बुधवार, 26 दिसंबर 2018

इस दुनियाँ का होकर देख लिया ,

 चलती राहों का एक मुहाना होना है ।
 गहरी रातों का भोर सुहाना होना है ।

इस दुनियाँ का होकर देख लिया ,
चल अब तुझको खुद का होना है ।

 अहसासों की इन उलझी डोरों में ,
 डोर कोई अब नई नही पिरोना है ।

जीवन के मनके मन के धागों से ,
अब जीवन मन में ही पिरोना है ।

चल अब तुझको खुद का होना है ।

अहंकार के इस बियावान वन में ,
अब स्वाभिमान तुझे संजोना है ।

हार रहा तू नाते रिश्ते चलते चलते ,
जीत तले स्वयं को स्वयं का होना है ।

इस दुनियाँ का होकर देख लिया ,

राग नही हो कोई द्वेष नही मन में ,
अब राग रहित ही तुझको होना है ।

खोकर दुनियाँ को दुनियाँ में ही ,
अब ख़ुद को ख़ुद में ही खोना है ।

भटक रहा जो मन चलते चलते ,
"निश्चल"मन अब तुझको होना है ।

इस दुनियाँ का होकर देख लिया ,
चल अब तुझको खुद का होना है ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@...



चल आ महफ़िल में ,

 686

चल आ महफ़िल में ,
  कुछ वक़्त बिताते हैं ।

  सुनते है तुझको,
  कुछ गीत सुनाते है ।

गुनते है गजलें तेरी ,
नज़्म नई हम गाते है ।

 चल रख चलते है , 
  शब्दों को भाव तले ,

 शब्दों की सरगम से,
 भावों के साज सजाते है ।

 महफ़िल में रहे नही,
 कुछ भी पीछे मन के ,

 इस साँझ धुंधलके में ,
 मन परदे आज उठाते है ।

अपने भावों के प्याले ,
 शब्दों से हम भरकर ,

 चल साँझ तले ,
 जाम हम टकराते हैं ।

चल आ महफ़िल में ,
कुछ वक़्त बिताते हैं ।

....विवेक दुबे "निश्चल"@...
डायरी 6(97)

साथ रहा जो किनारा सा ।

685

एक साथ रहा जो किनारा सा ।
कश्ती का रहा वो दुलारा सा । 

लौटती तूफ़ां से टकरा अक्सर ,
साहिल का मिलता सहारा सा ।

रहता है जब भी ख़ामोश समंदर ,
लहरों को साहिल ने पुकारा सा ।

 मचलकर दामन में किनारों पर ,
 साहिल को लहरों ने निखारा सा ।

जलती है जमीं तपन से अपनी , 
प्यास की ख़ातिर उसे पुकारा सा ।

 बरस कर आसमा से उसने  ,
"निश्चल"कर्ज जमीं उतारा सा ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@...
डायरी 6(96)

सच हर किसी को बताया नही जाता ।

687

सच हर किसी को बताया नही जाता ।
बे-बजह कहीं मुस्कुराया नही जाता ।

मेरे न आने की शिकायत न करना ,
बिन बुलाये कहीं जाया नही जाता ।

माना के हैं बड़ी रौनकें तेरी इस महफ़िल में ,
यूँ मगर सामने से शमा को उठाया नही जाता ।

बह कर जाने दे आँख अश्क़ क़तरों को ,
रोककर इन्हें निग़ाह में सताया नही जाता ।

कहता हूँ हर ग़जल खुशियों की ख़ातिर,
दर्द दिल में अब और बसाया नही जाता ।

लूटती ही रही मुझे दुनियाँ अहसानों से ,
ईमान कोई मुझसे अब लुटाया नही जाता ।

छूटता नही दामन भलाई का "निश्चल"
सिला नेकी का असर ज़ाया नही जाता ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@...
डायरी 6(89)

वो दिन भी कितने खुदी के थे ।


वो दिन भी कितने खुदी के थे ।
जब थोड़े से हम खुद ही के थे ।

होती मुलाक़त अक़्सर खुद से ,
लम्हे लम्हे ज़ज्बात ख़ुशी के थे ।

मुस्कुरातीं थी वो तनहाइयाँ भी ,
जो थोड़े से हम हुए दुखी से थे ।

खोये थे ख़ुद ही ख़ुद में हम ,
तब रंज नही कहीं तजंगी के थे ।

परवाह नही थी कल की कोई ,
बे- फिक्र हम जो जिंदगी से थे ।

उठते थे हाथ चाहत बगैर के ,
कुछ यूँ आलम बन्दगी के थे ।

अरमां न कोई पहचान के वास्ते
फाकें भी वो उम्र सादगी के थे ।

  थी नही शान अहसान की कोई 
 "निश्चल"दिन नही तब रजंगी के थे ।

... विवेक दुबे"निश्चल"@....

एक धूल भरा दिनकर सा ।
अस्तित्व हीन सा कंकर सा ।
खोज रहा ख़ुद को ख़ुद में ,
अन्तस् मन स्वयं पिरोकर सा ।


कलम चलती है शब्द जागते हैं।

सम्मान पत्र

  मान मिला सम्मान मिला।  अपनो में स्थान मिला ।  खिली कलम कमल सी,  शब्दों को स्वाभिमान मिला। मेरी यूँ आदतें आदत बनती गई ।  शब्द जागते...