तु हुनर बाँटना अपने ही तरीक़े से ,
शागिर्द ही उस्ताद हुआ करते है ।
....विवेक दुबे"निश्चल"@....
हुनर वो नही जो लेना जाने ।
हुनर वो है जो देना जाने ।
....विवेक दुबे"निश्चल"@..
हौंसलो से हुनर, मुक़ाम पता है ।
मुसाफ़िर अकेला , थक जाता है ।
...विवेक दुबे"निश्चल"@..
तहज़ीब ही हुनर-ए-तमीज़ है ।
यूँ तो इंसान बहुत बदतमीज है ।
...विवेक दुबे"निश्चल"@..
मैं कौन हूँ जमाना तय क्या करेगा ।
मेरा हुनर ही तो मेरा आईना होगा ।
...विवेक दुबे"निश्चल"@..
वक़्त बड़ा हुनरदार है ।
सबसे बड़ा किरदार है।
करता है हिसाब सबका,
रखता नही कभी उधार है ।
...."निश्चल"@..
एक उम्र दराज , नजर रखता हूँ ।
दिल जोड़ने का , हुनर रखता हूँ ।
मैं न हाकिम हूँ , न हक़ीम कोई ,
दिल से दिल का,असर रखता हूँ ।
......विवेक दुबे"निश्चल"@..
मैं आईने सा हुनर, पा, न पाया ।
जो सामने आया, दिखा, न पाया ।
मैं छुपाता रहा, अक़्स, दुनियाँ के ,
मैं ख़ुद को ख़ुद में, छिपा, न पाया ।
....निश्चल"@.
एक राह मुसलसल तू चला चल ।
राह की ठोकरों से तू मिला चल ।
न कर गुमान हुनर के गुरुर पर ,
तू होंसले रास्तों को दिला चल ।
माना नही मंजिल नसीब में उसके ,
इरादों को तू उसके न हिला चल ।
...."निश्चल"@..
वो इल्म क्यूँ भार सा रहा ।
वो हुनर से ही हारता रहा ।
क़तरे थे आब के आँखों मे ,
वो खमोश नज़्र निहारता रहा ।
...."निश्चल"@...
यूँ हुनर से हुनर पाता गया ।
जो वो मेरे पास आता गया ।
भूलता रहा रंजिशें दुनियाँ की ,
वो इश्क़ का हुनर सिखाता रहा ।
दो कदम पीछे हुनर से हटाता रहा ।
यूँ हर ख़्वाब टूटने से बचाता रहा ।
न जीता कभी जंग में जिंदगी की ,
यूँ न हार कर मैं ज़श्न मनाता रहा ।
...."निश्चल"@...
समझ सका न मैं ज़िंदगी तेरी चाल को ।
हुनर नही मुझ में देने अपनी मिशाल को ।
समझ ही नही रही जब मुझ को मेरी ही ,
समझेगा क्या जमाना तब मुझ बेहाल को ।
...."निश्चल"@...
लिख न सका जवाब,
उन सवालों के सामने ।
गुम होते गए हालात ,
जो ख़यालों के सामने ।
लेकर चला तौफ़ीक़-ए-हुनर ,
अपने ईमान से ,
होता ही गया लाचार ,
कुछ मिसालों के सामने ।
गढ़ता ही रहा जो उजाले,
अंधेरों से लड़कर ,
चोंधियाती रहीं वो निगाहें ,
उन उजालों के सामने ।
चलता ही चला वक़्त सा,
वक़्त के हालात से ,
ठहर न सका अपनी ही,
निहालों के सामने ।
...विवेक दुबे"निश्चल"@...
तौफ़ीक़/
शक्ति, सामर्थ्य/हिम्मत, हौसला/दैवकृपा।
निहाल/सन्तुष्ट/सफलताएं
..... विवेक दुबे"निश्चल"@..
बहुत कुछ कहा ,कुछ कह गया ।
हर्फ़ हर्फ़ किताबों से, बह गया ।
पलटता रहा सफ़े जिंदगी के ,
हर हुनर निग़ाहों में रह गया ।
देखता रहा मासूमियत चेहरा ,
और उनवान उम्र ढह गया ।(भूमिका)
लाया ना कोई सच जुबां पर ,
हर ज़ुल्म इंसाफ़ सह गया ।
कर ना सकी बयां जुबां जिसे ,
"निश्चल" वो जज्बात हर्फ़ कह गया ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@....
चेहरे ही बयां करते है,
इंसान के हुनर को ।
नजरें ही पढा करतीं हैं ,
हर एक नज़र को ।
क्यों इल्ज़ाम फिर लगाएँ ,
इस मासूम से ज़िगर को ।
दिल झेलता है फिर भी,
दर्द के हर कहर को ।
चेहरे ही बयां करते हैं ,
इंसान के हुनर को ।
शब्दों ही ,ने उलझाया ,
शब्दों के असर को ।
मिलें सब जिस नज़र में ,
कहाँ ढूंढे उस नज़र को ।
मासूमियत ने देखो ,
किया ख़त्म , हर असर को।
चेहरे ही बयां करते हैं ,
इंसान के हुनर को ।
....विवेक दुबे"निश्चल"@..
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थक न तू , हार न तू ।
अपने हुनर को बिसार न तू ।
धर होंसले को काँधे अपने ,
होंसला कांधे से उतार न तू ।
तू चाँद है अम्बर का ।
तू सूरज है नील गगन का ।
तू झोंका है मस्त पवन का ।
तू नीर है सागर के तन का ।
चला चल न रोक ,अपने कदम को ।
मन्ज़िलें बेचैन हैं तेरे आगमन को ।
....विवेक दुबे "निश्चल"@...
चुप रहने का भी ,
हुनर सिखाती आँखे।
चुप रह कर भी,
सब कह जातीं आँखे।
शब्द गुंजातीं साँसों में ।
नज़र आते आँखों में ।
उठती पलकें ,गिरती पलकें ।
भींगी पलकें, सूखी पलकें ।
शून्य में कुछ लिखती आँखें।
भावों को बरसाती आँखें ।
.....विवेक दुबे"निश्चल"@ ...
BLog post 14/10/23