक दुबे"निश्चल"@...
डायरी 5(132)

जलधर माला छंद

जलधरमाला छंद*

विधान~
[मगण भगण सगण मगण]
(222   211  112  222)

 कान्हा बैठा , मचल यशोदा गोदी ।
 रूठी वा से , नटखट राधा छोरी ।
 पूछे भोला , बनकर मैं तो श्यामा ।
 राधा काहे , लगत सलोनी गोरी ।

डूबा  है ये ,  नभ झरते पानी से ।
 भींगी सारी , अचल धरा पानी से ।
 धोता जाता , धुलकर नादानी को ।
 आता लाता , भरकर वो पानी को ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@...

डायरी 5(131)

आओ कान्हा

 आओ कान्हा,
        दया दिखाओ कान्हा ।

छाओ चित में,
        मोहे न बिसराओ कान्हा ।

करुण पुकार सुनो मेरी,
      तुम कृपा बरसाओ कान्हा ।

हार रहा मन मन के हाथों,
      तुम राह दिखाओ कान्हा ।

 जीत सकूँ स्वयं स्वयं के आगे ,
    स्वयं को हर ले जाओ कान्हा ।

 नयन बिलोकत पल छिन पल छिन ,
    सखी सी प्रीत निभाओ कान्हा ।

भाव भरे यह मन भीतर गहरे ,
    गोपी सा रास रचाओ कान्हा ।

 गीत गढूं नित नित तेरे ,
    अधरन प्यास बुझाओ कान्हा ।

 विनय यही बस लाज रखो मेरी ,
"निश्चल"को न बिसराओ कान्हा ।

आओ कान्हा, दया दिखाओ कान्हा ।
छाओ चित में,मोहे न बिसराओ कान्हा ।

आओ कान्हा दया दिखाओ कान्हा ।
दुःशासन से लाज बचाओ कान्हा ।

 मूक भीष्म द्रोण बिदुर सभी ,
 चक्र सुदर्शन चलाओ कान्हा ।

... विवेक दुबे"निश्चल"@..
डायरी 5(134)


शुक्रवार, 7 सितंबर 2018

वंदना

वंदना .


  हे माँ ज्ञानदा ज्ञान दो ,
   शब्दों का वरदान दो ।

   दूर रहूँ अभिमान से ,
  लेखन का स्वाभिमान दो ।

  चलता रहूँ सत्य के पथ पर
  एक ऐसा पथ भान दो ।

 हे माँ ज्ञानदा ज्ञान दो ।
 शब्दों का वरदान दो ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@..

माधव आए थे

माधव आए थे तुम तब ,
नष्ट हुआ सा था जब सब  ।

सुधार गए थे तुम तब सब ,
भय भृष्टाचार नही रहा था तब  ।

तुमने पाप व्यभिचार मार दिया सब ।
गीता से सब को तार दिया था तब ।

समय बदला युग बदला जब ।
आये फिर बदला लेने दानव अब।

 आज मच रहा कोहराम फिर अब।
 कंस पूतना कौरव फिर छाए अब ।

कर रहे अत्याचार सरे आम सब ।
धरती कांपी अंबर भी डोला अब ।

  त्रस्त हुए धरा पर मानव सब  ।
  बहुत हुआ पाप अनाचार अब ।

  आ जाओ तुम धनश्याम।
  करुण पुकारे हर आम ।
  
   विश्व शांति की लाज बचाने ,
   कर जाओ फिर एक संग्राम ।

    ...विवेक दुबे "निश्चल"...
डायरी 5(133)

घुँघरू

विषय-- घुँघरू

आशाओं संग अभिलाषाओं से हारी है ।
नित् नए स्वप्न सजा दुल्हन सी साजी है ।

हो रहे पग घायल , पग घुँघरू बाँधे बाँधे , 
घुँघरू की थिरकन पर घुँघरू सी बाजी है ।

ताल मिले नहीं मिले कभी थिरकन पर ,
जिंदगी आशाओं संग रक्कासा सी नाची है।

बुझ रहे दिये जलकर रातो को रातों में ,
भोर दूर बड़ी यह रात अभी बाँकी है ।

टूट गिर धरा पर मचले कुछ घुँघरू 
घूंघर घूंघर में भी थिरकन झांकी है ।

आशाओं संग अभिलाषाओं से हारी है ।
नित् नए स्वप्न सजा दुल्हन सी साजी है ।

.... विवेक दुबे"निश्चल@...
डायरी 5(139)

अक्सर कुछ ऐसे ही

अक्सर कुछ ऐसे ही ,
 बात बात के अर्थ बदलते ।

 साज साज पे साजों के ,
  ज्यों संगीत बदलते ।

 बात बात में बात बदलते ,
 गीतों में ज्यों राग बदलते ।

  चलते सब जीने की ख़ातिर ,
  चलते चलते  राह बदलते ।

 रिस्ता रिस्ता रिसता सा ,
 बूंद बूंद के नाम बदलते ।

 अक्सर कुछ ऐसे ही ,
 बार बार हालात बदलते ।

 ... विवेक दुबे"निश्चल"@...

*पति पत्नी के बीच होते हर* *संवाद को रेखांकित* *करती एक रचना ।*
डायरी 5(138)


बिंदु सिंधु होता सा

  बिंदु सिंधु होता सा ।
  सिंधु जल खोता सा ।

 टूटें बूंद बूंद बादल से ,
 नीर नीर धरा बोता सा ।
  
बिंदु सिंधु होता सा ।
  सिंधु जल खोता सा ।

 निशि श्यामल आँचल में ,
 विधु निहार पिरोता सा ।

बिंदु सिंधु होता सा ।
  सिंधु जल खोता सा ।

 छुपकर दिनकर में  ,
 ताप लगे सलोना सा ।

बिंदु सिंधु होता सा ।
  सिंधु जल खोता सा ।

"निश्चल" रहे नहीं कोई ,
 समय समय खिलोना सा ।

... विवेक दुबे"निश्चल"@..
डायरी 5(537)

सत्ता की चाहत

उबल रहा पयोधी ,
 अपने ही जल से ।

खेल रहे आज सभी ,
अपने ही कल से । 

सत्ता की चाहत ने ,
कैसा स्वांग रचाया है ।

लूट रहे सभी यहाँ ,
भाई भाई को छल से ।

प्रश्न वही अधूरे अब भी ,
 प्रश्न अधूरे है जो कल से ।

सिद्ध वही प्रसिद्ध वही है ,
शिखर पता है जो छल से ।

 भोर लिए दिनकर आता है  ,
 मिलता साँझ तले तल से ।

 तारों की झिलमिल छुपती है ,
  नव प्रभात से मिल के ।

 भानु क्यों इतना तपता है  ,
 ढलता तू भी जल जल के ।

.... विवेक दुबे "निश्चल"@....
डायरी 5(136)

आज का परिदृश्य

वो किसी के लिए तो वफ़ादार है ।
मेरे क़ातिल तो यहाँ मेरे ही यार है ।

  नही आब से भरे अब्र कोई ,
  ये तो धुएँ के ही सब गुवार है ।

गढ़ते रहे कशीदे शान में कभी ,
अब जरा भी नही इख़्तियार है ।

 छूकर बुलंदियाँ आसमाँ की ,
 नशा शोहरत उन्हें बेशुमार है ।

खा गए कसमें दिल-ओ-जान की,
आज तल्ख़ निग़ाह-ऐ-इज़हार है ।

 घेरता रहा वक़्त सलवटों से चेहरा
 यूँ हुआ वक़्त से अब एक करार है ।

   खिंची निगाहें सख़्त अंदाज़ है ।
 "निश्चल" क्युं जमाने से इंकार है ।
  
.... विवेक दुबे"निश्चल"@....

आज का परिदृश्य
डायरी 5(135)

कलम चलती है शब्द जागते हैं।

सम्मान पत्र

  मान मिला सम्मान मिला।  अपनो में स्थान मिला ।  खिली कलम कमल सी,  शब्दों को स्वाभिमान मिला। मेरी यूँ आदतें आदत बनती गई ।  शब्द जागते...